जो कुछ भी मैंने कल लिखा
बन गयी आज वो रचना
कहाँ पता था कब बन जाये
फाँस, मेरा कुछ कहना
लोग यहाँ कितने होते हैं
रच कथ कर भी बच जाते हैं
हँस कर ख़ुशी से जी लेते हैं
नया प्रपंच और रच जाते हैं
दोष भी दें तो किनका दें हम
उस मिज़ाज़ या इस समाज का?
राह चला तो राहें तन गयीं
घुम कर देखा आहें बन गयीं
मंज़िल नज़र ना आई यारों
सांसों से बस चाहें छन गयीं
सुना है बहुतों के बारे में
राह चले कि मंज़िल पा गए
दौड़ लगानी थी उन्हें लम्बी
अभी गए थे अभी आ गए
रोष दिखाएँ तो किसपर हम
अपने प्रयास या उनके हास पर?
अधिक की अभिलाषा भी नहीं थी
जो मिल जाता ले लेते हम
उपलब्धि होती या हताशा
थोड़ा अधिक या ज्यादा ही कम
देखा है मैंने समेटते
और सिमटना दायरों का
मार्जर बन दुबके सिंहों को
और गरजना कायरों का
घोष भी मानें तो कैसा हम
उस सिहरन या इस दहाड़ को?
तोड़े नियम बनाने वाला
चोर बने जब खुद रखवाला
गाछ ही जब निज फल को खाए
जलधि ही सब जल पी जाये
लाये जब सूरज ही अँधियारा
जीवन ही बन जाये कारा
राग लगे कौए की बोली
दाग लगे रंगों की होली
दादुर बोलकर मंत्र उचारे
मरकट फिर से न्याय विचारे
कोष बचयेंगे क्या-क्या हम
उस धोती या इस रोटी को?
-अमर प्रसाद