हम सोचकर, संकोच से पहुंचे वहां पर
कहने को कुछ ऐसी बातें थीं उनसे
हम सोचकर, संकोच से, शरमाते हुए
कह ही डाले; बात अपने मन की
सोचा था शायद बुरा मान जाएँ वो
पर मैंने वहां देखी; उलटी बहती गंगा
आस्वाशन मिला हमें, गले भी लगाये वो
नतीजा ना जाने क्या होगा अब इसका?
जो होगा सो होगा; हम इन्तजार करके
चाहेंगे जीत अपनी ख्यालों में उनके |
X X X
लोग हैं समाज हैं रास्ते में इतने
कि ढहता नज़र आता यादों का मंदिर
रंगी हुए चाहत को यादों के रंग में
सुना था कभी मैंने लोगों का कहना
'दृढ संकल्प हो जो मन में तुम्हारे
आएंगे नज़र पीछे हटते ये सारे'
रस्म या रिवाज़ सब हमने ही बनाया है
तोड़ पाया है क्या कभी कोई इसके बंधन को
नहीं तोड़ पाया है, वजह भी तो होगी कोई
औरों से क्या लेना हमको, हम ही तोड़ डालेंगे|