ईश्वर ने जीवन का अनमोल उपहार मानव जाति को दिया है । जीवन एक प्रवाह है , इसकी गत्यात्मकता में ही इसकी सुंदरता का वास है । भारतीय मनीषियों ने भी जीवन के स्वरूप को समझने के क्रम में अगाध चिंतन किया है । शंकराचार्य से लेकर महावीर और बुद्ध तक ने जीवन की सार्थकता का मार्ग सुझाया है । राजकुमार सिद्धार्थ ने मानवता को रोगग्रस्त, दुख और मर्त्य देखकर ही उसके निवारण हेतु गृहत्याग कर दिया था। मानवता को रोगमुक्त और स्वस्थ करने का ये उपक्रम आज भी निरंतर है । पिछले चार पांच दशकों से सम्पूर्ण विश्व को जिस रोग ने सर्वाधिक अक्रांत किया है ,उनमें एचआईवी या एड्स सबसे प्रमुख है । तकरीबन 4 करोड़ लोग इस व्याधि के द्वारा असमय काल कवलित हो चुके हैं।
यह रोग ,असुरक्षित यौन संबंध, संक्रमित व्यक्ति से रक्त का आदान प्रदान तथा मां से शिशु में संक्रमण जैसे कारकों से प्रसारित होता है ।
घर का भेदी लंका ढाए वाली कहावत एचआईवी विषाणु को चरितार्थ करती है । शरीर के भीतर एक सूक्ष्म विषाणु शनैः शनैः रोगों से लड़ने की शक्ति पर ही प्रहार करने लगता है । और मानवीय काया निस्तेज़ होने लगती है । प्रत्येक वर्ष इस बीमारी ने लाखों जीवनों को ग्रस लिया। जानकारी के अभाव में और जाने अनजाने लोग इसकी चपेट में आ जाते हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 1 दिसंबर को विश्व एड्स दिवस के रूप में मनाया जाता रहा है ।
हम इस तथ्य से अवगत हैं कि किसी भी चुनौती का मुकाबला मनुष्यता ने मजबूती के साथ की है । जागरूकता बढ़ाने के साथ साथ इसके उचित इलाज के लिए भी अनुसंधान और प्रयास निरंतर रहे हैं । इसी क्रम में 1998 के वर्ष 18 मई को पहली बार विश्व एड्स वैक्सीन दिवस का आयोजन किया गया ।
आशावादी मानवता इस दिवस के माध्यम से आज भी इस असाध्य बीमारी के लिए टीके के निर्माण पर प्रयासरत है । साथ ही इसके द्वारा इस व्याधि से बचाव के लिए लोगो को जागरूक करना भी इसका मुख्य उद्देश्य है । उम्मीद पर ही दुनिया कायम है और इसी आशावादिता ने हमको,आपको और इस सम्पूर्ण सृष्टि को कायम और चलायमान रखा है । आने वाले समय में इस दिवस की सार्थकता तब और फलीभूत होगी जब एड्स के मामलो में साल दर साल कमी होती जायेगी। और विज्ञान और तकनीकी अनुसंधान के मार्फत जल्द ही मारक टीका विकसित कर लिया जाएगा जो हमारी आगामी पीढ़ियों को इस आक्रांता से सुरक्षित भी रखेगा, एवमस्तु ~ऋतेश ओझा