“अवतार” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक भक्ति योग से लिया गया है। इस अध्याय में स्वामी जी इस बात का निरूपण कर रहे हैं कि अवतार कौन हैं और वे इस धरा पर क्यों अवतीर्ण होते हैं। अवतार के कार्य और उसके सामर्थ्य का उन्होंने यहाँ बख़ूबी वर्णन किया है।
जहाँ कहीं प्रभु का गुणगान होता हो, वही स्थान पवित्र है। तो फिर जो मनुष्य प्रभु का गुणगान करता है, वह और भी कितना पवित्र न होगा! अतएव जिनसे हमें आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त होती है, उनके समीप हमें कितनी भक्ति के साथ जाना चाहिए। यह सत्य है कि संसार में ऐसे धर्म गुरुओं की संख्या बहुत थोड़ी है, पर यह बात नहीं कि संसार ऐसे महापुरुषों से कभी शून्य हो जाय। वे तो मानवजीवन-उद्यान के सुन्दरतम पुष्प हैं और ‘अहैतुक दयासिन्धु’ हैं।1 भगवान श्रीकृष्ण भागवत में कहते हैं, ‘मुझे ही आचार्य जानो।’2 यह संसार ज्यों ही इन आचार्यों से बिलकुल रहित हो जाता है, त्यों ही यह एक भयंकर नरककुण्ड बन जाता है और नाश की ओर द्रुत वेग से बढ़ने लगता है।
साधारण गुरुओं से श्रेष्ठ एक और श्रेणी के गुरु होते हैं, और वे हैं – इस संसार में ईश्वर के अवतार। वे केवल स्पर्श से, यहाँ तक कि इच्छा मात्र से ही आध्यात्मिकता प्रदान कर सकते हैं। उनकी इच्छा से पतित से पतित व्यक्ति भी क्षण भर में साधु हो जाता है। वे गुरुओं के भी गुरु हैं – नरदेहधारी भगवान हैं। उनके माध्यम बिना हम अन्य किसी भी उपाय से भगवान को नहीं देख सकते। हम उनकी उपासना किये बिना रह ही नहीं सकते। और वास्तव में वे ही एकमात्र ऐसे हैं जिनकी उपासना करने के लिए हम बाध्य हैं।
इन नरदेहधारी ईश्वरावतारों के माध्यम बिना कोई मनुष्य ईश्वर-दर्शन नहीं कर सकता। जब हम अन्य किसी साधन द्वारा ईश्वर-दर्शन का यत्न करते हैं, तो हम अपने मन में ईश्वर का एक विचित्र-सा रूप गढ़ लेते हैं और सोचते हैं कि बस यही ईश्वर का सच्चा रूप है। एक बार एक अनाड़ी आदमी से भगवान शिव की मूर्ति बनाने को कहा गया। कई दिनों के घोर परिश्रम के बाद उसने एक मूर्ति तैयार तो की, पर वह बस बन्दर जैसी थी! इसी प्रकार जब हम भगवान को उनके असल रूप में – उनके निर्गुण, पूर्ण स्वरूप में सोचने का प्रयत्न करते हैं, तो हम अनिवार्य रूप से बुरी तरह असफल होते हैं; क्योंकि जब तक हम मनुष्य हैं, तब तक मनुष्य से उच्चतर रूप में हम उनकी कल्पना ही नहीं कर सकते। एक समय ऐसा आयगा, जब हम अपनी मानवी प्रकृति के परे चले जायँगे, और तब हम उन्हें उनके असली स्वरूप में देख सकेंगे। पर जब तक हम मनुष्य हैं, तब तक हमें उनकी उपासना मनुष्य में और मनुष्य के रूप में ही करनी होगी। तुम चाहे कितनी ही लम्बी-चौड़ी बातें क्यों न करो, कितना भी प्रयत्न क्यों न करो, पर तुम भगवान को मनुष्य के सिवा और कुछ सोच ही नहीं सकते। तुम भले ही ईश्वर और संसार की सारी वस्तुओं पर विद्वत्तापूर्ण लम्बी लम्बी वक्तृताएँ दे डालो, बड़े युक्तिवादी बन जाओ और अपने मन को समझा लो कि ईश्वरावतार की ये सब बातें अर्थहीन और व्यर्थ हैं, पर क्षण भर के लिए सहज बुद्धि से विचार तो करो। इस प्रकार की अद्भुत विचार-बुद्धि से क्या प्राप्त होता है? कुछ नहीं – शून्य, केवल कुछ शब्दों का ढेर! अब भविष्य में जब कभी तुम किसी मनुष्य को अवतार-पूजा के विरुद्ध एक बड़ा विद्वत्तापूर्ण भाषण देते हुए सुनो, तो सीधे उसके पास चले जाना और पूछना कि उसकी ईश्वर-सम्बन्धी धारणा क्या है, ‘सर्वशक्तिमान’, ‘सर्वव्यापी’ आदि शब्दों का उच्चारण करने से वह शब्द-ध्वनि के अतिरिक्त और क्या समझता है? – तो देखोगे, वास्तव में वह कुछ नहीं समझता। वह उनका ऐसा कोई अर्थ नहीं लगा सकता, जो उसकी अपनी मानवी प्रकृति से प्रभावित न हो। इस बात में तो उसमें और रास्ता चलनेवाले एक अपढ़ गँवार में कोई अन्तर नहीं। फिर भी यह अपढ़ व्यक्ति कहीं अच्छा है, क्योंकि कम से कम वह शान्त तो रहता है, वह संसार की शान्ति को तो भंग नहीं करता है, पर वह लम्बी लम्बी बातें करनेवाला व्यक्ति मनुष्यजाति में अशान्ति और दुःख पैदा कर देता है। धर्म का अर्थ है प्रत्यक्ष अनुभूति। अतएव इस अनुभूति और थोथी बात के बीच जो विशेष भेद हैं, उसे हमें अच्छी तरह पकड़ लेना चाहिए। आत्मा के गम्भीरतम प्रदेश में हम जो अनुभव करते हैं, वही प्रत्यक्षानुभूति है। इस सम्बन्ध में सहज बुद्धि जितनी अ-सहज (दुर्लभ) हैं, उतनी और कोई वस्तु नहीं।
हम अपनी वर्तमान प्रकृति से सीमित हो ईश्वर को केवल मनुष्य-रूप में ही देख सकते हैं। मान लो, भैंसों की इच्छा हुई कि भगवान की उपासना करें – तो वे अपने स्वभाव के अनुसार भगवान को एक बड़े भैंसे के रूप में देखेंगे। यदि एक मछली भगवान की उपासना करना चाहे, तो उसे भगवान को एक बड़ी मछली के रूप में सोचना होगा। इसी प्रकार मनुष्य भी भगवान को मनुष्य-रूप में ही देखता है। यह न सोचना कि ये सब विभिन्न धारणाएँ केवल विकृत कल्पनाओं से उत्पन्न हुई हैं। मनुष्य, भैंसा, मछली – ये सब मानो भिन्न भिन्न बर्तन हैं; ये सब बर्तन अपनी अपनी आकृति और जलधारण-शक्ति के अनुसार ईश्वररूपी समुद्र के पास अपने को भरने के लिए जाते हैं। पानी मनुष्य में मनुष्य का रूप ले लेता है, भैंस में भैंसे का और मछली में मछली का। प्रत्येक बर्तन में वही ईश्वररूपी समुद्र का जल है। जब मनुष्य ईश्वर को देखता है, तो वह उन्हें मनुष्य-रूप में देखता है। और यदि पशुओं में ईश्वर-सम्बन्धी कोई ज्ञान रहे, तो उन्हें वे अपनी अपनी धारणा के अनुसार पशु के रूप में देखेंगे। अतः हम ईश्वर को मनुष्य-रूप के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में देख ही नहीं सकते और इसलिए हमें मनुष्य-रूप में ही उनकी उपासना करनी पड़ेगी। इसके सिवा अन्य कोई रास्ता नहीं है।
दो प्रकार के लोग ईश्वर की मनुष्य-रूप में उपासना नहीं करते। एक तो नरपशु, जिसे धर्म का कोई ज्ञान नहीं और दूसरे परमहंस, जो मानवजाति की सारी दुर्बलताओं के ऊपर उठ चुके हैं और जो अपनी मानवी प्रकृति की सीमा के भी उस पार चले गये हैं। उनके लिए सारी प्रकृति आत्मस्वरूप हो गयी है। वे ही भगवान को उनके असल स्वरूप में भज सकते हैं। अन्य विषयों के समान यहाँ भी दोनों चरम भाव एक-से ही दिखते हैं। अतिशय अज्ञानी और परम ज्ञानी दोनों ही उपासना नहीं करते। नरपशु अज्ञानवश उपासना नहीं करता, और जीवन्मुक्त ने तो अपनी आत्मा में परमात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया है, अतः उनके लिए उपासना की फिर आवश्यकता कहाँ? इन दो चरम भावों के बीच में रहनेवाला कोई मनुष्य यदि आकर तुमसे कहे कि वह भगवान को मनुष्य-रूप में भजनेवाला नहीं है, तो उस पर दया करना। उसे अधिक क्या कहें, वह बस थोथी बकवास करनेवाला है। उसका धर्म अविकसित और खोखली बुद्धिवालों के लिए है।
भगवान मनुष्य की दुर्बलताओं को समझते हैं और मानवता के कल्याण के लिए नरदेह धारण करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार के सम्बन्ध में गीता में कहा है, “जब जब धर्म की ग्लानि होती है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ। साधुओं की रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए तथा धर्म-संस्थापनार्थ मैं युग युग में अवतीर्ण होता हूँ।”3 “मूर्ख लोग मुझ जगदीश्वर के यथार्थ स्वरूप को न जानने के कारण मुझ नरदेहधारी की अवहेलना करते हैं।”4भगवान श्रीरामकृष्ण कहते थे, “जब एक बहुत बड़ी लहर आती है, तो छोटे छोटे नाले और गड्ढे अपने आप ही लबालब भर जाते हैं। इसी प्रकार जब एक अवतार जन्म लेता है, तो समस्त संसार में आध्यात्मिकता की एक बड़ी बाढ़ आ जाती है और लोग वायु के कण कण में धर्मभाव का अनुभव करने लगते हैं।”
1. विवेकचूड़ामणि, ३५
2. आचार्यं मां विजानीयात् इत्यादि। श्रीमद्भागवत, १।११७।२६
3. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिः र्भवति भारत। अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृज्याम्यहम्॥ परित्राणाय साधूनां
विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥ गीता, ४।७,८
4. अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। परं भावम् अजानन्तः मम भूतमहेश्वरम्॥ गीता ९।११