हो, ता दिन कजरा मैं देहौं ।
जा दिन नंदनंदन के नैननि, अपने नैन मिलैहौं ॥
सुनि री सखी यहै जिय मेरैं, भूलि न और चितैहौं ।
अब हठ सूर यहै ब्रत मेरौ, कौकिर खै मरि जैहौं ॥21॥
देखि सखी उत है वह गाउँ ।
जहाँ बसत नँदलाल हमारे, मोहन मथुरा नाउँ ॥
कालिंदी कैं कूल रहत हैं, परम मनोहे ठाउँ ।
जौ तब पंख होइँ सुनि सजनी, अबहि उहाँ उड़ि जाउँ ॥
होनी होइ होइ सो अबहीं, इहिं ब्रज अन्न न खाउँ ॥
सूर नंदनंदन सौं हित करि, लोगनि कहा डराउँ ॥22॥
लिखि नहिं पठवत हैं द्वै बोल ।
द्वै कौड़ी के कागद मसि कौ, लागत है बहु मोल ?
हम इहि पार, स्याम पैले तट, बीच बिरह कौ जोर ।
सूरदास प्रभु हमरे मिलन कौं, हिरदै कियौ कठोर ॥23॥
सुपनैं हरि आए हौं किलकी ।
नींद जु सौति भई रिपु हमकौं, सहि न सकी रति तिल को ।
जौ जागौं तौ कोऊ नाहीं, रोके रहति न हिलकी ।
तन फिरि जरनि भई नख सिख तैं, दिया बाति जनु मिलकी ॥
पहिली दसा पलटि लीन्ही है, त्वचा तचकि तनु पिलको ।
अब कैसैं सहि जाति हमारी, भई सूर गति सिल की ॥24॥
पिय बिनु नागिनि कारी रात ।
जौ कहूँ जामिनि उवति जुन्हैया, डसि उलटि ह्वै जात ॥
जंत्र न पूरत मंत्र नहिं लागत, प्रीति सिरानी जात ।
सूर स्याम बिनु बिकल बिरहनी, मुरि मुरि लहरैं खात ॥25॥
मौकौं माई जमुना जम ह्वै रही ।
कैसैं मिलीं स्यामसुंदर कौं, बैरिनि बीच बही ॥
कितिक बीच मथुरा अरु गोकुल, आवत हरि जु नहीं ।
हम अबला कछु मरम न जान्यौ, चलत न फेंट गही ॥
अब पछिताति प्रान दुख पावत, जाति न बात कही ।
सूरदास प्रभु सुमिरि-सुमिरि गुन, दिन दिन सूल सही ॥26॥
नैन सलोने स्याम, बहुरि कब आवहिंगे ।
वै जौ देखत राते राते, फुलनि फूली डार ।
हरि बिनु फूलझरी सी लागत, झरि झरि परत अँगार ॥
फूल बिनन नहिं जाउँ सखी री, हरि बिनु कैसे फूल ।
सुनि री सखि मोहिं राम दुहाई, लागत फूल त्रिसूल ।
जब मैं पनघट जाउँ सखि री, वा जमुना कै तीर ।
भरि भरि जमुना उमड़ि चलति है, इन नैननि कैं नीर ॥
इन नैननि कैं नीर सखी री, सेज भई घरनाउ ।
चाहति हौं ताही पै चढ़ि कै, हरि जू कैं ढिग जाउँ ॥
लाल पियारे प्रान हमारे, रहे अधर पर आइ ।
सूरदास प्रभु कुंज-बिहारी, मिलत नहीं क्यौं धाइ ॥27॥
प्रीति करि काहू सुख न लह्यौ ।
प्रीति पतंग करी पावक सौं, आप प्रान दह्यौ ॥
अलि-सुत प्रीति करी जल-सुत सौं, संपुट मांझ गह्यौ ।
सारंग प्रीति करी जु नाद सौं, सन्मुख बान सह्यौ ॥
हम जौ प्रीति करी माधव सौं, चलत न कछू कह्यौ ॥
सूरदास प्रभु बिनु दुख पावत, नैननि नीर बह्यौ ॥28॥
प्रीति तौ मरिबौऊ न बिचारै ।
निरखि पतंग ज्योति-पावक ज्यौं, जरत न आपु सँभारै ॥
प्रीति कुरंग नाद मन मोहित, बधिक निकट ह्वै मारै ।
प्रीति परेवा उड़त गगन तैं, गिरत न आपु सँभारै ।
सावन मास पपीहा बोलत, पिय पिय करि जु पुकारै ।
सूरदास-प्रभु दरसन कारन, ऐसी भाँति बिचारै ॥29॥
जनि कोउ काहू कैं बस होहि ।
ज्यौ चकई दिनकर बस डोलत, मोहिं फिरावत मोहि ॥
हम तौ रीझि लटू भई लालन, महा प्रेम तिय जानि ।
बंधन अवधि भ्रमित निसि-बासर, को सुरझावत आनि ॥
उरझे संग अंग अंगनि प्रति, बिरह बेलि की नाईं ।
मुकुलित कुसुम नैन निद्रा तजि, रूप सुधा सियराई ॥
अति आधीन हीन-मति व्याकुल, कहँ लौं कहौं बनाई ।
ऐसी प्रीति-रीति रचना पर, सूरदास बलि जाई ॥30॥