नीलिमा आज कोई सहमी ,झिझकी सी ,शर्मीली लड़की नहीं ,उसने अपने को आज इतना मज़बूत बना लिया ,आज वो मीट की दुकान पर जाकर ,स्वयं ही अपने बेटे के लिए मीट लाती है , उसकी दवाई गोली ,संस्था का कार्य सभी काम वो स्वयं ही करती है।आज से बीस वर्ष पहले ,ऐसे कभी मीट लेना तो दूर ,कभी अकेले घर से बाहर भी नहीं निकली है। जब से ज़िंदगी ने अपने रंग दिखाए और धीरेन्द्र उसकी ज़िंदगी से गए। तब से उसने अपने आपको संभालना सीख लिया। इस सब में उसकी बेटियों का भी बहुत सहयोग है। आज अपनी बड़ी बेटी के विषय में सोचती है ,तो भावविभोर हो उठती है। वो अक्सर अपनी दोस्त से अपनी बेटी के विषय में चर्चा करती, तब कहती -मेरी बड़ी बेटी ने मेरा बहुत साथ निभाया ,वो समय से पहले ही समझदार हो गयी। अपने भाई को देखना ,अपनी छोटी बहन का ख़्याल रखना ,जब मैं अकेली थी ,तब वो ही देखती थी तब तो मेरे पास इतने पैसे भी नहीं थे कि मैं कोई मेड रख सकूं। सच में ,मेरे बच्चे बहुत अच्छे हैं।
घर आकर उसने ,चम्पा को मीट दिया और अपने कपड़े बदलकर ,अपने बेटे के पास आ गयी। अब तो वो थोड़ा -थोड़ा बोलने भी लगा। मम्मा और पापा कहना भी सीखा अब तो उसके शब्दकोश में ,बहुत सारे शब्द जुड़ गए। जब ग्यारह साल का था ,कुछ भी नहीं बोल पाता था। तब नीलिमा ने बहुत खोजबीन की तब जाकर ,किसी ने उसे बताया -कोई चिकित्सक चेन्नई में है ,जो इसको बोलना सिखा सकते हैं। तब ये अपनी बेटियों को छोड़कर ,अथर्व को चेन्नई लेकर गयी ,वहां उसकी हालत देखकर ,पहले तो उन्होंने इंकार ही कर दिया किन्तु जब नीलिमा ने बहुत अनुनय -विनय किया। तब वो ''स्पीच थैरेपी ''के लिए तैयार हुए ,वे उसे कुछ शब्द ही सिखा सके। बाकि तो नीलिमा ने अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था ,वो स्वयं अपने बेटे को सिखायेगी।
चम्पा खाना तैयार करके आवाज लगाती है , कल्पना खाना मेज पर लगाती है ,तब तक नीलिमा अपने बेटे का हाथ पकड़े ,उसे लेकर मेज की तरफ आती है ,अपनी पसंद का खाना देखकर अथर्व मुस्कुराया। तीनों ने एक साथ खाना खाया। अभी भी ,नीलिमा उसे कुछ न कुछ सिखाती रहती है ,सामान कैसे और कहाँ रखना है ?अब यही तो ,उसकी पूँजी है ,इसी पूंजी के सहारे ही तो ,उसे संस्था को खोलने का मौका मिला। उस संस्था में ,अथर्व जैसे न जाने कितने ही बच्चे आते हैं ?जिनके माता -पिता को वो ढाढ़स बंधाती है और उन्हें अपने बच्चे की परवरिश कैसे करनी है ?सब समझाती है।
क्या कुछ नहीं सहा उसने ? अपनी मम्मी से ,अपने बच्चों के पास रहने के लिए कहा था ,किन्तु पापा ने इंकार कर दिया ,बहु अकेली घर को और बच्चे को कैसे संभालेगी ? ये नहीं सोचा -अकेली विधवा बेटी ,तीन बच्चों की परवरिश कैसे करेगी ?अरे चिंता हो भी कैसे ? जब उन्होंने अपना समझा ही नहीं ,अपना समझा ही कब ? अपनी जिम्मेदारी पूर्ण कर निश्चिंत होना चाहते थे ,उसके पश्चात तो उनकी कोई जिम्मेदारी बनती ही नहीं थी। अब तो अपने बचपन की यादें भी एक धोखा लगती हैं ,उस समय बचपन में , इतनी समझ होती ही कहाँ हैं ? अपने तो अपने ही लगते हैं ,बच्चा माता -पिता के सबसे करीब होता है ,उनसे ही परवरिश पाता है। वे ही उसका पहला विश्वास और उनकी नजर से ही तो दुनिया को देखता है। जो वो दिखाना और समझाना चाहते हैं वही समझता है। उसे पता था, कि पापा गुस्सा करते हैं किन्तु ये नहीं समझ पाई भेदभाव भी करते हैं। कभी अपने संग बाहर घूमने नहीं ले गए। अब अक़्सर बच्चों को ,मैं देखती हूँ ,उनके पापा अपने बच्चे को कंधे पर बिठाकर मेला दिखाने ले जाते थे। मेरे पापा तो कभी अपने संग ऐसे कहीं लेकर ही नहीं गए। हां मम्मी ,हंसकर कुछ न कुछ समझा देती थी।
मम्मी की मुस्कुराहट देखकर अब ये गाना स्मरण होता है -तुम जो इतना मुस्कुरा रहे हो ,
क्या ग़म है ? जिसको ,छुपा रहे हो।
उस समय तो उनकी हँसी ही ,हमारे आगे बढ़ने का सहारा थी। हमारी कोई भी परेशानी ,समस्या वो सुलझाने का प्रयत्न करतीं। जब से हमने होश संभाला ,तब हम एक -दूसरे का सहारा बनी रहीं, किन्तु इस बाप ने एक कार्य तो ठीक किया ,हमें पढ़ा तो दिया ,हो सकता है -पढ़ाया भी इसीलिए हो ,मौहल्ले वाले क्या कहेंगे ? या फिर अनपढ़ लड़की से कोई ब्याह भी नहीं करेगा। जो भी कारण रहा हो ,समझ नहीं आता इस ज़िंदगी में किस पर विश्वास किया जाये, किस पर नहीं ?जब अपने ही बेगानों जैसा व्यवहार करे, तब कहाँ जाएँ ?पिता ने ही हमेशा सौतेला व्यवहार किया किन्तु ये अबोध मन समझ ही नहीं पाया, किन्तु ये जीवन है न और ये उससे जुडी घटनाएँ ,इन आँखों पर बंधी पट्टी को खोलने के लिए ही काफ़ी है।
जब मेरा विवाह ,धीरेन्द्र से हो गया ,तब मैं भी अपनी सहेली और रिश्तेदारों की तरह अपने को ख़ुशनसीब समझने लगी थी। अब मैं अपने जीवन से खुश थी ,ब्याह करके घर नहीं आई ,होटल से ही अपनी ससुराल चली गयी। बहुत ही अच्छा इंतज़ाम था ,सभी घरवाले भी प्रसन्न थे कि सब तैयारी बहुत ही अच्छी थीं। तभी दरवाजे की घंटी बजी ,मैंने कल्पना से कहा जाओ !देखो ज़रा शायद तेरे भाई को तबला सिखाने वाली आई है। तब तक चम्पा भी रसोई का कार्य निपटाकर जा चुकी थी।
मम्मा !ये इतनी रात्रि गए क्यों आती है ?
बेटा ! तुम तो जानती ही हो ,दिन में मुझे काम रहता है ,भाई उससे अकेले में ऐसे नहीं सीखेगा ,उसके पास बैठना पड़ता है। भाई के पास बैठकर साथ में ,मैं भी सीख़ लेती हूँ ताकि बाद में मैं, तुम्हारे भाई को सीखा सकूँ। भाई के साथ ही ,सभी चीजें मुझे भी सीखनी होंगी।
दीदी नमस्ते !कहकर वो लड़की बैठ जाती है।
अथर्व उसे देखकर मुँह बनाता है किन्तु नीलिमा देख लेती है और कहती है -तू जानती है ,मेरा अथर्व बहुत ही शीघ्रता से सीख़ रहा है ,मुझे लगता है -कुछ दिनों में ही ,ये तुझसे ज्यादा अच्छा तबला बजा सकता है। अपनी माँ की बातें सुनकर ,अथर्व प्रसन्न हुआ और तुरंत ही सीखने के लिए बैठ गया।
अध्यापिका बोली -आप सब जानती हैं।
अब इतनी उम्र हो गयी ,कुछ तो अनुभव हो ही गए है ,कहकर नीलिमा मुस्कुराई और अपने बेटे के संग ही तबला सीखने बैठ गयी।
आखिर निलिमा के जीवन इस क्या घटित हो गया या होने वाला है जो उसकी ज़िंदगी और सोच इतना बदल गया, जानने के लिए पढ़ते रहिये - ऐसी भी ज़िंदगी