shabd-logo

आस्था

hindi articles, stories and books related to astha


हरि हरि हरि सुमिरन करौ । हरि चरनारबिंद उर धरौ ॥ हरि सुमिरन जब रुकमिनि कर्यौ । हरि करि कृपा ताहि तब बर्यौ ॥ कहौं सो कथा सुनौ चित लाइ । कहै सुनै सो रहै सुख पाइ ॥ कुंडिनपुर को भीषम राइ । बिश्नु भक्ति

बार सत्तरह जरासंध, मथुरा चढ़ि आयौ । गयो सो सब दिन हारि, जात घर बहुत लजायौ ॥ तब खिस्याइ कै कालजवन, अपनैं सँग ल्यायौ । हरि जू कियौ बिचार, सिंधु तट नगर बसायौ ॥ उग्रसेन सब लै कुटुंब, ता ठौर सिधायौ ।

सुनि ऊधौ मोहिं नैकू न बिसरत वै ब्रजवासी लोग । तुम उनकौ कछु भली न कीन्ही, निसि दिनदियौ वियोग ॥ जउ वसुदेव-देवकी मथुरा, सकल राज-सुख भोग । तदपि मनहिं बसत बंसी बट, बन जमुना संजोग ॥ वै उत रहत प्रेम अवलं

ऊधौ जब ब्रज पहुँचे जाइ । तबकी कथा कृपा करि कहियै, हम सुनिहैं मन लाइ ॥ बाबा नंद जसोदा मैया, मिले कौन हित आइ ? कबहूँ सुरसति करत माखन की, किधौं रहे बिसराइ ॥ गोप सखा दधि-भात खात बन, अरु चाखते चखाइ ।

अब अति चकितवंत मन मेरौ । आयौ हो निरगुन, उपदेसन भयौ सगुन कौ चेरौ ॥ जो मैं ज्ञान कह्यौगीता कौ, तुमहिं न परस्यौ नैरो । अति अज्ञान कछु कहत न आवै, दूत भयौ हरि केरौ ॥ निज जन जानि मानि जतननि तुम, कीन्हो

मैं ब्रजबासिन की बलिहारी । जिनके संग सदा क्रीड़त हैं, श्री गोबरधन-धारी ॥ किनहूँ कैं घर माखन चोरत, किनहूँ कैं संग दानी । किनहूँ कैं सँग धेनु चरावत, हरि की अकथ कहानी ॥ किनहूँ कैं सँग जमुना कै तट, बश

वे हरि सकल ठौर के बासी। पूरन ब्रह्म अखंडित मंडित, पंडित मुनिनि बिलासी॥ सप्त पताल ऊरध अध पृथ्वी, तल नभ बरुन बयारी। अभ्यंतर दृष्टी देखन कौ, कारन रूप मुरारी॥ मन बुधि चित्त अहंकार दसेंद्रिय, प्रेरक थं

गोपी सुनहु हरि संदेस । कह्यौ पूरन ब्रह्म ध्यावहु, त्रिगुन मिथ्या भेष ॥ मैं कहौं सो सत्य मानहु, सगुन डारहु नाखि । पंच त्रय-गुन सकल देही, जगत ऐसौ भाषि ॥ ज्ञान बिनु नर-मुक्ति नाहीं, यह विषय संसार ।

ज्ञान बिना कहुँवै सुख नाहीं । घट घट व्यापक दारु अगिनि ज्यौं, सदा बसै उर माहीं ॥ निरगुन छाँड़ी सगुन कौं दौरतिं, सुधौं कहौ किहिं पाहीं । तत्व भजौ जो निकट न छूटै, ज्यौं तनु तैं परछाहीं ॥ तिहि तें कहौ

जानि करि बावरी जनि होहु । तत्व भजै वैसी ह्वै जैहौ, पारस परसैं लोहु ॥ मेरौ बचन सत्य करि मानौ, छाँड़ौ सबकौ मोहु । तौ लगि सब पानी की चुपरी, जौ लगि अस्थित दोहु ॥ अरे मधुप ! बातैं ये ऐसी, क्यौं कहि आवत

सुनौ गोपी हरि कौ संदेस करि समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनकौ उपदेस ॥ वै अविगत अविनासी पूरन, सब-घट रहे समाइ । तत्व ज्ञान बिनु मुक्ति नहीं है, बेद पुराननि गाइ ॥ सगुन रूप तजि निरगुन ध्यावहु, इस चित इक

ऊधौ मन ना भये दस-बीस एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस॥1॥ भ्रमर गीत में सूरदास ने उन पदों को समाहित किया है जिनमें मथुरा से कृष्ण द्वारा उद्धव को बर्ज संदेस लेकर भेजा जाता है और उद्धव जो हैं योग

ब्रज घर-घर सब होति बधाइ । कँचन कलस दूब दधि रोचन ,लै वृँदाबन आइ ॥ मिली ब्रजनारि तिलक सिर कीनौ, करि प्रदच्छिना तासु । पूछत कुसल नारि-नर हरषत, आए सब ब्रज-बासु ॥ सकसकात तनधकधकात उर, अकबकात सब ठाढ़े ।

जबहिं चले ऊधौ मधुबन तैं, गोपिनि मनहिं जनाइ गई । बार-बार अलि लागे स्रवननि, कछु दुख कछु हिय हर्ष भई ॥ जहँ तहँ काग उड़ावन लागी, हरि आवत उड़ि जाहिं नहीं । समाचार कहि जबहिं मनावतिं, उड़ि बैठत सुनि औचकही

स्याम कर पत्री लिखी बनाइ । नंद बाबा सौं बिनै, कर जोरि जसुदा माइ ॥ गोप ग्वाल सखान कौं हिलि-मिलन कंठ लगाइ । और ब्रज-नर-नारि जे हैं, तिनहिं प्रीति जनाइ ॥ गोपिकनि लिखि जोग पठयो, भाव जानि न जाइ । सूर

अंतरजामी कुंवर कन्हाई । गुरु गृह पढ़त हुते जहँ विद्या, तहँ ब्रज-बासिनि की सुधि आई ॥ गुरु सौं कह्यौ जोरि कर दोऊ, दछिना कहौ सो देउँ मँगाई । गुरु-पतनी कह्यौ पुत्र हमारे, मृतक भये सो देहु जिवाई ॥ आनि

एक द्यौस कुंजनि मैं माई । नाना कुसुम लेइ अपनैं कर, दिए मोहिं सो सुरति न जाई ॥ इतने मैं घन गरजि वृष्टि करी, तनु भीज्यौ मो भई जुड़ाई । कंपत देखि उढ़ाइ पीत पट, लै करुनामय कंठ लगाई ॥ कहँ वह प्रीति रीत

सखी री चातक मोहिं जियावत । जैसेंहि रैनि रटति हौं पिय पिय, तैसैंहि वह पुनि गावत ॥ अतिहिं सुकंठ, दाह प्रीतम कैं, तारू जीभ न लावत । आपुन पियत सुधा-रस अमृत, बोलि बिरहिनी प्यावत ॥ यह पंछी जु सहाइ न होत

हरि परदेस बहुत दिन लाए । कारी घटा देखि बादर की, नैन नीर भरि आए ॥ बीर बटअऊ पंथी हौ तुम, कौन देस तैं आए । यह पाती हमरौ लै दीजौ, जहाँ साँवरै छाए ॥ दादुर मोर पपीहा बोलत, सोवत मदन जगाए । सूर स्याम गोक

हो, ता दिन कजरा मैं देहौं । जा दिन नंदनंदन के नैननि, अपने नैन मिलैहौं ॥ सुनि री सखी यहै जिय मेरैं, भूलि न और चितैहौं । अब हठ सूर यहै ब्रत मेरौ, कौकिर खै मरि जैहौं ॥21॥ देखि सखी उत है वह गाउँ ।

संबंधित किताबें

संबंधित टैग्स

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए