सरकार और न्यायपालिका ~
किसी भी परिवेश ,समाज के संचालन के लिए व्यवस्था एक अनिवार्य तत्व है । व्यवस्था के इस निर्वहन की जिम्मेवारी शाश्वत रूप से राज्य की ही रही है । वर्तमान समय में संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत चूंकि राज्य का स्वरूप लोकतांत्रिक है अतः राज्य के रूप में उसके तीन स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका व्यवस्था को सुचारुतम चलाने का उपक्रम करती हैं ।
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सरकार के अंतर्गत जहां विधायिका और कार्यपालिका सन्निहित है तो न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में इन दोनो स्तंभो की निगरानी कर इन पर नियंत्रण रखने का भी कार्य करती रही है । इस संबंध में न्यायिक पुनर्वलोकन , न्यायिक समीक्षा जैसे विचार न्यायपालिका को ये अधिकार प्रदान करते हैं ।
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यहां विचार करने योग्य यह भी है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार जनता के हाथो मे निहित होती है और सरकार उस शक्ति और उस अधिकार के चेहरे के रूप में भी है , बावजूद इसके प्रायः संकीर्ण हितों और राजनीतिक वर्चस्वता की लड़ाई में सरकारों का रुख दूरदर्शी नही रह पाता , तब न्यायपालिका ऐसे बर्तावों को संज्ञान में लेकर यथोचित निर्णय लेती आई है । इस संबंध में जनहित याचिका न्यायपालिका का प्रमुख उपकरण है ,
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इसके साथ ही नागरिकों को मिले मानवाधिकारों के रूप में मौलिक अधिकारों की संरक्षक भी न्यायपालिका रही है । अनुच्छेद 32के अंतर्गत संवैधानिक उपचारों के तहत न्यायपालिका समय समय पर व्यवस्था में आई असंगतता को सचेत करती आई है ।
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सरकार यानी विधायिका और कार्यपालिका तथा न्यायपालिका एक दूसरे से सधे हुए और एक दूसरे को संतुलित करते वो नियामक है जो भारत जैसे मजबूत होती लोकतांत्रिक व्यवस्था के अत्यंत आवश्यक हैं। किसी एक का कमजोर होना और दूसरे स्तंभ का मजबूत होकर लंबे समय तक दूसरे की कार्यवाही के हस्तक्षेप लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत तो कदापि नहीं है । अतः आवश्यकता इस बात की है कि इन स्तंभों के बीच का ये महीन संतुलन कम से कम तब तक अहर्निश रहे जब तक हम लोकतंत्र के आदर्श प्रतिमानों को ना स्पर्श कर लें ~