आज़ादी की क़वायद के दौर में और उसके बाद की सर्वप्रमुख उपलब्धियों में से एक भारतीय संविधान का निर्माण करना और उसका लागू होना रहा है । संविधान का 'चौथा भाग' नीति निर्देशक सिद्धान्तों के रूप में राज्य को यह निर्देश देता है कि वो इस देश के नागरिकों के हित में कुछ ऐसे प्रावधान करे जिससे राज्य का कल्याणकारी स्वरूप चरितार्थ हो ।
इसी क्रम में अनुच्छेद 44 समान सिविल संहिता की बात करता है , यानी कि राज्य एक ऐसा कानून निर्मित करे जो इस देश के सभी समुदायों , धर्मों और वर्गों के लिए एक समान रूप से लागू हो । वर्तमान में केवल गोआ एकमात्र राज्य है जहां कॉमन सिविल कोड लागू है ।
भारत की विशेषता विविधता में एकता रही है । इसीलिए संविधान निर्माताओं ने समान सिविल संहिता को तात्कालिक रूप से लागू न करके "राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों" के अंतर्गत रखा। जिससे राज्य के रूप में हमारा देश जब इसके लिए तैयार हो इसे लागू किया जाये ।
वर्तमान में भारतीय दण्ड संहिता में विभिन्न प्रकार के पारंपरिक और धार्मिक कानूनों के तहत विवाह, गोद लेने का अधिकार और कई अन्य विषयों पर अलग अलग कानून प्रचलन में हैं, जिसके आधार पर नागरिकों को उनके धर्म, और पारम्परिकता के आधार पर व्यवहृत किया जाता रहा है जो इक्कीसवीं सदी के इस आधुनिकतम दौर में भी रूढ़िवादिता का परिचायक ही जान पड़ता है ।
समान सिविल संहिता वर्तमान समय की महती आवश्यकता है, यह जरूरी है तब जब कि देश स्वयं को कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक सूत्र में बांधने के लिये तत्पर है, तब जब कि हम राज्य और क्षेत्र की हदों से अलग होकर एक देश और एक समान रूप से सभी लोगो के लिए एक प्रकार के कानून निर्माण के लिए आकांक्षी है । यकीनन भारतीय विविधता को एकता के सूत्र में पिरोने का यह सबसे क्रांतिकारी समय है जब विश्व ,देश और समाज के स्तर पर भारत नए प्रतिमान स्थापित करने की ओर अग्रसर है ~