बहुत बातें संतजन, ऋषिजन अपने हाल का ब्यौरा देते हुए कहते हैं। वो बात आपकी नहीं हो गयी। उन्होंने कह दिया, “अहम् ब्रह्मास्मि”। वो अपनी बात कर रहे हैं। वो ब्रह्म हैं, आप नहीं ब्रह्म हो गए। ये उनकी चेतना का स्तर है कि वो कह पाए ये बात। और आपने कहा, “बढ़िया! अहम् ब्रह्मास्मि!” वो हैं ब्रह्म, आप नहीं हो गए। आप तो अभी ईमानदारी से यही कहिए कि, “अहम् भ्रमास्मि: मैं भ्रम हूँ!” नहीं तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी, 'भ्रम' अपने-आपको 'ब्रह्म' बोल रहा है, और मज़े ले रहा है ब्रह्म बोलने के। हमारे लिए अहम् हमारी ज़िंदगी है, झूठा कैसे हो गया? जिन्होंने अहम् को साफ-साफ झूठा जाना, उनकी निशानी ये है कि उनकी ज़िंदगी में अहम् अब नज़र नहीं आता। जिसकी ज़िन्दगी में नज़र न आए सिर्फ उसको हक है कहने का कि अहम् झूठ है। आपकी ज़िंदगी में अहम् है या नहीं है? तो आप क्यों कहते हैं कि अहम् झूठ है?
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