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गोपी विरह (भाग 3)

17 मई 2022

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हो, ता दिन कजरा मैं देहौं ।

जा दिन नंदनंदन के नैननि, अपने नैन मिलैहौं ॥

सुनि री सखी यहै जिय मेरैं, भूलि न और चितैहौं ।

अब हठ सूर यहै ब्रत मेरौ, कौकिर खै मरि जैहौं ॥21॥


देखि सखी उत है वह गाउँ ।

जहाँ बसत नँदलाल हमारे, मोहन मथुरा नाउँ ॥

कालिंदी कैं कूल रहत हैं, परम मनोहे ठाउँ ।

जौ तब पंख होइँ सुनि सजनी, अबहि उहाँ उड़ि जाउँ ॥

होनी होइ होइ सो अबहीं, इहिं ब्रज अन्न न खाउँ ॥

सूर नंदनंदन सौं हित करि, लोगनि कहा डराउँ ॥22॥


लिखि नहिं पठवत हैं द्वै बोल ।

द्वै कौड़ी के कागद मसि कौ, लागत है बहु मोल ?

हम इहि पार, स्याम पैले तट, बीच बिरह कौ जोर ।

सूरदास प्रभु हमरे मिलन कौं, हिरदै कियौ कठोर ॥23॥


सुपनैं हरि आए हौं किलकी ।

नींद जु सौति भई रिपु हमकौं, सहि न सकी रति तिल को ।

जौ जागौं तौ कोऊ नाहीं, रोके रहति न हिलकी ।

तन फिरि जरनि भई नख सिख तैं, दिया बाति जनु मिलकी ॥

पहिली दसा पलटि लीन्ही है, त्वचा तचकि तनु पिलको ।

अब कैसैं सहि जाति हमारी, भई सूर गति सिल की ॥24॥


पिय बिनु नागिनि कारी रात ।

जौ कहूँ जामिनि उवति जुन्हैया, डसि उलटि ह्वै जात ॥

जंत्र न पूरत मंत्र नहिं लागत, प्रीति सिरानी जात ।

सूर स्याम बिनु बिकल बिरहनी, मुरि मुरि लहरैं खात ॥25॥


मौकौं माई जमुना जम ह्वै रही ।

कैसैं मिलीं स्यामसुंदर कौं, बैरिनि बीच बही ॥

कितिक बीच मथुरा अरु गोकुल, आवत हरि जु नहीं ।

हम अबला कछु मरम न जान्यौ, चलत न फेंट गही ॥

अब पछिताति प्रान दुख पावत, जाति न बात कही ।

सूरदास प्रभु सुमिरि-सुमिरि गुन, दिन दिन सूल सही ॥26॥


नैन सलोने स्याम, बहुरि कब आवहिंगे ।

वै जौ देखत राते राते, फुलनि फूली डार ।

हरि बिनु फूलझरी सी लागत, झरि झरि परत अँगार ॥

फूल बिनन नहिं जाउँ सखी री, हरि बिनु कैसे फूल ।

सुनि री सखि मोहिं राम दुहाई, लागत फूल त्रिसूल ।

जब मैं पनघट जाउँ सखि री, वा जमुना कै तीर ।

भरि भरि जमुना उमड़ि चलति है, इन नैननि कैं नीर ॥

इन नैननि कैं नीर सखी री, सेज भई घरनाउ ।

चाहति हौं ताही पै चढ़ि कै, हरि जू कैं ढिग जाउँ ॥

लाल पियारे प्रान हमारे, रहे अधर पर आइ ।

सूरदास प्रभु कुंज-बिहारी, मिलत नहीं क्यौं धाइ ॥27॥


प्रीति करि काहू सुख न लह्यौ ।

प्रीति पतंग करी पावक सौं, आप प्रान दह्यौ ॥

अलि-सुत प्रीति करी जल-सुत सौं, संपुट मांझ गह्यौ ।

सारंग प्रीति करी जु नाद सौं, सन्मुख बान सह्यौ ॥

हम जौ प्रीति करी माधव सौं, चलत न कछू कह्यौ ॥

सूरदास प्रभु बिनु दुख पावत, नैननि नीर बह्यौ ॥28॥


प्रीति तौ मरिबौऊ न बिचारै ।

निरखि पतंग ज्योति-पावक ज्यौं, जरत न आपु सँभारै ॥

प्रीति कुरंग नाद मन मोहित, बधिक निकट ह्वै मारै ।

प्रीति परेवा उड़त गगन तैं, गिरत न आपु सँभारै ।

सावन मास पपीहा बोलत, पिय पिय करि जु पुकारै ।

सूरदास-प्रभु दरसन कारन, ऐसी भाँति बिचारै ॥29॥


जनि कोउ काहू कैं बस होहि ।

ज्यौ चकई दिनकर बस डोलत, मोहिं फिरावत मोहि ॥

हम तौ रीझि लटू भई लालन, महा प्रेम तिय जानि ।

बंधन अवधि भ्रमित निसि-बासर, को सुरझावत आनि ॥

उरझे संग अंग अंगनि प्रति, बिरह बेलि की नाईं ।

मुकुलित कुसुम नैन निद्रा तजि, रूप सुधा सियराई ॥

अति आधीन हीन-मति व्याकुल, कहँ लौं कहौं बनाई ।

ऐसी प्रीति-रीति रचना पर, सूरदास बलि जाई ॥30॥

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रचनाएँ
सूर सुखसागर
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सूरसागर में लगभग एक लाख पद होने की बात कही जाती है। किन्तु वर्तमान संस्करणों में लगभग पाँच हजार पद ही मिलते हैं। विभिन्न स्थानों पर इसकी सौ से भी अधिक प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई ह तक है इनमें प्राचीनतम प्रतिलिपि नाथद्वारा (मेवाड़) के सरस्वती भण्डार में सुरक्षित पायी गई हैं। सूरसागर के भ्रमरगीत से लिए गए हैं। दिए गये पदों में सूरदास जी ने गोपियों एवं उद्धव के बीच हुए बातचीत का वर्णन किया है। जब श्री कृष्ण मथुरा वापस नहीं आते और उद्धव के द्वारा मथुरा यह संदेशा भेज देते हैं कि वह वापस नहीं आ सकते, तो उद्धव अपनी राजनीतिक चालाकी से गोपियों को समझाने कि कोशिश करते हैं। परंतु उनके सारे प्रयास असफल हो जाते हैं क्योंकि गोपिया ज्ञान-मार्ग के बजाय प्रेम-मार्ग में विश्वास करती हैं और अपनी चतुराई के कारण उद्धव को गोपियों के ताने सुनने पड़ते हैं एवं उनके व्यंग का शिकार होना पड़ता है।
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मंगलाचरण

17 मई 2022
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चरन-कमल बंदौं हरि-राइ । जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अँधे कों सब कछु दरसाइ । बहिरौ सुनै, गूँग पुनि बोलै ,रंक चलै सिर छत्र धराइ । सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौं तिहिं पाइ ॥1॥

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सगुणोपासना

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अबिगत-गति कछु कहत न आवै । ज्यौं गूँगै मीठे फल कौ रस अंतरगत हीं भावै । परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै । मन-बानी कौं अगम अगोचर, सो जानै जो पावै । रूप-रेख-गुन-जाति जुगति-बिनु निरालंब कित धा

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भक्त-वत्सलता

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बासुदेव की बड़ी बड़ाई । जगत पिता, जगदीस, जगत-गुरु, निज भक्तनि-की सहत ढिठाई । भृगु कौ चरन राखि उर ऊपर, बोले बचन सकल-सुखदाई । सिव-बिरंचि मारन कौं धाए, यह गति काहू देव न पाई । बिनु-बदलैं उपकार करत है

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अविद्या-माया

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बिनती सुनौ दीन की चित्त दै, कैसें तुव गुन गावै ? माय नटी लकुटी कर लीन्हें कोटिक नाच नचावै । दर-दर लोभ लागि लिये डोलति, नाना स्वाँग बनावै । तुम सौं कपट करावति प्रभु जू, मेरी बुधि भरमावै । मन अभिलाश

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गुरु महिमा

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गुरु बिनु ऐसी कौन करै ? माला-तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै । भवसागर तैं बूड़त राखै, दीपक हाथ धरै । सूर स्याम गुरु ऐसौ समरथ, छिन मैं ले उधरै ॥1॥

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नाम महिमा

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हमारे निर्धन के धन राम चोर न लेत, घटत नहिं कबहूँ, आवत गाढ़ैं काम । जल नहिं बूड़त अगिनि न दाहत, है ऐसौ हरि नाम । बैकुँठनाथ सकल सुख-दाता, सूरदास-सुख-धाम ॥1॥ बड़ी है राम नाम की ओट । सरन गऐं प्रभ

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भगवदाश्रम

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मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै । जैसें उड़ि जहाज को पच्छी; फिरि जहाज पर आवै । कलम-नैन कौ छाँड़ि महातम, और देव कौं ध्वावै ॥ परम गंग कौं छाँड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै । जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्य

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भावी

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करी गोपाल की सब होइ । जो अपनौ पुरुषारथ मानत, अति झूठौ है सोइ । साधन, मंत्र, जंत्र, उद्यम, बल, ये सब डारौ धोइ । जो कछु लिखि राखी नँदनंदन, मेटि सकै नहिं कोइ । दुख-सुख, लाभ-अलाभ समुझि तुम, कतहिं मरत

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वैराग्य

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 किते दिन हरि-सुमिरन बिनु खोए । परनिंदा रसना के रस करि, केतिक जनम बिगोए । तेल लगाइ कियौ रुचि मर्दन, बस्तर मलि-मलि धोए । तिलक बनाई चले स्वामी ह्वै, विषयिनि के मुख जोए । काल बली तैं सब जग काँप्यौ, ब

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चित्-बुद्धि-संवाद

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चकई री, चलि चरन-सरोवर, जहाँ न प्रेम वियोग । जहँ भ्रम-निसा होति नहिं कबहूँ, सोइ सायर सुख जोग । जहाँ सनक-सिव हंस, मीन मुनि, नख रवि-प्रभा प्रकास । प्रफुलित कमल, निमिष नहिं ससि-डर, गुंजत निगम सुवास ।

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मन प्रबोध

17 मई 2022
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सब तजि भजिऐ नंद कुमार । और भजै तैं काम सरै नहिं, मिटै न भव जंजार । जिहिं जिहिं जोनि जन्म धार्‌यौ, बहु जोर्‌यौ अघ कौ भार । जिहिं काटन कौं समरथ हरि कौ तीछन नाम-कुठार । बेद, पुरान, भागवत, गीता, सब कौ

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हरिविमुख-निन्दा

17 मई 2022
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अचंभो इन लोगनि कौ आवै । छाँड़े स्याम-नाम-अम्रित फल, माया-विष-फल भावै । निंदत मूढ़ मलय चंदन कौं राख अंग लपटावै । मानसरोवर छाँड़ि हंस तट काग-सरोवर न्हावै । पगतर जरत न जानै मूरख, घर तजि घूर बुझावै ।

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सत्संग-महिमा

17 मई 2022
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जा दिन संत पाहुने आवत । तीरथ कोटि सनान करैं फल जैसी दरसन पावत । नयौ नेह दिन-दिन प्रति उनकै चरन-कमल चित-लावत । मन बच कर्म और नहिं जानत, सुमिरत और सुमिरावत । मिथ्या बाद उपाधि-रहित ह्वैं, बिमल-बिमल ज

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स्थितप्रज्ञ

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हरि-रस तौंऽब जाई कहुँ लहियै । गऐं सोच आऐँ नहिं आनँद, ऐसौ मारग गहियै । कोमल बचन, दीनता सब सौं, सदा आनँदित रहियै । बाद बिवाद हर्ष-आतुरता, इतौ द्वँद जिय सहियै । ऐसी जो आवै या मन मैं, तौ सुख कहँ लौं क

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आत्मज्ञान

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अपुनपौ आपुन ही बिसर्‌यौ । जैसे स्वान काँच-मंदिर मैं, भ्रमि-भ्रमि भूकि पर्‌यौ । ज्यौं सौरभ मृग-नाभि बसत है, द्रुम तृन सूँधि फिर्‌यौ । ज्यौं सपने मै रंक भूप भयौ, तसकर अरि पकर्‌यौ । ज्यौं केहरि प्रति

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शैशव-चरित

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जसोदा हरि पालनैं झुलावै । हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-सोइ कछु गावै । मेरे लाल को आउ निदँरिया, काहैं न आनि सुवावै । तू काहें नहिं बेगहिं आवै, तोकों कान्ह बुलावै । कबहुँक पलक हरि मूँद लेत हैं, कबहुँ

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बालगोपाल

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सोभित कर नवनीत लिए । घुटुरुनि चलत रेनु तन-मंडित, मुख दधि लेप किये । चारू कपोल , लोल लोचन, गोरोचन-तिलक दिये । लट-लटकनि मनु मधुप-गन मादक मधूहिं पिए । कठुला-कंठ, ब्रज केहरि-नख, राजत रुचिर हिए । धन्य

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माखन-चोरी

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मैया री, मोहिं माखन भावै । जो मेवा पकवान कहति तू, मोहिं नहीं रुचि आवै । ब्रज-जुवती इक पाछै ठाढ़ी, सुनत श्याम की बात । मन-मन कहति कबहुँ अपनैं घर, देखौं माखन खात । बैठे जाइ मथनियाँ कैं ढिग, मैं तब र

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वृंदावन प्रस्थान

17 मई 2022
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महरि-महरि कैं मन यह आई । गोकुल होत उपद्रव दिन प्रति, बसिऐ बृंदावन मैं जाई । सब गोपनि मिलि सकटा साजे, सबहिनि के मन मैं यह भाई । सूर जमुन-तट डेरा दीन्हे, बरष के कुँवर कन्हाई ॥1॥

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गोदोहन

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मैं दुहिहौं मोहिं दुहन सिखावहु । कैसें गहत दोहनी घुटुवनि, कैसैं बछरा थन लै लावहु । कैसैं लै नोई पग बाँधत, कैसे लै गैया अटकावहु । कैसैं धार दूध की बाजति, सोई सोइ विधि तुम मोहिं बतावहु । निपट भई अब

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गो-चारण

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आजु मैं गाइ चरावन जैहौं । बृंदाबन के भाँति भाँति फल अपने कर मैं खैहौं । ऐसी बात कहौ जनि बारे, देखौ अपनी भाँति । तनक तनक पग चलिहौ कैसैं, आवत ह्वैं है अति राति । प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत हैं स

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काली-दमन

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नारद ऋषि नृप तौ यौं भाषत । वे हैं काल तुम्हारे प्रगटे काहैं उनकौं राखत । काली उरग रहै जमुना मैं, तहै तैं कमल मँगावहु । दूत पठाइ देहु ब्रज ऊपर, नंदहिं अति डरपावहु । यह सुनि कै ब्रज लोग डरैंगै, वैं

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मुरली

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जब हरि मुरली अधर धरत । थिर चर, चर थिर, पवन थकित रहैं, जमुना जल न बहत ॥ खग मौहैं मृग-जूथ भुलाहीं, निरखि मदन-छबि छरत । पसु मोहैं सुरभी विथकित, तृन दंतनि टेकि रहत ॥ सुक सनकादि सकल मुनि मोहैं ,ध्यान न

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कमरी

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धनि धनि यह कामरी मोहन स्याम की । यहै ओढ़ि जात बन, यहै सेज कौ बसन, यहै निवारिनि मेहबूँद छाँह घाम की । याही ओट सहत सिसिर-सीत, याहीं गहने हरत, लै धरत ओट कोटि बाम की । यहै जाति-पाँति, परिपाटी यह सिखवत,

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चीर-हरन

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भवन रवन सबही बिसरायौ । नंद-नँदन जब तैं मन हरि लियौ, बिरथा जनम गँवायौ ॥ जप, तप व्रत, संजम, साधन तैं, द्रवित होत पाषान । जैसैं मिलै स्याम सुंदर बर, सोइ कीजै, नहिं आन । यहै मंत्र दृढ़ कियौ सबनि मिलि,

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गोवर्द्धनधारण

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बाजति नंद-अवास बधाई । बैठे खेलत द्वार आपनैं, सात बरस के कुँवर कन्हाई ॥ बैठे नंद सहित वृषभानुहिं, और गोप बैठे सब आई । थापैं देत घरिन के द्वारैं, गावतिं मंगल नारि बधाई ॥ पूजा करत इंद्र की जानी, आए स

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रास लीला

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जबहिं बन मुरली स्रवन परी । चकित भईं गोप-कन्या सब, काम-धाम बिसरीं ॥ कुल मर्जाद बेद की आज्ञा, नैंकहुँ नहीं डरीं । स्याम-सिंधु, सरिता-ललना-गन, जल की ढरनि ढरीं ॥ अंग-मरदन करिबे कौं लागौं, उबटन तेल धरी

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पनघट लीला

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पनघट रोके रहत कन्हाई । जमुना-जल कोउ भरन न पावै, देखत हीं फिर जाई ॥ तबहिं स्याम इक बुद्धि उपाई, आपुन रहे छपाई । तट ठाढ़े जे सखा संग के, तिनकौं लियौ बुलाई ॥ बैठार्‌यौ ग्वालनि कौंद्रुमतर, आपुन फिर-फि

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दान लीला

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ऐसौ दान माँगयै नहिं जौ, हम पैं दियौ न जाइ । बन मैं पाइ अकेली जुवतिनि, मारग रोकत धाइ ॥ घाट बाट औघट जमुना-तट, बातैं कहत बनाइ । कोऊ ऐसौ दान लेत है, कौनैं पठए सिखाइ ॥ हम जानतिं तुम यौं नहिं रैहौ, रहिह

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गोपिका अनुराग

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लोक-सकुच कुल-कानि तजौ । जैसैं नदी सिंधु कौं धावै वैसैंहि स्याम भजी ॥ मातु पिता बहु त्रास दिखायौ, नैकुँ न डरी, लजी । हारि मानि बैठे, नहिं लागति, बहुतै बुद्धि सजी ॥ मानति नहीं लोक मरजादा, हरि कैं रं

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रूप-वर्णन

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देखौ माई सुंदरता कौ सागर । बुधि-बिबेक बल पार न पावत, मगन होत मन नागर ॥ तनु अति स्याम अगाध अंबु-निधि, कटि पट पीत तरंग । चितवत चलत अधिक रुचि उपजति, भँवर परति सब अंग ॥ नैन-मीन, मकराकृत कुंडल, भुज सरि

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नेत्र अनुराग

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नैन न मेरे हाथ रहै । देखत दरस स्याम सुंदर कौ, जल की ढरनि बहे ॥ वह नीचे कौं धावत आतुर , वैसेहि नैन भए । वह तौ जाइ समात उदधि मैं, ये प्रति अंग रए ॥ यह अगाध कहुँ वार पार नहिं, येउ सोभा नहिं पार ॥ लो

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प्रथम मिलन

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खेलत हरि निकसै ब्रज-खोरी कटि कछनी पीतांबर बाँधे, हाथ लिये भौंरा,चक, डोरी ॥ मोर-मुकुट, कुंडल स्रवननि बर, बसन-दमक दामिनि-छबि छोरी । गए स्याम रबि-तनया कैं तट, अंग लसति चंदन की खोरी ॥ औचक ही देखी तहँ

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गारुड़ी कृष्ण

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सखियनि मिलि राधा घर लाईं । देखहु महरि सुता अपनी कौं, कहूँ इहिं कारैं खाई ॥ हम आगैं आवति, यह पाछैं धरनि परी भहराई । सिर तैं गई दोहनी ढरिकै, आपु रही मुरझाई ॥ स्याम-भुअंग डस्यौ हम देखत, ल्यावहु गुनी

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संबंध रहस्य

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तुम सौं कहा कहौं सुंदर घन । या ब्रज मैं उपहास चलत है, सुनि सुनि स्रवन रहति मनहीं मन ॥ जा दिन सवनि पछारि, नोइ करि, मोहि दुहि नई धेनु बंसीबन । तुम गही बाहँ सुभाइ आपनैं हौं चितई हँसि नैकु बदन-तन । ता

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राधा-सखी संवाद

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घरहिं जाति मन हरष बढ़ायौ । दुख डार्‌यौ, सुख अंग भार भरि, चली लूट सौ पायौ ॥ भौंह सकोरति चलति मंद गति, नैकु बदन मुसुकायौ । तहँ इक सखी मिली राधा कौं, कहति भयौ मन भायौ । कुँज-भवन हरि-सँग बिलसि रस, मन

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माता की सीख

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काहै कौं पर-घर छिनु-छिनु जाति। घर मैं डाँटि देति सिख जननी, नाहिं न नैंकु डराति॥ राधा-कान्ह कान्ह राधा ब्रज, ह्वै रह्यौ अतिहि लजाति। अब गोकुल को जैबौ छाँड़ौ, अपजस हू न अघाति॥ तू बृषभानु बड़े की बेट

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कृष्ण दर्शन

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राधा जल बिहरति सखियनि सँग । ग्रीव-प्रजंत नीर मै ठाढ़ी, छिरकति जल अपनैं अपनैं रंग ॥ मुख भरि नीर परसपर डारतिं, सोभा अतिहिं अनूप बढ़ी तब । मनहु चंद-मन सुधा गँडूषनि, डारति हैं आनंद भरे सब ॥ आईं निकसि

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राधा का अनुराग

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पुनि पुनि कहति हैं ब्रज नारि । धन्य बड़ भागिनी राधा, तेरैं बस गिरिधारि ॥ धन्य नंद-कुमार धनि तुम, धन्य तेरी प्रीति । धन्य दोउ तुम नवल जोरी, कोक कलानि जीति ॥ हम विमुख, तुम कृष्न-संगिनि, प्रान इक, द्

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उपहास

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तुम कुल बधू निलज जनि ह्वै हौ । यह करनी उनहीं कौं छाजै, उनकैं संग न जैहौ ॥ राध-कान्ह-कथा ब्रज-घर-घर, ऐसें जनि कहवैहौ । यह करनी उन नई चलाई, तुम जनि हमहिं हँसैहौ ॥ तुम हौ बड़े महर की बेटी, कुल जनि ना

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सहसा भेंट

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इततें राधा जाति जमुन-तट, उततैं हरि आवत घर कौं । कटि काछनी, वेष नटवर कौ, बीच मिली मुरलीधर कौं ॥ चितै रही मुख-इंदु मनोहर, वा छबि पर वारति तन कौं । दूरहु तै देखत ही जाने, प्राननाथ सुंदर घन कौं ॥ रोम

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व्याज मिलन

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सुनि री मैया काल्हिहीं, मोतिसरी गँवाई । सखिनि मिलै जमुना गई, धौं उनही चुराई ॥ कीधौं जलही मैं गई, यह सुधि नहिं मेरैं ! तब तैं मैं पछिताति हौं, कहति न डर तेरैं ॥ पलक नहीं निसि कहुँ लगी, मोहिं सपथ ति

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भ्रम

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आजु सखी अरुनोदय मेरे, नैननि कौं धोख भयौ । की हरि आजु पंथ इहिं गवने, स्याम जलद की उनयौ ॥ की बग पाँति भाँति, उर पर की मुकुट-माल बहु मोल । कीधौं मोर मुदित नाचत, की बरह-मुकुट की डोल ॥ की घनघोर गंभीर प

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एकनिष्ठा

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धन्य धन्य बृषभानु-कुमारी । धनि माता, धनि पिता तिहारे , तोसी जाई बारी ॥ धन्य दिवस, धनि निसा तबहिं, धन्य घरी, धनि जाम । धन्य कान्ह तेरैं बस जे हैं, धनि कीन्हे बस स्याम ॥ धनि मति, धनि रति, धनि तेरौ ह

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लघुमान लीला

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मैं अपनैं जिय गर्व कियौ । वै अंतरजामी सब जानत देखत ही उन चरचि लियौ ॥ कासौं कहौ मिलावै को अब,नैकु न धीरज धरत जियौ । वैतौ निठुर भए या बुधि सौं, अहंकार फल यहै दियौ ॥ तब आपुन कौं निठुर करावति, प्रीति

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कृष्ण गोपिका

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नंद-नंदन तिय-छबि तनु काछे । मनु गोरी साँवरी नारि दोउ, जाति सहज मै आछे ॥ स्याम अंग कुसुमी नई सारी, फल-गुँजा की भाँति । इत नागरि नीलांबर पहिरे, जनु दामिनि घन काँति ॥ आतुर चले जात बन धामहिं, मन अति ह

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मान लीला

17 मई 2022
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मौहिं छुवौ जनि दूर रहौ जू । जाकौं हृदय लगाइ लयौ है, ताकी वाहँ गहौ जू ॥ तुम सर्वज्ञ और सब मूरख, सो रानी अरु दासी । मैं देखत हिरदय वह बैठी, हम तुमकौ भइँ हाँसी ॥ बाँह गहत कछु सरम न आवति, सुख पावति मन

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खंडिता प्रकरण

17 मई 2022
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काहे कौं कहि गए आइहैं, काहैं झूठी सौ हैं खाए । ऐसे मैं नहिं जाने तुमकौं, जे गुन करि तुम प्रगट दिखाए । भली करी यह दरसन दीन्हे, जनम जनम के ताप नसाए । तब चितए हरि नैंकु तिया-तन, इतनैहि सब अपराध समाए ॥

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मध्यम मान

17 मई 2022
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स्याम दिया सन्मुख नहिं जोवत । कबहुँ नैन की कोर निहारत, कबहुँ बदन पुनि गोवत । मन मन हँसत त्रसत तनु परगट, सुनत भावती बात । खंडित बचन सुनत प्यारी के पुलक होत सब गात । यह सुख सूरदास कछु जानै, प्रभु अप

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बड़ी मान लीला

17 मई 2022
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राधेहिं स्याम देखी आइ । महा मान दृढ़ाइ बैठी, चितै काँपैं जाइ ॥ रिसहिं रिस भई मगन सुंदरि, स्याम अति अकुलात । चकित ह्वै जकि रहे ठाढ़े, कहि न आवै बात ॥ देखि व्याकुल नंद-नंदन, रूखी करति विचार । सूर द

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वसंतोत्सव

17 मई 2022
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झूलत स्याम स्यामा संग । निरखि दंपति अंग सोभा, लजत कोटि अनंग । मंद त्रिविध समीर सीतल, अंग अंग सुगंध । मचत उड़त सुबास सँग, मन रहे मधुकर बंध ॥ तैसिये जमुना सुभग जहँ, रच्यौ रंग हिंडोल । तैसियै बृज-बद

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अक्रूर ब्रज आगमन

17 मई 2022
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कंस नृपति अक्रूर बुलाये । बैठि इकंत मंत्र दृढ़ कीन्हौ, दोऊ बंधु मँगाये ॥ कहूँ मल्ल, कहुँ गज दै राखे, कहूँ धनुष, कहुँ वीर । नंद महर के बालक मेरैं करषत रहत सरीर ॥ उनहिं बुलाइ बीच ही मारौ, नगर न आवन

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मथुरा प्रयाण

17 मई 2022
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अब नँद गाइ लेहु सँभारि । जो तुम्हारैं आनि बिलमे, दिन चराई चारि ॥ दूध दही खवाइ कीन्हेम बड़ अति प्रतिपारि । दूध दही खवाइ कीन्हे, बड़ अति प्रतिपारि । ये तुम्हारे गुन हृदय तैं; डारिहौं न बिसारि ॥ मात

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मथुरा प्रवेश तथा कंस बध

17 मई 2022
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बूझत हैं अक्रूरहिं स्याम । तरनि किरनि महलनि पर झाईं, इहै मधुपुरी नाम ॥ स्रवननि सुनत रहत हे जाकौं, सो दरसन भए नैन । कंचन कोट कँगूरनि की छबि , मानौ बैठे मैन ॥ उपवन बन्यौ चहूँधा पुर के, अतिहिं मोकौं

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नंद का ब्रज प्रत्यागमन

17 मई 2022
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बेगि ब्रज कौं फिरिए नँदराइ । हमहिं तुमहिं सुत तात कौ नातौं, और पर्‌यौ हैं आइ ॥ बहुत कियौ प्रतिपाल हमारौ, सो नहिं जी तैं जाइ । जहाँ रहैं तहँ तहाँ तुम्हारे, डार्‌यौ जनि बिसराइ ॥ जननि जसोदा भेंटि सखा

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गोपी बचन तथा ब्रजदशा

17 मई 2022
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ग्वारनि कही ऐसी जाइ । भए हरि मधुपुरी राजा, बड़े बंस कहाइ ॥ सूत मागध बदत बिरदनि, बरनि बसुद्यौ तात । राज-भूषन अंग भ्राजत, अहिर कहत लजात ॥ मातु पितु बसुदेव दैवै, नंद जसुमति नाहिं । यह सुनत जल नैन ढा

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गोपी विरह (भाग 1)

17 मई 2022
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चलत गुपाल के सब चले । यह प्रीतम सौं प्रीति निरंतर, रहे न अर्ध पले । धीरज पहिल करी चलिबैं की, जैसी करत भले । धीर चलत मेरे नैननि देखे, तिहिं छिनि आँसु हले ॥ आँसु चलत मेरी बलयनि देखे, भए अंग सिथिले ।

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गोपी विरह (भाग 2)

17 मई 2022
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कब देखौं इहिं भाँति कन्हाई । मोरनि के चँदवा माथे पर, काँध कामरी लकुट सुहाई ॥ बासर के बीतैं सुरभिन सँग, आवत एक महाछबि पाई । कान अँगुरिया घालि निकट पुर, मोहन राग अहीरी गाई ॥ क्यौं हुँ न रहत प्रान दर

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गोपी विरह (भाग 2)

17 मई 2022
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कब देखौं इहिं भाँति कन्हाई । मोरनि के चँदवा माथे पर, काँध कामरी लकुट सुहाई ॥ बासर के बीतैं सुरभिन सँग, आवत एक महाछबि पाई । कान अँगुरिया घालि निकट पुर, मोहन राग अहीरी गाई ॥ क्यौं हुँ न रहत प्रान दर

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गोपी विरह (भाग 3)

17 मई 2022
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हो, ता दिन कजरा मैं देहौं । जा दिन नंदनंदन के नैननि, अपने नैन मिलैहौं ॥ सुनि री सखी यहै जिय मेरैं, भूलि न और चितैहौं । अब हठ सूर यहै ब्रत मेरौ, कौकिर खै मरि जैहौं ॥21॥ देखि सखी उत है वह गाउँ ।

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गोपी विरह (भाग 4)

17 मई 2022
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हरि परदेस बहुत दिन लाए । कारी घटा देखि बादर की, नैन नीर भरि आए ॥ बीर बटअऊ पंथी हौ तुम, कौन देस तैं आए । यह पाती हमरौ लै दीजौ, जहाँ साँवरै छाए ॥ दादुर मोर पपीहा बोलत, सोवत मदन जगाए । सूर स्याम गोक

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गोपी विरह (भाग 5)

17 मई 2022
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सखी री चातक मोहिं जियावत । जैसेंहि रैनि रटति हौं पिय पिय, तैसैंहि वह पुनि गावत ॥ अतिहिं सुकंठ, दाह प्रीतम कैं, तारू जीभ न लावत । आपुन पियत सुधा-रस अमृत, बोलि बिरहिनी प्यावत ॥ यह पंछी जु सहाइ न होत

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गोपी विरह (भाग 6)

17 मई 2022
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एक द्यौस कुंजनि मैं माई । नाना कुसुम लेइ अपनैं कर, दिए मोहिं सो सुरति न जाई ॥ इतने मैं घन गरजि वृष्टि करी, तनु भीज्यौ मो भई जुड़ाई । कंपत देखि उढ़ाइ पीत पट, लै करुनामय कंठ लगाई ॥ कहँ वह प्रीति रीत

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उद्धव को ब्रज भेजना

17 मई 2022
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अंतरजामी कुंवर कन्हाई । गुरु गृह पढ़त हुते जहँ विद्या, तहँ ब्रज-बासिनि की सुधि आई ॥ गुरु सौं कह्यौ जोरि कर दोऊ, दछिना कहौ सो देउँ मँगाई । गुरु-पतनी कह्यौ पुत्र हमारे, मृतक भये सो देहु जिवाई ॥ आनि

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तीन पाती तथा संदेश

17 मई 2022
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स्याम कर पत्री लिखी बनाइ । नंद बाबा सौं बिनै, कर जोरि जसुदा माइ ॥ गोप ग्वाल सखान कौं हिलि-मिलन कंठ लगाइ । और ब्रज-नर-नारि जे हैं, तिनहिं प्रीति जनाइ ॥ गोपिकनि लिखि जोग पठयो, भाव जानि न जाइ । सूर

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उद्धव ब्रज आगमन

17 मई 2022
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जबहिं चले ऊधौ मधुबन तैं, गोपिनि मनहिं जनाइ गई । बार-बार अलि लागे स्रवननि, कछु दुख कछु हिय हर्ष भई ॥ जहँ तहँ काग उड़ावन लागी, हरि आवत उड़ि जाहिं नहीं । समाचार कहि जबहिं मनावतिं, उड़ि बैठत सुनि औचकही

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उद्धव का गोपियों को पाती देना

17 मई 2022
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ब्रज घर-घर सब होति बधाइ । कँचन कलस दूब दधि रोचन ,लै वृँदाबन आइ ॥ मिली ब्रजनारि तिलक सिर कीनौ, करि प्रदच्छिना तासु । पूछत कुसल नारि-नर हरषत, आए सब ब्रज-बासु ॥ सकसकात तनधकधकात उर, अकबकात सब ठाढ़े ।

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भ्रमर गीत

17 मई 2022
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ऊधौ मन ना भये दस-बीस एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस॥1॥ भ्रमर गीत में सूरदास ने उन पदों को समाहित किया है जिनमें मथुरा से कृष्ण द्वारा उद्धव को बर्ज संदेस लेकर भेजा जाता है और उद्धव जो हैं योग

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उद्धव-गोपी संवाद भाग १

17 मई 2022
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सुनौ गोपी हरि कौ संदेस करि समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनकौ उपदेस ॥ वै अविगत अविनासी पूरन, सब-घट रहे समाइ । तत्व ज्ञान बिनु मुक्ति नहीं है, बेद पुराननि गाइ ॥ सगुन रूप तजि निरगुन ध्यावहु, इस चित इक

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उद्धव-गोपी संवाद भाग २

17 मई 2022
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जानि करि बावरी जनि होहु । तत्व भजै वैसी ह्वै जैहौ, पारस परसैं लोहु ॥ मेरौ बचन सत्य करि मानौ, छाँड़ौ सबकौ मोहु । तौ लगि सब पानी की चुपरी, जौ लगि अस्थित दोहु ॥ अरे मधुप ! बातैं ये ऐसी, क्यौं कहि आवत

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उद्धव-गोपी संवाद भाग ३

17 मई 2022
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ज्ञान बिना कहुँवै सुख नाहीं । घट घट व्यापक दारु अगिनि ज्यौं, सदा बसै उर माहीं ॥ निरगुन छाँड़ी सगुन कौं दौरतिं, सुधौं कहौ किहिं पाहीं । तत्व भजौ जो निकट न छूटै, ज्यौं तनु तैं परछाहीं ॥ तिहि तें कहौ

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उद्धव-गोपी संवाद भाग ४

17 मई 2022
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गोपी सुनहु हरि संदेस । कह्यौ पूरन ब्रह्म ध्यावहु, त्रिगुन मिथ्या भेष ॥ मैं कहौं सो सत्य मानहु, सगुन डारहु नाखि । पंच त्रय-गुन सकल देही, जगत ऐसौ भाषि ॥ ज्ञान बिनु नर-मुक्ति नाहीं, यह विषय संसार ।

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उद्धव-गोपी संवाद भाग ५

17 मई 2022
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वे हरि सकल ठौर के बासी। पूरन ब्रह्म अखंडित मंडित, पंडित मुनिनि बिलासी॥ सप्त पताल ऊरध अध पृथ्वी, तल नभ बरुन बयारी। अभ्यंतर दृष्टी देखन कौ, कारन रूप मुरारी॥ मन बुधि चित्त अहंकार दसेंद्रिय, प्रेरक थं

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उद्धव हृदय परिवर्तन तथा गोपी सन्देश

17 मई 2022
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मैं ब्रजबासिन की बलिहारी । जिनके संग सदा क्रीड़त हैं, श्री गोबरधन-धारी ॥ किनहूँ कैं घर माखन चोरत, किनहूँ कैं संग दानी । किनहूँ कैं सँग धेनु चरावत, हरि की अकथ कहानी ॥ किनहूँ कैं सँग जमुना कै तट, बश

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पूर्ण परिवर्तन तथा यशोदा संदेश

17 मई 2022
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अब अति चकितवंत मन मेरौ । आयौ हो निरगुन, उपदेसन भयौ सगुन कौ चेरौ ॥ जो मैं ज्ञान कह्यौगीता कौ, तुमहिं न परस्यौ नैरो । अति अज्ञान कछु कहत न आवै, दूत भयौ हरि केरौ ॥ निज जन जानि मानि जतननि तुम, कीन्हो

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उद्धव मथुरा प्रत्यागमन तथा कृष्ण उद्धव संवाद

17 मई 2022
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ऊधौ जब ब्रज पहुँचे जाइ । तबकी कथा कृपा करि कहियै, हम सुनिहैं मन लाइ ॥ बाबा नंद जसोदा मैया, मिले कौन हित आइ ? कबहूँ सुरसति करत माखन की, किधौं रहे बिसराइ ॥ गोप सखा दधि-भात खात बन, अरु चाखते चखाइ ।

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श्रीकृष्ण वचन

17 मई 2022
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सुनि ऊधौ मोहिं नैकू न बिसरत वै ब्रजवासी लोग । तुम उनकौ कछु भली न कीन्ही, निसि दिनदियौ वियोग ॥ जउ वसुदेव-देवकी मथुरा, सकल राज-सुख भोग । तदपि मनहिं बसत बंसी बट, बन जमुना संजोग ॥ वै उत रहत प्रेम अवलं

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द्वारिका प्रमाण

17 मई 2022
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बार सत्तरह जरासंध, मथुरा चढ़ि आयौ । गयो सो सब दिन हारि, जात घर बहुत लजायौ ॥ तब खिस्याइ कै कालजवन, अपनैं सँग ल्यायौ । हरि जू कियौ बिचार, सिंधु तट नगर बसायौ ॥ उग्रसेन सब लै कुटुंब, ता ठौर सिधायौ ।

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रुक्मिणी परिणय

17 मई 2022
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हरि हरि हरि सुमिरन करौ । हरि चरनारबिंद उर धरौ ॥ हरि सुमिरन जब रुकमिनि कर्यौ । हरि करि कृपा ताहि तब बर्यौ ॥ कहौं सो कथा सुनौ चित लाइ । कहै सुनै सो रहै सुख पाइ ॥ कुंडिनपुर को भीषम राइ । बिश्नु भक्ति

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बलभद्र ब्रज यात्रा

17 मई 2022
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श्याम राम के गुन नित गाऊँ । स्याम राम ही सौं चित लाऊँ ॥ एक बार हरि निज पुर छाए । हलधर जी वृंदाबन गए रथ देखत लोगनि सुख पाए । जान्यौ स्याम राम दोउ आए । नंद जसोमति जब सुधि पाई । देह गेह की सुरति भुलाई

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सुदामा चरित

17 मई 2022
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कंत सिधारी मधुसूदन पै सुनियत हैं वे मीत तुम्हारे । बाल सखा अरु बिपति बिभंजन, संकट हरन मुकुंद मुरारे ॥ और जु अतुसय प्रीति देखियै, निज तन मन की प्रीति बिसारे । सरबस रीझि देत भक्तनि खौं, रंक नृपति काह

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ब्रजनारी पथिक संवाद

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तब तैं बहुरि न कोऊ आयौ । वहै जु एक बेर ऊधौ सौं, कछु संदेसौ पायौ ॥ छिन छिन सुरति करत जदुपति की, परत न मन समुझायौ । गोकुलनाथ हमारैं हित लगि, लिखि हू क्यौं न पठायौ ॥ यहै विचार करौं धौं सजनी, इती गहरु

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रुक्मिनी कृष्ण संवाद

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रुकमिनि बूझति हैं गोपालहिं । कहौ बात अपने गोकुल की कितिक प्रीति ब्रजबालहिं ॥ तब तुम गाइ चरावन जाते, उर धरते बनमालहिं । कहा देखि रीझे राधा सौं, सुंदर नैन बिसालहिं ॥ इतनी सुनत नैन भरि आए, प्रेम बिबस

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कुरुक्षेत्र में कृष्ण-ब्रजवासी भेंट

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ब्रज बासिन कौ हेतु, हृदय मैं राखि मुरारी । सब जादव सौं कह्यौ, बैठि कै सभा मझारी ॥ बड़ौ परब रवि-ग्रहन, कहा कहौं तासु बड़ाई । चलौ सकल कुरुखेत, तहाँ मिलि न्हैयै जाई ॥ तात, मात निज नारि लिए, हरि जू सब

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राधा कृष्ण मिलन

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हरि सौं बूझति रुकमिनि इनमैं को बृषभानु किसोरी । बारक हमै दिखावहु अपने, बालापन की जोरी ॥ जाकौ हेत निरंतर लीन्हे, डोलत ब्रज की खोरी । अति आतुर ह्वै गाइ दुहावन, जाते पर-घर चोरी ॥ रचते सेज स्वकर सुमनन

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