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भक्त कथा अमृत

17 जून 2022

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धर्म की परिभाषा देना न तो सहज है और न ही सुलभ। परन्तु इसको सरल बनाते है संत। भगवान के भक्त ही हमें भगवान की ओर उन्मुख करते है। संत ही मानव जीवन के लिए जहाज रूपी साधन है, जो भवसागर रूपी संसार से पार लगाते है। हमें बतलाते है कि जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए? हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। उसी संदर्भ में आज मैं श्री गोस्वामी तुलसी दास जी की चर्चा करूंगा। गोस्वामी तुलसी दास जी हिंदू संत कवि, धर्म सुधारक और दार्शनिक थे। वह रामानंद की गुरु परंपरा में रामा नंदी समुदाय के थे । गोस्वामी तुलसी दास जी जन्म से एक सरयूपरिणा ब्राह्मण थे और उन्हें वाल्मीकि का अवतार माना जाता है, जिन्होंने संस्कृत में रामायण की रचना की थी। 

     वे  अपनी मृत्यु तक वाराणसी में रहे। उनके नाम पर तुलसी घाट का नाम रखा गया है। वह हिंदी साहित्य के सबसे महान कवि थे और उन्होंने  संकट मोचन मंदिर की स्थापना की । तभी तो विद्वानों ने कहा है" सूर सूर्य, तुलसी शशि, उरगन केशव दास! अब के कवि खद्योत सम, जंह- तंह करत प्रकाश!!" गोस्वामी तुलसी दास जी एक महान हिंदू कवि होने के साथ-साथ संत, सुधारक और दार्शनिक थे जिन्होंने विभिन्न लोकप्रिय पुस्तकों की रचना की। 

उन्हें भगवान राम के प्रति उनकी भक्ति और महान महाकाव्य, रामचरित्र मानस के लेखक होने के लिए भी याद किया जाता है। उन्हें हमेशा वाल्मीकि (संस्कृत में रामायण के मूल संगीतकार और हनुमान चालीसा) के अवतार के रूप में सराहा गया। गोस्वामी तुलसी दास ने अपना पूरा जीवन बनारस शहर में बिताया और इसी शहर में अपनी अंतिम सांस भी ली।

              गोस्वामी तुलसी दास जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के राजपुर में, तेरह अगस्त पंद्रह सौ बत्तीस में हुआ था। उनके पिता का नाम आत्माराम शुक्ल दुबे और माता का नाम हुलसी था। गोस्वामी तुलसी दास जी अपने जन्म के समय रोए नहीं थे। वह सभी बत्तीस दांतों के साथ पैदा हुआ था। बचपन में उनका नाम रामबोला दुबे था । पौराणिक कथा के अनुसार गोस्वामी तुलसी दास जी को इस दुनिया में आने में बारह महीने लगे, तब तक वे अपनी मां के गर्भ में ही रहे। उसके जन्म से बत्तीस दांत थे और वह पांच साल के लड़के जैसा दिखते थे। 

               अपने जन्म के बाद, वह रोने के बजाय राम के नाम का जाप करने लगा। इसलिए उनका नाम रामबोला रखा गया। उनके जन्म के बाद चौथी रात उनके पिता का देहांत हो गया था। गोस्वामी तुलसी दास ने अपनी रचनाओं कविता वली और विनय पत्रिका में बताया था कि कैसे उनके माता-पिता ने उनके जन्म के बाद उनका परित्याग कर दिया। उनके घर की दासी हुलसी गोस्वामी तुलसी दास जी को अपने शहर हरिपुर ले गई और उनकी देखभाल की। महज साढ़े पांच साल तक उसकी देखभाल करने के बाद वह मर गई।             

          उस घटना के बाद, रामबोला एक गरीब अनाथ के रूप में रहता था और भिक्षा माँगने के लिए घर-घर जाता था। यह माना जाता है कि देवी पार्वती ने रामबोला की देखभाल के लिए ब्राह्मण का रूप धारण किया था।

उन्होंने स्वयं अपने विभिन्न कार्यों में अपने जीवन के कुछ तथ्यों और घटनाओं का विवरण दिया था। उनके जीवन के दो प्राचीन स्रोत क्रमशः नाभादास और प्रिय दास द्वारा रचित भक्त माल और भक्ति रस बोधनी हैं। नाभादास ने अपने लेखन में तुलसी दास के बारे में लिखा था और उन्हें वाल्मीकि का अवतार बताया था। प्रिय दास ने गोस्वामी तुलसी दास की मृत्यु के सौ साल बाद अपने लेखन की रचना की और गोस्वामी तुलसी दास के सात चमत्कारों और आध्यात्मिक अनुभवों का वर्णन किया। गोस्वामी तुलसी दास की दो अन्य आत्मकथाएँ हैं मुला गोसाई चरित और गोसाई चरित, जिसकी रचना वेणी माधव दास ने सोलह सौ तीस में की थी और दासनिदास ने सत्रह सौ सत्तर के आसपास क्रमशः रचा था।

          रामबोला को विरक्त दीक्षा (वैरागी दीक्षा के रूप में जाना जाता है) दी गई और उन्हें नया नाम तुलसी दास मिला। उनका उपनयन नरहरि दास द्वारा अयोध्या में किया गया था जब वह सिर्फ सात वर्ष के थे। उन्होंने अपनी पहली शिक्षा अयोध्या में शुरू की। उन्होंने अपने महाकाव्य रामचरित्र मानस में उल्लेख किया है कि उनके गुरु ने उन्हें बार-बार रामायण सुनाई। जब वे मात्र पंद्रह-सोलह वर्ष के थे तब वे पवित्र शहर वाराणसी आए और वाराणसी के पंच गंगा घाट पर अपने गुरु शेष सनातन से संस्कृत व्याकरण, हिंदू साहित्य और दर्शन, चार वेद, छह वेदांग, ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त किया। अध्ययन के बाद, वे अपने गुरु की अनुमति से अपने जन्मस्थान चित्र कूट वापस आकर अपने परिवार के घर में रहने लगे और रामायण की कथा सुनाने लगे।

               गोस्वामी तुलसी दास ने बुद्धिमती रत्नावली से विक्रम संवत पंद्रह सौ तिरासी में ज्येष्ठ माह में विवाह किया था। यह जोड़ा राजापुर में रहता था और उनका इकलौता तारक पुत्र तारक शैशवावस्था में ही मर गया था। गोस्वामी तुलसी दास जी को अपनी पत्नी से बहुत लगाव था। वह उससे एक दिन का भी अलगाव सहन नहीं कर सकते थे। एक दिन उनकी पत्नी बिना उनको को बताए अपने पिता के घर चली गई। गोस्वामी तुलसी दास जी रात को चुपके से अपने ससुर के घर उनसे मिलने गए। इससे बुद्धिमती में शर्म की भावना पैदा हुई। उन्होंने गोस्वामी तुलसी दास से कहा, आप जो इस शरीर से इतना प्रेम करते है “मेरा शरीर मांस और हड्डियों का एक जाल है। यदि आप भगवान राम के लिए इसका आधा भी प्रेम विकसित करेंगे, तो आप निश्चित रूप से संसार के सागर को पार करेंगे और अमरता और शाश्वत आनंद प्राप्त करेंगे। 

               ये शब्द गोस्वामी तुलसी दास जी के हृदय में तीर की तरह चुभ गया। वह वहां एक पल के लिए भी नहीं रुके। उन्होंने घर छोड़ दिया और एक तपस्वी बन गए। इसके बाद उन्होंने तीर्थ के विभिन्न पवित्र स्थानों का दौरा करने में चौदह वर्ष बिताए। ऐसा माना जाता है कि गोस्वामी तुलसी दास वाल्मीकि के अवतार थे। हिंदू शास्त्र भविष्योत्तर पुराण के अनुसार, भगवान शिव ने अपनी पत्नी पार्वती को बताया था कि वाल्मीकि कलयुग में कैसे अवतार लेंगे। उनके विषय में दोहा भी है:-

जनक भए गुरुनानक, सुख देव भए कबीर।

वाल्मीकि तुलसी भए, उद्धव सूर शरीर।।

           सूत्रों के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि हनुमान वाल्मीकि के पास रामायण गाते हुए सुनने के लिए जाते थे। रावण पर भगवान राम की विजय के बाद, हनुमान हिमालय में राम की पूजा करते रहे।

            तुलसी दास ने अपनी कई रचनाओं में भगवान हनुमान से मुलाकात होने का वर्णन किया है। तुलसी दास की पहली मुलाकात भगवान हनुमान से वाराणसी में हुई थी जहाँ वह भगवान हनुमान के चरणों में गिर गए और चिल्लाए, ‘मुझे पता है कि तुम कौन हो इसलिए तुम मुझे छोड़कर दूर नहीं जा सकते’ और भगवान हनुमान ने उन्हें आशीर्वाद दिया। गोस्वामी तुलसी दास ने भगवान हनुमान के सामने अपनी भावना व्यक्त की कि वह राम को एक-दूसरे का सामना करते देखना चाहते हैं। हनुमान ने उनका मार्गदर्शन किया और उनसे कहा कि चित्र कूट जाओ जहां तुम वास्तव में राम को देखोगे।

          हनुमान जी के निर्देशानुसार वे चित्र कूट के रामघाट स्थित आश्रम में रहने लगे। एक दिन जब वे कामद गिरी पर्वत की परिक्रमा पर गए तो उन्होंने दो राजकुमारों को घोड़े पर सवार देखा। लेकिन वह उनमें भेद नहीं कर सके। बाद में जब उन्होंने स्वीकार किया कि वे भगवान हनुमान द्वारा राम और लक्ष्मण थे, तो वे निराश हो गए। इन सभी घटनाओं का वर्णन स्वयं अपनी गीता वली में किया है। अगली सुबह, जब वे चंदन का लेप बना रहे थे, तब उनकी फिर से राम से मुलाकात हुई। राम उनके पास आए और चंदन के लेप का एक तिलक मांगा। गोस्वामी तुलसी दास तब भी समझ नहीं सके, तभी हनुमान जी ने तोते का रुप धारण करके इस दोहे को गाया।

चित्र कूट के घाट पर,भई संतत की भीड़।

तुलसी दास चंदन घिसे, तिलक लेत रघुवीर।।

गोस्वामी तुलसी दास समझ गए और इतने प्रसन्न हुए कि  वे चंदन के लेप के बारे में भूल गए, तब राम ने स्वयं तिलक लिया और उसे अपने माथे पर और तुलसी दास के माथे पर भी लगाया।

                         विनय पत्रिका में, गोस्वामी तुलसी दास जी ने चित्र कूट में चमत्कारों का उल्लेख किया था और राम को बहुत धन्यवाद दिया था। उन्होंने बरगद के पेड़ के नीचे माघ मेले में ऋषि याज्ञवल्क्य को वक्ता और ऋषि  भारद्वाज को श्रोता के दर्शन प्राप्त किए। साहित्यिक जीवन के बारे में गोस्वामी तुलसी दास ने तुलसी मानस मंदिर , चित्र कूट, सतना, भारत में मूर्ति बनाई थी। फिर उन्होंने वाराणसी के लोगों के लिए संस्कृत में कविता की रचना शुरू की। ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव ने स्वयं उन्हें संस्कृत के बजाय स्थानीय भाषा में अपनी कविता लिखने का आदेश दिया था। 

           जब तुलसी दास ने अपनी आँखें खोलीं, तो उन्होंने देखा कि शिव और पार्वती दोनों ने उन्हें आशीर्वाद दिया। उन्हें अयोध्या जाने और अवधी में अपनी कविता लिखने का आदेश दिया गया था। महाकाव्य रामचरित्र मानस की रचना उन्होंने संवत सोलह सौ इकतीस में चैत्र मास की रामनवमी को शुरु की थी। उन्होंने अयोध्या में रामचरित्र मानस को लिखना शुरू किया। उन्होंने संवत सोलह सौ तेतीस में मार्गशीर्ष महीने के राम और सीता विवाह पंचमी पर दो साल, सात महीने और छब्बीस दिनों में रामचरित्र मानस का अपना लेखन पूरा किया। 

            गोस्वामी तुलसी दास जी के इष्टदेव भगवान राम है। एक बार की बात है जब तुलसी दास जी अपने इष्टदेव का दर्शन करने श्री जगन्नाथ पुरी गये थे। जगन्नाथ मंदिर में भक्तों की भीड़ बहुत थी यह देखकर तुलसी दासजी प्रसन्न मन से मंदिर में गए। गोस्वामी तुलसी दास जी ने जैसे ही भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन किए वे निराश हो गये। और उन्होंने विचार किया कि यह हस्त पाद विहीन देव कदापि हमारा इष्ट नहीं हो सकता है। वे मंदिर से तुरंत बाहर निकल गए और मंदिर से थोड़ी ही दूर एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गये। गोस्वामी तुलसी दासजी अपने मन में विचार करने लगे की मेरा इतनी दूर आना व्यर्थ हुआ। वे सोचने लगे कि क्या गोलाकार नेत्रों वाला तथा हस्त पाद विहीन दारु देव मेरा राम हो सकता है? कदापि नहीं। रात्रि हो गयी थी, वे उसी वृक्ष के नीचे थके-माँदे, भूखे-प्यासे बैठे रहे, भूख से उनका अंग टूट रहा था। अचानक ही एक आहट हुई. तो उनका ध्यान उधर गया और उसे सुनने लगे।

            तभी उन्होंने देखा एक बालक हाथों में थाली लिए पुकार रहा था – अरे बाबा ! तुलसी दास कौन है? तभी गोस्वामी तुलसी दास जी उठते हुए बोले –हाँ भाई ! मैं ही हूँ तुलसी दास’ बताइए क्या काम है। बालक ने कहा, अरे ! आप यहाँ हैं. मैं बहुत देर से आपको ही खोज रहा हूँ। अपने हाथ को आगे बढ़ाते हुए ‘बालक ने कहा -‘लीजिए, मैं जगन्नाथ जी ने आपके लिए प्रसाद भेजा है।

गोस्वामी तुलसी दास बोले – कृपया करके आप इसे वापस ले जाए।

बालक ने कहा, कि यह तो आश्चर्य की बात है, जगन्नाथ का भात-जगत पसारे हाथ’ और ओर आप इसे अस्वीकार कर रहे है और वह भी जब स्वयं महा प्रभु ने भेजा. इसका क्या कारण है?

             तुलसी दासजी ने कहा, अरे भाई ! मैं बिना अपने इष्टदेव को भोग लगाये कुछ ग्रहण नहीं करता हु. और फिर यह जगन्नाथ का जूठा प्रसाद जिसे मैं अपने इष्टदेव को समर्पित न कर सकूँ, यह मेरे लिए किस काम का है? तभी बालक ने मुस्कराते हुए कहा, बाबा ! यह प्रसाद आपके इष्ट ने ही भेजा है। तो आप इसे ग्रहण कर सकते है।

गोस्वामी तुलसी दास ने बालक से कहा – यह हस्त पाद विहीन दारु मूर्ति मेरा इष्ट नहीं हो सकता है यह मेरे राम कभी नहीं हो कसते है। बालक ने तुलसी दासजी से कहा कि श्री रामचरित्र मानस में तो आपने अपने इष्टदेव के इसी रूप का वर्णन किया है:-

बिन पद चलइ सुनइ बिन काना। कर बिन कर्म करइ विधि नाना।। आनन रहित सकल रस भोगी। बिन बानी बकता बड़ जोगी।।

           बालक के ऐसा जवाब देने के बाद तुलसी दास की भाव-भंगिमा देखने लायक थी। उनके नेत्रों में अश्रु-बिन्दु थे, और मुख से कुछ भी शब्द नहीं निकल रहे थे। बालक ने थाल रखा और यह कहकर अदृश्य हो गया कि मैं ही राम हूँ। मेरे मंदिर के चारों द्वारों पर हनुमान जी का पहरा हर समय रहता है और प्रतिदिन विभीषण मेरे दर्शन को आते है। कल प्रातः तुम भी आकर मेरे दर्शन कर लेना।

बालक अर्थात रामजी के जाने के बाद तुलसी दास जी ने बड़े प्रेम से वह प्रसाद ग्रहण किया और प्रातःकाल उठकर मंदिर गये। मंदिर में उन्होंने जगन्नाथ जी, बल भद्र और सुभद्रा के स्थान पर श्री राम, लक्ष्मण एवं जानकी के भव्य दर्शन हुए और दर्शन करते ही वे भाव-विभोर हो गए। इस प्रकार तुलसी दासजी को श्री राम के दर्शन हुए और भगवान ने एक भक्त की इच्छा को पूरी किया।

              तुलसी दास जी जिस स्थान पर वह रात्रि व्यतीत की थी। उस स्थान को आज ‘तुलसी चौरा’ नाम से जाना जाता है। वहाँ पर तुलसी दास जी की पीठ ‘बड़छता मठ’ के रूप में प्रतिष्ठित की गई है। जगन्नाथ जी के दर्शन करने वाला हर व्यक्ति तुलसी चौरा के दर्शन भी करता है। इसी तरह गोस्वामी तुलसी दास जी के बारे में एक और कथा प्रचलित है। वे श्री राम के अनन्य भक्त थे। ऐसे गोस्वामी जी एक बार वृंदावन गए। उन्होंने पूरा बृज घूम लिया, परन्तु एक भी जगह उन्हें भगवान राम की प्रतिमा नहीं मिली। ऐसे में वे राधा कुंड-श्याम कुंड के पास बाले मंदिर में गए। वहां राधा कृष्ण की प्रतिमा को हाथ तो जोड़ा, परन्तु सिर नहीं झुकाया। गोस्वामी जी ने प्रतिमा को एक पद सुनाया:-

तुलसी मस्तक तब नवें, जब धनुष वाण लेहूं हाथ।

                    बस बांके बिहारी घबरा गए। भक्त वत्सल भगवान अपने भक्त की दुविधा कैसे सहन करते। आज उनके दरबार में उनका भक्त खड़ा था और उसने अर्जी की थी। भला मुरली मनोहर अपने भक्त को अपने दरबार से खाली कैसे जाने देते? उन्होंने गोपिकाओं को अपने पास से हटा दिया। राधा जी को अपने में समाहित कर लिया और मुरली मनोहर ने मुरली छिपा ली। अपनी चंद्रिका मिटा ली और धनुष वाण लेकर खड़े है। धन्य है हमारे प्रभु की करुणा और भक्त वत्सलता। भगवान के स्वरूप बदलते ही गोस्वामी तुलसी दास जी उनके चरणों में लोट गए और पद गाया:-

कित मुरली-कित चंद्रिका, कित गोपियन के साथ।

अपने जन के कारणें, श्री कृष्ण भयो रघुनाथ।

                 ऐसे गोस्वामी तुलसी दास जी थे। उनकी प्रसिद्धि से काशी के विद्वान जलते थे। ऐसे में उन ब्राह्मणों ने रामचरित्र मानस की चोरी करने की प्लानिंग की। परन्तु जब उनके द्वारा भेजे चोर ने जाकर गोस्वामी जी के आश्रम पर देखा। वहां दो वीर युवक धनुष वाण लेकर पहरे दे रहे थे। उन वीर पहरेदारों की सावधानी देखकर चोर बड़े प्रभावित हुए और उनके दर्शन से उनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने श्री तुलसी दास जी के पास जाकर सब वृत्तांत कहा और पूछा कि आपके ये सुंदर वीर पहरेदार कौन हैं ? गोस्वामी तुलसी दास जी समझ गए की प्रभु श्री राम लक्ष्मण ही है। गोस्वामी तुलसी दास जी के नेत्रों से अश्रुओं की धारा बह चली, वाणी गदगद हो गयी। अपने प्रभु के कृपा समुद्र में वे डूबने-उतराने लगे। उन्होंने अपने को संभालकर कहा कि तुम लोग बड़े भाग्यवान हो, धन्य हो कि तुम्हें भगवान के दर्शन प्राप्त हुए।

               उन चोरो ने अपना रोजगार छोड़ दिया और वे भजन में लग गये। तुलसी दास जी ने कुटी की सब वस्तुएँ लुटा दीं, मूल पुस्तक यत्न के साथ अपने मित्र टोडरमल जो कि अकबर के नवरत्नों में से एक के घर रख दीं। श्री तुलसी दास जी ने एक दूसरी प्रति लिखी उसी के आधार पर पुस्तकों की प्रति लिपियां तैयार होने लगीं। दिन दूना रात चौगुना प्रचार होने लगा। पंडितों का दुःख बढ़ने लगा। उन्होंने काशी के प्रसिद्ध तांत्रिक वटेश्वर मिश्र से प्रार्थना की कि हम लोगों को बड़ी पीड़ा हो रही है, किसी प्रकार तुलसी दासजी का अनिष्ट होना चाहिये। उन्होंने मारक प्रयोग किया और प्रेरणा करके भैरव को भेजा। भैरव तुलसी दास के आश्रम पर गये, वहाँ हनुमान जी गोस्वामी तुलसी दास जी की रक्षा करते देखकर वे भयभीत होकर लौट गये। मारक का प्रयोग करने वाले वटेश्वर मिश्र के प्राणों पर ही आ बनी। परंतु अब भी पंडितों का समाधान नहीं हो सका।

              गोस्वामी तुलसी दास जी के बारे में दृष्टांत है कि रहिमन खान खाना उनका अनन्य भक्त था। एक बार एक गरीब ब्राह्मण गोस्वामी जी के पास पहुंचा और पुत्री की शादी के लिए धन की याचना की। इसके जबाव में गोस्वामी तुलसी दास जी ने एक कागज पर कुछ लिखकर उस ब्राह्मण को दे-दिया और रहिमन खान खाना के पास भेज दिया। जब वह ब्राह्मण खान खाना के पास पहुंचा, उसने उनको सारी बात बताई और उस कागज को दिया। जिसपर लिखा था “तुलसी-तुलसी सब कहे, तुलसी का सुत होए"। रहिमन जी ने पढा और आगे लाइन पूरी की "गोद लिए हुलसी फिरे, तुलसी ता सुत होए" इसके बाद उन्होंने उस ब्राह्मण को एक लाख सोने की मुहर दिया था। ऐसे गोस्वामी तुलसी दास जी थे।

                       भगवान के भक्त भगवान को अतिशय प्रिय होते है। नारायण अपने भक्तों के लिए कल्पतरु है। वे पद्धनाभ अपने भक्तों के आश्रय केंद्र है। अतः हमें उनका आश्रय जरूर ग्रहण करना चाहिए। आगे इसी संदर्भ में मैं आगे स्वामी कबीर दास जी की चर्चा करूंगा।

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आज की चर्चा में आपको सनातन धर्म के दो ऐसे प्रवर्तक के बारे में बताऊँगा, जो महत्वपूर्ण है। जहां स्वामी नाभा दास जी ने हमें भक्त माल रूपी दिव्य ग्रंथ दिया है, तो वही कबीर ने निराकार ब्रह्म की पुजा पर बल दिया है। आज भक्त कथा अमृत के अंतिम भाग में आपको दोनों महान संतों एवं नारायण के प्रति उनकी श्रद्धा के बारे में बतलाऊँगा।

भक्त नाभादास

रामानंद के शिष्यों में से एक अनंतानंद थे। उनके शिष्य कृष्ण दास पय हारी थे। ये सन पंद्रह सौ पच्छत्तर  के आसपास वर्तमान थे। उनकी चार रचनाओं का पता चला है। उन्हीं कृष्ण दास पय हारी के शिष्य प्रसिद्ध भक्त नाभादास थे। नाभादास की भक्त माल का हिंदी साहित्य में अभूतपूर्व ऐतिहासिक महत्व है। इसकी रचना नाभादास ने पंद्रह सौ पिच्चासी के आसपास की। इसकी टीका प्रिया दास ने सत्रह सौ बारह में लिखी। इसमें दो सौ भक्तों के चरित तीन सौ पैंसठ छप्पयों में वर्णित हैं। इसका उद्देश्य तो मानव जीवन में भक्ति का प्रचार था, किंतु आधुनिक इतिहासकारों के लिए यह हिंदी साहित्य के इतिहास का महत्त्वपूर्ण आधार-ग्रंथ सिद्ध हुआ। 

                             अवश्य ही इसमें भक्तों के चरित्र का वर्णन चमत्कारपूर्ण है, किंतु उसे मध्य कालीन वर्णन शैली के रूप सें ग्रहण करना उचित है। इन चमत्कारिक वर्णनों से तत्कालीन जनता की मानसिकता का पता चलता है। मध्यकाल में तथ्यपरकता पर कम ध्यान रहता था। वहाँ भाव प्रधान था, तथ्य गौण। फिर भी इस ग्रंथ से रामानंद, कबीर, तुलसी, सूर, मीरा आदि के विषय में अनेक तथ्यों का भी पता चलता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इससे यह पता तो अचूक तौर पर लग ही जाता है कि वर्णित भक्तों एवं भक्त-कवियों की छवि जन सामान्य में कैसी थी। और, जिस समाज में भक्तों, कवियों, महापुरुषों के जीवन-वृत्त के विषय में इतना कम ज्ञात हो, उसमें इतना पता लग जाना भी बहुत काम की बात है।

           भक्त माल के रचयिता आलोचक नहीं थे। फिर भी उन्होंने विभिन्न भक्त कवियों के विषय में जो कुछ लिखा है, उससे उनकी सारग्रहिणी प्रतिभा का संकेत मिल जाता है। वे प्रायः विभिन्न भक्तों एवं कवियों की विशेषता ही बताकर उनके व्यक्तित्व का वास्तविक परिचय देते हैं। किसी भी मध्य कालीन चरित-लेखन की तुलना में इस दृष्टि से नाभादास इस विषय में आज हमारे लिए अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। कबीर के विषय में वे कहते हैं- कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षट्दरशनी। कबीर ने षट्दर्शनों और वर्णाश्रम का सम्मान नहीं किया। साथ ही मीरा के बारे में लिखा- निरंकुश अति निडर रसिक जस रसना गायो। इन्होंने रामकथा से संबंधित काव्य लिखा। इनके लिखे दो अष्टयाम मिलते हैं।

              नाभादास को कुछ लोग डोम जाति का मानते हैं, कुछ क्षत्रिय जाति का। कहते हैं, इनकी तुलसी दास से भेंट हुई थी। वैसे भक्तिकाल के कवियों में स्वामी अग्र दास के शिष्य नाभादास का विशिष्ट स्थान है। अंतस साक्ष्य के अभाव में इनकी जन्म तथा मृत्यु की तिथियाँ अनिश्चित हैं। मिश्र बंधु, डॉ॰ श्यामसुंदर दास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ॰ दीन दयालु गुप्त, आचार्य क्षिति मोहन सेन आदि ने इस संबंध में जो तिथियाँ निर्धारित की हैं उनमें पर्याप्त अंतर है। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ 'भक्त माल' की टीका प्रिया दास जी ने संवत्‌ सत्रह सौ उनहत्तर में, सौ वर्ष बाद, लिखी थी। इस आधार पर नाभादास का समय सत्रहवीं शताब्दी के मध्य और उत्तरार्ध के बीच माना जाता है। नाभादास के जन्मस्थान, माता पिता, जाति आदि के संबंध में भी प्रमाणों के अभाव में अधिकारपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। 

             भक्त नामावली' के संपादक श्री राधाकृष्ण दास ने किंवदंती के आधार पर लिखा है कि नाभादास जन्मांध थे और बाल्यावस्था में ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। उस समय देश में अकाल की स्थिति थी। अतः माता इनका पालन पोषण न कर सकी और इन्हें वन में छोड़कर चली गईं। संयोगवश श्री कील्ह और अग्र दास जी उसी वन में होकर जा रहे थे। उन्होंने बालक को देखा और उठा ले आए। बाद में उन्हीं महात्माओं के प्रभाव से नाभादास ने आँखों की ज्योति प्राप्त की और अग्र दास जी ने इन्हें दीक्षित किया। परंपरा के अनुसार नाभादास डोम अथवा महराष्ट्रीय ब्राह्मण जाति के थे। टीकाकार प्रिया दास ने इन्हें हनुमान वंशीय महराष्ट्रीय ब्राह्मण माना है। टीकाकार रूप कला जी ने इन्हें डोम जाति का मानते हुए लिखा है कि डोम नीच जाति नहीं थी, वरन्‌ कलावंत, ढाढी, भाट, डोम आदि गान विद्या प्रवीण जातियों के ही नाम हैं। मिश्र बंधुओं ने भी इन्हें हनुमान वंशी मानते हुए लिखा है कि मारवाड़ी में हनुमान शब्द 'डोम' के लिए प्रयुक्त होता है। 

         नाभाजी द्वारा रचित भक्त माल की कवित्तोंवाली प्रसिद्ध टीका 'भक्ति रस बोधनी' के रचयिता हैं। इनका उपनाम रसरासि था। इनके दीक्षा गुरु मनोहर राम चैतन्य संप्रदाय की राधा रमणी शिष्य परंपरा में थे। भक्ति रस बोधनी की रचना संवत सत्रह सौ उनहत्तर में पूर्ण हुई थी। इनकी अन्य रचनाएँ रसिक मोहिनी अनन्य मोहिनी, चाहवेली तथा भक्त सुमिरनी है।


कबीर दास


स्वामी कबीर दास रामानंद स्वामी के बारह प्रिय शिष्यों में एक थे। संत कबीर दास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि थे। जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व - प्रेम का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्र दूत कहा जाता है।

                 कबीर दास के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कबीर पंथियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहर तारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंच गंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानंद जी गंगा स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मंत्र मान लिया और रामानंद जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। 

                      कबीर के ही शब्दों में-

हम काशी में प्रकट भये हैं, रामानंद चेताये।

कबीर पंथियों में इनके जन्म के विषय में यह पद्य प्रसिद्ध है-

चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्र वार एक ठाठ ठए।

जेठ सुदी बरसायत को पूरन मासी तिथि प्रगट भए॥

घन गरजें दामिनी दमके बूँदें बरषें झर लाग गए।

लहर तालाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु प्रगट भए॥

                       कबीर के जन्मस्थान के संबंध में तीन मत हैं । मगहर, काशी और आजमगढ़ में  बेल हरा गाँव। मगहर के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि कबीर ने अपनी रचना में वहाँ का उल्लेख किया है : "पहिले दरसनु मगहर पायो पुनि काशी बसे आई अर्थात् काशी में रहने से पहले उन्होंने मगहर देखा। मगहर आजकल वाराणसी के निकट ही- है और वहाँ कबीर का मक़बरा भी है। कबीर का अधिकांश जीवन काशी में व्यतीत हुआ। वे काशी के जुलाहे के रूप में ही जाने जाते हैं। कई  कबीर पंथियों का भी यही विश्वास है कि कबीर का जन्म काशी में हुआ। किंतु किसी प्रमाण के अभाव में निश्चयात्मक अवश्य भंग होती है।

                बहुत से लोग आजमगढ़ ज़िले के बेल हरा गाँव को कबीर साहब का जन्मस्थान मानते हैं। वे कहते हैं कि ‘बेल हरा’ ही बदलते-बदलते लहर तारा हो गया। फिर भी पता लगाने पर न तो बेल हरा गाँव का ठीक पता चल पाया है और न यही मालूम हो पाया है कि बेल हरा का लहर तारा कैसे बन गया और वह आजमगढ़ ज़िले से काशी के पास कैसे आ गया ? वैसे आजमगढ़ ज़िले में कबीर, उनके पंथ या अनुयायियों का कोई स्मारक नहीं है। कबीर के माता- पिता के विषय में भी एक राय निश्चित नहीं है। "नीमा' और "नीरु' की कोख से यह अनुपम ज्योति पैदा हुई थी। या लहर तालाब के समीप विधवा ब्राह्मणी की पाप- संतान के रुप में आकर यह पतित पावन हुए थे। ठीक तरह से कहा नहीं जा सकता है।

                             कई मत यह है कि नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था। एक किंवदंती के अनुसार कबीर को एक विधवा ब्राह्मणी का पुत्र बताया जाता है। जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। स्वामी जी ने कुछ पुष्प विधवा ब्राह्मणी के आँचल में डाल दिए थे। जब ब्राह्मणी घर को लौटने लगी, उसे अपने आँचल में भार महसूस हुआ। इसलिये उन्होंने उन पुष्पों को तालाब में पुरइन के पत्तों पर डाल दिया और घर चली गई। इस तरह से संत कबीर का धरा पर प्रादूर्भाव हुआ। एक जगह कबीर ने कहा है :-

"जाति जुलाहा नाम कबीरा बनि-बनि फिरो उदासी।'

              कबीर के एक पद से प्रतीत होता है कि वे अपनी माता की मृत्यु से बहुत दुःखी हुए थे। उनके पिता ने उनको बहुत सुख दिया था। वह एक जगह कहते हैं कि उसके पिता बहुत "गुसाईं' थे। ग्रंथ साहब के एक पद से विदित होता है कि कबीर अपने वयनकार्य की उपेक्षा करके हरि नाम के रस में ही लीन रहते थे। उनकी माता को नित्य कोश घड़ा लेकर लीपना पड़ता था। जब से कबीर ने माला ली थी, उसकी माता को कभी सुख नहीं मिला। इस कारण वह बहुत खीज गई थी। इससे यह बात सामने आती है कि उनकी भक्ति एवं संत- संस्कार के कारण उनकी माता को कष्ट था। 

              कबीर दास का लालन-पालन जुलाहा परिवार में हुआ था, इसलिए उनके मत का महत्त्वपूर्ण अंश यदि इस जाति के परंपरागत विश्वासों से प्रभावित रहा हो तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। यद्यपि 'जुलाहा ‘शब्द फ़ारसी भाषा का है। तथापि इस जाति की उत्पत्ति के विषय में संस्कृत पुराणों में कुछ-न-कुछ चर्चा मिलती ही है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खंड के दसवें अध्याय में बताया गया है कि म्लेच्छ से कुविंदकन्या में 'जोला' या जुलाहा जाति की उत्पत्ति हुई है। अर्थात् म्लेच्छ पिता और कुविंद माता से जो संतति हुई वही जुलाहा कहलाई।

         जुलाहे मुसलमान है, पर इनसे अन्य मुसलमानों का मौलिक भेद है। सन् उन्नीस सौ एक की जन-गणना के आधार पर रिजली साहब ने 'पीपुल्स ऑफ़ इंडिया' नामक एक ग्रंथ लिखा था। इस ग्रंथ में उन्होंने तीन मुसलमान जातियों की तुलना की थी। वे तीन हैं: सैयद, पठान और जुलाहे। इनमें पठान तो भारतवर्ष में सर्वत्र फैले हुए हैं पर उनकी संख्या कहीं भी बहुत अधिक नहीं है। जान पड़ता है कि बाहर से आकर वे नाना स्थानों पर अपनी सुविधा के अनुसार बस गए। पर जुलाहे पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य  प्रदेश, बिहार और बंगाल में ही पाए जाते हैं। जिन दिनों कबीर दास इस जुलाहा-जाति को अलंकृत कर रहे थे उन दिनों, ऐसा जान पड़ता है कि इस जाति ने अभी एकाध पुश्त से ही मुसलमानी धर्म ग्रहण किया था।      

                 कबीर दास की वाणी को समझने के लिए यह निहायत ज़रूरी है कि हम इस बात की जानकारी प्राप्त कर ले कि उन दिनों इस जाति के बचे-कुचे पुराने संस्कार क्या थे। उत्तर भारत के वनजीवियों में कोरी मुख्य हैं। बेन्स जुलाहों को कोरियों की समशील जाति ही मानते हैं। कुछ पंडितों ने यह भी अनुमान किया है कि मुसलमानी धर्म ग्रहण करने वाले कोरी ही जुलाहे हैं। यह उल्लेख किया जा सकता है कि कबीर दास जहाँ अपने को बार-बार जुलाहा कहते हैं:-

जाति जुलाहा मति कौ धीर। हर्षित गुन रमै कबीर। तू ब्राह्मण मैं काशी का जुलाहा।

       वहाँ कभी-कभी अपने को कोरी भी कह गए हैं। ऐसा जान पड़ता है कि यद्यपि कबीर दास के युग में जुलाहों ने मुसलमानी धर्म ग्रहण कर लिया था पर साधारण जनता में तब भी कोरी नाम से परिचित थे। सबसे पहले लगने वाली बात यह है कि कबीर दास ने अपने को जुलाहा तो कई बार कहा है परन्तु मुसलमान एक बार भी नहीं कहा। वे बराबर अपने को 'ना-मुसलमान' कहते रहे। आध्यात्मिक पक्ष में निस्संदेह यह बहुत ऊँचा भाव है। पर कबीर दास ने कुछ इस ढंग से अपने को उभय-विशेष बताया है कि कभी-कभी यह संदेह होता है कि वे आध्यात्मिक सत्य के अतिरिक्त एक सामाजिक तथ्य की ओर भी इशारा कर रहे हैं। उन दिनों वनजीवी नाथ-मतावलंबी गृहस्थ योगियों की जाति सचमुच ही 'ना-हिंदू ना-मुसलमान' थी। कबीर दास ने कम-से-कम एक पद में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि हिंदू और हैं, मुसलमान और हैं और योगी और हैं। क्योंकि योगी या जोगी 'गोरख-गोरख करता है, हिंदू 'राम-राम' उच्चारता है और मुसलमान 'खुदा-खुदा' कहा करता है।

                  कबीर बड़े होने लगे। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, वे अपनी अवस्था के बालकों से एकदम भिन्न रहते थे। कबीर दास की खेल में कोई रुचि नहीं थी। मदरसे भेजने लायक़ साधन पिता-माता के पास नहीं थे। जिसे हर दिन भोजन के लिए ही चिन्ता रहती हो, उस पिता के मन में कबीर को पढ़ाने का विचार भी न उठा होगा। यही कारण है कि वे किताबी विद्या प्राप्त न कर सके।

मसि कागज छूवो नहीं, क़लम गही नहीं हाथ।

उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुंह से बोले और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया।

               कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालित कन्या 'लोई' के साथ हुआ था। कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी। ग्रंथ साहब के एक श्लोक से विदित होता है कि कबीर का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था।

बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल। हरि का सिमरन छोडि के, घर ले आया माल।

                   कबीर की पुत्री कमाली का उल्लेख उनकी बानियों में कहीं नहीं मिलता है। कहा जाता है कि कबीर के घर में रात - दिन मुंडियों का जमघट रहने से बच्चों को रोटी तक मिलना कठिन हो गया था। इस कारण से कबीर की पत्नी झुंझला उठती थी। एक जगह कबीर उसको समझाते हैं :-

सुनि अंघली लोई बंपीर। इन मुड़ियन भजि सरन कबीर।।

             जबकि कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विरागी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-

कहत कबीर सुनहू रे लोई। हरि बिन राखन हार न कोई।

यह हो सकता हो कि पहले लोई पत्नी होगी।  बाद में कबीर ने इसे शिष्या बना लिया हो। उन्होंने स्पष्ट कहा है :-

नारी तो हम भी करी, पाया नहीं विचार। जब जानी तब पर हरि, नारी महा विकार।।

              कबीर जी ने सोचा कि गुरु किए बिना काम बनेगा नहीं। उस समय काशी में रामानंद नाम के संत बड़े उच्च कोटि के महापुरुष माने जाते थे। कबीर जी ने उनके आश्रम के मुख्य द्वार पर आकर विनती की "मुझे गुरूजी के दर्शन कराओ। उस समय जात-पात का बड़ा आग्रह रहता था और फिर काशी ! वहाँ पंडितों और पाण्डे लोगों का अधिक प्रभाव था। कबीर जी ने देखा कि  रोज सुबह तीन-चार बजे स्वामी रामानंद खड़ाऊँ पहनकर 'टप...टप....' आवाज़ करते गंगा में स्नान करने जाते हैं। कबीर जी ने गंगा के घाट पर उनके जाने के रास्ते में और सब जगह बाड़ कर दी।

                  एक ही मार्ग रखा और उस मार्ग में सुबह के अन्धेरे में कबीर जी सो गये। गुरु महाराज आये तो अन्धेरे के कारण कबीर जी पर पैर पड़ गया। उनके मुख से उद्गार निकल पड़े, "राम... राम... राम....।" कबीर जी का तो काम बन गया। गुरूजी के दर्शन भी हो गये, उनकी पादुकाओं का स्पर्श भी मिल गया और गुरुमुख से राम नाम का मंत्र भी मिल गया। अब दीक्षा में बाकी ही क्या रहा ? कबीर जी नाचते, गाते, गुनगुनाते घर वापस आये। राम नाम की और गुरुदेव के नाम की रट लगा दी। अत्यंत स्नेह पूर्वक हृदय से गुरुमंत्र का जप करते। गुरु नाम का कीर्तन करते साधना करने लगे। जो महापुरुष जहाँ पहुँचते हैं वहाँ की अनुभूति उनका भावपूर्ण हृदय से चिंतन करने वाले को भी होने लगती है। काशी के पंडितों ने देखा कि यमन का पुत्र कबीर राम नाम जपता है। रामानंद के नाम का कीर्तन करता है । उस यमन को राम नाम की दीक्षा किसने दी ? क्यों दी ? मंत्र को भ्रष्ट कर दिया । पंडितों ने कबीर से पूछा:-"राम नाम की दीक्षा तेरे को किसने दी ?""स्वामी रामानंद जी महाराज के श्री मुख से मिली। कहाँ दी ?""सुबह गंगा के घाट पर। पंडित रामानंद जी के पास पहुँचे और कहा कि आपने यमन को राम मंत्र की दीक्षा देकर मंत्र को भ्रष्ट कर दिया। सम्प्रदाय को भ्रष्ट कर दिया। 

                     गुरु महाराज ! यह आपने क्या किया ?इस पर गुरु महाराज ने कहा- "मैंने तो किसी को दीक्षा नहीं दी। वह यमन जुलाहा तो रामानंद..... रामानंद.... मेरे गुरुदेव रामानंद" की रट लगाकर नाचता है, आपका नाम बदनाम करता है। पंडितों की बात सुनकर स्वामी जी ने कहा। भाई ! मैंने उसको कुछ नहीं कहा। उसको बुलाकर पूछा जाये। पता चल जायेगा। काशी के पंडित इकट्ठे हो गये। कबीर जी को बुलाया गया। गुरु महाराज मंच पर विराजमान थे। सामने विद्वान पंडितों की सभा बैठी थी। रामानंद जी ने कबीर से पूछा "मैंने तुझे कब दीक्षा दी ? मैं कब तेरा गुरु बना ?"कबीर जी बोले, "महाराज ! उस दिन प्रभात को आपने मेरे को पादुका का स्पर्श कराया और राम मंत्र भी दिया, वहाँ गंगा के घाट पर। रामानंद जी कुपित से हो गये। कबीर जी को अपने सामने बुलाया और गरज कर बोले। "मेरे सामने तू झूठ बोल रहा है ? सच बोल। इसपर कबीर दास जी विनम्र स्वर में बोले। प्रभु ! आपने ही मुझे प्यारा राम नाम का मंत्र दिया था।

                 स्वामी रामानंद जी को गुस्सा आ गया। उन्होंने  खड़ाऊँ उठाकर दे मारी कबीर जी के सिर पर। राम... राम...राम....! इतना झूठ बोलता है। कबीर जी बोल उठे, "गुरु महाराज ! तब की दीक्षा झूठी तो अब की तो सच्ची। मुख से राम नाम का मंत्र भी मिल गया और सिर में आपकी पावन पादुका का स्पर्श भी हो गया। स्वामी रामानंद जी उच्च कोटि के संत-महात्मा थे। घड़ी भर भीतर गोता लगाया, शांत हो गये। फिर पंडितों से कहा, चलो यमन हो या कुछ भी हो, मेरा पहले नम्बर का शिष्य यही है। ब्रह्म निष्ठ सत्पुरुषों की विद्या या दीक्षा प्रसाद खाकर मिले तो भी बेड़ा पार करती है और मार खाकर मिले तो भी बेड़ा पार कर देती है। कबीर दास जी के बारे में एक वृतांत प्रसिद्ध है।

                       कबीर दास जी सुख देव के अवतार माने गए है। ऐसे में भगवान हमेशा उनको प्रगट होकर ही रहते थे। एक बार नारायण ने उनको कहा कि आप पूरे शहर का भंडारा करो। कबीर दास जी तो राजी हो गए, उन्होंने पूरे शहर को निमंत्रण दे-दिया। फिर वे अपने द्वारा बुने हुए कपड़े को बेचने के लिए निकल पड़े। कबीर दास जी जो कमाते थे, वो साधुओं की सेवा में लगा देते थे। लेकिन आज, आज कबीर दास को घर लौटने की जल्दी नहीं थी। उन्होंने पूरा दिन शहर में ही इधर-उधर छिप कर बिताया। मन में एक तो बात थी कि पूरे शहर को उन्होंने निमंत्रण दिया है। परन्तु इससे उन्हें क्या? जिसने उन्हें निमंत्रण देने को कहा था, वही समझे।

                           जब शाम ढलने को हुआ, गोधूलि बेला हो गई। उस समय अंधेरे का लाभ लेकर कबीर जी घर को लौटे, मन में जिज्ञासा लेकर कि चलो देखते है कि क्या हो रहा है? घर आकर देखा, तो जोर-शोर से भंडारा का कार्य चल रहा था। कबीर दास जी ने सोचा कि भंडारा हो ही रहा है, तो मैं भी पा लूं। वे पंक्ति में बैठ गए और पत्तल भी आ गई। तभी श्री नारायण, जो कि कबीर दास जी के रुप में थे। कबीर दास जी के पास पहुंच गए और उन्हें पुछा कि वे अब तक कहां थे? उन्होंने नगर को निमंत्रण दिया, तो अपनी जिम्मेदारी क्यों भूल गए? इस पर कबीर दास जी ने कहा। आप थे ही न और जब आप हो, तो मुझे चिन्ता करने की जरूरत ही क्या है?

                     ऐसे थे कबीर दास जी और भगवान के प्रति उनकी ऐसी प्रीति थी। कबीर दास ने अपना शरीर  मगहर में देह त्यागा था। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदूओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है। 

               अब तक आपसे भक्ति की धारा के संदर्भ में भगवान के भक्तों के कथा का रसास्वादन किया। नारायण की कथा हो अथवा उनके भक्तों की, मानव के लिए कल्याणकारी है। यह अमृत से भी गहरे स्वाद को लिए हुए है, जो हमारे इस लोक के साथ ही परलोक का रास्ता सुगम बना देती है। अब आगे मैं बारह भागवत की चर्चा, विलासिता का प्रभाव और जीवन के मार्ग पर चर्चा करूंगा।

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भागवत धर्म वैष्णव धर्म का अत्यंत प्रख्यात तथा लोकप्रिय स्वरूप है। 'भागवत धर्म' का तात्पर्य उस धर्म से है जिसके उपास्य स्वयं भगवान्‌ हों और वासुदेव श्री कृष्ण ही 'भगवान्‌' शब्द वाच्य हैं "कृष्णस्तु भगवान्‌ स्वयम्‌ , भागवत" ।अतः भागवत धर्म में कृष्ण ही परमोपास्य तत्व हैं। जिनकी आराधना भक्ति के द्वारा सिद्ध होकर भक्तों को भगवान्‌ का सान्निध्य तथा सेवकत्व प्राप्त कराती है। सामान्यतः यह नाम वैष्णव संप्रदायों के लिए व्यवहारित होता है। परंतु यथार्थ में यह उनमें एक विशिष्ट संप्रदाय का बोधक है। भागवतों का महामंत्र है “ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय' जो द्वादशाक्षर मंत्र की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। पांचरात्र तथा वैखानस मत 'नारायण' को ही परम तत्व मानते हैं, परंतु इनसे विपरीत भागवत मत कृष्ण वासुदेव को ही परमाराध्य मानते है।

                        भागवत धर्म, भारतीय सनातन संस्कृति का मेरुदंड है भागवत धर्म। यह ब्राह्मण धर्म के जटिल कर्मकांड एवं यज्ञ व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप सुधारात्मक स्वरूप में स्थापित होने वाला , पहला संप्रदाय भागवत संप्रदाय ही है। भागवत धर्म वैदिक हिंसा का विरोधी रहा है । भागवत धर्म का तात्पर्य उस धर्म से है जिसके उपास्य स्वयं भगवान हैं। भगवान के स्वरूप वासुदेव कृष्ण हैं। भागवत का महामंत्र है -ओउम नमो भगवते वासुदेवाय -जो द्वादशाक्षर है। यह प्राचीन धर्म है जो वैदिक धर्म के बाद ही स्थापित हुआ, मानवीय नायक वासुदेव के अवतार धारण करने के साथ।

                        गुप्त सम्राट अपने को परम भागवत की उपाधि से विभूषित करते थे। उनके शिलालेखों में इसका उल्लेख मिलता है। पाणिनि और पातंजलि के महा भाष्य में भागवत का उल्लेख है। भागवत पुराण का यह प्रख्यात कथन भागवत धर्म के महत्व को स्पष्ट करता है।

किरात हुनाध्राम पुलिंद पुल्सका अभिरकंका यवना खश्यपदययेन्ये पापा यदुपाश्रयाश्रयाह शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नम: ।

अर्थात किरात ,हूण ,आंध्र ,पुलिंद ,पुल्कस ,आभीर ,कंक, यमन ,खश आदि अन्य जंगली जातियों ने भगवान के भक्तों का आश्रय लेकर शुद्धि प्राप्त की है उन प्रभावशाली भगवान को नमस्कार।

       भागवत धर्म भक्ति का धर्म है जो भगवान की कृपा से प्राप्त होती है। भक्ति मुक्ति से बढकर है। आनंदमय मुक्ति ही जीवन का लक्ष्य है भक्त ऐसा नहीं समझते। उसकी दृष्टि में तो मुक्ति नितांत हेय और नगण्य वस्तु है ।प्रभु की सेवा ही एक मात्र लक्ष्य है और वे इसी को श्रेष्ठ मानते है। भागवत धर्म का केंद्र है श्रीकृष्ण चेतना ,जहाँ भाव की पूर्णता है प्रेम का उद्यत स्वरूप है। प्रेम ही जगत में बीज रूप है जो फलता- फूलता और जीवन को चेतन शील बनाये रखता है।

         मनीषियों ने कृष्ण को परात्पर तत्व कहा" कृष्णात्परं कमपि तत्वमहं न जाने। यह प्रेम तत्व अकेले पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकता। उसे कोई आश्रय चाहिए ,कोई आधार चाहिए। प्रेम का आधार है सौंदर्य ,माधुर्य ,लावण्य ,असीम रूप जो राधा तत्व है। राधाकृष्ण का युग्म पूर्णता को पूर्ण कर देता है। यह युगल रूप में राधाकृष्ण की लीला ही रस की सम्पूर्णता है " रसो वै सः"। राधाकृष्ण मानव की विशुद्ध चेतना के ज्योतिर्मय स्वरूप हैं। आज के सन्दर्भ में सारे देश को सूक्ष्म नित्य वृंदावन बनाने की आवश्यकता है। रसिकाचार्यों की अनुभूति है –चार चरण नृत्यत जहाँ तहाँ न आनंद अंत। आनंद ही भयमुक्त मानव की उपासना यात्रा का पूर्ण प्रतिफल है। आनंद का न तो कोई समुदाय है न कोई विशिष्ट परंपरा। यह सम्प्रदायों से परे है और समस्त धर्मों का आश्रय है।

                         बंगाल से वैदिक परंपरा का लुप्त वेदांत भाव भक्तिमय कृष्ण चेतना के रूप में उद्भूत हुई। जो कर्णाटक ,महाराष्ट्र ,गुजरात ,बंगाल उड़ीसा आदि क्षेत्रों से होता हुआ वृंदावन की रसभूमि में पहुंचा। यहाँ भक्ति को पुनर्यौवन प्राप्त हुआ। भक्ति के पुत्र ज्ञान और वैराग्य भी चेतन शील हुए। वस्तुतः भागवत धर्म समस्त भारत की रस चेतना और आध्यात्मिक सौंदर्य बोध की विभिन्न धाराओं से सिंचित होता हुआ सनातन भारतीय संस्कृति का बोध करता है। आज जब तथाकथित धर्मों में प्रेम रस की निष्पत्ति नहीं हो पा रही है। आध्यात्मिक सौंदर्य कुंठित होता जा रहा है ,भारतीय संस्कृति में प्रेम रस के निष्पत्ति की ग्रंथि संक्रमित है। सौंदर्य बोध कुंठित होता जा रहा है, तब भागवत धर्म और राधाकृष्ण की चेतना की ओर निहारने की आवश्यकता है।

            भगवद् वचनों के अनुसार अधर्म में विशेष वृद्धि के कारण जगत रूपी भगवदीय बगीचा जब समय से पूर्व ही उजड़ने लगता है। तो करुणा वरुणालय प्रभु श्री राम कभी अदिति नंदन, कभी देवहूति नंदन, कभी  कौशल्या नंदन तो कभी यशोदा नंदन के रूप में अवतरित होकर अपने बगीचे को उजाड़ने वाले को दण्डित करते हैं। तथा जो जन इसको सदाचार आदि सदगुणों से सींच कर पल्लवित एवं पुष्पित करते हैं। उनको अपने दिव्य मंगलमय नाम, रूप, लीला एवं धाम का अनुभव करा कर शाश्वत शांति प्रदान करते हैं।

         जो प्रभु चौबीस अवतारों के रूप में अवतरित होकर अपनी लीलाओं द्वारा जगत का कल्याण करते हैं। वे ही प्रभु जब शस्त्र की अपेक्षा शास्त्र की आवश्यकता देखते हैं तो आचार्य के रूप में अवतरित होते हैं। शास्त्रों के माध्यम से संसार को उपदेश देकर जगत के उच्छृंखल प्राणियों को सन्मार्ग पर प्रतिष्ठित कर संसार – सागर से उद्धार के सरल तम मार्ग – भक्ति प्राप्ति का दिग्दर्शन कराते हैं।

                 ऐसी ही घटना श्री रामोपासना परायण अनादि वैदिक श्री सम्प्रदाय में घटी, जिसके मध्यवर्ती आचार्य के रूप में भगवान श्री राम ही हिन्दू धर्मोद्धारक जगत गुरु श्री रामानंदाचार्य के रूप में अपने परम प्रिय द्वादश महा भागवतों के साथ अवतरित हुए। यथा, किसी समय जगत गुरु की गुरूतर उपाधि से विभूषित भारत देश का मध्य कालिक इतिहास बर्बर विदेशी लुटेरों एवं तात्कालिक जनता भ्रांत मान्यताओं के कारण दुर्दिनता को प्राप्त हुआ था । उस समय ऊँच – नीच की भावनाएं इतनी गहरी हो गयी थीं कि अधिकांश लोगों के बीच से सदगुण – सदाचार पलायित हो चुके थे, जिसके परिणाम स्वरूप बर्बर, पैशाचिक और नीच विदेशी आक्रांताओं व लुटेरों ने हिन्दू जनता एवं राजाओं की पारस्परिक फूट तथा संघाभाव का लाभ लेते हुए , इस सनातन धर्म तथा संस्कृति का समूलोच्छेदन करने का दुष्प्रयास किया। इन लोगों के द्वारा सनातन धर्म के ध्वजा स्वरूप विविध मंदिरों को विध्वंसित किया गया।

         ऐसी विषम परिस्थिति में भक्तों की करुण पुकार से द्रवित हो घनघोर अंधकारमय वातावरण में त्रिवेणी संग के पावन तट पर स्थित नगर प्रयागराज की शरण में निवास करने वाले मनु – शतरूपा के समान भक्ति भावना से पूरित अन्तःकरण वाले ब्राह्मण दंपति श्री पुण्य सदन एवं श्री सुशीला – देवी जी के पुण्य पुंज स्वरूप उनके घर में श्री राम जी माघ कृष्ण सप्तमी विक्रम संवत् तेरह सौ छप्पन ई0 में सूर्य के समान श्री रामानंद के रूप में अवतरित हुए।

अध्ययन आदि के कार्य को पूरा कर आपने पंच गंगा घाट स्थित श्री मठ के आचार्य ब्रह्मर्षि श्री वशिष्ठ अवतार श्री  राघवानन्दाचार्य जी से विरक्त दीक्षा ग्रहण कर श्री बोधायनाचार्य प्रभृति पूर्वाचार्यों के द्वारा प्रतिष्ठित श्री राम भक्ति एवं षडक्षर श्री राम मंत्र की परम्परा का विशेष रूप से संवर्धन किया।

                             जैसे कि श्री भक्तमालकार श्री नाभा गोस्वामी जी लिखते हैं कि श्री रामानंदाचार्य जी ने बताया है कि जगतप्रभु के पदपद्मों में समर्थ, असमर्थ सभी प्रपत्ति के अधिकारी हैं। इसमें न तो उत्तम कुलकी, न पराक्रम की, न काल विशेष की और न शुद्धता की ही अपेक्षा है। इस प्रकार आपने भगवत्पादपद्मों में शरणापन्न होने के लिये समस्त जीवों को अर्हता प्रदान की। भगवान श्री राम ने जैसे अपने अवतार काल में निषाद राज गुह, केवट, शबरी, गीध एवं वानरों को गले से लगाया, उसी प्रकार उन्हीं के अवतार श्री रामानंद जी ने घूम – घूम कर उपर्युक्त आदर्शों को कथा में नहीं बल्कि यथार्थ में पल्लवित, पुष्पित एवं फल युक्त किया।

             इसके लिये द्वादश महाभागवतों ने भी भगवदीय इच्छा का अनुसरण करने के लिये विभिन्न नाम – रूपों में जन्म लेकर श्री रामानंद जी का शिष्यत्व ग्रहण किया और श्री रामानंदाचार्य के मत ‘प्रपत्ति’ का प्रचार – प्रसार किया। भागवत धर्म वेत्ता द्वादश महा भागवतों का वर्णन श्रीमद भगवत महा पुराण में श्री यमराज जी ने अपने दूतों से इस प्रकार किया है। “भगवान के द्वारा निमित्त भागवत धर्म परम शुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है। उसे जानना बहुत ही कठिन है। जो उसे जान लेता है , वह भगवत स्वरूप को प्राप्त हो जाता है , दूतों ! भागवत धर्म का रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैं – ब्रह्मा जी, देवर्षि नारद, भगवान शंकर, सनत्कुमार, कपिल देव, स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद, जनक, भीष्म पितामह, बलि, शुक देव जी और मैं धर्मराज।

           भागवत धर्म वेत्ता इन्हीं ब्रह्म आदि द्वादश भागवतों ने भी भगवान की आज्ञा को सानन्द शिरोधार्य कर विविध देशकाल एवं जातियों में अवतार लिया और फिर रामानंदाचार्य से दीक्षा ग्रहण कर भगवद् धर्म का प्रचार किया। इन द्वादश महा भागवतों ने किस – किस नाम – रूप में अवतार लिया, इसका यहां संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है। श्री ब्रह्मा जी ही योग निष्ठ सदाचार परायण श्री अनंतानन्दाचार्य जगदाचार्य श्री रामानंदाचार्य जी के शिष्य हुए। आपका जन्म कृत्तिका नक्षत्र युक्त कार्तिक पूर्णिमा शनिवार के दिन धनु लग्न में अयोध्या के निकट महेशपुर ग्राम निवासी श्री विश्वनाथ मणि त्रिपाठी के घर में विक्रम संवत तेरह सौ तिरसठ में हुआ।

              आपके शिष्य – प्रशिष्यों के द्वारा खूब भक्ति का प्रचार हुआ, जिसका विशद वर्णन भक्त माल में उपलब्ध है। द्वितीय महा भागवत श्री नारद मुनि भी श्री सुरसुरानन्द के रूप में लखनऊ के निकट परखम ग्राम निवासी श्री सुरेश्वर जी शर्मा की परम भक्तिमती श्री देवी जी के गर्भ से वैशाख कृष्ण नवमी गुरुवार के दिन वृष लग्न में अवतरित हुए। ऐसे ही भगवान शंकर भी उज्जैन नगर के निकट किरीटपुर ग्राम के रहने वाले श्री त्रिपुर भट्ट जी की गृहिणी श्री गोदावरी बाई जी के गर्भ से वैशाख शुक्ल नवमी को शतभिषा नक्षत्र शुक्रवार के दिन तुला लग्न में श्री सुखानन्द के रूप में अवतरित हुए।

                           आप जन्मजात योग सिद्ध थे, आपने रामानंदाचार्य जी से दीक्षा ग्रहण कर भक्ति को प्रचारित किया। इसके साथ आपने सुख सागर जैसे दिव्य ग्रंथ का भी सृजन किया। श्री नरहरियानन्द जी श्री सनत्कुमार जी के अवतार हैं। वैशाख मास की कृष्ण तृतीया, व्यतिपात योग, अनुराधा नक्षत्र, मेष लग्न, शुक्रवार को श्री नरहरियानन्द जी अवतरित हुए। इनके पिता का नाम श्री महेश्वर मिश्र जी एवं माता का नाम श्रीमति अम्बिका देवी था। आपको भी श्री रामानंद जी से दीक्षा मिली। जिसके बाद के संस्कार श्री अनंतानन्दाचार्य जी ने दिए। श्री नरहरियानन्दाचार्य ने अपनी दिव्य शक्तियों से संसार में भक्ति का खूब प्रचार किया। आपके जीवन चरित्र का वर्णन भक्त माल एवं द्वादश महा भागवत में विस्तारपूर्वक किया गया है।

                     श्री कपिल जी का अवतार श्री योगानन्द जी के रूप में वैशाख कृष्ण सप्तमी , परिघयोग युक्त मूल नक्षत्रीय कर्क लग्न में बुधवार के दिन गुजरात प्रान्तीय सिद्धपुर क्षेत्र के निवासी मणि शंकर शर्मा के घर विक्रम संवत चौदह सौ छप्पन में हुआ। आपके बारे में लिखा गया है कि आप महान योगी थे और हमेशा योग में निरत रहते थे। सज्जन लोग आपके चरणों की पूजा किया करते थे। आपने हमेशा वैष्णव धर्म का उपदेश करते हुए वैष्णवता का खूब प्रचार किया । भक्तमालकार भी कहते हैं – श्री मनु जी महाराज कलियुग में धर्म प्रचार के लिये राजस्थान प्रान्त के गांगरोनगढ़ के राज घराने में विक्रम संवत चौदह सौ सोलह की चैत्रीय पूर्णिमा उत्तरा फालगुनी नक्षत्र , ध्रुवसंज्ञक योग में बुधवार के दिन श्री पीपा जी के रूप में अवतरित हुए।

                 श्री नाभा जी कहते हैं – भक्त शिरोमणि श्री प्रह्लाद जी का अवतार श्री कबीर दास जी के रूप में चैत्र कृष्ण अष्टमी , मंगलवार शोभन योग सिंह लग्न में हुआ। आपने अपनी वेदान्त निष्ठा के साथ विशेष रूप से काशी क्षेत्र निवासी होकर बहुत लोगों को सद् धर्मपरायण किया।

महात्मा श्री भावानन्द जी को जनक का ही अवतार कहा गया है। आपके पूर्वज मिथिला निवासी थे, जो कालान्तर में पण्ढरपुर के निकट आलिन्दी ग्राम निवासी हो गये। वहीं पर वैशाख कृष्ण षष्ठी, मूल नक्षत्र , परिघ योग, कर्क लग्न सोमवार के दिन श्री रघुनाथ मिश्र के घर आपका जन्म हुआ। आप सदा राम सेवा परायण रहे। श्री भीष्म का अवतार बघेल खण्ड मध्य प्रदेश के बांधवगढ़ में सेनभक्त के रूप में हुआ। आपका जन्म वैशाख कृष्ण द्वादशी, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र, तुला लग्न शुभा योग रविवार को हुआ। आपने स्वामी जी की आज्ञा से भक्तों की सेवा को प्रधानता दी।

       महा भागवत श्री बलि जी महाराज साक्षात धन्नाजाट के रूप में वैशाख कृष्ण अष्टमी, पू0षा0 नक्षत्र, शिव योग, वृश्चिक, लग्न, शनिवार के दिन अवतरित हुए। आप भक्ति सेवा परायण हुए। आपका जन्म राजस्थान के टोंक इलाके के धुवन गांव में हुआ था। भगवत स्वरूप श्री व्यास नंदन श्री शुक देव जी श्री गालवानन्द के रूप में सिंधु प्रान्तीय पवाया नामक ग्राम में श्री साम्बमूर्ति शर्मा के घर में चैत्र कृष्ण एकादशी वृष , लग्न , शुभ योग में सोमवार के दिन विक्रम संवत तेरह सौ पच्छत्तर को अवतरित हुए। आप परिपक्व ज्ञान की अवस्था से युक्त वेद वेदान्तनिरत भगवद्रतियुक्त महान योगी थे।

              काशी वासी रघुनायक के घर में श्री यमराज जी ही रमादास,जिन्हे संत रैदास भी कहा जाता है। के रूप में चैत्र शुक्ल द्वितीया , मेष लग्न हर्षण योग , शुक्रवार के दिन अवतरित हुए। इस प्रकार श्री रामावतार श्री रामानंदाचार्य के समय में उपर्युक्त महा भागवतों ने विभिन्न नामों से अवतरित होकर भगवान की भक्ति का प्रचार किया , जिनका विस्तृत चरित्र संस्कृत एवं हिन्दी साहित्य में उपलब्ध है। संस्कृत एवं हिन्दी गद्य – पद्यात्मक महाकाव्य आचार्य श्री के वैशिष्ट्य का प्रमाण है। गद्य में श्री हरिकृष्ण शास्त्री कृत ‘श्री आचार्य विजय’ एवं पद्य में स्वामी भगवताचार्यकृत ‘श्री रामानंद दिग्विजय’ आदि मुख्य हैं। आचार्य चरित्र के साथ – साथ द्वादश महा भागवतावतारों का उज्ज्वल चरित्र प्रकाशित होता है।

                  भागवत धर्म वस्तुतः मानवों के कल्याण के लिए ही स्थापित हुआ है। यह सनातन संस्कृति का केंद्र बिंदु है। इसमें वैदिक शास्त्रों की तरह जटिलता और शिथिलता नहीं है। कर्मयोग की व्याख्या नहीं है, जो कि भ्रांतियां पैदा करती है। भागवत धर्म तो वह विशुद्ध ज्ञान है, जो हमें इस संसार सागर से मुक्त होने का मार्ग बताती है। भक्ति की धारा अतिशय निर्मल, अतिशय सुधा से भरी हुई और दिव्य है। यह धारा आनंद भी देती है, ज्ञान भी बढाती है और हमें ईश्वर के समीप भी पहुंचा देती है। उसमें भी इस विषम कलिकाल में तो भागवत तत्व रूपी जहाज ही हमारा आश्रय है। 

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क्रमशः-


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रचनाएँ
भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुप
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इस पुस्तक में धर्म और अधर्म के बारे में बताने की कोशिश की गई है। मानव जीवन का सत्य उद्देश्य क्या है, उसकी व्याख्या की गई है। मानव जीवन में भक्ति की महता को निरुपीत किया गया है। साथ ही नारायण और उनके भक्तो का मधुर संबंध दृष्टांत के द्वारा बतलाया गया है। मानव जीवन की दुविधा, उसकी उपलब्धि और जरुरतों का सचित्र चित्रण किया गया है। मदन मोहन "मैत्रेय
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भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुुप

1 जून 2022
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सबसे पहले तो मैं श्री गणेश की वंदना करता हूं। गौरी- महेश नंदन बिना विघ्न के मेरी इस रचना का पूर्ण करें। तत्पश्चात मैं वीणा धारनी शक्ति स्वरुपा जगदंबा शारदा की वंदना करता हूं। वे मुझे ज्ञान पुंज दे, जो

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भक्ति की धारा-भक्त विशेष

3 जून 2022
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जीवन तो ईश्वर प्रदत्त है, परन्तु हम जगत के प्राणी इसको अपना समझ बैठे है। हम इस शरीर को अपना समझ बैठे है, जो नाशवान है। पता नहीं कि कब यह शून्य हो जाये, कब शिथिल हो जाए। जैसे ही इसमें से आत्मा निकल जात

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भक्त कथा अमृत

5 जून 2022
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भक्ति की धारा प्रवाहित हो और उसमें भगवान के परम भक्तों की चर्चा नहीं हो, संभव ही नहीं। भक्तों के निर्मल चरित्र से हमें काफी कुछ सीखने-समझने का अवसर प्राप्त होता है। अब मैं आपको नारायण के ऐसे ही भक्त प

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भक्त कथा अमृत

7 जून 2022
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श्री बजरंग बली, अंजन सुत, पवन तनय वीर हनुमान की कथा भी इसी श्रेणी में आती है। महाबली हनुमान ग्यारहवें रुद्र है। बजरंग बली श्री राम के अनन्या-नन्य भक्त है। उनको राम नाम के अलावा जगत में कुछ भी तो प्रिय

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भक्त कथा अमृत

9 जून 2022
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भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा से हो गए, अन्यथा उनका नाम तो देवव्रत था। शांतनु और गंगा की आठवीं संतान और पिता के आज्ञाकारी। परशुराम शिष्य भीष्म साधारण नहीं थे, वे अजेय योद्धा थे। वे ऐसे वीर योद्धा थे कि उन्ह

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भक्त कथा अमृत

13 जून 2022
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नरसी मेहता महान कृष्ण भक्त थे. कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने उनको बावन बार साक्षात दर्शन दिए थे। नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़, गुजरात में हुआ था. इनका सम्पूर्ण जीवन भजन कीर्तन और कृष्ण की भक्ति में

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भक्त कथा अमृत

17 जून 2022
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धर्म की परिभाषा देना न तो सहज है और न ही सुलभ। परन्तु इसको सरल बनाते है संत। भगवान के भक्त ही हमें भगवान की ओर उन्मुख करते है। संत ही मानव जीवन के लिए जहाज रूपी साधन है, जो भवसागर रूपी संसार से पार लग

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ईश्वर की अनुभूति

26 जून 2022
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विलासिता क्या है? अतिशय गुढ प्रश्न है। क्योंकि यह अखिल संसार ही इसके पीछे अंधी दौड़ लगा रहा है। भला सुख-सुविधा और उपभोग की वस्तुएँ किस को पसंद नहीं। कौन नहीं चाहता कि वह अच्छा पहने, अच्छा खाए और अच्छी

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ईश्वर के स्वरुप एवं भक्ति भाव-:

21 सितम्बर 2022
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भगवान सगुन और निर्गुण दो भावना से पुजे जाते है। निर्गुण स्वरूप का कोई आकार-प्रकार नहीं होता, जबकि सगुन स्वरूप में नारायण की विग्रह की पुजा होती है। जो अवतार रुप में अन्यथा नारायण रुप में।

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