भगत सिंह ने पूरे देश की आज़ादी के लिए संघर्ष किया क्योंकि अकेले-अकेले आज़ादी तो वैसे भी नहीं मिलने की। ये वास्तव में कोई सामाजिक या राजनैतिक पहल नहीं थी। ये किसी बर्बर, विदेशी शासन के प्रति आक्रोश या क्रांति मात्र नहीं था। मूलतः ये आध्यात्मिक मुक्ति का अभियान था। एक ऐसी मुक्ति जिसमें तुम कहते हो - "मेरे शरीर की बहुत कीमत नहीं है। बाईस-तेईस साल का हूँ, फाँसी चढ़ जाऊँ, क्या फर्क पड़ता है? शरीर के साथ मेरा तादात्म्य वैसे भी नहीं है। मैंने तो अब पहचान बना ली है बहुत बड़ी सत्ता के साथ।" भगत सिंह के जीवन में वो बहुत बड़ी सत्ता थी - भारत देश। इसलिए मिलती है जवानी। इसलिए नहीं कि शरीर को ही खुराक देते जाओ और शरीर की माँगों को मानते जाओ और कामनाओं को पोषण देते जाओ। जवानी मिलती है ताकि उसका उत्सर्ग हो सके, ताकि वो न्योछावर हो सके। जिस उम्र में हम अपने-आपको, बहुत लोग, दुधमुँहा बच्चा ही समझते हैं, उस उम्र में वो चढ़ गए फाँसी पर। और ये कोई किशोरावस्था का साधारण उद्वेग नहीं था। भगत सिंह का ज्ञान गहरा था। दुनियाभर के तमाम साहित्य का अध्ययन किया था उन्होंने, खासतौर पर समकालीन क्रांतिकारी साहित्य का। समाजवाद, साम्यवाद—इनकी तरफ झुकाव था उनका। खूब जानते थे, समझते थे।किसी बहके हुए युवा की नारेबाज़ी नहीं थी भगत सिंह की क्रांति में; गहरा बोध था। और वो बोध, मैं कह रहा हूँ, मूलतः आध्यात्मिक ही था।
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