रेत का दरिया है साहिल रेत का,
डूबा पैमानों में मन्ज़िल रेत का।
निकलीं आँखों की उमींदे बेवफा,
ढाल-तलवारों का कातिल रेत का।
ओढ़कर सोता रहा जो उम्र भर,
आस्ती का सांप कम्बल रेत का।
पैरहन मेरा कफ़न बन जायेगा,
जिस्म से लिपटा है मलमल रेत का।
दोस्तों तबियत ना पूछो आज तुम,
क़तरा-क़तरा दाग़ पागल रेत का।
जिस्म पथराई हुई सी झील है ,
जिसकी गहराई है दलदल रेत का।
घर में भी आबाद सहरा हो गया,
सरहदें दीवार जंगल रेत का ।
खोखली निकलीं दलीलें आपकी,
और दावा भी मसाइल रेत का।
लौट आ 'अनुराग' अपनी माद में,
ज़िन्दगी है अब भी साहिल रेत से।
**अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया'अनुराग'/२५/०२/१७**