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बुद्धजीवियों का बौधिक दिवालियापन

30 अक्टूबर 2015

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आज जो भी आज़ादी और अधिकार की बात करते हैं और खूब मज़े से जी रहे हैं. उनको कभी यह क्यों याद नहीं आया कि आखिर उनकी इस आज़ादी के लिए खून कौन बहा रहा है. शायद सब सहमत होंगे इस बात पर कि यह हमारी सेना के कारन ही संभव है. आज लगभग १५० दिनों से देश के पूर्व सैनिक जंतर मंतर पर ४३ साल पुरानी मांगों को लेकर भिखरियों जैसे बैठे हैं, संसद से लेकर सर्वोच्च न्यायलय तक ने न सिर्फ इसे जायज़ ठहराया है बल्कि इसकी व्याख्या भी कर दी है; फिर भी उनकी सुध कोई क्यों नहीं लेता, जबकि आपकी हर आफत में वही आकर आपको सहारा ही नहीं देता बल्कि उससे बाहर भी निकलता है. यह कैसी कद्रदानी है की आप १२५ करोड़ लोगों का देश थोड़ा रुक कर सोचने को भी बाध्य नही. इन वीरों ने अपने शौर्य से पाये तमगों को लौटा दिया है और ये तथाकथित बुद्धिजीवी और भ्रामक व्यक्तित्व के लोग आज समाचारों में बने रहने के लिए देश द्वारा दिए या यूँ कहें की सेटिंग से पाये सम्मान को लौटा रहे हैं. किसीने आज तक चूं तक नहीं किया है इन बहादुर फौजियों और युद्ध में खेत हुए सैनिकों के परिवार के लिए. तो क्या यह दोगलापन नहीं है? आपको आज़ादी और अधिकार चाहिए मगर आप इतने कृतघ्न हैं कि अपनी आज़ादी के रखवाले के लिए कभी दो शब्द भी नहीं बोले. ऐसा कबतक चलेगा?






अमर प्रसाद की अन्य किताबें

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Eternal and unbouded

31 जनवरी 2015
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माना कि बेहद प्यार है मुझसे चाह्त की लय के सरगम पर हमें भी तो चाह्त है तेरी राग रिद्म के ऊपर ऊपर । खग मन उड़ ले प्रेम गगन में गगन जहाँ परवान चढ़ा है मन का पंछी अभी उड़ा, पर इधर बढ़ा या उधर बढ़ा है। ऐसे में कहीं भटक ना जाये पता नहीं; कब छोर वो पाये असीम गगन के अन्तर्मन में पाये कु

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महत्व खोते राष्ट्रीय पुरस्कार

5 फरवरी 2015
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शुरु से लेकर अब तक जितनी भी हस्तियों को ये पुरस्कार मिले हैं; लगभग हर बार इनके निष्पक्ष तथा समीचीन होने पर प्रश्नचिन्ह लगे हैं। इसप्रकार एक ऐसी व्यव्स्था ने पैर जमा लिया है कि अब किसी को भी कुछ भी मिल जाये किसी रच्नात्मक प्रतिक्रिया की उम्मीद करना सिर्फ समय की बर्बादी ही है। ये सारी प्रक्रिया राज

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ओ सावन के काले बादल

10 फरवरी 2015
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पुरवैया पछवा पर तिरते चारों ओर घुमा करते हो विश्व के कोने कोने जाकर दर्शन विश्व छटा का करते जल में थल में नील गगन में सबसे तो परिचय है तेरा दे देना सन्देश ये जाकर मिले कहीं जो साजन मेरा निशि दिन याद सताती उनकी अँखियाँ भर भर जाया करतीं बिरहन मैं काटूं हर रतिया नयन बसके सांवरिया को ऐ बदरा;

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मगध के नए नन्द

13 फरवरी 2015
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कहते हैं कि जीवन के हर पहलु में चाहे राजनीति ही क्यों ना हो; थोड़ी शर्म तो होनी ही चाहिए| परन्तु जनता परिवार के वे नेता जिन्होंने जय प्रकाश नारायण के सहारे राजनीति में प्रवेश किया, उनके सिद्धांतों का समर्थन किया और उनको अपना आदर्श माना, ना कुर्सी को सिर्फ बपौती समझा; बल्कि जाति-धर्म के नाम पर अपनी अल

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लड़ाई-अब अपने आप की खातिर

4 मार्च 2015
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दिल्ली में मिले अप्रत्याशित विजय से जहाँ केजरीवाल और उनके नजदीकी नेताओं की बांछें खिल गयीं वहीं कुछ ऐसे नेता इस आपाधापी में पीछे रह गए, जिन्होंने पार्टी के लिए दिन रात मेहनत किया| उन्हें कुछ खास हासिल नहीं हुआ| कुछ ऐसे भी नेता पार्टी में आये हैं जो अपनी राजनीति चमकाने के लिए सब कुछ छोड़ कर आये हैं| क

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शिक्षा और स्वास्थ्य की सूरत

23 मार्च 2015
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"वर दे वीणावादिनी वर दे.........!" अमर कवि निराला की ओजस्वी पंक्तियाँ, आज भी मन को आह्लादित कर देती हैं| शिक्षा की देवी माँ सरस्वती की आराधना, अभिलाषा यही कि भारत से अशिक्षा का तिमिर तोम सदा के लिए विलुप्त हो जाये| सर्वत्र ज्ञान-विज्ञानं का प्रकाश हो| शिक्षा सर्व जन की पहुँच में तो हो ही, सबको आसानी

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येाग़

20 जून 2015
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मान चुका है जिसको ये जग ठान चुका है, व्रत को लगभग फिर हमसब क्यों रहेंगे पीछे अपनी अपनी मुट्ठी भींचे है भारत की योग विरासत लगती किसी किसी को आफत ये तो अपनी अपनी आदत किसी को ख़ुशी तो किसी को सांसत! पैदा सब माँ से ही होते एक सा हँसते एक सा रोते एक ही भूख और दुःख भी एक हँसी, ख़ुशी और दर्

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प्याज़ वंदना

27 अगस्त 2015
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है ना, यह कल ही की बात कितना आम था तेरा साथबस कोई भी पा सकता थारख सकता था, खा सकता थापर कैसा रंग बदले आजहो ना तुम भी दंग पियाज? लम्बा, गोल और चिपटा रूपबादामी तेरा रंग अनूप सबको कितना भाते थे तुमसस्ते में आ जाते थे तुमपर अब तो गिर गई है गाज़हो ना तुम भी दंग पियाज?पहले ही ऐसा होता था तुम्हे काटनेवाला

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बंधन मुक्त

22 सितम्बर 2015
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हम सोचकर, संकोच से पहुंचे वहां परकहने को कुछ ऐसी बातें थीं उनसेहम सोचकर, संकोच से, शरमाते हुएकह ही डाले; बात अपने मन कीसोचा था शायद बुरा मान जाएँ वोपर मैंने वहां देखी; उलटी बहती गंगा आस्वाशन मिला हमें, गले भी लगाये वोनतीजा ना जाने क्या होगा अब इसका?जो होगा सो होगा; हम इन्तजार करके चाहेंगे जीत अपनी ख

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भूल मैं कैसे जाऊं प्रीतम चुम्बन और आलिंगन तेरा!

25 सितम्बर 2015
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भूल मैं कैसे जाऊं प्रीतम चुम्बन और आलिंगन तेरा!ऋतु वसंत में मिलन पहला प्रेम का वो पहल पहला सरगम की लय का लहराना गीत सजा सुर पंचम तेरा !भूल मैं कैसे जाऊं प्रीतम चुम्बन और आलिंगन तेरा!उष्ण पवन का मेरे मन का मिलन उष्णता की आँगन में प्रेम का बिरवा फला फूला था औ' मधुर सहगान तेरा !भूल मैं कैसे जाऊं प्रीतम

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बुद्धजीवियों का बौधिक दिवालियापन

30 अक्टूबर 2015
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आज जो भी आज़ादी और अधिकार की बात करते हैं और खूब मज़े से जी रहे हैं. उनको कभी यह क्यों याद नहीं आया कि आखिर उनकी इस आज़ादी के लिए खून कौन बहा रहा है. शायद सब सहमत होंगे इस बात पर कि यह हमारी सेना के कारन ही संभव है. आज लगभग १५० दिनों से देश के पूर्व सैनिक जंतर मंतर पर ४३ साल पुरानी मांगों को लेकर भिखरि

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एकबार

3 नवम्बर 2015
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छेड़ दो तार ह्रदय का कोई मन वीणा बजने दो साज़-ए-मन आवाज़ दो कुछ तुम नया गीत रचने को गम का गीत गगन यह गाये सदियों का महाराजा खग मन हँस ले एकबार तुम ऐसी धुन बजा जा दृष्टिपात जब करता हूँ मैं दसों दिशाओं की आँगन में होता है जितना दृष्टिगोचर भर जाता है वह सब मन में रास ना आये रश्म का बंधन तोड़कर उड़ना चाहे ये

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संशय

13 नवम्बर 2015
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जो कुछ भी मैंने कल लिखा बन गयी     आज वो रचना कहाँ पता था कब बन जाये फाँस,       मेरा कुछ कहना लोग यहाँ     कितने होते हैंरच कथ कर भी बच जाते हैं हँस कर ख़ुशी  से जी लेते हैंनया प्रपंच और रच जाते हैंदोष भी दें तो    किनका दें हम उस मिज़ाज़ या इस समाज का?राह चला तो राहें   तन गयींघुम कर देखा आहें बन गयी

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झुँझलाहट में राह

21 नवम्बर 2015
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चुनाव नतीजा देख बिहार का जनमानस है दंग चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग सं प्र ग में भकुआईल ललुआ कुर्सी के खंखुआइल ललुआ कई तरह की जुगत भिड़ाया दिल्ली में बंगला न पाया बंगला से नाता जब टूटा ललुआ का तो जग ही लूटा खेला तब वो नंगा दांव बेटी को दिया लड़ा चुनावजीत गया जब दूसरा यादव लालू बना मिटटी का म

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छन छन कर आती हुई चाँदनी रुपहली

5 दिसम्बर 2015
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सावन की घटा से या केशुओं की बदली से हवाओं के झोंकों परमस्त होके तिरती देखो अभी तारे सारे आँचल में भर ली....छन छन कर आती हुई चाँदनी रुपहली!लहराता आँचल होया शरमाता मुखराबादलों के ढलते हीलो चाँद वहां निकला तिमिर तोम रजनी ने श्रृंगार कर ली....छन छन कर आती हुई चाँदनी रुपहली!फिसलती सी स्निग्ध चंदा की ज्यो

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