एक बार मैंने,
रट लिया एक रोल,
राम थी मैं और मेरा रोल था,
"हाय सीते ! अब नहीं मैं जी सकूँगा,
प्राण प्यारी! 'गर मिली ना,
प्राण अपने त्याग दूंगा".
रात-दिन रटती रही,
चाय की थी तलब,
पर आखिर तक वो ना मिली.
और पर्दा उठ गया...
मैंने कहा, "हाय सीते ! अब नहीं मैं जी सकूंगा,
चाय यदि तू ना मिली,
मैं रोल आगे ना करूंगा."
हो गया अनर्थ,
कि तबसे आज तक,
स्टेज का मिला ना कोई वर्क.
बस तभी से नहीं रटती हूँ,
ऐतिहातन डायरी को साथ रखती हूँ .
ऐसा भी क्या की मेरे विचार मुझसे बनकर मुझमें ही गुम हो जाएँ. चाहती हूँ मैं, कि ये मुझमें जन्म लें, बाहर आएं, पौधे बनें, फूल बनें, फिर फल बन जाएं, जिन्हें सभी सराहें और खाएं... D