shabd-logo

अंतिम यात्रा वृत्तांत

27 मार्च 2015

283 बार देखा गया 283
लोग चिल्ला रहे थे, 'राम' 'राम' से, मुक्ति संभव है, राम कहो, कि, सहसा अर्थी हिली, झल्लाकर 'लाश' बोली, 'चुप रहो' ! नाहक शोर मत करो. जीवित रहते चेताया नहीं, अब क्यों कहते हो, यही सत्य है, कि राम नाम सत्य है.

27 मार्च 2015

1

हिंदी प्रेमी...

25 मार्च 2015
0
3
1

एक हिंदी प्रेमी लगा रहे थे, ज़ोर-ज़ोर से नारा हिंदी जानो, सीखो और सिखाओ, अंग्रेजी हटाओ, तभी किसी श्रद्धालु ने पूछा आपका शुभनाम ? तपाक से बोले वो, मुझे कहते हैं 'सोभाराम' हिंदी की टूट गई टांग !

2

कहीं सूरज उगे...

25 मार्च 2015
0
1
2

कहीं सूरज उगे या कुछ सुगबुगाये, कहीं कुछ तो हो, कि सोता जाग जाए, बढ़े... आगे समूहों में, समूहों के लिए, कुछ राहें बनाये, साथ आए, और जो बातें अभी तक उलझी पड़ी हैं, वे ही शायद सुलझ जाएं !

3

अजात शत्रु

27 मार्च 2015
0
1
1

राज प्रसाद का, हर जीव चिंताग्रस्त है, क्योंकि अजात का, नवजात शिशु अस्वस्थ है, सूचना बाहर गई है, शिशु के हाथ में एक फुन्सी है, पीड़ा से कुम्हला गया, पल्लव सा बदन, रह-रह कर जननी करती रही रुदन, तभी आता है अजात और चूस लेता है पीड़ा. यह देख, बंदिनी अजात जननी, सुनाती है उसे वो कहानी, जब वे थे राजा औ

4

मित्र से

27 मार्च 2015
0
0
0

मित्र मेरे, जो खुले नहीं, मिले नहीं मुझसे, मेरे मित्र. चित्र से अनबोल, तुमने प्यार के दो बोल, मीठे कहे नहीं, किन्तु मेरे मित्र, मेरे प्रिय सुदामा, हाय! अपने कृष्ण से चावल चुराए, फिर रहे हो, किन्तु मुझमें नहीं कोई, रोहिणी सा चतुर बंधन, आस को यदि सौंप दूँ मैं, निज ह्रदय का, विशद त्रिभुवन.

5

अंतिम यात्रा वृत्तांत

27 मार्च 2015
0
1
1

लोग चिल्ला रहे थे, 'राम' 'राम' से, मुक्ति संभव है, राम कहो, कि, सहसा अर्थी हिली, झल्लाकर 'लाश' बोली, 'चुप रहो' ! नाहक शोर मत करो. जीवित रहते चेताया नहीं, अब क्यों कहते हो, यही सत्य है, कि राम नाम सत्य है.

6

मैंने देखे हैं न वे दिन

27 मार्च 2015
0
0
0

मैंने देखे हैं न वे दिन, जब एक अदद जनता का, सिर्फ एक ही बार चूल्हा जलता था, पेट ठीक से लगा दिखता था. एक धोती, एक चादर में, गर्मी तो कट जाती थी, पर... सर्दी कंपकंपाती थी. मैंने देखे हैं न वे दिन, इसलिए खुद को Self curtailed रखा है. मैंने पढ़ा है न, बड़े-बड़े विद्वानों को, कविता, लेखों और बय

7

मेरा घर

30 मार्च 2015
0
1
0

मेरा घर अब कौरव सभा हो गया है, जहाँ दुर्योधन और दु:शासन, कर रहे हैं शासन, बेहूदा सोच हो गया है, ऐसा मेरा स्वदेश हो गया है हर पल अनिश्चित है, न जाने कब बिफर पड़े कोई, और लपककर द्रौपदी के केश पकड़ ले कोई, ऐसा उद्दंड हर बशर हो गया है, ऐसा मेरा स्वदेश हो गया है. एक नहीं, दो-दो शकुनि, षड़यंत्र क

8

मेरे क़रीबी एहसास

30 मार्च 2015
0
1
0

कुछ कर सकने के एहसास से, कहीं ज़्यादा डरावना एहसास होता. 'गर हम कुछ न कर पाये होते, तो ! कि बचपन की नादानियों के तहत, भाई-बहनों को अपना समझते रहे, उन्हीं पर मरते रहे, कामयाबियों को अपना समझते रहे, कमियों पर उनकी रोते रहे, ऐसी नादानी के एहसास से, कहीं अधिक अपराध बोध होता, ऐसे नादान न होते, त

9

वैचारिक साम्य

30 मार्च 2015
0
0
0

वैचारिक साम्य के लिए, ही मरता है कोई, जो नहीं मरा, वो जिया ही कहाँ? एक ही छत के नीचे रहते हैं, ये अपनी तो, वो अपनी बात कहते हैं, साथी तो हैं, हमसफ़र हुए ही कहाँ? ज़्यादा नहीं, एक ही मिल गया, सुबह का दर्द, शाम को पिघल गया, 'गर दर्द पिघला ही नहीं तो हमदर्द हुए ही कहाँ.

10

रट नहीं सकती क्यों ?

30 मार्च 2015
0
0
0

एक बार मैंने, रट लिया एक रोल, राम थी मैं और मेरा रोल था, "हाय सीते ! अब नहीं मैं जी सकूँगा, प्राण प्यारी! 'गर मिली ना, प्राण अपने त्याग दूंगा". रात-दिन रटती रही, चाय की थी तलब, पर आखिर तक वो ना मिली. और पर्दा उठ गया... मैंने कहा, "हाय सीते ! अब नहीं मैं जी सकूंगा, चाय यदि तू ना मिली, मै

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए