“भक्तियोग का ध्येय प्रत्यक्षानुभूति” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक भक्ति योग से लिया गया है। इसमें स्वामी जी बता रहे हैं कि भक्ति कोई अंधश्रद्धा नहीं, अपितु इसका उद्देश्य ईश्वर का साक्षात्कार करना है। भक्तियोग का ध्येय प्रत्यक्षानुभूति ही है, अन्य कोई नहीं। क्योंकि प्राणीमात्र का ध्येय ही अपने केंद्र ईश्वर तक पहुँचना है।
भक्त के लिए इन सब शुष्क विषयों की जानकारी बस इसलिए आवश्यक है कि वह अपनी इच्छाशक्ति दृढ़ बना सके; इससे अधिक उसकी और कोई उपयोगिता नहीं। कारण, वह एक ऐसे पथ पर चला है, जो शीघ्र ही उसे युक्ति के धुँधले और अशान्तिमय राज्य की सीमा से बाहर निकाल प्रत्यक्ष अनुभूति के राज्य में ले जायगा। ईश्वर की कृपा से वह शीघ्र एक ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है, जहाँ पाण्डित्य-गर्वियों की प्रिय अक्षम युक्ति बहुत पीछे छूट जाती है। वहाँ बुद्धि के सहारे अँधेरे में टटोलना नहीं पड़ता, वहाँ तो प्रत्यक्ष-अनुभवसूर्य की उज्ज्वल रश्मियों से सब कुछ आलोकित हो जाता है। तब वह और विचार या विश्वास नहीं करता, तब तो वह प्रत्यक्ष देखता है। वह और युक्ति-तर्क नहीं करता, वरन् प्रत्यक्ष अनुभव करता है। और क्या ईश्वर का यह साक्षात्कार, यह अनुभव, यह उपभोग अन्यान्य विषयों से कही श्रेष्ठ नहीं है? यही नहीं, बल्कि ऐसे भी भक्त हैं, जिन्होंने घोषणा की है कि वह तो मुक्ति से भी श्रेष्ठ है। और यह क्या हमारे जीवन का सर्वोच्च प्रयोजन भी नहीं है? संसार में ऐसे बहुतसे लोग हैं, जिनकी यह पक्की धारणा है कि केवल वही चीज उपयोगी है, जिससे मनुष्य को पाशविक सुख प्राप्त होते हैं; यहाँ तक कि धर्म, ईश्वर, परकाल, आत्मा आदि भी उनके किसी काम के नहीं, क्योंकि उन्हें उनसे धन या शारीरिक सुख प्राप्त नहीं होते! उनके लिए ऐसी सारी वस्तुएँ, जो इन्द्रियों को चरितार्थ नहीं करतीं, जिनसे वासनाओं की तृप्ति नहीं होती, किसी भी काम की नहीं। फिर, प्रत्येक मन की विशिष्ट आकांक्षाओं के अनुसार उपयोगिता का रूप भी बदलता रहता है। जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्यकता होती है, उसे वही सबसे उपयोगी जान पड़ती है। अतः उन लोगों के लिए, जो खाने-पीने, वंशवृद्धि करने और फिर मर जाने के सिवा और कुछ नहीं जानते, इन्द्रियसुख ही एकमात्र लाभ करने योग्य वस्तु है! ऐसे लोगों के हृदय में उच्चतर विषय के लिए थोड़ीसी भी स्पृहा जगने के लिए अनेक जन्म लग जाएँगे। पर जिनके लिए आत्मोन्नति के साधन ऐहिक जीवन के क्षणिक सुखभोगों से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, जिनकी दृष्टि में इन्द्रियों की तुष्टि केवल एक नासमझ बच्चे के खिलवाड़ के समान है, उनके लिए भगवान और भगवत्प्रेम ही मानव-जीवन का सर्वोच्च एवं एकमात्र प्रयोजन है। ईश्वर की कृपा है कि आज भी यह घोर भोगलिप्सापूर्ण संसार ऐसे महात्माओं से बिलकुल शून्य नहीं हो गया हैं |
पहले कहा जा चुका है कि भक्ति दो प्रकार की होती है, ‘गौणी’ और ‘परा’। ‘गौणी’ का अर्थ है साधन-भक्ति, अर्थात् जिसमें हम भक्ति को एक साधन के रूप में लेते हैं, और ‘परा’ इसी की परिपक्वावस्था है। क्रमशः हम समझ सकेंगे कि इस भक्तिमार्ग में अग्रसर होने के लिए साधनावस्था में कुछ बाह्य सहायता लिये बिना काम नहीं बनता। और वास्तव में सभी धर्मों के पौराणिक और रूपक भाग आप ही आ उपस्थित होते हैं तथा उन्नतिकामी आत्मा की प्रारम्भिक अवस्था में उसे ईश्वर की ओर बढ़ने में सहायता देते हैं। यह भी एक महत्त्वपूर्ण बात है कि बड़े-बड़े धर्मात्मा उन्हीं धर्मसम्प्रदायों में हुए हैं, जिनमें पौराणिक भावों और क्रिया-अनुष्ठानों की प्रचुरता है। जो सब शुष्क, मतान्ध धर्म-प्रणालियाँ इस बात का प्रयत्न करती हैं कि जो कुछ कवित्वमय, सुन्दर और महान् है, जो कुछ भगवत्प्राप्ति के मार्ग में गिरतेपड़ते अग्रसर होनेवाले सुकुमार मन के लिए अवलम्बनस्वरूप है, उस सब को नष्ट कर डाले; जो धर्मप्रणालियाँ धर्म-प्रासाद के आधार स्वरूप स्तम्भों को ही ढहा देने का प्रयत्न करती हैं; जो सत्य के सम्बन्ध में अज्ञान और भ्रमपूर्ण धारणा लेकर इस बात की यत्नशील हैं कि जो कुछ जीवन के लिए संजीवनी स्वरूप है, जो कुछ मानवात्मारूपी क्षेत्र में लहलहाती हुई धर्म-लता के लिए पालक एवं पोषक है, वह सब नष्ट हो जाय – उन धर्म-प्रणालियों को यह शीघ्र अनुभव हो जाता है कि उनमें जो कुछ रह गया है, वह है केवल एक खोखलापन – अनन्त शब्दराशि और कोरे तर्क-वितर्कों का एक स्तूप मात्र, जिसमें शायद एक प्रकार की सामाजिक सफाई या तथाकथित सुधार की थोड़ीसी गन्ध भर बच रही है। जिनका धर्म इस प्रकार का है, उनमें से अधिकतर लोग जानते या न जानते हुए जड़वादी है; उनके ऐहिक व पारलौकिक जीवन का ध्येय केवल भोग है; वही उनकी दृष्टि में मानवजीवन का सर्वस्व है, वही उनका इष्टापूर्त है। मनुष्य के ऐहिक सुख-स्वाच्छन्द्य के लिए रास्ता साफ कर देना आदि कार्य ही उनके मत में मानवजीवन का सर्वस्व हैं। अज्ञान और मतान्धता के इस विचित्र मिश्रण में रँगे हुए ये लोग जितने शीघ्र अपने असली रंग में आ जायँ और जितनी जल्दी नास्तिकों और जड़वादियों के दल में जाकर शामिल हो जायँ (क्योंकि असल में वे हैं उसी के योग्य), संसार का उतना ही मंगल है। धर्मानुष्ठान और आध्यात्मिक अनुभूति का एक छोटासा कण भी ढेरों थोथी बकवासों और अन्धी भावुकता से कहीं बढ़कर है। हमें कहीं एक भी तो ऐसा आध्यात्मिक दिग्गज दिखा दो, जो अज्ञान और मतान्धता की इस ऊसर भूमि से उपजा हो। यदि यह न कर सको, तो बन्द कर लो अपना मुँह; खोल दो अपने हृदय के कपाट, जिससे सत्य की शुभ्रोज्ज्वल किरणें भीतर प्रवेश कर सकें, और जाओ उन भारत-गौरव ऋषि-मुनियों की शरण में, जिनके प्रत्येक शब्द के पीछे प्रत्यक्ष अनुभूति का बल है। आओ, हम सब अबोध शिशु के समान उनके चरणों में बैठें और ध्यानपूर्वक सुने उनके उपदेश।