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अध्याय -१

25 फरवरी 2022

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पूरा परिवार घबराया हुआ एक बड़े सी बिल्डिंग के सामने आकर रुक गया।
         “आप लोगों को हो क्या गया है और आपने मुझे इतनी जल्दी में यहां क्यों बुलाया?” एक लड़के ने पीछे से आकर उन्हें अंदर जाने से रोकते हुए पूछा। लड़के के चेहरे पर गुस्सा साफ नज़र आ रहा था।
         “बेटा यही एक रास्ता है करण को ठीक करने का। यह एक बहुत बड़े संत का आश्रम है और मुझे पूरा यकीन है कि वो हमारी मदद जरूर करेंगे।” एक करीब पचास साल के आदमी ने उस लड़के से कहा और उस घर की तरफ इशारा किया।
     “पापा मैं आप लोगों से पहले भी कह चुका हूं कि करण पर किसी आत्मा का साया नहीं है बल्कि उसे नींद में चलने की बीमारी है और उसके इलाज़ के लिए मैंने एक बहुत ही अच्छे डॉक्टर से बात कर ली है और वो अगले हफ्ते से ही इलाज भी शुरू कर देंगे।” उस लड़के ने उन्हें समझाते हुए कहा।
     “हो सकता है कि तुम जो कह रहे हो बिल्कुल सही हो रितेश मगर एक बार यहां बाबा जी से मिलने में क्या बुराई है।” वहां खड़ी औरत ने उसे समझाते हुए कहा।
     “बुराई ही तो है मां। आप खुद ही देख लीजिए कि ये आलीशान बिल्डिंग आपको कहां से किसी संत का आश्रम लग रही है? आपने कभी संत को इस तरह के घर में रहते हुए देखा है क्या?” रितेश ने कहा।
     “बेटा किसी इंसान को उसके ज्ञान के कारण इज्जत मिलती है ना कि उसके रहन सहन के कारण।” राजेश ने उसे समझाते हुए कहा।
     “और ये बात भी याद रखिए पापा कि ज्ञान हमेशा रहन सहन बदल ही देता है। अगर आपके इस बाबा को सच्चे ज्ञान का पता होता तो ये उसी तरह रहता जिस तरह से एक सच्चा संत रहता है।” रितेश ने कहा।
     “लेकिन अब आ ही गए हैं तो अंदर चल पड़ते हैं ना, यहां खड़े रहकर बहस क्यों कर रहे हो आप लोग।” एक करीब बीस साल की लड़की ने उन्हें टोकते हुए कहा।
     “सही कहा कृति तुमने। आज का मेरा ऑफिस तो छूट ही गया है, अब ये काम भी कर ही लेते हैं वरना अगर पापा ने फिर से मुझे इस काम के लिए बुलाया तो मेरा एक और दिन खराब होगा।” रितेश ने कहा और चुप चाप उस बिल्डिंग की ओर बढ़ने लगा।
  उसके पीछे पीछे उसका परिवार भी चुप चाप चलने लगा। जैसे ही वो बिल्डिंग के मुख्य द्वार पर पहुंचे तो सामने काले रंग के कपड़े पहने दो आदमियों ने उन्हें रोक लिया और उन सभी के हाथ में एक फॉर्म भरने के लिए दिया। रितेश ने अपने पिता राजेश की ओर घुरकर देखा और फिर एक झटके से वो फॉर्म लिया और एक तरफ बैठकर उसे भरने लगा। बाकि सब ने भी अपने अपने फॉर्म लिए और उन्हें भरकर उन दोनों आदमियों को दे दिया और फिर अंदर चले गए। बिल्डिंग जितनी आलीशान बाहर से थी उतनी ही अंदर से भी थी। केवल कुछ जगहों पर ही संस्कृत भाषा में लिखे हुए मंत्र लगे हुए थे बाकी बची जगहों पर साधारण सी तस्वीरें थी जो किसी भी आम घर में लगी होती हैं। रितेश हर चीज़ को देखने के बाद अपने पिता को घूर कर देख रहा था। राजेश बिना उसकी तरफ देखे ही सीधा आगे बढ़ रहा था। सामने एक कमरे का दरवाज़ा पारदर्शी शीशे से बना था और उसके अंदर से पीले रंग की रोशनी दिखाई दे रही थी। उसे देखकर सभी समझ गए कि यही संत महराज का कमरा है। उन लोगों को आते देख उस दरवाज़े के पास खड़े हुए बॉडीगार्ड ने दरवाज़ा खोल दिया और सभी को अंदर जाने के लिए कहा मगर रितेश को बाहर ही रोक लिया।
     “अब ये सब क्या है और आप लोग मुझे अंदर क्यों नहीं जाने दे रहे?” रितेश ने गुस्से से कहा।
     “आपको ये सब बताना हमारा काम नहीं है। हमारा जो काम है वो करने दीजिए वरना फिर मजबूरन हमें आपको इस ऑफिस से ही बाहर निकालना होगा। अच्छा होगा अगर आप शांति से कुर्सी पर बैठ जाएं।” एक गार्ड ने वहां रखी कुर्सियों की तरफ इशारा किया। रितेश बिना आगे कुछ बोले चुप चाप वहां जाकर बैठ गया।
  रितेश को छोड़कर बाकी सभी अंदर चले गए। वहां जाकर देखा तो एक आदमी सफेद कोट पहने सामने कुर्सी पर बैठा था। उसके हाथ में एक धार्मिक पुस्तक थी। सिर्फ उस एक पुस्तक को छोड़कर उस कमरे में ऐसी कोई भी चीज नहीं थी जिसे देखकर ये कहा जा सके कि ये किसी धार्मिक संत का कमरा है। राजेश, उसकी बीवी और बेटी तीनों एक दूसरे को देखने लगे।
     “अरे आप लोग खड़े क्यों है? बैठिए ना।” सामने बैठे हुए आदमी ने उनकी ओर देखते हुए कहा।
     “जी वो हम यहां संत शिवा जी से मिलने आए हैं।” राजेश ने उस आदमी को देखकर कहा।
     “हां तो बोलिए क्या बात है? मैं ही हूं शिवा।” उस आदमी ने अपनी किताब को एक तरफ रखकर कहा।
     “आप?” राजेश ने चौंकते हुए कहा।
     “मैं जानता हूं कि आप क्या सोच रहे हैं। यही ना कि आप यहां किसी संत से मिलने आए थे और मिला कोई सामान्य सा आदमी। इसमें आपका कोई दोष नहीं है बल्कि मेरा है। मुझे ये काम करते हुए सिर्फ छह महीने ही हुए हैं और मैंने अपने आस पास के वातावरण को नहीं सुधारा है।” उस आदमी ने उन्हें समझाते हुए कहा और फिर से बैठने का इशारा किया।
  शिवा के कहते ही सभी वहां बैठ गए मगर राजेश का ध्यान अभी बाहर की तरफ था।
     “क्या हुआ? आपका ध्यान बाहर क्यों है?” शिवा ने उसकी ओर देखकर पूछा।
     “जी नहीं। कुछ नहीं बस वो मेरा बेटा भी हमारे साथ ही था मगर आपके गार्ड ने उसे बाहर ही बैठा रखा।” राजेश ने बाहर की ओर देखकर कहा।
     “लेकिन क्यों?”
     “पता नहीं।”
     “आप चिंता मत कीजिए, मैं अभी उनसे बात करता हूं।” शिवा ने कहा और अपने सामने मेज पर रखी हुई घंटी को बजाया।
  घंटी की आवाज़ को सुनकर बाहर दरवाज़े पर खड़ा हुआ गार्ड अंदर आ गया और सीधा खड़ा हो गया।
     “जी सर, बोलिए।” उस गार्ड ने कहा।
     “क्या मैं पूछ सकता हूं कि तुमने उस लड़के को बाहर क्यों खड़ा किया है?” शिवा ने कहा।
     “वो इसलिए सर क्योंकि जब उससे फॉर्म भरने के लिए कहा गया तो उसमें उसने लिखा था कि वो इन सब चीजों में नहीं मानता और हमारे नियमों के अनुसार अगर उसे इन सब में विश्वास ही नहीं है तो फिर उसका यहां कोई काम नहीं है।” गार्ड ने कहा।
     “अगर कोई अकेला इंसान इस तरह का आता है तो उसका कोई काम नहीं है मगर ये लड़का अपने परिवार के साथ है तो हमें उसे नहीं रोकना है। समझे?” शिवा ने कहा।
     “जी समझ गया। मैं अभी उसे भेजता हूं।” गार्ड ने कहा और बाहर चला गया।
  उसके जाने के बाद शिवा उन लोगों की तरफ देखने लगा।
     “अब कुछ बताएंगे या सिर्फ यहां घूमने आए हैं?” शिवा ने कहा।
     “जी वो सब एक…।” राजेश बोलने ही लगा था कि पीछे से रितेश ने उसे बीच में ही टोक दिया।
     “चलिए पापा यहां से। मुझे अब और कुछ नहीं सुनना है।” रितेश ने अपने पिता से कहा।
     “काफी चंचल लग रहे हो।” शिवा ने उसकी ओर देखकर कहा।
     “मैं चाहे जैसा भी हूं लेकिन तुम्हारी तरह लोगों धोखा नहीं देता।”
     “लोगों को धोखा मैं नहीं देता बल्कि वो लोग मुझे देते हैं जो किसी भयानक सपने को एक आत्मा का नाम देकर मुझे वहां बुलाते हैं।”
     “लो पापा फिर तो बात ही खत्म। आपके संत महाराज ने ही कह दिया कि ये वहम होता है।” रितेश ने अपने पिता से कहा।
     “मैंने ऐसा नहीं कहा। मैंने कहा कि लोग किसी वहम को आत्मा का नाम दे देते हैं मगर कई बार मैंने उनमें सचाई भी देखी है और इसीलिए मैं आपसे कह रहा हूं कि पहले मुझे आप अपनी समस्या बताइए और उसके बाद मैं देखता हूं कि उसमे कितनी सच्चाई हो सकती है।” शिवा ने उसे समझाते हुए कहा।
     “लेकिन अगर कुछ ना ही बताना हो तो।” रितेश ने कहा।
     “तू चुप कर। यहां मैं तुझे लेकर आया हूं तू मुझे नहीं और जब तक मैं इनसे बात नहीं कर लेता तू यहीं पर चुप चाप बैठा रह।” राजेश ने उसे धमकाते हुए कहा।
     “देखिए आप शांत हो जाइए। ऐसा आज कल सभी के साथ होता है। कोई भी इन सब में मानने को तैयार ही नहीं है।” शिवा ने उन्हें समझाते हुए कहा।
     “अपने बेटे की इस हरकत की वजह से मैं आपसे माफी मांगता हूं।” राजेश ने हाथ जोड़ते हुए कहा।
     “इसकी कोई जरूरत नहीं है। मुझे इन सब बातों का बुरा नहीं लगता। आप अब बस मुझे इतना बता दीजिए कि आखिर हुआ क्या है? आपकी क्या समस्या है?” शिवा ने कहा।
     “जी हमारी समस्या परछाई है।” राजेश ने कहा।
     “परछाई?”
     “जी।”
     “ठीक है आप एक काम कीजिए, मुझे शुरू से बताइए कि आखिर हुआ क्या है?” शिवा ने पूछा।
     “जी मैं बताता हूं…।” राजेश ने कहा।

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परछाई भाग -१
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यह कहानी शिवा नाम के एक व्यक्ति के बारे में है। वह अपने सामने हुए दृश्यों को देखकर उन्हें समझते हुए एक संत बन गया। उसके बाद तो अपने जवाब पाने के लिए लोगों की भी बुरी शक्तियों से बचाने में मदद करने लगा और आखिरकार वो धीरे धीरे अपने जवाब की ओर चला गया।

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