भोलीभाली बहु विधा सजी वस्त्र आभूषणों से।
गानेवाली 'मधुर स्वर से सुन्दरी बालिकायें।
जो प्राणी के परम मुद की मूर्तियाँ थीं उन्हें क्यों।
खिन्ना-दीना मलिन-वसना देखने को बचा मैं॥21॥
हा! वाद्यों की 'मधुरध्वनि भी धूल में जा मिली क्या।
हा! कीला है किस कुटिल ने कामिनी-कण्ठ प्यारा।
सारी शोभा सकल ब्रज की लूटता कौन क्यों है?।
हा! हा! मेरे हृदय पर यों साँप क्यों लोटता है॥22॥
आगे आओ सहृदय जनों, वृध्द का संग छोड़ो।
देखो बैठी सदन कहती क्या कई नारियाँ हैं।
रोते-रोते अधिकतर की लाल ऑंखें हुई हैं।
जो ऊबी है कथन पहले हूँ उसी का सुनाता॥23॥
द्रुतविलम्बित छन्द
जब रहे ब्रजचन्द छ मास के।
दसन दो मुख में जब थे लसे।
तब पड़े कुसुमोपम तल्प पै।
वह उछाल रहे पद कंज थे॥24॥
महरि पास खड़ी इस तल्प के।
छवि अनूपम थीं अवलोकती।
अति मनोहर कोमल कंठ से।
कलित गान कभी करती रहीं॥25॥
जब कभी जननी मुख चूमतीं।
कल कथा कहतीं चुमकारतीं।
उमँगना हँसना उस काल का।
अति अलौकिक था ब्रजचन्द का॥26॥
कुछ खुले मुख की सुषमा-मयी।
यह हँसी जननी-मन-रंजिनी।
लसित यों मुखमण्डल पै रही।
विकच पंकज ऊपर ज्यों कला॥27॥
दसन दो हँसते मुख मंजु में।
दरसते अति ही कमनीय थे।
नवल कोमल पंकज कोष में।
विलसते विवि मौक्तिक हों यथा॥28॥
जननि के अति वत्सलता पगे।
ललकते विवि लोचन के लिए।
दसन थे रस के युग बीज से।
सरस धार सुधा सम थी हँसी॥29॥
जब सुव्यंजक भाव विचित्र के।
निकलते मुख-अस्फुट शब्द थे।
तब कढ़े अधरांबुधि से कई।
जननि को मिलते वर रत्न थे॥30॥
अधर सांध्य सु-व्योम समान थे।
दसन थे युगतारक से लगे।
मृदु हँसी वर ज्योति समान थी।
जननि मानस की अभिनन्दिनी॥31॥
विमल चन्द विनिन्दक माधुरी।
विकच वारिज की कमनीयता।
वदन में जननी बलवीर के।
निरखती बहु विश्व विभूति थीं॥32॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
मैंने ऑंखों यह सब महा मोद नन्दांगना का।
देखा है औ सहस मुख से भाग को है सराहा।
छा जाती थी वदन पर जो हर्ष की कान्त लाली।
सो ऑंखों को अकथ रस से सिंचिता थी बनाती॥33॥
हा! मैं ऐसी प्रमुद-प्रतिमा मोद-आन्दोलिताको।
जो पाती हूँ मलिन वदना शोक में मज्जिता सी।
तो है मेरा हृदय मलता वारि है नेत्र लाता।
दावा सी है दहक उठती गात-रोमावली में॥34॥
जो प्यारे का वदन लख के स्वर्ग-सम्पत्ति पाती।
लूटे लेती सकल निधियाँ श्यामली-मूर्ति देखे।
हा! सो सारे अवनितल में देखती हैं अंधेरा।
थोड़ी आशा झलक जिसमें है नहीं दृष्टि आती॥35॥
हा! भद्रे! हा! सरलहृदये! हा! सुशीला यशोदे।
हा! सद्वृत्तो! सुरद्विजरते! हा! सदाचार-रूपे।
हा! शान्ते! हा परम-सुव्रते! है महा कष्ट देता।
तेरा होना नियति कर से विश्व में वंचिता यों॥36॥
बोली बाला अपर विधि की चाल ही है निराली।
ऐसी ही है मम हृदय में वेदना आज होती।
मैं भी बीती भगिनि, अपनी आह! देती सुना दूँ।
संतप्ता ने फिर बिलख से बात आरंभ यों की॥37॥
द्रुतविलम्बित छन्द
जननि-मानस पुण्य-पयोधि में।
लहर एक उठी सुख-मूल थी।
बहु सु-वासर था ब्रज के लिए।
जब चले घुटनों ब्रज-चन्द थे॥38॥
उमगते जननी मुख देखते।
किलकते हँसते जब लाड़िले।
अजिर में घुटनों चलते रहे।
बितरते तब भूरि विनोद थे॥39॥
विमल व्योम-विराजित चंद्रमा।
सदन शोभित दीपक की शिखा।
जननि अंक विभूषण के लिए।
परम कौतुक की प्रिय वस्तु थी॥40॥