एक अल्हड़ सी
चंचल सी लड़की
घूम रही हवा के झोंके सी
गांव में शहर में लेके साइकिल
कभी वह खेतों में करती काम
कभी वह दुहती दूध गाय का
नहीं देखा कभी उसे आराम करते हुए
पढ़ने जाती है वह स्कूल
वहां भी पढती मन लगाकर।
एक अल्हड़ सी चंचल सी लड़की
खेतों में काट रही है फसल
चला रही है ट्रैक्टर खेतों में
उगा रही है गेहूं, गन्ना ,चावल
नहीं थकती है वह करके इतना काम।
वहीं चंचल सी अल्हड़ सी लड़की
बन गई आज बहू किसी की
अब उसको घुंघट पहना दी है
उसके पैरों में बेड़ी लगा दी है।
अब उसको घर से निकलना नहीं है
बाहर अब चलना नहीं है
घुट घुट कर अब वह जी रही है
मुस्कुराकर वह सीख रही है
नए घर के नए रीति रिवाज
समझ नहीं पा रही है वह
जो कल तक सही था
आज वह गलत कैसी हो गया।
उसका जीवन कहां खो गया
वह किसी को कैसे समझाए
वह दुनिया को कैसे बताएं।
वह अपनी जिंदगी जीना चाहती है
वह खुशियों के बीज बोना चाहती है
वह अपने सपनों को नई उड़ान देकर
गमों को खोना चाहती है।
पर कौन अब उसकी सुनेगा?
किससे कहे वह अपने मन की बात
किससे अपनी व्यथा सुनाएं
घुट घुट कर वह कैसे जी पाएगी
कौन सी खुशी किसको वह दे पाएगी।
(©ज्योति)