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अमरावती पहुंची शहर को

28 सितम्बर 2022

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राम अमोल पाठक जी और अमरावती का सफर ख़त्म होता है और सूरजगढ़ पहुँच जाते हैं | 

 

राम अमोल पाठक जी दोनों बैग कंधे पर लटका लेते हैं और ट्रेन से उतर अमरावती से चन्दन को अपनी गोद में ले लेते हैं | अमरावती भी ट्रैन से उतर सिर कभी दाईं ओर तो कभी बाईं ओर घुमा-घुमा कर स्टेशन को देख रही होती है | 

अमरावती  ( मन ही मन में ) - ये भी भला कोई शहर है ? देखने से तो शहर जैसा बिलकुल मालूम नहीं होता इस से तो कहीं अच्छा अपना छपरा है | 

 

अमरावती ( अमोल पाठक जी से ) - क्यों जी ? तुम तो कह रहे थे शहर में नौकरी लगी है | ये शहर जैसा तो मालूम नहीं होता | 

 

राम अमोल पाठक जी ( अमरावती से ) - स्टेशन शहर से बाहर है, 10 मिनट में हम शहर पहुंच जाएंगे | 

 

राम अमोल पाठक जी  बैग अपने कंधे से उतार कर ज़मीन पर रख देते हैं, चंदन को अमरावती की गोद में  देकर अमरावती को वहीं खड़े रहने बोलकर स्टेशन के बाहर जाते हैं और एक ऑटो वाले को बुला कर लाते हैं ऑटो वाला दोनों बैग उठाकर अपनी ऑटो में डालता है, अमरावती ऑटो में बैठ जाती हैं, चन्दन को गोद  में ले लेती हैं और राम अमोल पाठक जी  ऑटो में बैठ जाते हैं  | 

 

 कोई 10-15  मिनट बाद राम अमोल पाठक जी अमरावती से कहते हैं | 

 

राम अमोल पाठक जी अमरावती से चंदन की मां यह देखो  यहां से शुरू होता है हमारा शहर सूरजगढ़ | 

 

 सूरजगढ़  हरियाली से भरपूर एक छोटा सा शहर था तो अमरावती को शहरों वाली कोई चमक-दमक दिखाई नहीं देती | 

 

अमरावती ( मन ही मन में ) - एडिटर साहब ने तो हम लोगों को  जंगल में लेकर पटक दिया है | और इस जंगल को शहर  कह रहे हैं |  कुछ भी ?

 

राम और पाठक जी ऑटो वाले को सीधे प्रकाश पब्लिकेशन के ऑफिस लेकर जाते हैं 5 मिनट के लिए ऑफिस में रुकने के बाद घर की चाबी लेकर आते हैं और ऑटो वाले को पता बताते हैं।

 

अब राम अमोल पाठक जी की सवारी अपने होने वाले आशियाने पर पहुंच गई थी।

 

ऑटो रूकती है, राम अमोल पाठक जी चंदन को अमरावती की गोद से लेते हैं और अमरावती ऑटो से बाहर आती है।

 

चारों तरफ एक दूसरे से सटे हुए छोटे-छोटे मकान थे, मोहल्ले को देख अमरावती के चेहरे का रंग फीका पड़ जाता है | 

 

राम अमोल पाठक जी ( अमरावती से ) - ( सामने वाले मकान की तरफ इशारा करते  हुए ) यह देखो यह रहा  हमारा मकान | 

 

अमरावती ( मन ही मन में ) -  मकान है या ट्रेन की बौगियाँ | 

 

 राम अमोल पाठक जी घर के दरवाजे पर लगा ताला खोलते हैं और अमरावती से पूछते हैं | 

 

 राम पाठक जी अमरावती से तुम्हें घर कैसा लगा ? 

 

अमरावती ( राम अमोल पाठक जी से ) -  हां जी, अच्छा है | अच्छा है | 

 

अमरावती ( मन ही मन में ) हाय !  ये कैसा घर  है ? इससे बड़े तो हमारे गांव में भैंस के तबेले होते हैं | 

 

राम अमोल पाठक जी ( अमरावती से ) -  तुमने कुछ कहा क्या ?

अमरावती ( राम अमोल पाठक जी से ) -  नहीं जी  ! मैंने तो कुछ नहीं कहा ? 

 

राम अमोल पाठक जी ( अमरावती से ) -  घर के चारो ओर कितनी हरियाली हैं,तुम  यहां गांव को बिलकुल याद नहीं करोगी | 

 

अमरावती मन ही मन में - (बुदबुदाते हुए ) गांव कैसे नहीं याद करूंगी, गांव को याद तो करना ही पड़ेगा, तुम गांव से को उठा कर जंगल जो ले आए हो | 

 

राम अमोल पाठक जी ( अमरावती से ) - तुमने कुछ कहा क्या ?

 

अमरावती ( राम अमोल पाठक जी से ) - हाँ जी, मैंने कहा कि घर क्के चारों तरफ बहुत हरियाली है ये शहर तो बिल्कुल गांव सा है | 

 

तभी दरवाजे पर खट-खट  की आवाज़ होती है तो तो राम अमोल पाठक जी दरवाजा खोलते हैं | 

 

मिश्रा जी ( राम अमोल पाठक जी से )  - प्रणाम !  एडिटर साहब  ! 

 

राम अमोल पाठक जी(  मिश्रा जी से ) -  जी प्रणाम | 

 

मैं आपका पड़ोसी हूँ भरत मिश्रा, मैं मेरे साथ सफाई के लिए एक लड़का लेकर आया  हूँ | 

 

मिश्रा जी घर के अंदर झांककर अमरावती की तरफ देखते हैं और बोल पड़ते हैं | 

 

मिश्रा जी ( अमरावती से  ) -  प्रणाम भाभी जी ! मेरे साथ छोटू आया है, इस से साफ़-सफाई करवा लीजिये | 

 

मिश्रा जी चन्दन  की तरफ देखते हैं और मुस्कुराते हैं | 

 

मिश्रा जी ( मुस्कुराके ) - अरे बेटा जी भी हैं | 

 

और मिश्रा जी घर के अंदर आ जाते हैं और चंदन को गोद में ले लेते हैं |  

 

राम अमोल पाठक जी के घर के बाहर मिश्रा जी दो कुर्सियां लगाते हैं घर के बाहर चंदन से खेलने नहीं लगते हैं | 

 

छोटू के साथ अमरावती घर की  सफाई में लग जाती है थोड़े दिन में मिश्रा जी की बीवी खाना लेकर अमरावती के घर पहुंच जाती है | 

 

भरत मिश्रा की बीवी राधा मिश्रा (अमरावती से  ) - प्रणाम भाभी जी, अभी तो आप का चूल्हा चौका शुरू नहीं हुआ, मैंने सोचा मैं ही खाना बना कर ले सकती हूं आपके लिए | 

 

रामा मोहन पाठक जी (  राधा  मिश्रा से ) -  शुक्रिया भाभी जी !

 

अमरावती  ( हिचकिचाते हुए ) -  मुस्कुराती है और राधा मिश्रा से खाने की थाली ले  लेती है | 

 

राधा मिश्रा ( सफाई वाले छोटू से ) -  छोटू तू मेरे साथ चल तेरा खाना मैं लगाती हूँ | 

 

मिश्रा जी और उनकी बीवी जा चुके हैं राममोहन पाठक अमरावती खाना खाने को बैठ जाते हैं।

 

पड़ोसी भरत मिश्रा की पत्नी राधा मिश्रा जी फिर से आती हैं और कहती हैं | 

 

राधा मिश्रा ( अमरावती से ) -  भाभी जी बच्चे के लिए दूध लेकर आई  रख लीजिए | 

अमरावती ( राधा मिश्रा से ) -  धन्यवाद !

 

राम अमोल पाठक जी ( अमरावती से ) - ( मुस्कुराकर ) बड़ी अच्छी बात है चंदन की मां, हमारे पड़ोसी बड़े  सज्जन हैं | 

 

अमरावती ( मन ही मन में ) -

सज्जन काहे  के सज्जन ?  इन लोगों से बेहतर तो मेरे गांव की भैंसें हैं।

 

राम अमोल पाठक जी और अमरावती का गांव से अब तक का सफर देखकर यह साफ-साफ समझ आता  है कि  अमरावती  के लिए किसी भी सजीव है  या निर्जीव  के विषय में अच्छा सोच पाना लगभग असंभव है । पर अमरावती राम अमोल पाठक जी के सामने अपना मन कभी नहीं खोलती इसलिए राम अमोल पाठक जी के नज़र में अमरावती गांव की एक सीधी सरल महिला ही थी | 

 

राम अमोल पाठक जी के परिवार के लिए मिश्रा जी की बीवी रात का भी खाना लेकर आती हैं और राम अमोल पाठक मिश्रा जी के संग जाकर रसोई के सामान का इंतज़ाम कर आते हैं | 

 

राम अमोल पाठक जी और अमरावती ने रात का खाना खा लिया है और खाने के बाद अमोल जी टहलने जा रहे होते हैं | बाहर जाते हुए अमरावती से कहते हैं | 

 

राम अमोल पाठक जी ( अमरावती से ) - (खुश होकर ) चन्दन की माँ ! सूरजगढ़ बड़ा अनोखा शहर है,यहाँ के लोग भी बहुत अच्छे हैं, ऐसा लगता है मानों हमारे अपने हों,सम्बन्धी हों | 

राम अमोल पाठक जी टहलने चले जाते हैं | 

राम अमोल पाठक जी के जाने के बाद अमरावती अपने 9  महीने के बेटे चंदन से बात करती है | 

अमरावती (चन्दन से ) - बेटा  चन्दन एडिटर साहब कुछ कह नहीं सकती इसलिए चुप रहती हूँ वैसे तुम्हें आज एक बताती हूँ, तुम्हारे पिताजी कहते रहते हैं,फलाना बड़े अच्छे हैं, ढिमकाना बड़े अच्छे हैं | सच बात तो ये है कि तुम्हारे पापाजी की  बुद्धि ही भ्रष्ट है | 

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रचनाएँ
अमरावती के छलावे
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"अमरावती के छलावे" यह कहानी पूर्णतया काल्पनिक है और इसके हर पात्र भी काल्पनिक हैं | "अमरावती के छलावे" कहानी है अनोखी किरदार अमरावती के जीवन से जुड़े किरदारों के जीवन यानि जिंदगी की | जिंदगी की बात की जाए तो जिंदगी में वक्त आमतौर पर दो रूपों में आता है-एक तो अच्छा वक्त और दूसरा बुरा वक्त। अच्छे वक्त की कोई खास परिभाषा नहीं है पर सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है और बुरा वक्त, इसी कई परिभाषाएँ हैं उनमें से एक है परीक्षा की घड़ी। जिस समय हमारे आसपास के व्यक्तित्व खास कर उनकी पत्नी अमरावती का एक नया रूप निकल कर सामने आता है और परेशानियाँ और भी ज्यादा बढ़ जाती हैं। इस कहानी के एक महत्त्वपूर्ण किरदारों में से एक हैं एडिटर साहब राम अमोल पाठक जी, अमरावती के पति | इस अध्याय में कहानी इनके ही इर्द-गिर्द ही घूमती नज़र आएगी। जिनके लिए कहा जा सकता है कि उनकी जिंदगी में अच्छा वक्त करीब 18-19 वर्षों तक रहा और उसके बाद आई परीक्षा की घड़ी यानी कि बुरा वक्त जब उनके आसपास के व्यक्तित्व यानी पर्सनैलिटीज़ का नया रूप उनको देखने को मिला और नए तजुर्बे हुए। इस कहानी की शुरुआत मैं बिल्कुल शुरू से करती हुं, बात जमाने की है जब इंटरनेट की मौजूदगी हमारी जीवन में नहीं के बराबर थी और कविताएं, कहानियां और किताबें हमारे मोबाइल स्क्रीन या लैपटॉप स्क्रीन पर नहीं बल्कि कागज पर छपा करती थीं।
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