राम अमोल पाठक जी बिहार के एक गांव के भरे-पुरे परिवार से थे | गांव में आँगन वाला सबसे ऊँचा मकान राम अमोल पाठक जी का था, घर पर पिताजी,भैया-भाभी, एक प्यारी सी भतीजी और बीवी अमरावती थी, अभी-अभी राम अमोल पाठक जी के घर एक बेटा पैदा हुआ था जिसका नाम उन्होंने चन्दन रखा था | राम अमोल पाठक जी ने हिंदी में MA किया था और नौकरी की तलाश में थे,इसके अलावा उनकी रूचि कुश्ती में थी, आस-पास के गावों या शहरों में जब भी कोई कुश्ती की प्रतियोगिता होती तो राम अमोल पाठक जी अवश्य हिस्सा लेते |
प्रकाश पब्लिकेशन हाउस के मालिक अरुण सहाय को कुश्ती में बड़ी दिलचस्पी थी और बिहार के एक शहर में बतौर चीफ गेस्ट गए थे और वहां उनकी मुलाकात राम अमोल पाठक जी से हुई | जिनकी कुश्ती तो काफी अच्छी थी ही साथ ही साथ हिंदी के भी अच्छे ज्ञानी थे | कुश्ती प्रतियोगिता में तो राम अमोल पाठक जी ने हिस्सा लिया ही साथ-ही-साथ साहित्यिक कार्यक्रम में अपनी अपनी कविताएं भी सुनाई । अरुण सहाय राम अमोल पाठक जी की कुश्ती और हिंदी कविताएं दोनों से बहुत प्रभावित हुए | समारोह के अंत में जब राम अमोल पाठक को पुरस्कार लेने के लिए मंच पर आमंत्रित किया गया तो अरुण सहाय जी ने अपना कार्ड थमाते हुए बोल पड़े।
अरुण सहाय - तुम तो कमाल की कविताएं लिखते हो कहाँ तक पढ़े हो
राम अमोल पाठक - जी हिंदी में MA किया है |
अरुण सहाय - तभी हिंदी में इतनी अच्छी पकड़ है। कुश्ती के अलावा क्या करते हो ?
राम अमोल पाठक - जी मैं अभी नौकरी की तलाश में हूँ ।
अरुण सहाय - ये लो मेरा कार्ड इस पर मेरी कंपनी का नाम और पता लिखा है पहली फ़ुरसत में सूरजगढ़ पहुंचो, मेरे पब्लिकेशन हाउस में तुम्हारी एडिटर की नौकरी पक्की ।
अमोल पाठक जी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अरुण सहाय जी ने बतौर एडिटर प्रकाश पब्लिकेशन से जुड़ने का प्रस्ताव रखा | राम अमोल पाठक जी तो पहले से एक अच्छी-सी नौकरी की तलाश में थे और तो और नौकरी उनके प्रिय विषय हिंदी से जुड़ी थी इसलिए उन्हें अरुण सहाय का प्रस्ताव बहुत पसंद आया |
पहली फ़ुरसत में राम अमोल पाठक जी प्रकाश पब्लिकेशन हाउस, सूरजगढ़ जा पहुंचे और प्रकाश पब्लिकेशन से नियुक्ति पत्र यानि अपॉइंटमेंट लेटर लेकर उनकी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा |
पिछले कुछ महीनों से राम अमोल पाठक जी को जीवन में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, एक ओर वो नौकरी के तलाश में इधर-उधर भटक रहे थे पर नौकरी नहीं मिल रही थी और दूसरी ओर अमरावती का करीब रोज़ ही राम अमोल पाठक की भाभी से टकराव चल रहा था |
राम अमोल पाठक जी के भैया का बनारस में जमा-जमाया व्यापार था, सारा घर-ख़र्च राम अमोल पाठक जी के भैया उठाया करते थे इसलिए उनकी बीवी यानि राम अमोल पाठक जी की भाभी की ही चलती थी | राम अमोल पाठक जी की भाभी का घर के सभी सदस्य मान-सम्मान करते थे, घर के हर छोटे-बड़े फैसले उनसे ही पूछ कर लिए जाते थे, बस ये ही थी अमरावती के परेशानी वज़ह | जब कभी भाभी अमरावती से कुछ कहती अमरावती पलटकर उल्टा जवाब दे देती बस फिर क्या पहले मतभेद शुरू होते और बाद में वो झगड़े का रूप ले लेता | राम अमोल पाठक जी के भैया तो बनारस में ही रहा करते थे इसलिए लड़ाई-झगड़े से होने वाली परेशानी राम अमोल पाठक जी को ही उठानी पड़ती थी |
राम अमोल पाठक जी प्रकाश पब्लिकेशन हाउस से अपॉइंटमेंट लेटर ले ऑफिस के बाहर आए तो ठीक ऑफिस के बाहर एक पेड़ था, उसके नीचे चबूतरा बना था और ठीक उसके बगल में एक चापाकल था | बाहर निकलते ही राम अमोल पाठक जी ने कंधे पर लटके बैक को चबूतरे पर रखा और उसमें अप्वाइंटमेंट लेटर को कुछ सहेज कर रख दिया और चापाकल से हाथ मुंह धो, थोड़ा पानी पिया और पेड़ की छांव में बैठ गए ।
राम अमोल पाठक ( मन ही मन में ) -
घर की औरतों ने घर पर जीना मुश्किल कर दिया था, इस नौकरी के मिलने पर झगड़े झंझट से तो मुक्ति मिलेगी, जितनी जल्दी हो सकेगा अमरावती और चंदन को लेकर यहां आ आऊंगा ।
राम अमोल पाठक जी ने घर पहुंच कर भाभी और अमरावती को नौकरी की खुशखबरी दी । राम अमोल पाठक जी को उनकी भाभी ने नौकरी की बधाइयां दी जब उन्होंने यह सुना कि राम अमोल पाठक जी पूरे परिवार के साथ जा रहे हैं तो बहुत सी खाने-पीने की चीजें बाँध दीं ताकि वो खाने-पीने की चीज़ें सफर में ले जा सकें |
राम अमोल पाठक जी की नौकरी की खबर सुन अमरावती को खुशी इस बात की थी कि वह शहर में जाकर रहेगी | जिस रोज वो लोग सूरजगढ़ के लिए निकल रहे थे, उस रोज़ अमरावती खूब जमकर तैयारी हुई, लाल चूड़ियां, लाल नेल पॉलिश, बालों में लाल क्लिप और चमड़े की चप्पल भी लाल ही पहन कर तैयार हुईं । आज तो अमरावती ने साड़ी में खींच कर पिन भी लगाया था, भाभी को तिरछी नजरों से ऐसे देख रही थी मानों नजरों से कह रही हो कि तुम तो गांव में ही रह गई मैं तो चली शहर |
चन्दन की आंखों में मोटा-मोटा काजल लगाया, ललाट पर काला टीका और गर्मी के मौसम में बच्चे को लंबा-सा मोजा और बड़ा-सा जूता पहनाकर तैयार किया जो कि बार-बार खुलकर गिर जा रहा था ।
राम अमोल पाठक जी के दरवाजे पर बैलगाड़ी आकर लगी और राम अमोल पाठक अमरावती अपने बेटे चन्दन के साथ बैलगाड़ी पर सवार हो गए । बैलगाड़ी ने इन तीनों को पास के रेलवे स्टेशन पर पहुंचाया । बैलगाड़ी से उतरते ही राममोहन पाठक जी ने दोनों कंधों पर एक-एक बैग लेकर ट्रेन की ओर चल पड़े और ठीक उन के पीछे-पीछे अमरावती चन्दन को गोद में लेकर चल पड़ी।
राम अमोल पाठक जी ने पलटकर अमरावती की तरफ देखा फिर उसके पांव की तरफ देखा और बोल पड़े।
राम अमोल पाठक जी ( अमरावती से ) - चंदन की मां तुमने यह कैसे चप्पल पहन लिए, इन चप्पलों पहन कर कैसे चल पाओगी ?
अमरावती ( राम अमोल पाठक जी ) से क्या जी ? मुझे कौन सा चलना है,चलना तो ट्रेन को है मुझे तो बैठना है सिर्फ |
राम अमोल पाठक जी ( अमरावती से ) - ( मुस्कुराकर ) बात तो सही है |
राम अमोल पाठक जी खिड़की वाली सीट पर बैठे थे और नज़ारे देखते हुए शायद आने वाले जीवन के बारे में सोच रहे थे |राम अमोल पाठक जी दोनों बैग लेकर ट्रेन पर चढ़ गए, सीट ढूँढ निकाली, अमरावती की गोद से चन्दन को ले लिया और अमरावती ने ट्रेन पर चढ़ने के पहले अपने चमड़े की चप्पलों को हाथ में ले लिया और फिर ट्रेन की सीट पर पहुँच सीट के नीचे बैग के पीछे छुपाकर कर अपनी चप्पलों को रख दिया।
राम अमोल पाठक जी खिड़की वाली सीट पर बैठे थे और नज़ारे देखते हुए शायद आने वाले जीवन के बारे में सोच रहे थे।
और अमरावती अपने बैग की रखवाली कर रही थी, अमरावती को नींद आ तो रही थी पर ट्रैन में सोने को तैयार नहीं थी क्योंकि आस-पास बैठे लोगों पर शायद वह शक कर रही थी। अगर किसी का पांव उसके बैग से लग जाता तो घूर-घूर कर उसकी तरफ देखती और बैग को सीट के और अंदर डालने कोशिश करती। कोई अगर चन्दन की तरफ देखता तो नाराज़ होकर अपने आँचल से चन्दन का चेहरा ढ़क देती।
तभी मैले-कुचैले से कपड़ों में एक कमज़ोर-सी औरत सीट की पास की खाली जगह में आकर बैठ गई। उस महिला के आने के बाद तो अमरावती और भी बेचैन हो गई, कभी चप्पलों को काले बैग के पीछे रखती तो कभी नीले बैग के नीचे, कभी कहीं तो कभी कहीं। आखिरकार उसे नींद आ ही गई, सुबह जैसे आँख खुली उसने देखा महिला तो वहीँ है पर चप्पलें नहीं हैं। अब अमरावती ने मन ही मन में मान लिया की मेरी चप्पलें इसी औरत ने चुराई है और शोर मचाने लगी। अक्सर ट्रैन में ऐसा कोई न कोई व्यक्ति मिल जाता है जो बिना बोले मदद करने को उत्सुक होता है। अमरावती की बौगी में भी ऐसा ही एक व्यक्ति था जो अमरावती की मदद करने को उत्सुक था। पहले तो उस व्यक्ति ने उस गरीब औरत को चप्पलों की चोरी के लिया बहुत डांटा और आख़िरकार हाथ भी उठा दिया, वह बिचारी फुट-फुटकर रोने लग पड़ी। ये सब देख राम अमोल पाठक जी बहुत नाराज़ हुए और अमरावती से कहा-छोड़ दो बिचारी को, शहर पहुँचते ही तुम्हारी चप्पलें खरीदूंगा। उस गरीब औरत से राम अमोल पाठक जी ने कहा-डरो मत बहन, कोई तुम्हे कुछ नहीं कहेगा।
राम अमोल पाठक जी और अमरावती का सफर ख़त्म होता है और सूरजगढ़ पहुँच जाते हैं।
राम अमोल पाठक जी दोनों बैग कंधे पर लटका लेते हैं और ट्रेन से उतर अमरावती से चन्दन को अपनी गोद में ले लेते हैं। अमरावती भी ट्रैन से उतर सिर कभी दाईं ओर तो कभी बाईं ओर घुमा-घुमा कर स्टेशन को देख रही होती है।
तभी राम अमोल जी ने अमरावती से कहा-मैंने तुम्हें अपना पर्स रखने को दिया था ज़रा वह दे दो।
अमरावती ने राम अमोल पाठक जी को पर्स देने की खातिर अपने पर्स को खोला तो उसकी चप्पल उसके पर्स में थीं। चप्पलों को पर्स में देख राम अमोल पाठक जी का चेहरा गुस्से से लाल हो जाता है।
राम अमोल पाठक जी ने अमरावती से कहा (नाराज़ होकर) -तुम्हारे खातिर चप्पलें मैं आज ही खरीदूंगा। राम अमोल पाठक जी ने वह चप्पलें पर्स से निकाली और स्टेशन के बाहर बैठी एक भिखारिन को देखकर बोले-माँ जी बहुत ज्यादा गर्मी है चप्पलें पहना कीजिए और चप्पलें और उस भिखारिन को दे दी।
अमरावती के चेहरे पर अफ़सोस था पर किसी और बात का नहीं बस चप्पलों को खोने का।