शीर्षक = आज्ञाकारी बेटा
ज़ब मेरे ससुर जी का देहांत हो गया था उसके कुछ दिन बाद ही घर का बटवारा होने लगा था कहने को मेरी सास अभी जिन्दा थी लेकिन उन सब के बावज़ूद घर में बटवारे की बात ने तूल पकड़ ली थी।
और फिर एक दिन ऐसा आया की मेरे पति और उनके भाइयों ने मिलकर जो भी कुछ था सबका बटवारा कर लिया अब उस घर में रहना मुश्किल सा हो गया था एक तो वो छोटा बहुत था उसी के साथ मेरे पति के अलावा उनके दो छोटे भाई और भी थे जिनकी भी शादी हो चुकी थी और उनका भी अपना परिवार था
इस वजह से उस छोटे घर को किसी एक को देना ही सही सौदा था नही तो फिर किसी और को बेच कर सब अपने अपने हिस्से के पैसे लेकर चले जाते
वो घर जहाँ कहने को मेरी भी बहुत सी यादें थी आखिर कार मेरा ग्रह प्रवेश उसी घर में ही तो हुआ था और मेरे दोनों बच्चें भी तो उसी घर में आये थे उनकी भी बहुत सी यादें जुडी थी
उसी के साथ मेरी सास ने भी अपनी सारी जवानी उसी घर में बितायी थी लेकिन अब शायद उस घर को छोड़ने का समय आ गया था क्यूंकि तीनो भाइयों में से किसी के पास भी इतना पैसा नही था कि कोई उसकी कीमत बाकि दोनों भाइयों को चुका देता मेरे पति की भी छोटी सी नौकरी थी उस पर दो बच्चें एक लड़का और एक लड़की उन्हें अच्छी परवरिश देना भी तो हमारा ही काम था।
आखिर कार अच्छे दामों में वो घर बिक गया सबको बराबर का पैसा मिल गया लेकिन अब एक समस्या थी की माँ किसके पास रहेगी क्यूंकि सबने अपनी अपनी साहूलियत के हिसाब से घर ले लिया था किसी का दूर था तो किसी का कोसो दूर मेरे पति जो की घर के बड़े बेटे थे और अपने माता पिता के आज्ञा कारी बेटे भी उन्होंने बिना किसी से कुछ राय मशवरा लिए बिना ही माँ का हाथ थामा और बोले घर को तो मैं नही बचा सका बटवारे से लेकिन माँ को मैं बटने नही दूंगा घर का बड़ा बेटा होने के नाते माँ मेरे साथ ही रहेगी चाहे तो तुम लोग उनसे मिलने आ सकते हो या फिर वो भी तुमसे मिलने जा सकती है।
ये कहना था उनका दूर ख़डी मेरी दोनों देवरानीयों के चहरे पर एक मुस्कान सी झलक आयी एक मुसीबत जो उनके ऊपर से टल गयी थी मुझे तो अपने पति के इस फैसले पर बहुत गुस्सा आया था एक तो उनकी तनख्वाह भी इतनी नही थी ऊपर से हमारे भी दो बच्चें थे जो की बड़े हो रहे थे बाकि देवरों के तो अभी बच्चें भी छोटे है और वो कमा भी अच्छा लेते है माँ उनके पास अच्छे से रह सकती थी बुढ़ापे की वजह से आये दिन बीमार भी रहती थी पता ही नही कौन सी धुन में इतना बड़ा फैसला कर लिया था मेरे पति ने
उस समय तो मैंने बर्दाश्त कर लिया था क्यूंकि अभी तो नए घर में भी जाना था वहाँ का रेहन सहन भी देखना था लेकिन मैं चुप बैठने वालो मैं से नही थी आज नही तो कल अपने श्रवण कुमार पति को समझा बुझा कर माँ को देवरों के हवाले करवा ही देती क्यूंकि हमारा ही गुजारा मुश्किल से हो पाता था पहले तो सब साथ थे तो सब मिल बाट कर कर लिया करते थे अब तो उन्होंने सारी जिम्मेदारी अपने सर ही ले ली थी।
कुछ दिन गुजर गए थे घर सही था हम सब का मन लगने लगा था पर ना जाने क्यू मेरी बूढी सास मेरी आँखों में हरदम खटकती रहती मुझे लगता था कि मेरी देवरानिया सही रही वो आराम से अपने अपने घरों में अकेले राज कर रही है बिना किसी रोक टोक के बिना किसी सास के रोक टोक के और यहां मैं अपने श्रवण कुमार पति की वजह से फ़स गयी हूँ
उनका आज्ञा कारी बेटा बनने के चककर में मेरे घर का बजट बिगड रहा था उनके बाकि बेटों ने तो आकर भी नही पूछा की माँ केसी है और एक ये है कि ज़ब तक माँ को अपने हाथ से खाना और दवाई नही खिला देते खुद एक निवाला नही खाते थे
एक दिन तंग आकर मैंने कह ही दिया " माँ का कुछ सोचा आपने "
तब वो बोल पड़े " किस बारे में "
"यही की उनकी दवा दारू सब आप ही कर रहे हो उनके बाकि दोनों बेटों को भी कुछ एहसास दिलाओ बोलो उनसे की माँ को कुछ दिन अपने पास रखे या सिर्फ आप ही उनके आज्ञा कारी बेटे बनकर रहना चाहते हो " मैंने कहा।
ये सुन वो बोल पड़े " ये फैसला तो मैंने उस दिन ही कर दिया था कि माँ मेरे साथ रहेगी अगर वो मिलना चाहे या वो उनसे मिलना चाहे तो कोई रोक टोक नही है अगर वो नही माँ से मिलना चाहते है तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ, और शायद माँ को भी उनकी याद नही आती है वरना वो मुझसे कह देती "
"इसका मतलब माँ अब हमेशा यही रहेगी ठीक कहा ना मैंने " मैंने कहा गुस्से से।
"हाँ, और कहा जाएगी माँ बेटे के घर नही रहेगी तो फिर कहा जाएगी " मेरे पति ने कहा।
"ठीक है फिर, माँ की ही देखभाल करो अपनी सारी तनख्वाह उनके ही हाथ मैं जाकर रखो मैं जा रही हूँ मायके जानते हुए भी कि आपकी चिड़िया के दाने जितनी तनख्वाह है उस पर आपके खुद के भी दो बच्चें है एक बेटा है एक बेटी है कल को उसकी शादी करनी है बेटे को पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा करना है और उस पर आपने माँ को भी अपने साथ रख लिया उनकी दवाएं उनका भी खर्चा अब आप पर ही है " मैंने गुस्से से कहा
लेकिन वो गुस्सा न करते हुए प्यार से बोले " देखो शीतल वो मेरी माँ है, जिस तरह हमें अपने बच्चों की परवाह है वैसे ही उन्हें हमारी भी थी ज़ब उनका समय था तो उन्होंने किया अब हमारा समय है और मैं तुमसे कुछ कब कह रहा हूँ उनके लिए कुछ करने को, मैं हूँ उनका बेटा ज़ब तक जिन्दा हूँ मैं उनकी देखभाल करूँगा धन और मन दोनों से "
"मन से ही कर सकते है आप धन तो आपके पास है ही नही, आपके बाकि दोनों भाई आराम से अपने बीवी बच्चों के साथ मजे में है मैं पहले भी जेठानी होने की वजह से पिसती थी अब भी पिस रही हूँ सोचा था बटवारा हो जाएगा तो थोड़ा सुकून मिल जाएगा चार पैसे बच जाया करेंगे लेकिन नही आपने तो मुझसे मेरी वो ख़ुशी भी छीन ली माँ को ही परमानेंट अपने पास रखने का फैसला ले लिया " मैंने गुस्से में कहा था।
इस बार भी वो मुस्कुराते हुए बोले " चिंता क्यू करती हो भाग्यवान? ये मैं तुम्हारे लिए ही तो कर रहा हूँ और अपने लिए
मुझे लगा कि शायद माँ के पास कुछ खजाना होगा जिसके बारे में इन्हे पता होगा शायद इसलिए ही माँ को अपने साथ लाये होगे
लेकिन इस बार भी मेरी उम्मीदों पर पानी फेर दिया ज़ब मैंने उस सवाल का जवाब पूछा कि किस तरह मेरा और आपका फायदा होगा माँ को अपने साथ रखने पर
उन्होंने जवाब में कहा तुम जानती हो मेरी माँ के तीन बेटे है उसके पास रहने के लिए कोई ना कोई ठिखाना है अगर मैं नही रखूँगा तो दूसरा भाई रख लेगा वो नही रखेगा तो कुछ दिन को तीसरा भाई रख लेगा इस तरह वो कही न कही रहकर अपना गुजारा कर ही लेगी
लेकिन क्या तुमने अपने बारे में सोचा है हमारा एक ही बेटा है और एक ही बेटी है, जिसे शादी के बाद अपने पति के घर चले जाना है तुम और मैं बेटे के ही आसरे पर आ जाएंगे क्यूंकि मैं भी कब तक कमाऊंगा आज नही तो कल थक जाऊंगा इसलिए ही तो अपने बेटे को पढ़ा लिखा कर तालीम दिलाऊंगा ताकि वो हमें बुढ़ापे में संभाल सके
अब तुम बताओ ये सब उसे कौन समझायेगा मैं और तुम ही ना, अगर मैं आज अपनी माँ की देखभाल करूँगा उसका ख्याल रखूँगा उसका आज्ञा कारी बेटा बन कर उसकी सेवा करूँगा तब ही तो कल को मेरा बेटा ये सब देख कर बड़ा होगा और उसे लगेगा की हाँ जिस तरह पापा ने दादी को संभाला था उसी तरह मैं भी संभालूंगा यही तो एक फर्ज़ होता है बेटे का
अगर मैं भी माँ को छोड़ देता अपने दोनों भाइयों के आसरे पर तो मैं अपने बेटे से भी यही उम्मीद करता की वो भी एक दिन हमें यूं ही छोड़ देगा क्यूंकि बच्चें वही सीखते है जो माँ बाप उन्हें सिखाते है और दिखाते है और बच्चें सब समझते है सब कुछ देखते है
अब तुम ही बताओ क्या मैं कुछ गलत कर रहा हूँ, क्या तुम चाहोगी की बुढ़ापे में तुम इधर उधर की ठोकरे खाती रहो क्यूंकि आज नही तो कल बुढ़ापा तो आना ही है हमेशा जवान थोड़ी रहोगी
उनकी बातें मुझे समझ नही आ रही थी, या फिर मैं चाह कर भी समझ नही पा रही थी उस समय तो मुझे सब कुछ अच्छा ही नजर आ रहा था और जो बुरा नजर आ रहा था वो थी मेरी सास उस समय तो मैंने ये भी कह दिया था कि मेरा बेटा ऐसा नही निकलेगा कितना प्यार करता है वो मुझसे
तब उन्होंने कहा कि मेरे भाई भी अपनी माँ से बहुत प्यार करते थे लेकिन ज़ब तक ज़ब तक उनका खुद का परिवार नही था अब देखो कितने महीने गुजर गए है पलट कर भी नही देखा है
मैंने इस बात का भी कोई ना कोई जवाब दे ही दिया मैं तो बस चाहती थी कि किसी तरह अपने पति के ऊपर से आज्ञा कारी बेटे का भूत उतार दू पर शायद वो कोई भूत नही था जिसे उतारा जा सके मरता क्या ना करता काफ़ी देर बहस कर सो ही गयी और फिर उस दिन के बाद से थोड़ी बहुत बहस हो ही जाती थी।
मेरी सास भी बुढ़ापे की वजह से कुछ न कुछ कहती ही रहती थी कुछ का तो मैं जवाब दे देती थी और कुछ को इग्नोर कर देती थी
आखिर कार समय पँख लगा कर उड़ता गया पता ही नही चला कब दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में और महीने साल में गुजर गए मेरी सास भी इस दुनिया से जा चुकी थी मेरे सीने से एक बोझ हल्का हो गया था।
बच्चें बड़े हो गए थे बेटी की तो शादी भी हो गयी थी और वो विदेश में सेटल हो गयी थी और बेटा अच्छी जगह नौकरी पर लग गया था उसकी भी शादी हो गयी थी सब अच्छा था लेकिन तब ही पति का देहांत हो गया एक्सीडेंट में उस दिन के बाद से मैं अकेली हो गयी थी।
और तो और पति के अचानक चले जाने की वजह से मानो बुढ़ापा भी जल्द ही गले आ लगा था बहु भी अपने रंग दिखाने लगी थी अब मुझे डर था कि कही मेरा इस घर से निकाला न हो जाए ठीक उसी तरह जैसी मेरी देवरानीयों के बच्चों ने उन्हें वृद्ध आश्रम का मूंह दिखा दिया है कही मैं भी वैसे ही किसी रोज़ न निकाली जाऊ
लेकिन मेरे दिल को तसल्ली ज़ब हुई ज़ब मैंने अपने बेटे को अपने पति की तरह मेरी खिदमत करते देखा उस दिन मुझे आभास हुआ कि मेरे पति सही थे उन्होंने जो फैसला लिया था उसका परिणाम आज मुझे जीते जी देखने को मिल गया उन्होंने सही कहा था बच्चें जो देखते है वही करते है हर माँ का यही ख्वाब होता है कि उसके बच्चें आज्ञा कारी हो लेकिन सोचने से कुछ नही होता है उन्हें दिखाना भी पड़ता है कि किस तरह आज्ञा कारी बेटा या बेटी बना जाता है
आज मैं बहुत खुश होती हूँ ज़ब तक मेरा आज्ञा कारी बेटा मानव मुझसे आकर आशीर्वाद नही ले लेता है शाम को सबसे पहले मेरे पास आता है मुझसे बातें करता है मेरा हाल चाल पूछता है और तो और मेरी दवाएं भी मुझे जबरदस्ती खिलाता है कही मैं बीमार न पड़ जाऊ और तो और इस बुढ़ापे में भी ज़ब मैं बहुत खास्ती हूँ इन सब के बावज़ूद उसने मुझे अपने बाजु वाले कमरे में ही रखा है जहाँ मैं रहती थी कि कही मुझे कुछ हो ना जाए और वो दूर हो तो उसे पता ही नही चले।
उन्होंने ठीक कहा था वो सब हमारे लिए ही कर रहे थे पर मैं उस दिन समझ नही पायी थी जवानी के नशे में जो थी अब उतर गया है तो समझ गयी हूँ।
समाप्त.....
मोहम्मद उरूज खान
तहसील बिलासपुर
जिला रामपुर
उत्तर प्रदेश