वैचारिक साम्य के लिए,
ही मरता है कोई,
जो नहीं मरा,
वो जिया ही कहाँ?
एक ही छत के नीचे रहते हैं,
ये अपनी तो,
वो अपनी बात कहते हैं,
साथी तो हैं, हमसफ़र हुए ही कहाँ?
ज़्यादा नहीं, एक ही मिल गया,
सुबह का दर्द,
शाम को पिघल गया,
'गर दर्द पिघला ही नहीं
तो हमदर्द हुए ही कहाँ.
ऐसा भी क्या की मेरे विचार मुझसे बनकर मुझमें ही गुम हो जाएँ. चाहती हूँ मैं, कि ये मुझमें जन्म लें, बाहर आएं, पौधे बनें, फूल बनें, फिर फल बन जाएं, जिन्हें सभी सराहें और खाएं... D