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ईश्वर की अनुभूति

26 जून 2022

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विलासिता क्या है? अतिशय गुढ प्रश्न है। क्योंकि यह अखिल संसार ही इसके पीछे अंधी दौड़ लगा रहा है। भला सुख-सुविधा और उपभोग की वस्तुएँ किस को पसंद नहीं। कौन नहीं चाहता कि वह अच्छा पहने, अच्छा खाए और अच्छी जगह घूमें। किसकी इच्छा नहीं होती कि वह सौंदर्य रस का पान करें। परन्तु सिर्फ जीवन जीने के लिए ही इन का प्रयोग करना, सभ्यता है, संस्कृति है। परन्तु मानव मन लालसाओं की चहेती है। अतः जब हम इन वस्तुओं के आधीन हो जाते है, इसका अतिशय उपयोग करते है और सामाजिक नियमों की अनदेखी करते है। तब वह विकार बन जाता है और वही विलासिता है।

                  विलासिता और क्षणिक आनन्द की प्राप्ति के लिए पहले से ही मनुष्य अपने स्वभाव की कमजोरियों से प्रेरित होकर न जाने क्या - क्या करता रहा है । विलासिता के प्रसाधनों और तुरन्त प्रसन्नता पाने के लिए नशेबाजी की आदतों के कारण लोगों में कामोपयोग की लालसा और भी अत्यन्त उग्र हो उठी है । पाश्चात्य देशों में तो कामोपयोग की दृष्टि से एक नई विचारधारा अत्यन्त प्रबल वेग से यह उठी है कि यौन चर्या को भावनात्मक न बनने दिया जाये और दांपत्य जीवन को यौन सदाचार के बन्धनों में न बांधा जाये । घर - परिवार चलाने के लिए विवाह किए जायें पर पति - पत्नी दोनों को ही रति क्रिया  का अन्यत्र उपभोग करने की पूरी छूट रहे । इसमें कोई किसी का बाधक न बने वरन् एक दूसरे की सहायता करके उसके मनोरंजन को अधिक सुविधा प्रदान करते हुए विश्वस्त मित्रता का परिचय दे ।

                           यही बात स्वादिष्ट व्यंजनों के आहार से जिह्वा की स्वाद तृप्ति के बारे में कही जा रही है । प्रकृति प्रेरणा के अनुरूप आहार - विहार के आचरण को दकियानूसी बताया जाने लगा है और आहार - विहार को प्रत्येक प्रतिबंध से मुक्त , मात्र प्रसन्नता वृद्धि के लिए प्रयुक्त करने की बात का जोरों से समर्थन हो रहा है । इस मामले में अमेरिकनों की आर्थिक समृद्धि जिसका सही उपयोग न जानने के कारण वे ठूंस - ठूंस कर खाते हैं - भरपेट शराब पीते हैं और अंधाधुंध दवाइयां खाते हैं ।         

                    इस प्रकार की निरंकुश विलासिता मानव जीवन में बर्बादी , मानसिक असंतुलन और आसामाजिक एकाकी जीवन के रूप में सामने क्रमशः आता ही जा रहा है । भौतिक सुख - सुविधाओं में तेजी से वृद्धि होने से  पारिवारिक जीवन में अशांति का बीजा रोपण होने लगा है।  यह हमें सोचने को विवश करती है कि बढ़ती हुई भौतिकता जन - जीवन के लिये भूखे रहने से भी बढ़कर उत्पीड़क है । बढ़ती हुई यांत्रिकता और भौतिकता ने मनुष्य को इतना विलासी बना दिया है कि उसे यौन - सुख के अतिरिक्त भी संसार में कोई सुख , कुछ कर्तव्य और उत्तरदायित्व हैं , इसे सोचने को भी समय नहीं मिलता । अनियंत्रित भोग - वासना ने यूरोप के समाज को चरित्र भ्रष्ट कर दिया है । कोई भी पति पत्नी पर और पत्नी पति पर  विश्वास नहीं करती कि वह कब किस नए साथी का चुनाव कर लेगा । सौन्दर्य और शरीर के आकर्षणों को लालायित मानव, गुणों की , चरित्र की बात कभी सोच ही नहीं पाता । 

                   जीवन में जहां निष्ठा नहीं होती उस समाज के युवक युवतियां दिग्भ्रांत होते हैं । उनकी दिग्भ्रान्ति उद्दंडता , अराजकता , विद्रोह और तोड़ - फोड़ के रूप में प्रकट होती है । वह स्थिति दुखान्त नहीं होती , जितनी मानसिक शांति के नाम पर परस्पर आकर्षण का भ्रम । प्रौढ़ पीढ़ी के प्रति कोई श्रद्धा उनमें होती नहीं , फलतः सांसारिक अनुभवों का लाभ प्राप्त करने की अपेक्षा पानी की बाढ़ की तरह उन्हें जो अच्छा लगता है उधर ही दौड़ पड़ते हैं । अनैतिक सम्बन्धों की बाढ़ आज उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । यह आंधी अभी दूसरे देशों में अधिक है , पर कोई सन्देह नहीं यदि अपने देश में बढ़ रहे पाश्चात्य प्रभाव के कारण वह स्थिति यहां भी न बन जाये ।

                  वर्तमान पीढ़ी की विलासी प्रवृत्ति आने वाली सन्तानों के लिए घातक बनती जा रही है ।विलासिता का एक दुर्गुण यह भी है कि वह भोग से बढ़ती है शान्त नहीं होती । वासना की भूख न केवल अनैतिक आचरण करने को बाध्य करती है , वरन् शरीर को विषैले पदार्थों से उत्तेजित कर और अधिक भोग का आनन्द लूटने को दिग्भ्रान्त करती है । । मनुष्य शरीर में प्रजनन कोश सबसे अधिक कोमल होते हैं। इन्हीं में बच्चों के शरीर और मन को निर्धारित करने वाले क्रोमोसोम ( संस्कार कोश ) पाये जाते हैं । नशा करने के कारण यह गुण सूत्र अस्त - व्यस्त हो जाते हैं। उसी का कारण होता है कि बच्चे काने , कुबड़े , लूले , लंगड़े पैदा होते हैं । विश्व में कुरूप बच्चों का जन्म लेना, इसी का परिणाम है। स्पष्ट है कि यह सब लोगों के आहार - विहार और जीवन पद्धति का दोष है , जो आगामी पीढ़ी का यों दोषी बना रहा है । 

                      यौन सुख की अनियंत्रित बाढ़ आज के भौतिकता वाद की भयंकर देन है । वह लोगों के स्वास्थ्य किस बुरी तरह से नष्ट कर रही है , इसका सही अनुमान तो यूरोप के अस्पतालों में जाकर ही हो सकता है ,  इसी प्रकार अमेरिका के डाक्टरों ने भी यौन रोगों को रोक सकने की अपनी सामर्थ्य से हाथ ढीले कर दिये हैं । यह तूफानी झंझा भौतिकता वाद की चलाई हुई है। मनुष्य उससे बचना चाहता है तो वह आध्यात्मिकता का आश्रय ले इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं। आध्यात्मिकता ही स्वास्थ्य , सदाचार , शांति और नैतिक मूल्य स्थिर रख सकती है । वेषभूषा , फैशन और विलास भौतिकवाद - भोग वाद की चलाई हुई यह झंझा मुक्त यौनाचार के रूप में तो एक परिणति मात्र है । अन्यथा वेषभूषा , रहन - सहन , आचार - विचार और सामाजिक जीवन तक में इसने अनेक-अनेक रूप धारण किए हैं । वेषभूषा को ही लें , उद्धत प्रदर्शन और तड़क भड़क के लिये अपनाया जाने वाला वेश विन्यास शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह बर्बाद करता है।

                     आधुनिक फैशन और मॉर्डन रहन - सहन शरीर स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव डालता है। यह जानने के लिए पश्चिमी देशों के कई मनीषियों ने शोध की है । इस सम्बन्ध में गहन अध्ययन , निरीक्षण और परीक्षण के बाद अमेरिकन मेडिकल एसोसियेशन के डा . लिंडा एलेन ने लिखा है- मुझे बड़ा कौतूहल हुआ जब मैंने त्वचा रोग की चिकित्सा के आंकड़ों पर दृष्टि दौड़ाते हुए पाया कि वह अधिकांश किशोरों तथा युवा युवतियों को ही अधिक मात्रा में हो रहे हैं । यह बिलकुल उलटी बात थी । इस विस्मय ने मुझे इस पर गम्भीरता से जांच करने की प्रेरणा दी । - डा . एलेन की जांच के निष्कर्ष फैशन की अंधी दौड़ दौड़ाने बालों को चौंका देने वाले हैं । उनका कहना है कि शरीर को छूती तंग पोशाकें पहनने के कारण किशोरों तथा युवक युवतियों के शरीर में रक्त त्वचा , पपड़ीदार त्वचा शोथ , विन्टर इच तथा खुजली जैसे त्वचा रोग तेजी से बढ़ रहे हैं।  उन्होंने यह भी चेतावनी दी है कि यदि युवक - युवतियों ने तंग पोशाकें पहननी न छोड़ी तो आगे त्वचा रोग एक भीषण समस्या बन सकता है। कुछ रोग तो असाध्य और वंशानुगत तक हो सकते हैं । वस्त्र पहनने में स्वच्छता , सफाई और कला का ध्यान रखा जाये इसमें कुछ हानि नहीं। वरन् यह एक प्रकार से आवश्यक है पर उसके साथ ही स्वास्थ्य सामाजिकता के विवेक पूर्ण पहलू भी उपेक्षित नहीं किए जाने चाहिये । 

              हमारा पोशाक मर्यादित हो, जिसका शारीरिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्तर पर सकारात्मक प्रभाव पङे। किन्तु आज का फैशन उसे नष्ट कर देने पर तुल गया है । अब जो तंग कपड़े पहने जाते हैं वह शरीर में इस तरह मढ़े होते हैं कि उनसे काम- अंगों के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ता है। लोगों में मनोविकार उत्पन्न होते हैं साथ ही उनसे स्वास्थ्य में भी बुरा असर पड़ता है । डा . एलेन का कहना है कि इन तंग कपड़ों के यांत्रिक दबाव और शरीर की रगड़ से ही त्वचा रोग पैदा होते हैं । यह पहलू ही कम चिन्ता जनक नहीं है । इन दिनों आस्ट्रेलिया में प्रेक्टिस कर रहे अंग्रेज डा . लैंडन कोटिने ने भी फैशन शास्त्र पर खोज की और बताया कि मिनी स्कर्ट तथा दूसरे अस्वाभाविक वस्त्र पहनना न केवल शारीरिक विकास में बाधा उत्पन्न करता है। वरन् उसके कारण मस्तिष्क में घबराहट और स्नायविक तनाव बढ़ता है , जो उभरती पीढ़ी के लिए एक प्रकार का अभिशाप है। इससे किशोरों का बौद्धिक भाव का विकास रुकता है । उन्होंने बताया कि मिनी स्कर्ट पहनने वाली लड़कियों को सार्वजनिक स्थानों ट्रेनों , बसों में एक टांग के ऊपर दूसरी टांग चढ़ाकर बैठना पड़ता है। अधिक क्रासिंग के कारण ऐबडक्टर पेशियां सिकुड़ जाती है। जिससे कद छोटा हो जाने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं और साथ ही इस तरह की अस्वाभाविक पोशाक पहनने बालों का अपने ही ऊपर ध्यान बना रहता है। आगंतुकों के प्रति उनमें घबराहट सी होती है जो उनमें स्नायविक दुर्बलता पैदा करती है । यदि नई पीढ़ी को इन दोषों से बचाना है तो फैशन की बाढ़ को रोकना पड़ेगा । उसकी आज्ञा , संस्कृति ही नहीं विज्ञान भी नहीं देता ।

                        इस संदर्भ में मनोवैज्ञानिक श्री नेक हेराल्ड, जिन्होंने इतने वर्ष के अध्ययन से महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला कि वेश - भूषा का मनुष्य के चरित्र , स्वभाव , शील और सदाचार में गहन तम सम्बन्ध है । पुरुषों की तरह वेषभूषा धारण करने वाली नवयुवतियों का मानसिक चित्रण और उनके व्यवहार की जानकारी देते हुए श्री हेराल्ड लिखते हैं। ऐसी युवतियों की चाल ढाल , बोलचाल , उठने - बैठने के तौर - तरीकों में भी पुरुष के जैसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं । वे अपने-आप को पुरुष - सा अनुभव करती हैं। जिससे उनमें लज्जा आदि नारी सुलभ गुणों का ह्रास होने लगता है । स्त्री जब स्त्री न रहकर पुरुष बनने लगती है। तब वह न केवल पारिवारिक उत्तरदायित्व निबाहने में असमर्थ हो जाती है।  वरन् उसके वैयक्तिक जीवन की शुद्धता भी धूमिल पड़ने लगती है । पाश्चात्य देशों में दांपत्य जीवन में उग्र होता हुआ अविश्वास उसी का एक दुष्परिणाम है । 

                 श्री हेराल्ड ने अपना विश्वास व्यक्त किया कि भारतीय आचार्यों ने वेशभूषा के जो नियम और आचार बनाये। वह केवल भौगोलिक अनुकूलता ही प्रदान नहीं करते वरन् स्त्री - पुरुषों शारीरिक बनावट का दर्शक पर क्या प्रभाव पड़ता है। उस सूक्ष्म विज्ञान को दृष्टि में रखकर भी बनाये गये हैं। वेशभूषा का मनोविज्ञान के साथ इतना बढ़िया सामंजस्य न तो विश्व के किसी देश में हुआ न किसी संस्कृति में। यह भारतीय आचार्यों की मानवीय प्रकृति के अत्यन्त सूक्ष्म अध्ययन का परिणाम था । आज पाश्चात्य देशों में अमेरिका में सर्वाधिक भारतीय पोशाक साड़ी का तो विशेष रूप से तेजी से आकर्षण और प्रचलन बढ़ रहा है। दूसरी ओर अपने देश के नवयुवक और नवयुवतियां विदेशी और सिनेमा टाइप वेशभूषा अपनाती चली जा रही हैं। 

                        यह न केवल अन्धानुकरण की मूढ़ता है वरन् अपनी बौद्धिक मानसिक एवं आत्मिक कमजोरी का ही परिचायक है । यदि इसे रोका न गया और लोगों ने पैंट , कोट , बूट , हैट , स्कर्ट , चुस्त पतलून सलवार आदि भद्दे और भोंड़े परिधान न छोड़े। तो और देशों की तरह भारतीयों का चारित्रिक पतन भी निश्चित ही है । श्री हेराल्ड लिखते हैं कि सामाजिक विशेषताओं को इस सम्बन्ध में अभी विचार करना चाहिये। अन्यथा वह दिन अधिक दूर नहीं जब पानी सिर से गुजर जायेगा । उनके मत से भौतिक समृद्धि ही सब कुछ नहीं अमेरिका आज संसार का सबसे धनी देश है और उसके पास अपार धनराशि है । धन के साथ - साथ यहां शिक्षा , विज्ञान एवं सुख - साधनों का प्रचुर मात्रा में अभिवर्धन हुआ है । उपार्जन की तरह उन लोगों ने उपभोग की कला भी सीखी है । इसलिये वहां के निवासी हमें धनाधिप देव पुरुषों की तरह साधन सम्पन्न और आकर्षक दिखाई पड़ते हैं । 

                            हर तीन में से एक के पीछे एक कार है ।  सुविधाजनक घरेलू यन्त्र प्रायः हर घर में पाये जाते हैं । विलासिता के इतने अधिक साधन मौजूद हैं जिनके लिए भारत जैसे गरीब देशों के नागरिक तो कल्पना और लालसा ही कर सकते हैं । इतना होने पर भी उस देश की भीतरी स्थिति बहुत ही खोखली है । शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से वे खोखले बनते जा रहे हैं । संयुक्त कुटुम्ब , दांपत्य निष्ठा , सन्तान सद्भाव एवं सामाजिक सहयोग क्रमशः घटता ही चला जा रहा है । बढ़ती हुई व्यस्तता एवं औपचारिकता के कारण हर व्यक्ति एकाकी बनता चला जा रहा है । किसी को किसी पर न तो भरोसा है और न कठिन समय में किसी विश्वस्त सहयोग का विश्वास । नशा पीकर अथवा नग्न यौन उत्तेजना के मनोरंजन देखकर अथवा इन्द्रिय तृप्ति के साधन अपनाकर किसी प्रकार गम गलत करते रहते हैं । भीतर एकाकीपन और खोखलापन उन्हें निरन्तर कचोटता रहता है । अमेरिकन पत्र - पत्रिकाओं , पुस्तकों , सरकारी तथा गैर सरकारी रिपोर्टों के आधार पर उस देश के निवासियों की जो भीतरी स्थिति सामने आती है वह वस्तुतः बड़ी करुणा उत्पादक है । कभी - कभी तो यहां तक सोचना पड़ता है कि उन सुसम्पन्न लोगों की तुलना में हम निर्धन अशिक्षित कहीं अच्छे हैं जो किसी प्रकार संतोष की रोटी खा लेते हैं और चैन की नींद सो लेते हैं । 

                    शिक्षा समृद्धि को ही बढ़ाते रहना एकांगी तथा हानिकारक है । शिक्षा , विज्ञान , विचार , साहित्य , उद्योग , व्यवसाय और साधन सुविधाओं का विकास करना तथा समृद्धि बढ़ाना अच्छी बात है। लेकिन यदि यहीं तक सीमित रह जाया गया तो उससे लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक है । इन साधनों के साथ मनुष्य का नैतिक और चारित्रिक स्तर भी बढ़ाते चलना मनुष्य समाज के लिए हितकर होगा । इस ओर ध्यान दिये बिना मात्र भौतिक समृद्धि को बढ़ाते रहने , विलासिता के साधनों में अभिवृद्धि करते रहने से मनुष्य के अस्तित्व पर मंडराता यह विनाश का संकट बढ़ेगा ही , घटेगा कभी नहीं।

                      इसलिये उपभोग की वस्तुओं का उपयोग तो करें, परन्तु नियंत्रित होकर। हम विलासिता के आसक्त नहीं बने, यह निर्धारित करना हमारा नैतिक कर्तव्य है, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक एवं धार्मिक स्तर पर। क्योंकि विलासिता के नियंत्रण में जब हम हो जाते है, विलासिता इन्हें ही प्रभावित करती है। अब प्रश्न है कि हम अपने मन को नियंत्रित किस प्रकार करें? जो बारंबार विलासिता की ओर ही अग्रसर होती है। तो अपने मन को नियंत्रित करने का आसान तरीका है, हरि भजन करें। श्री नारायण के कल्याणकारी नामों का गुणगान करें। धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करें और जब भी समय मिले, संतों की निर्मल वाणी को सुने और आत्मसात करें।

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जीवन का अर्थ अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग- अलग होता है। कोई तो सकारात्मक दृष्टिकोण रखता है जीने के लिए। तो कोई अपनी पूरी जिन्दगी नकारात्मकता के दलदल में डूब कर गुजार देता है। जीवन तो दोनों ही जीते है, परन्तु दोनों के जीने के तरीके अलग होते है। जहां सकारात्मक दृष्टिकोण रखने बाला व्यक्ति ऊर्जा से भरा होता है। जबकि नकारात्मक प्रभाव बाले व्यक्तियों के जीवन में हमेशा थकावट और हताशा का साम्राज्य बना रहता है।

             जीवन क्या है? यह प्रश्न सदियों से चला आ रहा है। हर व्यक्ति के लिये जीवन का अर्थ अलग है। वह अपने अनुभव तथा नजरिये के अनुसार इसकी व्याख्या करता है। एक गरीब व्यक्ति के लिए जीवन दुखों का सागर है जबकि एक धनवान के लिए जीवन भोग का आनंद है। इसी प्रकार एक सैनिक के लिए जीवन युद्ध व संघर्ष का दूसरा नाम हैं जबकि एक संत के लिए जीवन प्रेम व शांति का पैगाम है। एक नवयुवक के लिए जीवन उमंग व उम्मीदों का एक तराना है जबकि एक वृद्ध के लिये यह जिन्दगी की शाम का एक अफसाना है। फिर प्रश्न उठता है जीवन वास्तव में क्या है ?

जीवन नदी के समान दो विपरीत किनारों के बीच टेढे- मेढे रास्तों में से होकर गुजरने वाली एक धारा का नाम है। जिसके एक किनारे पर यदि दुःख है, तो दूसरे पर सुख है।  यदि एक किनारे पर आशा है, तो दूसरे पर निराशा है। यदि एक किनारे पर जीत है, तो दूसरे पर हार है। यदि एक किनारे पर यश है, तो दूसरे पर अपयश है। यदि एक किनारे पर लाभ है, तो दूसरे पर हानि है। जीवन रूपी यह धारा इन दोनों किनारों से टकराते हुए बहकर अंत में सागर अर्थात परमात्मा) में विलीन हो जाती है।

          यदि जीवन में एक को पाने की अत्यधिक चाह है, जैसे नदी की लहरे एक किनारे से टकराकर लौटकर दूसरे किनारे की और आती है। ठीक इसी प्रकार यदि हम सुखों, आशा, जीत, यश, लाभ की अत्यधिक चाह रखेंगे, तो नदीं के दूसरे किनारे के दुखों, निराशा, हार, अपयश, हानि का भी सामना करना पड़ेगा । यदि जीवन में एक को पाने की अत्यधिक चाह नहीं है। जैसे नदी की लहरें बिना किसी किनारे से टकरायें स्थिर भाव से बहतीं है, तो उसे लौटकर दूसरे किनारे की और नहीं आना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार यदि हम सुखों, आशा, जीत, यश, लाभ की अत्यधिक चाह नहीं रखेंगे, तो नदीं के दूसरे किनारे के दुखों, निराशा, हार, अपयश, हानि का सामना भी नहीं करना पड़ेगा।

                      तो फिर जीवन जीने का श्रेष्ठ मार्ग क्या है? प्रश्न स्वाभाविक है और इसका उत्तर है, मध्यम मार्ग। जीवन जीने की सही राह मध्यम मार्ग ही है। हमें नदीं की, बिना किसी किनारे से टकरायें स्थिर भाव से बहने वाली धारा के समान जीवन जीना चाहिए। यदि हम एक , जैसे सुख, आशा, जीत, यश, लाभ इत्यादि की अत्यधिक चाह नहीं रखेंगे। तो हमें नदी के दूसरे किनारे के फलों, जैसे दुःख, निराशा, हार, अपयश, हानि इत्यादि का भी सामना नहीं करना पड़ेगा। 

                 इतने से ही समझ जाना उचित होगा कि हमें अपने जीवन को किस प्रकार से जीना है। हम ऐसा कौन सा आचरण करें कि हमें नकारात्मक प्रभाव का भय नहीं सताए। हम अपने पग ऐसे कौन से मार्ग पर बढाए कि हमारा जीवन सही अर्थों में सार्थक हो जाए। तो इसका एक ही मतलब होगा कि हमें धर्म के मार्ग को चुनना होगा जीवन पथ पर बढने के लिए। हां, धर्म ही जीवन जीने का सही मार्ग है। धर्म ही वह मार्ग है, जो हमें नकारात्मक प्रभाव से बचाता है। हमारे जीवन में ऊर्जा की धारा प्रवाहित करता है और साथ ही हम दूसरों के लिए प्रेरणा श्रोत बन जाते है। जी हां, धर्म के बिना जीवन शून्य के समान है, जो सिर्फ नकारात्मक विचारों के बोझ तले दबा कुचला रहता है।

                    लेकिन आजकल धर्म की अवहेलना करने बालों की संख्या बहुतायत है। ऐसे बहुत से है, जो ईश्वर की सत्ता को ही नकार देते है। फिर इस संदर्भ में तथ्य विहीन दलील देंगे कि विज्ञान तो बिग-बेंग की थ्योरी देता है, जो प्राकृतिक है। इस संसार को कोई भी शक्ति नियंत्रित नहीं कर रहा, बल्कि ये भौतिकी का गुण सूत्र है। लेकिन ऐसा नहीं है, सिर्फ भौतिकी के सिद्धांत से ही यह संसार नहीं टिका हुआ है। बात अगर विज्ञान की करें, तो विज्ञान अभी तक इस सृष्टि को एक प्रतिशत भी समझ नहीं सका है और इसका कारण है, संस्कार विहीन शिक्षा। जीवन को नष्ट कर देती है संस्कार विहीन शिक्षा।

                 राष्ट्र जागृति का उद्घोष कर नारद भक्ति सूत्र प्रवचनों के माध्यम से संतों द्वारा कथा कही जाती है कि धर्म और मोक्ष से संपुटित अर्थात्‌ बंधे रहने से अर्थ और काम कल्याणकारी होता है। अन्यथा अनियंत्रित अर्थ और काम ही मानव जीवन को समूल नष्ट कर देता है। यह सिद्ध पुरुषों की वाणी है कि व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण ही आज समाज में सारी अव्यवस्था हो रही है। वस्तुतः सबसे बड़ा सुख त्याग में ही है। जितना आनंद स्वयं खाने में नहीं आता, उससे अधिक आनंद दूसरों को खिलाने में आता है। इतना ही नहीं दूसरों को खिलाकर यदि भूखा भी रहना पड़े तो वह परमानंद हो जाता है। लेकिन आज अति संग्रह और स्वार्थ से जकड़ा व्यक्ति संसार के नाशवान वस्तुओं में सुख-शांति खोजने में भटक रहा है। जो संभव ही नहीं है। सद्गुरु एवं संत ही वे सीढी है, जिससे चल कर हम जीवन के सही मार्ग, सही उद्देश्य को प्राप्त कर सकते है। मन की निर्मलता ही भक्ति मार्ग पर चलने बालों की पहली सीढ़ी है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि केवल संतों का संग मिल जाना ही अंतिम लक्ष्य नहीं है। अपितु संतों के संग में सत्संग, उनसे तत्व ज्ञान का श्रवण करना और उसके बाद उसका निधिध्यासन होने पर ही भक्ति साफल्य को प्राप्त होती है।

                     गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं, 'एक घड़ी- आधी घड़ी, आधी की पुनि आध! तुलसी संगत साधु की, कटे कोटि अपराध!!'इसी बात को नारद भक्ति सूत्र में कहा है, 'तस्मिन्‌ तज्जने भेदाभावात्‌, तदेव साध्यताम्‌' अतः भगवान की भक्ति के लिए उनके स्वभाव, स्वरूप और प्रभाव का ज्ञान आवश्यक है। भगवान की व्यवस्था इस संसार चक्र में ऐसी है कि वह भक्त एवं निष्ठावान को उनके अनुरूप ही संगत दे देते हैं और जो चतुर चालाक और केवल संसार में अपने भरण-पोषण के लिए ही दौड़ते रहते हैं, उन्हें भी ऐसे ही लोगों का संग प्राप्त होता है। लौकिक व्यवहार में भी यदि सच्चाई एवं निष्ठा का भाव रहेगा तो दुनियादारी भी कभी न कभी ऐसा अवसर प्रदान कर देगी कि व्यक्ति का जीवन ईश्वर भक्ति की ओर लग ही जाएगा।

                     अब प्रश्न आता है कि मनुष्य को रहना किस प्रकार से चाहिए? तो उत्तर है, मनुष्य को अन्तर में शान्त तथा क्षोभ रहित होना चाहिए, अर्थात् शरीर को सदा काम में लगाते रहना चाहिये । यही साश्त्रों की वाणी है और यही संतों की वाणी। चिन्ता , भय , द्वेष इत्यादि विकार मनुष्य के जीवन बल का नाश करते हैं । ये स्वार्थ पूर्ण प्रवृत्तियां ही मनुष्य के विकास में बाधा डालती हैं । अपने जीवन का सिंहावलोकन करने पर ही मालूम होता है कि किस प्रकार हमने अपनी शक्तियों का अपव्यय किया है । जो मनुष्य अपने मन और बुद्धि को उत्कृष्ट भावना में लीन रखता है , वह उच्च वस्तु से प्रेम करता है और अपने जीवन को भव्य , विशाल और दिव्य बनाता है और अपने में असाधारण परिवर्तन करने में समर्थ होता है ।    

                              भावनात्मक विचार तत्काल मन में परिवर्तन कर देते हैं । हमारे मानसिक गुणों को शारीरिक स्थिति को , आदत को बदल देने का सामर्थ्य हमारे भावों में है । अपनी प्रबल इच्छा शक्ति से निकृष्ट भावुकता को एक दम दमन करो।  मनोवेग के नियामक बनो , अपने स्वभाव को वश में रखो , आत्मनिग्रह का अभ्यास डालो । निकृष्ट भावुकता ही हमारी सब से अधिक अनिष्ट करने वाली है । मनोवेग के वशीभूत होकर मनुष्य तिनके के समान अग्नि में अपने को भस्मी भूत कर देता है । नया विचार नया जीवन होता है , इसलिए यदि हम जीवन को उत्कृष्ट बनाना चाहते है तो अपने अन्तर में परिवर्तन करना होगा, अर्थात् अपने मन का नवीकरण करना होगा । अपने विचार और भावों को निकृष्ट प्रदेश से ऊँचे उठाना होगा और आत्मा के उच्च प्रदेश में स्थापित करना होगा। ।

                               ज्ञान का अनंत समुद्र , ऐश्वर्य का महान निधि , आनन्द और शांति का परम निधान एकमात्र परमात्मा ही है । उसी का मनन और अखण्ड चिंतन करना चाहिए, जिससे हमारे मन की स्थिति और आत्मा में विलक्षण परिवर्तन होगा । उस सर्वव्यापक महा प्रभु को जानना चाहिए, जो सब शुभ कामना को पूर्ण कर देता है। ईश्वर की तरफ हम एक कदम बढाते है और ईश्वर अपने हाथों को अपने हाथों में जकड़ कर अपनी ओर खींच लेते है। भक्ति ही जीवन का श्रेष्ठतम मार्ग है। हम धर्म के अनुरूप आचरण करें, यही निर्धारित है। इसके लिए हमें ईश्वर की अनुभूति करने की जरूरत है और इसके उपाय भी है। ईश्वर की अनुभूति का दैवी उपाय - यही है कि सूर्योदय से पहले उठकर अपने बिस्तर पर बैठ जाइए और कम से कम दस मिनट  नारायण से प्रार्थना करिए ' हे पिता ! मेरा जीवन व्यर्थ और निरर्थक ही सांसारिक भोगो में बीता जा रहा है और अनेक प्रकार के क्लेश , चिन्ता , भय मुझे घेरे रहते हैं । मैं आपके शरण आया हूँ । आप दया करके मेरे चित्त की मलिनता मिटाइये। मेरी वृत्तियों को अपने चरणों में लगाइये , जिससे मेरा जीवन सफल हों । इस प्रकार प्रार्थना करने के पश्चात अपने नित्य कर्म में लग जाइए । ऐसी प्रार्थना एक महीने तक लगातार करते रहने से हमारे जीवन में विलक्षण परिवर्तन होगा । यही उत्कृष्ट जीवन का मार्ग है । 

                 जीवन के उत्कृष्ट मार्ग पर बढने से पहले आप को कई चीजों से बचना होगा। मनुष्य जीवन में अहं भाव का कोई स्थान नहीं होता। क्योंकि संसार के सभी पापों की जननी ही अहं है। हम अपने अहं की संतुष्टि के लिए ही पाप की ओर उन्मुख होते है। अपनी आत्म वंचना में जीते है और किसी को भी हानि पहुंचाने से तनिक भी नहीं हिचकते। अहं भाव ही है, जिसकी तुष्टि के लिए मिथ्यावादिता करते है हम, अहं के कारण ही हमारे अंदर स्वार्थ की उत्पत्ति होती है। कोई मनुष्य मुंह से बढ़- बढ़ कर बातें करें और पेट में असत्यता छिपाये हुए हो तो वह बनावट अधिक देर तक ठहर नहीं सकती । आवाज में , शब्दों के उपयोग में , चेहरे में तथा शरीर के हलचल में सत्य और असत्य साफ दिखाई दे जाता है। । झूठे आदमी की वाणी में सिटपिटाहट , चेहरे पर निस्तेजता होती है , आँखें मिलाते हुए वह झिझकता है । आशंका और भय से उसका मन अस्थिर एवं चिंतित सा दिखाई पड़ता है । असत्य बात कुछ ऐसी अस्वाभाविक होती है कि सुनने वाले के मन में अनायास ही अविश्वास के भाव उठने लगते हैं । इस बीसवीं सदी में झूठ का बड़ा प्रचार है , बड़े कलात्मक ढंग से झूठ बोला जाता है, तो भी उसे ऐसा नहीं बनाया जाता कि पकड़ में न आए । 

           स्मरण रखिए , झूठ आखिर झूठ ही है, पाप आखिर पाप ही होता है। दूसरे को कष्ट पहुंचाना, अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए असत्य बोलना, अनीति पूर्ण आचरण करना, ये सभी मानव जीवन के लिए काल कूट विष के समान है । असत्य का जब भंडाफोड़ होता है तो उस मनुष्य की सारी प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है , उसे अविश्वासी , टुच्चा और ओछा आदमी समझे जाने लगता है । हम जब किसी को भी उत्पीड़न करते है, सामने बाला छनिक परेशान होता है, लेकिन उसका परिणाम हमें खुद ही भोगना होता है।

                    झूठ, अहं एवं स्वार्थ के तात्कालिक थोड़ा लाभ दिखाई पड़े तो भी आप उसकी ओर ललचाइए मत। क्योंकि उस थोड़े लाभ के बदले में अनेक गुनी हानि होने की संभावना है । आप अपने वचन और कार्यों द्वारा सच्चाई का परिचय कीजिए । आप दयालु बनिए और जीवन को सकारात्मक ढंग से जीने का प्रयास कीजिए, क्योंकि जीवन जीने का यही उत्तम मार्ग है। इन गुणों को आप अपने अंदर धारण कीजिए, क्योंकि यह उस बीज के समान है जो आज छोटा दिखता है। परन्तु अन्त में फल फूल कर महान वृक्ष बन जाता है । ऊँचा और प्रतिष्ठा युक्त जीवन बिताने का दृढ़ निश्चय होना चाहिए हमारे हृदय में। हमारे वचन और कार्य सच्चाई से भरे हुए हो ।

                       हमारा कहने का तात्पर्य इतना ही है कि जब यह संसार ही नाशवान है। इस संसार में किसी भी वस्तु में स्थायित्व नहीं है। जिसने जन्म लिया है, उसे काल के गाल में समाना ही है। तो फिर व्यर्थ स्वार्थ के लिए, व्यर्थ के अहं तुष्टि के लिए हम संघर्ष रत क्यों हो? हम जीवन के उस मार्ग का अनुसरण क्यों नहीं करें, जो शास्त्र संम्मत्त है। जिसकी विस्तृत व्याख्या सनातन संस्कृति में की गई है और जिसे हमारे मनीषियों ने प्रतिपादित किया है। हम धर्म युक्त आचरण का अनुकरण क्यों नहीं करें? जो जीवन के लिए निर्धारित है और उत्तम मार्ग है। आगे मैं इसी संदर्भ में हरि नाम संकीर्तन एवं उसके प्रभाव की चर्चा करूंगा।

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भगवान के नामों का करतल ध्वनि के साथ गान करना, हरि नाम संकीर्तन कहलाता है।

नाम संकीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनमः । 

प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम् ।। 

          श्रीमद भागवत महा पुराण ' जिनके नाम का सुमधुर संकीर्तन सर्व पापों को नाश करने वाला है और जिनको प्रणाम करना सकल दुःखों को नाश करने वाला है। उन सर्वोत्तम श्री हरि, कमल नयन नारायण के पदपद्मों में प्रणाम करना चाहिए। कलियुग में नाम संकीर्तन के अलावा जीव के उद्धार का अन्य कोई भी उपाय नहीं है ।  बृहन्नार्दीय पुराण में आता है:-

हरेर्नाम- हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं | 

कलौ नास्त्यैव- नास्त्यैव- नास्त्यैव गतिरन्यथा || 

      कलियुग में केवल हरि नाम , हरि नाम और हरि नाम से ही उद्धार हो सकता है । हरि नाम के अलावा कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय नहीं है ! नहीं है ! नहीं है ! कृष्ण तथा कृष्ण नाम अभिन्न हैं। राम नाम का रट लगाना ही कल्याणकारी है। कलियुग में तो स्वयं कृष्ण ही हरि नाम के रूप में अवतार लेते हैं । केवल हरि नाम से ही सारे जगत का उद्धार संभव है, तभी तो चैतन्य अमृत में लिखा हुआ है:-

कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार | 

नाम हइते सर्व जगत निस्तार ||  

पद्म पुराण में भी स्पष्ट कहा गया है कि:-

नाम : चिंतामणि कृष्णश्चैतन्य रस विग्रहः । 

पूर्ण शुद्धो नित्यमुक्तोऽभिननत्वं नाम नामिनोः ||

            हरि नाम उस चिंतामणि के समान है जो समस्त कामनाओं को पूर्ण सकता है । हरि नाम स्वयं रस स्वरूप कृष्ण ही हैं तथा चिन्मयत्त्व के आगार हैं । हरि नाम पूर्ण हैं , शुद्ध हैं , नित्य मुक्त हैं । नामी यानी कि श्री हरि तथा  हरि नाम में कोई अंतर नहीं है । जो कृष्ण हैं- वही तो पूर्ण रुप कृष्ण नाम है । जो कृष्ण नाम है- वही कृष्ण हैं । जो रामजी का विग्रह स्वरूप है, वही तो राम नाम है और राम नाम में ही श्री राम विग्रह स्वरूप में निवास करते है। कृष्ण के नाम का किसी भी प्रामाणिक स्रोत से श्रवण उत्तम है। परन्तु शास्त्रों एवं श्री चैतन्य महा प्रभु के अनुसार कलियुग में " हरे कृष्ण-हरे राम" को ही महामंत्र बताया गया है । कलियुग में इस महामंत्र का संकीर्तन करने मात्र से प्राणी मुक्ति के अधिकारी बन जाते हैं । कलियुग में भगवान की प्राप्ति का सबसे सरल किंतु प्रबल साधन उनका नाम - जप ही बताया गया है । 

           श्रीमद भागवत का कथन है- यद्यपि कलियुग दोषों का भंडार है तथापि इसमें एक बहुत बड़ा सद्गुण यह है कि सतजुग में भगवान के ध्यान एवं तप  द्वारा , त्रेता युग में यज्ञ अनुष्ठान के द्वारा , द्वापर युग में पूजा - अर्चना से जो फल मिलता था , कलियुग में वह पुण्य फल श्री हरि के नाम संकीर्तन मात्र से ही प्राप्त हो जाता है। यथा:-

राम रामेति- रामेति रमे रामे मनोरमे । 

सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ 

                              श्रीरामरक्षास्त्रोत्रम् भगवान शिव ने कहा , " हे पार्वती !! मैं निरंतर राम नाम के पवित्र नामों का जप करता हूँ और इस दिव्य ध्वनि में आनंद लेता हूँ । रामचन्द्र का यह पवित्र नाम भगवान विष्णु के एक हजार पवित्र नामों, विष्णुसहस्त्रनाम के तुल्य है - रामरक्षास्त्रोत । ब्रह्माण्ड पुराण में कहा गया है : सशस्त्र नाम्नां पुण्यानां , त्रिरा - वृत्त्या तु यत - फलम् । एकावृत्त्या तु कृष्णस्य , नामैकम तत प्रयच्छति ॥ विष्णु के एक हजार पवित्र नाम विष्णुसहस्त्रनाम  जप के द्वारा प्राप्त पुण्य केवल एक बार कृष्ण के पवित्र नाम जप के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । भक्ति चंद्रिका में महामंत्र का महात्म्य इस प्रकार वर्णित है। बत्तीस अक्षरों वाला नाम- मंत्र सब पापों का नाशक है । सभी प्रकार की दूर्वासनाओंको जलाने के लिए अग्नि - स्वरूप है।

                     शुद्ध सत्त्व स्वरूप भगवद् वृत्ति वाली बुद्धि को देने वाला है । सभी के लिए आराधनीय एवं जप करने योग्य है , एवं सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला है । इस महामंत्र के संकीर्तन पर सभी का अधिकार है । यह मंत्र प्राणी मात्र का बान्धव है , समस्त शक्तियों से सम्पन्न है ,एवं आधि - व्याधि का नाशक है । इस महामंत्र की दीक्षा में मुहूर्त के विचार की आवश्यकता नहीं है । इसके जप में बाह्यपूजा की अनिवार्यता नहीं है । केवल उच्चारण करने मात्र से यह सम्पूर्ण फल देता है । इस मंत्र के अनुष्ठान में देश - काल का कोई प्रतिबंध नहीं है। अथर्ववेद की अनंत संहिता में आता है:-

षोडषैतानि नामानि द्वत्रिन्षद्वर्णकानि हि | 

कलौयुगे महामंत्र : सम्मतो जीव तारिणे ॥ 

                 अर्थात सोलह नामों तथा बत्तीस वर्णों से युक्त महामंत्र का कीर्तन ही कलियुग में जीवों के उद्धार का एकमात्र उपाय है । - यजुर्वेद के कलि संतारण उपनिषद में आता है कि द्वापर युग के अंत में जब देवर्षि नारद जी ने ब्रह्माजी से कलियुग में कलि के प्रभाव से मुक्त होने का उपाय पूछा। तब सृष्टिकर्ता ने कहा- आदि पुरुष भगवान नारायण के नामोच्चारण से मनुष्य कलियुग के दोषों को नष्ट कर सकता है । नारदजी के द्वारा उस नाम - मंत्र को पूछने पर हिरण्य गर्भ ब्रह्माजी ने बताया:-

हरे कृष्ण हरे कृष्ण- कृष्ण- कृष्ण हरे- हरे । 

हरे राम हरे राम- राम -राम हरे- हरे ।। 

इति षोडषकं नाम्नाम् कलि कल्मष नाशनं | 

नात : परतरोपाय : सर्व वेदेषु दृश्यते ॥ 

         अर्थात - सोलह नामों वाले महामंत्र का कीर्तन ही कलियुग में कल्मष का नाश करने में सक्षम है । इस मंत्र को छोड़ कर कलियुग में और कोई परमौषधि नहीं है, जो कलिकाल के कराल विष से हमारी रक्षा कर सके। अब नाम जप किस प्रकार जपे, तो पहले ' हरे ' नाम , उसके बाद ' कृष्ण ' नाम तथा उसके बाद ' राम ' नाम आता है । ऊपर वर्णित क्रम के अनुसार महामंत्र का सही क्रम यही है की यह मंत्र ' हरे कृष्ण हरे कृष्ण .. ' से शुरू होता है । - पद्म पुराण में वर्णन आता है:-

द्वत्रिन्षदक्षर  ं मन्त्रं नाम षोडषकान्वितं |

प्रजपन् वैष्णवों नित्यं राधाकृष्ण स्थलं लभेत् ॥ 

             अर्थात - जो वैष्णव नित्य बत्तीस वर्ण वाले तथा सोलह नामों वाले महामंत्र का जप तथा कीर्तन करते हैं - उन्हें श्री राधाकृष्ण के दिव्य धाम गोलोक की प्राप्ति होती है । विष्णुधर्मोत्तर में लिखा है कि श्री हरि के नाम संकीर्तन में देश - काल का नियम लागू नहीं होता है । जूठे मुंह अथवा किसी भी प्रकार की अशुद्ध अवस्था में भी नाम - जप को करने का निषेध नहीं है । श्री रामचरित्र मानस में तो गोसाई तुलसी दास जी लिखते है:-

कलियुग केवल नाम अधारा।

सुमिर - सुर नर उतरहिं पारा।                    

            श्रीमद भागवत महा पुराण जी तो यहां तक कहती है कि जप - तप एवं पूजा - पाठ की त्रुटियां अथवा कमियां श्री हरि के नाम संकीर्तन से ठीक और परिपूर्ण हो जाती हैं । हरि - नाम का संकीर्तन ऊंची आवाज में करना चाहिए:- जपतो हरिनामानिस्थानेशतगुणाधिकः । आत्मानञ्चपुनात्युच्चैर्जपन्श्रोतृन्पुनातपच ॥

                       अर्थात - हरि - नाम को जपने वाले की अपेक्षा उच्च स्वर से हरि - नाम का कीर्तन करने वाला अधिक श्रेष्ठ है। क्योंकि जप कर्ता केवल स्वयं को ही पवित्र करता है। जबकि नाम- कीर्तनकारी स्वयं के साथ- साथ सुनने बालों का भी उद्धार करता है । हरिवंशपुराण का कथन भी है:-वेदेरामायणेचैवपुराणेभारतेतथा । आदावन्तेचमध्येचहरिः सर्वत्र गीयते ॥ इसका भावार्थ यही है कि वेद , रामायण , महाभारत और पुराणों में आदि , मध्य और अंत में सर्वत्र श्री हरि के नाम का ही गुण गान किया गया है ।

      भगवन नाम अनंत  माधुर्य, ऐश्वर्य और सुख की खान है । सभी शास्त्रों में नाम की महिमा का वर्णन किया गया है । इस नानाविध आधि-व्याधि से ग्रस्त कलिकाल में हरिनाम-जप संसार सागर से पार होने का एक उत्तम साधन है।हरिनाम संकीर्तन रूपी नौका ही इस कलिकाल के विषम प्रहार से हमें बचा सकती है। साथ ही नाम संकीर्तन में अतुल्य रस भरा हुआ है। हम चाहे कितनी ही बार पद्धनाभ नारायण के नामों का रटन करें, न हमारी जिह्वा थकेगी और नहीं मन तृप्त होगा। तभी तो परमाचार्य श्री भगवान वेदव्यास जी तो कहते हैं:-

हरेर्नाम- हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।

कलौ नास्त्यैव- नास्त्यैव- नास्त्यैव गतिरन्यथा।।

इसी बात को पद्म पुराण में भी कहा गया है-

ये वदन्ति नरा नित्यं हरिरित्यक्षरद्वयम्।

तस्योच्चारणमात्रेण विमुक्तास्ते न संशयः।।

             ‘जो मनुष्य परमात्मा के इस दो अक्षर वाले नाम ‘हरि’ का नित्य उच्चारण करते हैं, उसके उच्चारण मात्र से वे मुक्त हो जाते हैं, इसमें शंका नहीं है। यह बात गरुड़ पुराण में उपदिष्ट है किः-

यदीच्छसि परं ज्ञानं ज्ञानाच्च परमं पदम् ।

तदा यत्नेन महता कुरु श्रीहरिकीर्तनम् ।।

‘यदि परम ज्ञान अर्थात आत्मज्ञान की इच्छा है और उस आत्मज्ञान से परम पद पाने की इच्छा है तो खूब यत्न पूर्वक श्री हरि के नाम का कीर्तन करो ।

               इसी संदर्भ में एक वृतांत बताता हूं। एक बार नारद जी ने भगवान ब्रह्मा जी से कहा, ऐसा कोई उपाय बतलाइए। जिससे मैं विकराल कलिकाल के काल जाल में न फँसूं। इसके उत्तर में ब्रह्माजी ने कहाः- आदिपुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निर्धूत कलिर्भवति।

‘आदि पुरुष भगवान नारायण के नामोच्चारण करने मात्र से ही मनुष्य कलि से तर जाता है।’

                     श्रीमद भागवत के अंतिम श्लोक में भगवान वेदव्यास कहते हैं:-

नाम संकीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनमः ।

प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं पदम् ।।

            जिसका नाम-संकीर्तन सभी पापों का विनाशक है और प्रणाम दुःख का शमन करने वाला है। उस श्री हरि-पद को मैं नमस्कार करता हूँ ।’कलिकाल में नाम की महिमा का बयान करते हुए भगवान वेदव्यास जी श्रीमद भागवत में कहते हैं:-

कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ।

द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ।।

‘सतजुग में भगवान विष्णु के ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में भगवान की पूजा-अर्चना से जो फल मिलता था, वह सब कलियुग में भगवान के नाम कीर्तन मात्र से ही प्राप्त हो जाता है ।

              ‘श्री रामचरित्र मानस’ में गोस्वामी तुलसी दास जी महाराज इसी बात को इस रुप में कहते हैं-

कृत जुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग ।

जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ।।

‘सतजुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान के नाम से पा जाते हैं । आगे गोस्वामी जी कहते हैं:-

कलिजुग केवल हरि गुन गाहा ।

गावत नर पावहिं भव थाहा ।।

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना ।

एक आधार राम गुन गाना ।।

सब भरोस तजि जो भज रामहि ।

प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ।।

सोइ भव तर कछु संसय नाहीं ।

नाम प्रताप प्रगय कलि माहीं ।।

         कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुण गाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं ।

कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है । श्री राम जी का गुणगान ही एकमात्र आधार है । अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेम सहित उनके गुणगान को गाता है, वह भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं । नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है:-

चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ ।

कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ ।।

             यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है किन्तु कलियुग में विशेष रूप से है । इसमें तो नाम को छोड़कर दूसरा कोई उपाय ही नहीं है । तभी तो 

गोस्वामी श्री तुलसी दास जी महाराज ने बालकान्ड में ही लिख दिया है कि अच्छे अथवा बुरे भाव से, क्रोध अथवा आलस्य से किसी भी प्रकार से भगवन नाम का जप करने से व्यक्ति को दसों दिशाओं में कल्याण-ही-कल्याण प्राप्त होता है ।

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ ।

नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ।।

                 यह कल्पवृक्ष स्वरूप भगवन नाम स्मरण करने से ही संसार के सब जंजालों को नष्ट कर देने वाला है । यह भगवन नाम कलिकाल में मनोवांछित फलों को देने वाला, परलोक का परम हितैषी एवं इस संसार में व्यक्ति का माता-पिता के समान सब प्रकार से पालन एवं रक्षण करने वाला है । गोस्वामी तुलसी दास जी यहीं पर नहीं रुके है। उन्होंने आगे लिखा है:-

नाम कामतरु काल कराला।

सुमिरत समन सकल जग जाला।।

राम नाम कलि अभिमत दाता।

हित परलोक लोक पितु माता।।

                इस भगवन नाम- जप योग के आध्यात्मिक एवं लौकिक पक्ष का सुंदर समन्वय करते हुए गोस्वामी जी कहते हैं कि ब्रह्माजी के बनाये हुए इस प्रपंचात्मक दृश्य जगत से भली भाँति छूटे हुए वैराग्य वान मुक्ति योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए तत्त्व ज्ञान रुप दिन में जागते हैं और नाम तथा रुप से रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्म सुख का अनुभव करते हैं । जो परमात्मा के गूढ़ रहस्य को जानना चाहते हैं, वे जिह्वा द्वारा भगवन नाम का जप करके उसे जान लेते हैं । लौकिक सिद्धियों के आकांक्षी साधक लययोग द्वारा भगवन नाम जपकर अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त कर सिद्ध हो जाया करते हैं । इसी प्रकार जब संकट से घबराये हुए आर्त भक्त नाम जप करते हैं तो उनके बड़े-बड़े संकट मिट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं:-

नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी।

बिरती बिरंचि प्रपंच बियोगी।।

ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा।

अकथ अनामय नाम न रूपा।।

जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ।

नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ।।

साधक नाम जपहिं लय लाएँ।

होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।

जपहिं नामु जन आरत भारी।

मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।

नाम को निर्गुण ब्रह्म एवं सगुण विग्रह स्वरूप राम से भी बड़ा बताते हुए तुलसी दास जी ने तो यहाँ तक कह दिया किः

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा।

अकथ अगाध अनादि अनूपा।।

मोरें मत बड़ नामु दुहू तें।

किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें।।

           ब्रह्म के दो स्वरूप हैं- निर्गुण और सगुण। दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी मति में नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों को वश में कर रखा है। अंत में नाम को राम से भी अधिक बताते हुए तुलसी दास जी कहते हैं:-

सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।

नाम उधारे अमित खल बेद गुन गाथ।।

‘श्री रघुनाथ जी ने तो शबरी, जटायु गिद्ध आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी, परन्तु नाम ने अनगिनत दुष्टों का भी उद्धार किया। नाम के गुणों की कथा वेदों में भी प्रसिद्ध है।

अपतु अजामील गजु गनिकाऊ।

भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ।।

कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।

रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।

‘नीच अजामील, गज और गणिका भी श्री हरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गये। मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ? राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते।’

                  महाराष्ट्र में महान संत हुए तुकाराम जी। संत तुकाराम जी महाराज कहते हैं-‘नाम जप से बढ़कर कोई भी साधना नहीं है। तुम और जो चाहो से करो, पर नाम लेते रहो। इसमें भूल न हो, यही सबसे पुकार-पुकारकर मेरा कहना है। अन्य किसी साधन की कोई जरूरत नहीं है। बस निष्ठा के साथ नाम जपते रहो।’ इस भगवन नाम-जप की महिमा अनंत है। इस जप के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं एवं अमंगल वेश वाले होने पर भी मंगल की राशि हैं। परम योगी शुकदेव जी, सनकादिक सिद्ध गण, मुनि जन एवं समस्त योगी जन इस दिव्य नाम-जप के प्रसाद से ही ब्रह्मनंद का भोग करते हैं। भगवत शिरोमणि श्री नारद जी, भक्त प्रह्लाद, ध्रुव, अम्बरीष, परम भागवत श्री हनुमान जी, अजामील, गणिका, गिद्ध जटायु, केवट, भीलनी शबरी- सभी ने इस भगवन नाम-जप के द्वारा भगवत प्राप्ति की है।

                  मध्य कालीन भक्त एवं संत कवि सूर, तुलसी, कबीर, दादू, नानक, रैदास, पीपा, सुन्दर दास आदि संतों तथा मीराबाई, सहजोबाई जैसी योगिनियों ने इसी जप योग की साधना करके संपूर्ण संसार को आत्म कल्याण का संदेश दिया है। नाम की महिमा अगाध है। इसके अलौकिक सामर्थ्य का पूर्णतया वर्णन कर पाना संभव नहीं है। संत-महापुरुष इसकी महिमा स्वानुभव से गाते हैं और वही हम लोगों के लिए आधार हो जाता है। नाम की महिमा के विषय में संत श्री ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-

"नाम संकीर्तन की ऐसी महिमा है कि उससे सब पाप नष्ट हो जाते हैं। फिर पापों के लिए प्रायश्चित करने का विधान बतलाने बालों का व्यवसाय ही नष्ट हो जाता है। क्योंकि नाम-संकीर्तन लेशमात्र भी पाप नहीं रहने देता। यम- दमादि कर्म इसके सामने फीके पड़ जाते हैं। तीर्थ अपने स्थान छोड़ जाते हैं, यमलोक का रास्ता ही बंद हो जाता है। यम कहते हैं- हम किसको यातना दें? दम कहते हैं- हम किसका भक्षण करें? यहाँ तो दमन के लिए भी पाप-ताप नहीं रह गया। भगवन नाम का संकीर्तन इस प्रकार संसार के दुःखों को नष्ट कर देता है एवं सारा विश्व आनंद से ओतप्रोत हो जाता है।"

               नामोचारण का फल श्रीमद भागवत में आता है:-

सांकेत्यं पारिहास्यं वा स्तोत्रं हेलनमेव वा |

वैकुण्ठनामग्रहणमशेषधहरं विटुः ||

पतितः स्खलितो भग्नः संदष्टस्तप्त आहतः |

हरिरित्यवशेनाह पुमान्नार्हति यातनाम् ||

 ‘भगवान का नाम चाहे जैसे लिया जाय- किसी बात का संकेत करने के लिए, हँसी करने के लिए अथवा तिरस्कार पूर्वक ही क्यों न हो, संपूर्ण पापों का नाश करने वाला है। पतन होने पर, गिरने पर, कुछ टूट जाने पर, डँसे जाने पर,बाह्य या आन्तर ताप होने पर और घायल होने पर जो पुरुष विवशता से भी ‘हरि’ ये नाम का उच्चारण करता है। वह यम-यातना के योग्य नहीं।

गीताप्रेस’ गोरखपुर के श्री जयदयाल गोयन्दकाजी लिखते हैं:“वास्तव में, नाम की महिमा वही पुरुष जान सकता है। जिसका मन निरंतर श्री भगवन्नाम के चिंतन में संलग्न रहता हो,नाम की प्रिय और मधुर स्मृति से जिसको आनंद की अनुभूति होती हो। नाम संकीर्तन की ऐसी महिमा है कि उससे सब पाप नष्ट हो जाते हैं। फिर पापों के लिए प्रायश्चित करने का विधान बतलाने बालों का व्यवसाय ही नष्ट हो जाता है, क्योंकि नाम-संकीर्तन लेशमात्र भी पाप नहीं रहने देता। यह तो समस्त पापों को मिटा देती है। भगवान का नाम चाहे जैसे लिया जाय- किसी बात का संकेत करने के लिए, हँसी करने के लिए अथवा तिरस्कार पूर्वक ही क्यों न हो, वह संपूर्ण पापों का नाश करने वाला ही होता है।

            शास्त्रों में यह कथा आती है कि एक बार ध्रुव के संबंध में ऋषियों की गोष्ठी हुई। उस सभा में ऋषि गण कहने लगे कि देखो तो, "भगवान के यहां भी अब पहचान से काम होने लगा है। हम लोग तो अनेक-अनेक वर्षों से श्री हरि के ध्यान में लीन है। परन्तु ध्रुव जी ने नारद जी से मंत्र पाया और केवल छ महीने में ही श्री नारायण को पा गए। उन्हें उस पद की प्राप्ति हुई, जो आज तक किसी को भी नहीं मिला। यह पहचान ही तो है, क्योंकि नारद जी ब्रह्मा के पुत्र है और ब्रह्मा जी श्री हरि के नाभि कमल से उत्पन्न हुए है। अतः नारद जी श्री हरि के पौत्र हुए और इस कारण से अपने पौत्र के शिष्य होने का ध्रुव को फल मिला।

           उस सभा में बात चल ही रही थी कि नारायण केवट बन कर वहां आ गए। उन्होंने ऋषियों से उनके दुविधा का कारण पुछा, फिर उन सभी ऋषियों को नौका विहार करने के लिए चलने को कहा। सभी ऋषि नौका में बैठ गए और नौका नदी में तैरने लगी। अब तो केवट बने भगवान उनको बीच सरोवर में ले गया जहाँ कुछ टीले थे। उन सभी टीलों पर अस्थियाँ ही अस्थियाँ दिख रहीं थी। तब कुतुहल वश साधुओं ने पूछा, “केवट तुम हमें कहाँ ले आये? ये किसकी अस्थियों के ढ़ेर हैं ? तब केवट बोला, “ये अस्थियों के ढ़ेर भक्त ध्रुव के हैं। उनकी आराधना पूर्ण होने में मात्र छ महीना ही बाकी था, जो इस जन्म में पूर्ण हो गया। श्री हरि की बातें सुनकर ऋषियों के चेहरे पर संतुष्टि के भाव दृष्टि गोचर होने लगे।

                       अब आते है नाम जप प्रभाव पर। श्री हरि के नाम संकीर्तन की अपार महिमा है, जो कलिकाल के विषम व्याल को नष्ट कर देती है। परन्तु इसका भी बहुतो को फल नहीं मिलता, क्योंकि वे भजन तो करते है, परन्तु नामापराध करने से नहीं चुकते। भगवान नाम के संकीर्तन के रस का वे पान तो करते है, परन्तु इस सुधा रस को पचा नहीं पाते। उनमें अहं की भावना पनपने लगती है और वे अपने को श्रेष्ठ समझने लगते है। तभी तो गोस्वामी तुलसी दास जी ने लिखा है:-

राम राम अब कोई कहे, दशरित कहे न कोय ।

एक बार दशरित कहै, कोटि यज्ञफल होय ।राम-राम’ तो सब कहते हैं किन्तु दशरित अर्थात दस नामापराध से रहित नामजप नहीं करते। कहने का तात्पर्य यही है कि यदि एक बार दस नामापराध से रहित होकर नाम संकीर्तन करें, तो कोटि- कोटि यज्ञों का फल मिलता है ।प्रभुनाम की महिमा अपरंपार है, अगाध है, अमाप है,एवं असीम है, तभी तो गोस्वामी तुलसी दास जी ने यहां तक कहा है कि कलियुग में न ही योग की महता है और नहीं यज्ञ और न ही ज्ञान, वरन् एकमात्र आधार केवल प्रभुनाम का गुणगान ही है।

 कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना ।

एक आधार राम गुन गाना।।

नहिं कलि करम न भगति बिबेकु ।

राम नाम अवलंबनु एकु।।

                         यदि आप अपने हृदय के भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहते है, तो मुखरुपी द्वार की जीभ रूपी देहली पर राम नाम रुपी मणि के दीपक को रखें। तभी तो गोस्वामी जी कहते है:-

राम नाम मणि दीप धरु, जीहँ देहरीं द्वार ।

तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहेसि उजिआर।

अतः जो भी व्यक्ति रामनाम का, प्रभु नाम का पूरा लाभ लेना चाहे, उसे नामापराध के दस दोषों से बचना चाहिए। वे दस नामापराध कौन- से हैं ? ‘विचार सागर’ में इसका विषद वर्णन है।

सन्निन्दाऽसतिनामवैभवकथा श्रीशेशयोर्भेदधिः।

अश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकागरां नाम्न्यर्थावादभ्रमः।

नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागो हि धर्मान्तरैः।

साम्यं नाम्नि जपे शिवस्य च हरेर्नामापराधा दशा ।।

1.         सत्पुरुष की निंदा

2.         असाधु पुरुष के आगे नाम की महिमा का कथन

3.         विष्णु का शिव से भेद

4.         शिव का विष्णु से भेद

5.         श्रुति वाक्य में अश्रद्धा

6.         शास्त्र वाक्य में अश्रद्धा

7.         गुरु वाक्य में अश्रद्धा

8.         नाम के विषय में अर्थ वाद ( महिमा की स्तुति) का भ्रम

9.         ‘अनेक पापों को नष्ट करने बाला नाम मेरे पास है’ - ऐसे विश्वास से निषिद्ध कर्मों का आचरण और इसी विश्वास से विहित कर्मों का त्याग तथा

10.       अन्य धर्मों के, अर्थात नामों के साथ भगवान के कल्याण कारी नामों की तुलना करना।           

                ये दस शिव एवं विष्णु भगवान के जप में नामापराध माने गए है। पहला नामापराध है, सत्पुरुषों की निंदा करना। क्योंकि सत्पुरुषों में नारायण अपने पूर्ण तत्व रुप में प्रकट हो चुके होते है। ऐसे में सत्पुरुषों की निंदा करने से नाम जाप या, नाम संकीर्तन का कोई फल नहीं मिलता। ऋषियों, मुनियों एवं संतों ने सत्पुरुषों की निंदा का निषेध किया है। श्री हरि अथवा हर, यानी महादेव की निंदा सुनना। जो भगवान की निंदा सुनते है, उसे गौ वध के समान पाप लगता है।

हर गुर निंदक दादुर होई |

जन्म सहस्र पाव तन सोई ||

           दूसरा अपराध है, असाधु पुरुष के आगे नाम की महिमा का कथन।जो नाम की महिमा जानना ही नहीं चाहतें, जिनका हृदय साधन-संपन्न नहीं है। जिनके हृदय में कलुषता भरी हुई है और जिस मानव का हृदय पवित्र नहीं है। जो न खुद साधन-भजन नहीं करते और न दूसरे को करने देना चाहते। ऐसे व्यक्ति के आगे नाम महिमा का गुणगान करना नामापराध है। तीसरा और चौथा अपराध श्री हरि एवं हर यानी महादेव में भेद मानना। मेरा इष्ट बड़ा, तेरा इष्ट छोटा..... शिव या नारायण में भेद करना भी नामापराध है।

                     पाँचवाँ, छठा एवं सातवाँ अपराध श्रुति, शास्त्र एवं गुरु के वचन में अश्रद्धा है। नाम जप-संकीर्तन तो करना, किन्तु श्रुति, शास्त्र-पुराण के विपरीत "राम" नाम को समझना और गुरु के वाक्यों में अश्रद्धा रखना भी नामापराध में आता है। आठवाँ अपराध है, नाम के विषय में अर्थ वाद करना, यानी नाम महिमा की स्तुति का भ्रम। इस संदर्भ में एक वृतांत आता है:-

                       चार बच्चे आपस में झगड़ रहे थे। इतने में वहां से एक सज्जन गुजरे। उन्होंने बच्चों से पुछा “क्यों लड़ाई कर रहे हो? तब एक बालक ने कहा : “हमको एक रुपया मिला है। उनमें से एक बालक बोला, हमें तरबूज खाना है। दूसरा बोला, नहीं-नहीं हम वाटरमिलन खाएंगे, तो तीसरे ने विरोध किया कि नहीं मैं तो कलिंगर खाऊँगा। इसपर चौथा भी बोला कि नहीं-नहीं, मैं तो छाँई खाऊँगा।

                   इतनी बातें सुनते ही सज्जन समझ गए कि चारों अलग-अलग अर्थ वाद के कारण ही आपस में उलझ रहे है। अतः उन्होंने तरबूज के चार टुकड़े किए और चारों को थमाते हुए बोले। यह रहा तुम्हारा तरबूज, वाटरमिलन, कलिंगर एवं छाँई। बस सज्जन ने प्रयास किया और चारों बालक खुश हो गए। इसी प्रकार जो शब्दों को पकड़ कर रहते है, उन्हें नाम संकीर्तन का पूर्ण लाभ नहीं मिल पाता। अब आते है नौवाँ नामापराध पर, तो नौवाँ नामापराध है कि मन में धारणा बनाना कि अनेक पापों को नष्ट करने बाला हरि नाम मेरे पास है। ऐसे विश्वास के साथ निषिद्ध कर्मों का आचरण एवं विहित कर्मों का त्याग करना। इस प्रकार के व्यक्ति को भी भजन करने का फल नहीं मिलता और वे पाप के भागी होते है।

                         अब अंतिम और दसवाँ नामापराध है, अन्य धर्म से, यथार्थ अन्य नामों से श्री हरि के निर्मल नामों की तुलना करना। कई लोग अन्य धर्म अथवा अन्य नामों से भगवान के नाम की तुलना करते है। अन्य गुरु से अपने गुरु की तुल्यता करते है, जो कदापि उचित नहीं है। यह भी अपराध की श्रेणी में आता है। हमने जो दस नामापराध की चर्चा की है, इसमें से किसी भी अपराध से ग्रसित होने पर भगवान नाम संकीर्तन व्यर्थ चला जाता है। अतः हम भगवान का भजन तो करें, परन्तु इन नामापराध से भी बचे। आज तो हरि नाम संकीर्तन की चर्चा हुई, आगे मैं संतों की चर्चा करूंगा। साथ ही जीवन में गुरु तत्व के महत्व की चर्चा करूंगा।

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 "संत" शब्द अपने आप में ही गूढ़ता को समेटे हुए है। वैसे सामान्यतः ‘संत’ शब्द का प्रयोग प्राय बुद्धिमान, पवित्र आत्मा, सज्जन, परोपकारी, सदाचारी आदि के लिए किया जाता है। कभी-कभी साधारण बोलचाल में इसे भक्त, साधु या महात्मा जैसे शब्दों का भी पर्याय समझ लिया जाता है। जहाँ तक ‘संत’ शब्द के शाब्दिक निर्वचन का प्रश्न है उस संदर्भ में संस्कृत के शब्द ‘सन्त:’ से निर्मित हुआ है और ‘सन्’ सत्त का पुल्लिंग है जो ‘त’ प्रत्यय के योग से बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ हैं- होने वाला या रहने वाला। इस प्रकार यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस नश्वर संसार में वही व्यक्ति यष:काय रूप में स्थिर रहता है जिसके चित में मानवीय उत्कर्ष का मंगल भाव समाविष्ट है। 

                   जहाँ तक इस शब्द की व्युत्पत्ति का प्रश्न है कुछ लोग इसे ‘शांत’ शब्द का रूपांतर मानते हैं तो कुछ अन्य इसे ‘सन्ति’ या ‘सत्य’ का विकृत रूप मानते हैं। यदि इस शब्द को अंग्रेजी शब्द ‘सेंट’ का समानार्थी समझकर उसका हिंदी रूपांतर माना तो, ‘सेइंट’ वस्तुतः लैटिन सेनीको (पवित्र कर देना) के आधार पर निर्मित सेंक्टस शब्द से बनता है। जिसका अर्थ पवित्र होता है। पश्चिमी सभ्यता में अथवा क्रिस्चन के अनुसार संत शब्द का अर्थ और परिभाषा अंग्रेजी हिंदी शब्दकोश के आधार पर सेइंट - संत, सिद्ध पुरुष, मतावलंबी होता है। व्युत्पति की दृष्टि से देखा जाए तो’ संत’ शब्द मूलतः: संस्कृत के ‘सत्य’ शब्द से बना है जो’अस्’ धातु (विद्यमान के अर्थ में) से निष्पन्न हुआ है।

            संत से अभिप्राय है - जिसे ‘सत’ की अनुभूति हो गई है। इसका अर्थ शांत माना जाए तो इसका अभिप्राय होगा कि जिसकी कामनाएँ शांत हो चुकी है। ‘संत’ शब्द के अर्थ और प्रयोग को समझाने का व्यवस्थित और सुन्दर प्रयास डॉ. राज देव सिंह ने ‘शब्द और अर्थ : संत साहित्य के संदर्भ में’, ‘संतों का भक्ति योग’, ‘संत-साहित्य : पूर्ण मूल्यांकन’ आदि कृतियों में किया है। हिंदी में संत शब्द के प्रयोग पर विचार करते हुए उन्होंने संत के दो तरह के अर्थों का उल्लेख किया है - ‘जहाँ तक संत शब्द के सही अर्थ का सवाल है ऋग्वेद से लेकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के साहित्य तक इस पर कोई विवाद नहीं है। कोष ग्रंथों में भी संत शब्द के अर्थ को लेकर कोई विवाद नहीं मिलता। 

                          इस अर्थांतर को उजागर करने वाला प्रथम कोष ग्रंथ है - ‘हिंदी-साहित्य कोष’ भाग-ख। लेकिन इस बात को मानना पड़ेगा कि बीसवीं शताब्दी में, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली में जब संत शब्द को स्वीकार किया गया। उस समय इसके दो अर्थ वर्तमान थे- एक इसका सही अर्थ और दूसरा इसका प्रचलित अर्थ। संत शब्द की पारिभाषिक मर्यादा को समझने के लिए इन सही और प्रचलित अर्थों को समझना आवश्यक है। ’‘संत’ शब्द का प्रयोग भारतीय साहित्य में अत्यंत प्राचीन वैदिक काल से हो रहा है। वैदिक काल में ‘संत’ परमात्मा या ब्रह्म के पर्याय के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। ऋग्वेद में इसका प्रयोग ‘एक’ एवं अद्वितीय परम तत्व के लिए किया गया है। श्रीमद भगवत गीता में ‘संत’ शब्द विभिन्न संदर्भों में मिलता है। ‘सत’ का ब्रह्म के पर्याय के रूप में भी प्रयोग किया गया है। 

             ‘ऊँ तत्सदिति निर्देषो, ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत: ’तथा अच्छे कर्मों के लिए भी सत्त शब्द का प्रयोग किया है। साधु, सदाचारी के अर्थ में भी इसका प्रयोग मिलता है -  सद्भावे साधुभावे च सदित्यते त्प्रयुज्यते, प्रषस्ते कर्मणि तथा सच्छब्द: पार्थ युज्यते। यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते, कर्म चैव तदथ्रीये सदित्येवाभिधीयते।। यहाँ सत्त शब्द का प्रयोग सत्य भाव में और श्रेष्ठ भाव के रूप में किया गया है। कहा गया है - हैं पार्थ! उत्तम कर्म में भी ‘सत्त’ का प्रयोग किया जाता है। यज्ञ, तप और दान के भाव स्थिर रहने को ‘संत’ कहा जाता है। परमात्मा के लिए किया कर्म निश्चय पूर्वक सत्य है, ऐसा कहा जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन साहित्य में संत शब्द के दो अर्थ मिलते हैं। प्रथम तो परम ब्रह्म के लिए तथा दूसरे उस व्यक्ति के लिए जो पवित्र आत्मा हो, सदाचारी हो, सद-असद विवेक सम्पन्न हो। सज्जन हो अर्थात् उसमें सभी गुण विद्यमान हो। मध्य कालीन हिंदी साहित्य में भी ‘संत’ शब्द का प्रयोग लगभग इसी अर्थ में मिलता है। 

                  अब हम आते है धर्माचार्यों के मत पर । अलग-अलग धर्माचार्यों ने संत की अलग-अलग परिभाषा दी है। संत कबीर दास ने उसे ’संत’ माना है जो वैर रहित हो, निष्काम हो, ईश्वर के प्रति अनुराग रखे और विशय वासनाओं से विरक्त रहे- निरबैरी निहकामता साई सेती नेह। विशया सु न्यारा रहे संतन का अंग एह।। दूसरी और गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं ऐसे संत की वंदना करता हूँ जिसका चित सब के लिए समान है। जिनका न कोई मित्र है न कोई शत्रु। जो अंजलि में आए हुई अच्छे फूल के समान दोनों हाथों को सुगंधित कर देते हैं।  बंदउ संत समान चित, हित अनहित नहीं कोऊ।  अंजलि गत शुभ सुमन जिमि, सम सुगंध कर दोऊ।। 

              संत दादू दयाल ने भी ‘संत’ के संदर्भ में कहा है कि संत वो जन होते हैं जो परोपकारी होते हैं और जिनकी आत्मा में परमात्मा देखे जाते हैं -  पर उपकारी सन्त जन, साहिब जी तेरे। जाती देखी आत्मा, राम कहि टेरे।। "इसी प्रकार संत गरीब दास जी संत और परमात्मा को एक ही मानते हुए कहते हैं- ‘साई सरीखे संत हैं, यामें मीन न मेख। "संत जैतराम ने भी अपनी वाणी में संतों के बारे में कहा है कि संत तो अपने आप में निराले होते हैं उनके समान कोई दूसरा नहीं होता है -  ‘संत सरीखे संत और न दूजा कोई।’ 

                                       संत घीसादास ने क्षमा, दया, परोपकार आदि संतों की विशेषताएँ बताई हैं।  ‘छिमा, गरीबी, बंदगी, संतों में पाई। प्रेम प्रीत हिरदे बसे टुरमत वहां नाहीं।’’  नि: सन्देह उतरी भारत की निर्गुण साधना पर वारखरी संतों का प्रभाव संतमत के प्रारम्भिक काल में अधिक पड़ा है। जिसके परिणामस्वरूप निर्गुण धारा, संत धारा और निर्गुणिया भक्त ‘संत’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। कतिपय अनुसंधाता ‘संतमत’ जैसे विशद शब्द का प्रचलन सत्रहवीं शताब्दी विक्रमी के किसी चरण से अनुमानित करते हैं। 

              ‘संत’ शब्द का प्रचलन की कभी ज्ञानेश्वर जैसे निर्गुण भक्तों के लिए हुआ था। पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते उतरी भारत में निर्गुण भक्तों जैसे कबीर और उनके समकालीन कवियों के अतिरिक्त उनके परवर्ती निर्गुण भक्तों के लिए ग्राह्य हो गया। डॉ. पीतांबर बड़थ्वाल ने ‘संत’ शब्द की व्युत्पत्ति पाली भाषा के ‘शान्त’ शब्द से जोड़ते हुए इसका अर्थ निवृति मार्गी अथवा वैरागी लिया है। इस रूप में वे संत का  निर्गुण स्वरूप भी कहते हैं। निर्गुण और सगुण को लेकर जो विवाद हुआ उससे यह निष्कर्ष निकालता है कि ‘संत’ निर्गुण ब्रह्म का उपासक और भक्त सगुण ब्रह्म का उपासक होते है। ‘संत शब्द मूलतः: महान आत्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है जो व्यक्ति विशय विकार ग्रसित विश्व में निरपेक्ष भाव से निष्काम एवं परोपकारी बनकर जीता है, उसे ही संत की संज्ञा दी जाती है। 

                   अब यह निर्गुण उपासक हो या सगुण उपासक इसमें कोई अन्तर नहीं।’ निश्चित रूप से इस मत से सहमत हुआ जा सकता है। जैसा हम समझते हैं, संत मुख्यतः वे होते है, जो सभी गुणों से परिपूर्ण होकर ईश्वर के करीब होते हैं। भारत ही नहीं सर्वत्र-संपूर्ण विश्व में संतों को प्रेरणा का श्रोत माना गया है। क्योंकि संत किसी व्यक्ति और समाज को बदलने में सक्षम होते हैं। बलदेव वंशी ‘संत’ के बारे में कहते हैं कि जो इस दोषपूर्ण समाज में रहते हुए भी उज्ज्वल हो, तथा जिसके पास सत्य है। वहीं संत है अर्थात् संत वह होता है, जो समाज में व्याप्त बुराइयों से परे होता है। उदयभानु हंस ने संत के विशय में काव्य के माध्यम से इस प्रकार कहा है -  ‘संतों में भगवान का वरदान छिपा है, कुल मानवता का वरदान छिपा है, जीवन की गंभीर हर समस्या का, संतों की वाणी में समाधान छिपा है।

                                      इन सभी विचारधाराओं के अध्ययन के उपरांत स्पष्ट होता है कि संत वह महान विभूति होते हैं। जो साधारण से ऊपर उठकर स्वयं नित्य प्रति, सत्य, निर्विकार एवं परम ब्रह्म का साक्षात्कार कर चुके हों। जिनमें क्षमाशीलता, परोपकार, सेवा, अक्रोध, दया, दानशीलता, अभ्भेदता, निष्कामता आदि सभी गुणों का समावेश हो। संत में इन सभी गुणों का प्रादूर्भाव हो जाना स्वाभाविक होता है। वे इस लौकिक संसार में रहते हुए भी अलौकिक संसार में विचरण करते हैं।

                   अब हम "गुरु" शब्द की चर्चा करेंगे। शतायु जोगीश्वर गुरु की महिमा शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है, अंधकार या मूल अज्ञान और रु का अर्थ किया गया है, उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देते है। अर्थात दो अक्षरों से मिलकर बने 'गुरु' शब्द का अर्थ - प्रथम अक्षर 'गु का अर्थ- 'अंधकार' होता है जबकि दूसरे अक्षर 'रु' का अर्थ- 'उसको हटाने वाला' होता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है।

                  गुरु वह है जो अज्ञान का निराकरण करता है अथवा गुरु वह है जो धर्म का मार्ग दिखाता है। श्री सद्गुरु आत्म-ज्योति पर पड़े हुए विधान को हटा देते है। ओशो कहते है गुरु के बारे में कि 'गुरु का अर्थ है- ऐसी मुक्त हो गई चेतनाएँ, जो ठीक बुद्ध और कृष्ण जैसी हैं, लेकिन तुम्हारी जगह खड़ी हैं, तुम्हारे पास हैं। कुछ थोड़ा सा ऋण उनका बाकी है- शरीर का, उसके चुकने की प्रतीक्षा है। बहुत थोड़ा समय है।...गुरु एक पैराडॉक्स है, एक विरोधाभास है : वह तुम्हारे बीच और तुमसे बहुत दूर, वह तुम जैसा और तुम जैसा बिलकुल नहीं, वह कारा गृह में और परम स्वतंत्र। अगर तुम्हारे पास थोड़ी सी भी समझ हो तो इन थोड़े क्षणों का तुम उपयोग कर लेना, क्योंकि थोड़ी देर और है वह, फिर तुम लाख चिल्लाओगे सदियों-सदियों तक, तो भी तुम उसका उपयोग न कर सकोगे। 'रामाश्रयी धारा के प्रतिनिधि गोस्वामीजी वाल्मीकि से राम के प्रति कहलवाते हैं कि- तुम तें अधिक गुरहिं जिये जानी। राम आप तो उस हृदय में वास करें- जहाँ आपसे भी गुरु के प्रति अधिक श्रद्धा हो। लीला रस के रसिक भी मानते हैं कि उसका दाता सद्गुरु ही है- श्रीकृष्ण तो दान में मिले हैं। 

                          सद्गुरु लोक कल्याण के लिए मही पर नित्यावतार है। अन्य अवतार नैमित्तिक हैं। संत जन कहते हैं-राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरु कीन्ह। तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥" गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका। गुरु को सभी ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है। भारत के बहुत से संप्रदाय तो केवल गुरु वाणी के आधार पर ही कायम हैं।

            अब आते है कि हमारा धर्म क्या है? तो हमें यानी कि गुरु ने जो नियम बताए हैं उन नियमों पर श्रद्धा से चलना उस संप्रदाय के शिष्य का परम कर्तव्य है। गुरु का कार्य नैतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को हल करना भी है। राजा दशरथ के दरबार में गुरु- वशिष्ठ से भला कौन परिचित नहीं है। जिनकी सलाह के बगैर दरबार का कोई भी कार्य नहीं होता था। गुरु की भूमिका भारत में केवल अध्यात्म या धार्मिकता तक ही सीमित नहीं रही है। देश पर राजनीतिक विपदा आने पर गुरु ने देश को उचित सलाह देकर विपदा से उबारा भी है। अर्थात अनादि काल से गुरु ने शिष्य का हर क्षेत्र में व्यापक एवं समग्रता से मार्गदर्शन किया है। अतः सद्गुरु की ऐसी महिमा के कारण उनका व्यक्तित्व माता-पिता से भी ऊपर है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक के अनुसार- 'यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु' अर्थात जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

गुरूर ब्रह्मा गुरूर विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वर: ।

गुरु: साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

                  अपनी महत्ता के कारण गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा पद दिया गया है। शास्त्र वाक्य में गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाते है नव जन्म देते है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करते है और गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करते है। संत कबीर कहते हैं-'हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर॥' अर्थात भगवान के रूठने पर तो गुरु की शरण रक्षा कर सकती है। परन्तु गुरु के रूठने पर कहीं भी शरण मिलना सम्भव नहीं है। जिसे ब्राह्मणों ने आचार्य, बौद्ध ने कल्याण मित्र, जैनों ने तीर्थ कर और मुनि, नाथों तथा वैष्णव संतों और बौद्ध सिद्धों ने उपास्य सद्गुरु कहा है उस श्री गुरु से उपनिषद की तीनों अग्नि भी थर-थर काँपती हैं। त्रैलोक्यपति भी गुरु का गुणगान करते है। ऐसे गुरु के रूठने पर कहीं भी ठौर नहीं।

                        अपने दूसरे दोहे में कबीर दास जी कहते है, "सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार। लोचन अनंत, अनंत दिखावन हार।। “अर्थात सद्गुरु की महिमा अपरंपार है। उन्होंने शिष्य पर अनंत उपकार किए है। उन्होंने विषय-वासनाओं से बंद शिष्य की बंद ऑखों को ज्ञानचक्षु द्वारा खोलकर उसे शांत ही नहीं किया। अपितु अनंत तत्व ब्रह्म का दर्शन भी कराया है। आगे इसी प्रसंग में वे लिखते है। "भली भई जो गुरु मिल्या, नहीं तर होती हाँणि। दीपक दृष्टि पतंग ज्यूँ, पड़ता पूरी जाँणि।" अर्थात अच्छा हुआ कि सद्गुरु मिल गए, वरना बड़ा अहित होता। जैसे सामान्य जन पतंगे के समान माया की चमक-दमक में पड़कर नष्ट हो जाते है। वैसे ही मेरा भी नाश हो जाता।

                               जैसे पतंगा दीपक को पूर्ण समझ लेता है, सामान्य जन माया को पूर्ण समझकर उस पर अपने आपको निछावर कर देते हैं, वैसी ही दशा मेरी भी होती। अतः सद्गुरु की महिमा तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गाते है, मुझ मानुष की बिसात क्या। अतः हम मानव का पुनीत कर्तव्य है कि "गुरु" शब्द की महता समझे। संतों की सेवा अपने सामर्थ्य अनुसार करें और अपने जीवन में "गुरु" जरूर बनाएँ। क्योंकि इस कलिकाल में एक "गुरु" ही है, जो सब प्रकार से हमारी रक्षा करने को उद्धत हो सकते है। उनकी कृपा दृष्टि के होने पर हमारे तीनों ताप, यानी कि दैहिक, दैविक एवं भौतिक ताप का समन होगा। अब आगे मैं भगवान के विग्रह स्वरूप की चर्चा करूंगा।

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क्रमशः-


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रचनाएँ
भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुप
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इस पुस्तक में धर्म और अधर्म के बारे में बताने की कोशिश की गई है। मानव जीवन का सत्य उद्देश्य क्या है, उसकी व्याख्या की गई है। मानव जीवन में भक्ति की महता को निरुपीत किया गया है। साथ ही नारायण और उनके भक्तो का मधुर संबंध दृष्टांत के द्वारा बतलाया गया है। मानव जीवन की दुविधा, उसकी उपलब्धि और जरुरतों का सचित्र चित्रण किया गया है। मदन मोहन "मैत्रेय
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भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुुप

1 जून 2022
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सबसे पहले तो मैं श्री गणेश की वंदना करता हूं। गौरी- महेश नंदन बिना विघ्न के मेरी इस रचना का पूर्ण करें। तत्पश्चात मैं वीणा धारनी शक्ति स्वरुपा जगदंबा शारदा की वंदना करता हूं। वे मुझे ज्ञान पुंज दे, जो

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भक्ति की धारा-भक्त विशेष

3 जून 2022
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जीवन तो ईश्वर प्रदत्त है, परन्तु हम जगत के प्राणी इसको अपना समझ बैठे है। हम इस शरीर को अपना समझ बैठे है, जो नाशवान है। पता नहीं कि कब यह शून्य हो जाये, कब शिथिल हो जाए। जैसे ही इसमें से आत्मा निकल जात

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भक्त कथा अमृत

5 जून 2022
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भक्ति की धारा प्रवाहित हो और उसमें भगवान के परम भक्तों की चर्चा नहीं हो, संभव ही नहीं। भक्तों के निर्मल चरित्र से हमें काफी कुछ सीखने-समझने का अवसर प्राप्त होता है। अब मैं आपको नारायण के ऐसे ही भक्त प

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भक्त कथा अमृत

7 जून 2022
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श्री बजरंग बली, अंजन सुत, पवन तनय वीर हनुमान की कथा भी इसी श्रेणी में आती है। महाबली हनुमान ग्यारहवें रुद्र है। बजरंग बली श्री राम के अनन्या-नन्य भक्त है। उनको राम नाम के अलावा जगत में कुछ भी तो प्रिय

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भक्त कथा अमृत

9 जून 2022
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भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा से हो गए, अन्यथा उनका नाम तो देवव्रत था। शांतनु और गंगा की आठवीं संतान और पिता के आज्ञाकारी। परशुराम शिष्य भीष्म साधारण नहीं थे, वे अजेय योद्धा थे। वे ऐसे वीर योद्धा थे कि उन्ह

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भक्त कथा अमृत

13 जून 2022
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नरसी मेहता महान कृष्ण भक्त थे. कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने उनको बावन बार साक्षात दर्शन दिए थे। नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़, गुजरात में हुआ था. इनका सम्पूर्ण जीवन भजन कीर्तन और कृष्ण की भक्ति में

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भक्त कथा अमृत

17 जून 2022
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धर्म की परिभाषा देना न तो सहज है और न ही सुलभ। परन्तु इसको सरल बनाते है संत। भगवान के भक्त ही हमें भगवान की ओर उन्मुख करते है। संत ही मानव जीवन के लिए जहाज रूपी साधन है, जो भवसागर रूपी संसार से पार लग

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ईश्वर की अनुभूति

26 जून 2022
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विलासिता क्या है? अतिशय गुढ प्रश्न है। क्योंकि यह अखिल संसार ही इसके पीछे अंधी दौड़ लगा रहा है। भला सुख-सुविधा और उपभोग की वस्तुएँ किस को पसंद नहीं। कौन नहीं चाहता कि वह अच्छा पहने, अच्छा खाए और अच्छी

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ईश्वर के स्वरुप एवं भक्ति भाव-:

21 सितम्बर 2022
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भगवान सगुन और निर्गुण दो भावना से पुजे जाते है। निर्गुण स्वरूप का कोई आकार-प्रकार नहीं होता, जबकि सगुन स्वरूप में नारायण की विग्रह की पुजा होती है। जो अवतार रुप में अन्यथा नारायण रुप में।

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