shabd-logo

ईश्वर के स्वरुप एवं भक्ति भाव-:

21 सितम्बर 2022

68 बार देखा गया 68
भगवान सगुन और निर्गुण दो भावना से पुजे जाते है। निर्गुण स्वरूप का कोई आकार-प्रकार नहीं होता, जबकि सगुन स्वरूप में नारायण की विग्रह की पुजा होती है। जो अवतार रुप में अन्यथा नारायण रुप में।
                 आध्यात्मिक संसार के अतिरिक्त, भगवान की पूजा हमेशा अर्च-विग्रह के रूप में की जाती है। देवता परम भगवान की उपासना उनके विभिन्न अर्च-विग्रह रूपों में करते हैं। क्योंकि आध्यात्मिक संसार के अतिरिक्त, भगवान के परम व्यक्तित्व की प्रत्यक्ष उपासना व्यक्तिगत रूप में नहीं की जा सकती। भौतिक जगत में, भगवान की पूज हमेशा मंदिर में अर्च-विग्रह के रूप में की जाती है। अर्च विग्रह और मूल व्यक्तित्व के बीच कोई विशेष अंतर नहीं होता और इसलिए जो लोग, भले ही कहीं भी किसी संपूर्ण वैभवपूर्ण मंदिर में अर्च-विग्रह की पूजा में रत हैं। उसे निस्संदेह भगवान के परम व्यक्तित्व का साक्षात्कार हुआ है, समझा जाना चाहिए। जैसा कि शास्त्रों में निर्देश है, "अर्च्ये विष्णौ शील-धीर गुरुषु नर-मतिः“ । किसी को भी मंदिर में अर्च-विग्रह को मात्र शिला या धातु नहीं मानना चाहिए और न ही उसे यह विचार करना चाहिए कि आध्यात्मिक गुरु कोई सामान्य मानव है।
                      इस शास्त्रीय आज्ञा का पालन व्यक्ति को कठोरता से करना चाहिए और भगवान के परम व्यक्तित्व, अर्च-विग्रह की उपासना बिना अभद्रता के करना चाहिए। आध्यात्मिक गुरु भगवान के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि होते है और कोई भी उन्हें साधारण मनुष्य मानता है, तो अपराध करता है। अर्च-विग्रह और आध्यात्मिक गुरु के प्रति अपराध से बचकर, व्यक्ति, आध्यात्मिक जीवन, या कृष्ण चेतना में उन्नति कर सकता है। पद्म पुराण में कहा गया है कि आध्यात्मिक संसार में भगवान व्यक्तिगत रूप से सभी दिशाओं में विस्तार लेते हैं और उन्हें वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के रूप में पूजा जाता है। उन्हीं भगवान का प्रतिनिधित्व इस संसार में अर्च-विग्रह करते हैं, जो उनकी रचना का केवल एक चौथाई अंश है। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध भी इस भौतिक संसार की चार दिशाओं में विद्यमान हैं। 
                इस भौतिक संसार में जल से आच्छादित एक वैकुंठ लोक है और उस ग्रह पर वेदवती नामक एक स्थान है, जहाँ वासुदेव स्थित हैं। एक अन्य ग्रह जिसे विष्णु लोक के नाम से जाना जाता है। सत्यलोक के ऊपर स्थित है और वहाँ संकर्षण उपस्थित हैं। उसी प्रकार, द्वारका-पुरी में, प्रद्युम्न प्रमुख हैं। श्वेत द्वीप के रूप में ज्ञात द्वीप पर, दूध का एक महासागर है और उस महासागर के बीच में एक स्थान है। जिसे ऐरावती-पुर कहा जाता है, जहाँ अनिरुद्ध अनंत पर लेटे हुए है। कुछ सत्वत-तंत्रों में नौ वर्षों और प्रत्येक में पूजित प्रमुख अर्च-विग्रह का वर्णन मिलता है:- (1) वासुदेव (2) संकर्षण (3) प्रद्युम्न (4) अनिरुद्ध (5) नारायण (6) नृसिंह (7) हयग्रीव (8) महा वराह, और (9) ब्रह्मा। “इस संबंध में वर्णित भगवान ब्रह्मा भगवान के परम व्यक्तित्व हैं। जब भगवान ब्रह्मा के रूप में सशक्त करने योग्य कोई मनुष्य न हो। तो भगवान स्वयं ही भगवान ब्रह्मा का पद धारण करते हैं:-"तंत्र ब्रह्मा तु विज्ञेयः पूर्वोक्त-विधाय हरिः" यहाँ वर्णित ब्रह्मा स्वयं हरि हैं।
                               हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहु मान्य पुराणों के अनुसार श्री हरि विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालन हार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा जी जहाँ विश्व का सृजन करते है, वहीं शिव को संहारक माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं। यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय, अन्याय के विनाश तथा जीव को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करने बाले श्री हरि विष्णु है।
            श्री हरि विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसपर ब्रह्मा जी स्थित हैं। नारायण अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म, अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा, ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र धारण करते हैं। आदि शंकराचार्य ने भी अपने विष्णु सहस्रनाम-भाष्य में 'विष्णु' शब्द का अर्थ मुख्यतः व्यापक (व्यापनशील) माना है। तथा उनके व्युत्पत्ति के रूप में स्पष्टतः लिखा है कि "व्याप्ति अर्थ के वाचक नुक् प्रत्ययान्त 'विष्' धातु का रूप 'विष्णु' बनता है “।’विश्' धातु को उन्होंने भी विकल्प से ही लिया है और लिखा है कि "अथवा नुक् प्रत्ययान्त 'विश्' धातु का रूप विष्णु है। जैसा कि विष्णु पुराण में कहा है कि श्री हरि की शक्ति इस सम्पूर्ण विश्व में प्रवेश किए हुए हैं। इसलिए वे विष्णु कहलाते है। क्योंकि 'विश्' धातु का अर्थ प्रवेश करना है"।
                       ऋग्वेद के प्रमुख भाष्य कारों ने भी प्रायः एक स्वर से 'विष्णु' शब्द का अर्थ व्यापक "व्यापनशील" ही किया है। विष्णु सूक्त (ऋग्वेद) की व्याख्या में आचार्य सायण ने 'विष्णु' का अर्थ व्यापनशील तथा सर्वव्यापक कहा हैं। तो श्री पाद दामोदर सातवलेकर भी इसका अर्थ व्यापकता से सम्बद्ध लेते हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती ने भी 'विष्णु' का अर्थ अनेकत्र सर्वव्यापी परमात्मा किया है और कई जगह परम विद्वान के अर्थ में भी लिया है। इस प्रकार सुस्पष्ट पर लक्षित होता है कि 'विष्णु' शब्द 'विष्' धातु से निष्पन्न है और उसका अर्थ सर्वव्यापक है।
               वैदिक देव-परम्परा में सूक्तों की सांख्यिकीय दृष्टि से श्री हरि विष्णु का स्थान गौण है क्योंकि उनका स्तवन मात्र पांच सूक्तों में किया गया है। लेकिन यदि सांख्यिकीय दृष्टि से न देखकर उनपर और पहलुओं से विचार किया जाये तो उनका महत्व बहुत बढ़कर सामने आता है। ऋग्वेद में उन्हें 'बृहच्छरीर' "विशाल शरीर वाला" युवा कुमार आदि विशेषणों से ख्यापित किया गया है। वैसे तो श्री हरि विष्णु को वाणी में निवास करने वाला भी माना जाता है। किन्तु उनका परम प्रिय आवास स्थल 'पाथः' ऋग्वेद में बहुचर्चित है। आचार्य सायण ने ‘गिरि’ पद को श्लिष्ट मानकर उसका अर्थ 'वाणी' के साथ-साथ लाक्षणिक रूप में ‘पर्वत के समान उन्नत लोक’ भी किया है। 'गिरि' को यदि इन दोनों अर्थों में स्वीकृत कर लिया जाये तो समस्या का समाधान हो जाता है। विष्णु का तीसरा पद जहाँ पहुँचता है वही उनका आवास स्थान है। विष्णु का लोक ‘परम पद’ है अर्थात् गन्तव्य रूपेण वह सर्वोत्कृष्ट लोक है। 
                        उस ‘परम पद’ की विशेषता यह है कि वह अत्यधिक प्रकाश से युक्त है। वहाँ अनेक शृंगों वाली गायें "अथवा किरणें" संचरण किया करती हैं। ‘गावः’ यहाँ श्लिष्ट पद की तरह है। श्लेष से उसका अर्थ ‘गायें’ करने पर वहाँ दुग्ध आदि भौतिक पुष्टि का प्राचुर्य एवं ‘किरणें’ करने पर वहाँ प्रकाश अर्थात् आत्मिक उन्नति का बाहूल्य सहज ही अनुमेय है। विष्णु के ‘परम पद’ में मधु का स्थायी उत्स है। यह ‘मधु’ देवताओं को भी आनंदित करने बाला है। इस श्लिष्ट पद का जो भी अर्थ किया जाये पर वह हर स्थिति में परमानंद का वाचक है। जिसके लिए देवता सहित समस्त प्राणी अभिलाषी भी रहते हैं और प्रयत्नशील भी। इसलिए उक्त लोक की प्राप्ति की कामना सभी करते हैं। उसी मंत्र में वहाँ पुण्य शाली लोगों का, तृप्ति अनुभव करते हुए उल्लेख भी हुआ है।
            विष्णु विस्तीर्ण, व्यापक और अप्रतिहत गति वाले हैं। ‘उरुगाय’ और ‘उरुक्रम’ आदि पद इस तथ्य के पोषक हैं। ‘उरुगाय’ का अर्थ आचार्य सायण द्वारा ‘महज्जनों द्वारा स्तूयमान’ अथवा ‘प्रभूत तया स्तूयमान’करने से भी विष्णु की महिमा विखंडित नहीं होती। डाँ. यदुनंदन मिश्र का कहना है कि इस पद का अर्थ ‘विस्तीर्ण गति वाला’ करने के लिए हम इस लिए आग्रहवान् हैं। क्योंकि उन्हें ‘सभी लोकों में संचरण करने वाला’ कहा गया है। उनके पद-क्रम इतने सुदीर्घ होते हैं कि वे अपने तीन पाद-प्रक्षेपों से ही तीनों लोकों को नाप लेते हैं।
                        श्री हरि विष्णु के तीन पद यदि सृष्टि करते हैं, स्थापन करते हैं, धारण करते हैं। तो वहीं पर आश्रित जनों का पालन-पोषण भी किया करते हैं। लोगों को अपना भोग्य अन्नादि उन्हीं तीन पद-क्रमों के प्रसाद स्वरूप प्राप्त होता है। जिससे कि वे परम तृप्ति का अनुभव किया करते हैं। जो लोग विष्णु की स्तुति करते हैं, श्री हरि उनका सर्वविध कल्याण करते हैं। क्योंकि उनके स्तवनादि कर्म से उसे परम स्फूर्ति मिलती है। इस प्रकार स्फूर्ति-प्रदायिनी स्तुति विष्णु तक पहुँचा पाने के लिये सभी लालायित रहते हैं। श्री हरि अखिल विश्व के पालक एवं वरिष्ठ दाता हैं।
                     श्री हरि विष्णु के गुणों में भी त्रयात्मकता परिलक्षित होती है। वे तीन पद-क्रम वाले, तीन प्रकार की गति करने वाले, तीनों लोकों को नाप लेने वाले और लोकत्रय के धारक हैं। इसी प्रकार वह ‘त्रिधातु’अर्थात् सत्, रज और तम का समीकृत रूप अथवा पृथ्वी, जल और तेज से युक्त भी हैं। श्री हरि विष्णु पार्थिव लोकों का निर्माण और परम विस्तृत अन्तरिक्ष आदि लोकों का प्रस्थापन करने वाले हैं। वे स्वनिर्मित लोकों में तीन प्रकार की गति करने वाले हैं। उनकी ये तीन गतियाँ उद्भव, स्थिति और विलय की प्रतीक हैं। 
           श्री नारायण इस प्रकार जड़-जंगम सभी के निर्माता भी हैं, पालक भी और विनाशक भी। वे 'लोकत्रय का अकेला धारक' हैं। वे अपने तीन पाद-प्रक्षेपों से अकेले ही तीनों लोकों को नाप लेते हैं। लोकत्रय को नाप लेने से भी यह फलित होता है कि लोकत्रय अर्थात् वहाँ के समग्र प्राणी उनके पूर्ण नियंत्रण में हैं। विष्णु भ्रूण-रक्षक भी हैं। गर्भस्थ बीज की रक्षा के लिए और सुन्दर बालक की उत्पत्ति के लिए विष्णु की प्रार्थना की जाती है। उनके पालक स्वरूप पर स्पष्ट बल देने के कारण ऋग्वेद में अहोरात्र अग्नि रूप में भी उन्हें 'विष्णुर्गोपा परमं पाति..'अर्थात् सब के रक्षक-पालक कहा गया है। आचार्य सायण ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के पच्चीसवें सूक्त के बारहवें मंत्र की व्याख्या में भी विष्णु को स्पष्ट रूप से 'पालन से युक्त' मानते हैं।....इसलिए समग्र परिप्रेक्ष्य में ऋग्वेद में श्री हरि विष्णु को परम हितैषी कहा गया है।
           श्री विष्णु की आकृति से सम्बन्धित स्तुतिपरक एक श्लोक अति प्रसिद्ध है:-
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्धनाभ सुरेशम्।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघ वर्णं शुभांगम्।।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
            भावार्थ - जिनकी आकृति अतिशय शांत है और जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं। जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं। जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है। अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं और जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं। जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं और जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं। ऐसे लक्ष्मीपति, कमल नेत्र भगवान श्री विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।
                भगवन श्री नारायण के अवतार श्री राम का भी मनमोहक छवि है। भगवान राम का नाम आते ही उनकी एक धुंधली सी छवि हमारे मन में बन जाती है। हम भगवन श्री राम के मनोहारी छवि की कल्पना करते ह और उनके श्री चरणों में ध्यान लगाते है। इन सब की हम हृदय में कल्पना करते हैं और आत्म विभोर होते है। परन्तु रामायण में ब्रह्मर्षि वाल्मीकि ने भगवान राम के मानव शरीर को जो वर्णन किया है। उसको पढ़कर आपने मन में बनी भगवान राम की धुंधली छवि बिल्कुल साफ हो जाएगी। रामायण के अनुसार भगवान राम की लंबाई छह फिट के करीब थी।
                   भगवान राम को त्रिशीर्षवान के नाम से भी जाना जाता है। रामायण के अनुसार इसका मतलब सिर में तीन आवृत होता है। तीन लक्षणों से युक्त होना भी इसका अर्थ होता है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम के केश लंबे थे। भगवान राम की सुंदरता को वाल्मीकि ने शुभानन के रुप प्रयुक्त किया। राम के मुख की कोमलता और दिव्य  सुंदरता को व्यक्त करने के लिए चेहरे की उपमा पूर्णिमा की चंद्र ज्योत्सना और बाल चंद्र से गई है। अवध बिहारी की आंखें कमल की तरह विशाल थी। आंखों के कोणों के ताम्र रंग को ताम्राक्ष और लोहिताश के रूप में व्यक्त किया गया है। भगवान राम को महा नासिका वाला भी कहा गया है। नासिका की महत्ता से अभिप्राय उन्नत और दीर्घ नासिका है।
                           श्री राम के कानों के लिए टीकाकारों ने चतुर्दशसमद्वन्द और दश वृहत् का प्रयोग किया है।  जिसका सरल अर्थ होता है कानों का सम और बड़ा होना। वहीं वाल्मीकि ने उनके कानों के लिए शुभ कुंडलों का प्रयोग किया था। भगवान राम के हाथ के अंगूठे में चारों वेदों की प्राप्ति सूचक रेखा थी, जिससे उन्हें चतुष्फल कहा जाता है। इनका उदर त्रिषुचोन्नत  विशेषण के अनुसार उन्नत और त्रिवली विशेषण के अनुसार तीन रेखाओं से युक्त था। श्री राम के सम और कमल के समान चरणों के लिए टीकाकारों ने चतुर्दशसमद्वन्द्व और दशपदम विश्लेषण का प्रयोग किया है।
                     अब हम श्री हरि के कृष्णा अवतार की चर्चा करते है। राधा वल्लभ सरकार की सुन्दरता के क्या कहने। गोपी जन वल्लभ गोकुल प्राण आधार की छवि की तुलना किस से की जाए। श्री माधव सरकार के बारे में कवि विद्धापति कहते है:-
माधव ,कत तोर करब बड़ाई,
उपमा तोहर कहब ककरा हम,
कहितहु अधिक लजाई ।
जौं श्रीखंड सौरभ अति दुर्लभ,
तौं पुनि काठ कठोर,
जौं जगदीश निसाकर,
तौं पुनि एकहिं पच्छ इजोर।
मणि समान औरो नहिं दोसर,
तिनकर पाथर नाम ,
कनक कदलि छोट लज्जित,
भय रह की कहु ठामहि ठाम।
तोहर सरिस एक तोंहे माधव,
मन होंइछ अनुमान,
सज्जन जन सों नेह कठिन थिक,
कवि विद्धापति भान।
             श्री कृष्ण का सौंदर्य इंद्रधनुष की तरह है जिसमें प्रकाश के सभी रंग हैं। कृष्ण के सौंदर्य में बड़ी गहराई है। जैसे नदी में जहां गहराई होती है, वहां जल सांवला हो जाता है। यह सौंदर्य देह का ही सौंदर्य नहीं है, यह हमारा मतलब है। ख्याल मत लेना कि कृष्ण सांवले थे। रहे हों न रहे हों, यह बात बड़ी बात नहीं है। लेकिन सांवला हमारा प्रतीक है, इस बात का कि यह सौंदर्य शरीर का ही नहीं है। यह सौंदर्य मन का है, मन का ही नहीं है, यह सौंदर्य आत्मा का है। यह सौंदर्य इतना गहरा है, बस उस गहराई के कारण चेहरे पर सांवलापन है। छिछला नहीं है सौंदर्य, अनंत गहराई लिए है।
           यह सांवलिया का मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट, जिसमें सारे रंग समाएं हैं! मोर के पंखों से बनाया गया मुकुट इस बात का प्रतीक है कि कृष्ण में सारे रंग समाए हैं। महावीर में एक रंग है, बुद्ध में एक रंग है, राम में एक रंग है–कृष्ण में सब रंग हैं। इसलिए श्री नंद किशोर कृष्ण को पूर्णावतार कहा जाता है। इस जगत की कोई चीज कृष्ण को छोड़नी नहीं पड़ी है। सभी को आत्मसात कर लिया है। कृष्ण इंद्रधनुष हैं, जिसमें प्रकाश के सभी रंग हैं। कृष्ण त्यागी नहीं हैं, कृष्ण भोगी नहीं हैं। कृष्ण ऐसे त्यागी हैं, जो भोगी हैं। कृष्ण ऐसे भोगी हैं, जो त्यागी हैं। कृष्ण हिमालय नहीं भाग गए हैं, बाजार में हैं। युद्ध के मैदान में हैं और फिर भी कृष्ण के हृदय में हिमालय है। वही एकांत! वही शांति! अपूर्व सन्नाटा! कृष्ण अद्भुत अद्वैत हैं। चुना नहीं है कृष्ण ने कुछ, नारायण ने इस अवतार में  सभी रंगों को स्वीकार किया है, क्योंकि सभी रंग परमात्मा के हैं।
                श्री हरि का विग्रह ध्यान करने के लिए है, स्तवन करने के लिए है और स्नेह लगाने के लिए है। विग्रह खुद ठाकुर जी ही है और जब हम उनसे स्नेह का नाता जोड़ लेते है, ठाकुर जी हमारे हो जाते है। वे हमारे सामने साक्षात हो जाते है। ठाकुर जी का सौंदर्य अति मनोहारी है, जो मन को बरबस ही अपनी ओर खींच लेती है। ठाकुर जी के विग्रह की अर्चना करनी चाहिए और उनकी भक्ति में डूब जाना चाहिए। श्री हरि तो भक्त वत्सल है, हम जब उनके हो जाएंगे, वे भी हमारे हो जाएंगे। अब मैं आगे प्रेम का महत्व और प्रभु से प्रेम पर चर्चा करूंगा।
*************
प्रेम शब्द अपने आप में परिपूर्ण है, उसमें भी दिव्य प्रेम संसारी प्रेम से भिन्न है। प्रेम किस प्रकार का होना चाहिए, तो जिसमें माधुर्य भाव हो, प्रेम निश्चल होना चाहिए। 
                     हमारे शास्त्र कहते हैं कि श्री राधा रानी श्री कृष्ण से माधुर्य भाव से प्रेम करती हैं, ठीक वैसे ही जैसे प्रेमी व प्रेमिका । वही शास्त्र हमें इन्द्रियों पर नियंत्रण करने का उपदेश करते हैं। यह विरोधाभास क्यों? यदि श्री जुगल किशोर राधा-कृष्ण प्रिया-प्रियतम हो सकते हैं, तो उनका अनुकरण करके उसी भाँति संसारी व्यक्तियों से प्रेम करने में क्या दोष है? तो श्री जुगल किशोर का प्रेम अद्वितीय है। राधा कृष्ण के प्रेम को संसारी प्रेम के साथ तुलना करने से पहले हमें यह समझना होगा कि प्रेम क्या है? एवं श्री राधा रानी कौन है? श्री राधा रानी के प्रेम का आदर्श क्या है? तो सर्वप्रथम इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते हैं।
                      प्रेम एक दिव्य सत्व है। यह सर्व विदित है कि शेरनी का दूध स्वर्ण पात्र के अतिरिक्त किसी भी पात्र में रखने पर खट्टा हो जाता है । इसी प्रकार दिव्य प्रेम दिव्य अन्तःकरण में ही रह सकता है । दिव्य प्रेम में इतनी तीव्रता, इतनी ज्वाला होती है कि मायिक मन तथा शरीर इसको सहन नहीं कर सकते। यदि दिव्य प्रेम मायिक मन/ बुद्धि में दे दिया जाए तो मायिक शरीर चूर- चूर हो जायेगा और भस्म हो जायेगा एवं राख तक नहीं मिलेगी। अतः जो दिव्य प्रेम चाहते हैं, उन्हें पहले अन्तःकरण रूपी पात्र तैयार करना होगा जिसमें दिव्य प्रेम दिया जा सके। ऐसा करने के लिए दिव्य प्रेमाकांक्षी को तीन कामनाओं का त्याग करना होगा। 
            निम्नलिखित में से एक भी कामना यदि लेश मात्र भी मन में है, तो वह प्रेम के पथ का अधिकारी ही नहीं है। मृत्युलोक के सुखों की कामना, स्वर्गिक लोकों के सुखों की कामना एवं मोक्ष की कामना। साथ ही दिव्य प्रेमाकांक्षी को किसी ऐसे रसिक संत का सत्संग करना होगा, जिन्हें दिव्य प्रेम प्राप्त हो चुका हो ।जब कोई साधक इस अटूट विश्वास के साथ साधना करता है कि भगवान ही वास्तविक आनंद हैं, तो उसकी संसारी कामनाएं स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं और मुक्ति की कामना भी छूट जाती है । इस प्रकार उसका मन पूर्णतया शुद्ध हो जाता है | तब उसके आध्यात्मिक गुरु उसको -माया से छुटकारा दिला देते हैं। मन बुद्धि तथा इंद्रियों को दिव्य बना देते हैं, एवं
दिव्य प्रेम को दान करते हैं।
            और तब साधक परमानंद प्राप्त करता है तथा भगवत सेवा की भावना ही उसके मन में रहती है। यह दिव्य प्रेम की पहली सीढ़ी है। यद्यपि साधक भुक्ति तथा मुक्ति की कामनाओं को त्याग कर ही दिव्य प्रेम प्राप्त करता है। तथापि भगवत प्राप्ति के बाद भगवान का रसास्वादन पांचों इंद्रियों से करने की इच्छा जरूर रहती है। दूसरे शब्दों में कहें कि वह भगवान का स्पर्श, शब्द ,रूप, रस, गंध का आस्वादन अपने सुख के लिए करना चाहता है। राधा रानी के प्रेम के अनुसार यह भी निष्काम प्रेम नहीं है । दिव्य प्रेम के कुल आठ स्तर होते हैं । प्रेम प्राप्ति के बाद प्रेम के सात स्तर और होते हैं, जो कि रस एवं अंतरंगता में उत्तरोत्तर अधिक होते है। प्रेम ,स्नेह, मान, प्रणय, राग ,अनुराग,भावावेश एवं महाभाव। यह दिव्य प्रेम के कुल आठ स्तर है, जहां से गुजर कर प्राणी सिद्ध हो जाता है। क्रमशः प्रत्येक स्तर पर स्वसुख वासना कम होती जाती है, तथा श्री कृष्ण को सुख देने की भावना प्रबल होती जाती है।
         दास्य भाव के साधक प्रेमा भक्ति तक पहुंचते हैं। साख्य भाव के साधक स्नेह भक्ति तक। वात्सल्य भाव के साधक अनुराग भक्ति तक तथा माधुर्य भाव वाली गोपियाँ महाभाव तक पहुंचती हैं। सेवा भावना तथा प्रेमास्द को सुख देने की तीव्र लालसा के आधार पर साधक उच्चतम स्तर का प्रेम प्राप्त कर सकता है। प्रेम के सातवें स्तर भावावेश में ही साधक को श्री कृष्ण का अनंत आनंद एवं नित्य नवायमान आनंद प्राप्त होने लगता है। उनको श्री कृष्ण के लेश मात्र कष्ट से अपार कष्ट पहुंचने लगता है तथा श्रीकृष्ण को थोड़ा सा सुख मिलने पर उन्हें अपार हर्ष होता है।
                          इसके ऊपर महाभाव के स्तर पर यदि साधक को दारुण दुख मिलने से श्रीकृष्ण को सुख मिलता है, तो साधक उसको अपने सुख का स्रोत मानता है। इसी प्रकार यदि साधक के सुख का स्रोत श्रीकृष्ण को सुख नहीं पहुंचाता है, तो वह उसके असह्य दुख का कारण बन जाता है। गोपियों के श्री कृष्ण प्रेम की एक झलक श्रीमद भागवत महा पुराण में देखिए:-
अटति यद् भवानह्नि कानने, त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्।कुटिल कुन्तलं च श्रीमुखं च ते, जड़ उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम्। 
               गौ चारण के उपरांत सायंकाल को वन से लौटते हुए श्रीकृष्ण के दर्शन करती हुई गोपिकाएं कहती है। श्यामसुंदर ! जब तुम सुबह गायों को चराने जाते हो तो तुम्हारी दिव्य छवि को निहार कर हम गोपिकाएं तुम्हारे दर्शन की प्यास को शांत करती हैं। तुम्हारी उस अति सुंदर दिव्य छवि को मन में बसा कर हम गोपिकाएं किसी प्रकार दिन व्यतीत करती हैं, यह किस भांति वर्णन करूं । गौचारण के उपरांत तुम्हारे वन से लौटने वाली छवि के दर्शन की लालसा में एक-एक क्षण युग के समान व्यतीत होता है । जब तुम सायंकाल को वापस आते हो तो हम तुम्हारे अत्यंत मनोहर मुख कमल व घुँघराली अलकावली का रसपान करते नहीं अघाती । किंतु हमें ब्रह्मा पर क्रोध आता है कि वह इतना मूर्ख है कि पूरे शरीर में केवल दो ही आंखें बनाई और उन आँखों पर पलक बना दी। जो कि लगातार झपकती है।  ब्रह्मा ने इस बात पर विचार ही नहीं किया कि ये पलकें तुम्हारे दर्शनों का सुख प्राप्त करने में बाधा हैं ।“ गोपियों के अतिशय प्रेम की इस अवस्था की कल्पना कौन कर सकता है ।
           सातवें स्तर भावावेश व आठवें स्तर महाभाव तक केवल वे साधक पहुंच सकते हैं। जो श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम और श्री राधा रानी को अपनी स्वामिनी मानते हैं । उन भक्तों को गोपी कहा जाता है । गोपियों की समस्त क्रियाएं केवल अपने प्रिया-प्रियतम को सुख देने के लिए ही होती हैं। उनका प्रेम, भक्ति, ज्ञान, धर्म व सुख केवल श्री राधा कृष्ण को सुख पहुंचाने तक ही सीमित है। इसलिए हजारों गोपियाँ श्री राधा सहित श्री कृष्ण को ही अपना प्रियतम मानती है। फिर भी उनमें कभी लोलुपता, ईर्ष्या, विवाद उत्पन्न नहीं हुआ। जब गोपियों के प्रेम की यह अवस्था है, तो श्री राधा रानी, जो कि प्रेम तत्व का सार हैं। उनके प्रेम का वर्णन कौन कर सकता है। प्रेम के उच्चतम स्तर महाभाव के भी दो प्रकार होते हैं,” रूढ़ महाभाव" यहां तक केवल अंतरंग गोपी ही यहां तक पहुंच सकती है।
                     "अधिरूढ़ महाभाव" यहां तक केवल श्री कृष्ण ही पहुंच सकते हैं । अधिरूढ़ महाभाव के भी दो स्तर होते हैं; मोदन एवं मादन। जैसा कि श्री रूप गोस्वामी जी ने उज्ज्वल नीलमणि में कहा है:-
सर्व भावोद्गमोल्लासी मादनोऽयं परात्परः । 
राजते ह्लादिनी सारो राधायामेव यः सदा ॥
"इनमें मादन उच्चतम है, जहां केवल श्री राधा रानी ही पहुंच सकती हैं ।"श्री राधा रानी" का प्रेम इतना गूढ़ है कि इसकी निःस्वार्थता का अनुमान ब्रह्मा शंकर आदि भी नहीं लगा सकते। शंकर जी गोपी बनकर इस प्रेम को प्राप्त करने आए । ब्रह्मा जी ने कहा, "षष्ठिवर्ष सहस्त्राणि मया तप्तं तपः पुरा । नंदगोपब्रजस्त्रीणां पादरेणुपलब्धये। तथानि न मया प्राप्तास्तासां वै पादरेणवः ॥"
                     संत शिरोमणि नारद जी ने भी चरण धूलि देने से मना कर दिया। “मैंने साठ हजार वर्षों तक तपस्या सिर्फ गोपियों की चरण धूलि पाने के लिए की । तो भी गोपियों की चरण धूलि प्राप्त नहीं कर सका ।” गोपियाँ निष्काम प्रेम का प्रतीक हैं । अब प्रश्न का उत्तर पाने से पहले आइए, गोपियों के प्रेम को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं और उस प्रेम की तुलना अन्य स्तरों से करते हैं । एक बार श्री कृष्ण ने सिर में असहनीय पीड़ा का अभिनय किया। श्री नटवर नागर दर्द से कराहने और तड़पने लगे। कई उपचार के बाद भी आराम नहीं मिला। तभी वहां पर देवर्षि नारद जी पहुंच गए। तथा दर्द की औषधि कहाँ मिलेगी, इसकी जानकारी श्रीकृष्ण से ही प्राप्त की । 
                       श्री कृष्ण ने कहा कि जो मुझे अत्यधिक प्रेम करता हो उसकी चरण धूलि ही इसकी औषधि है । मैं उसे सिर पर लगा लूंगा तो दर्द का निवारण होगा । नारद जी सभी रानियों से चरण धूलि माँगी परंतु श्री सरकार की सभी रानियों ने नरक के भय से अपने पति को चरण धूलि देने से मना कर दिया । संत शिरोमणि देवर्षि नारद जी ने भी चरण धूलि नहीं दी ।नारद जी प्रभु के सभी लोकों में सभी भक्तों के पास गए। परंतु सभी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि हम अपना प्राण उनको दे सकते हैं। परंतु उनके सर पर लगाने के लिए चरण धूलि कदापि नहीं दे सकते। अंततः श्रीकृष्ण ने उनको ब्रज में गोपियों के पास जाने की सलाह दी ।
                नारद जी गोपियों के पास गए और सारा वृतांत सुनाया । सुनते ही सभी गोपिकाओं ने अपने चरण फैला दिये और बोलीं ," नारद जी! एक क्षण भी नष्ट मत करिये । जल्दी से हमारी चरण धूलि लेकर जाइये । नारद जी आश्चर्यचकित थे। उन्होंने गोपियों से पूछा कि तुम जानती नहीं कि श्री कृष्ण कौन हैं और उनको सिर पर लगाने के लिए चरण धूलि देने का परिणाम क्या होगा ? गोपियों ने कहा, नारद जी यह प्रश्न आप बाद में पूछिएगा,  अभी आप तुरंत जाइये और हम सब के प्रियतम की पीड़ा का निवारण कीजिये । आप यही कहना चाहते हैं कि वे भगवान हैं और उन्हें चरण धूलि देने से हम गोपिकाओं को नरक की प्राप्ति होगी।
                                 यदि अपने प्रेमास्पद के सुख के लिये हमें नरक की यातनायें भोगनी पड़े। तो हम भोग लेंगे लेकिन प्रियतम तो स्वस्थ हो जायेंगे"। नारद जी गोपी प्रेम का प्रत्यक्ष प्रमाण पाकर नतमस्तक हो गये । गोपियां इतनी निष्काम हैं !! लोग नरक की यातनाओं से डरते हैं ,परंतु गोपियां तो श्रीकृष्ण के सुख के लिए, श्री सरकार के लिए नरक तक स्वीकार करने को तत्पर हैं। नारद जी ने पहले उन गोपिकाओं का चरण रज लेकर अपने माथे पर लगाई फिर द्वारिका पहुंचे। जब रानियों ने गोपियों के निष्काम प्रेम की कथा सुनी, तब उन्हें गोपियों के प्रति श्री कृष्ण के असीम अनुराग का रहस्य ज्ञात हुआ ।
                     दूसरा वृतांत है कि एक बार श्री कृष्ण अपनी रानियों के साथ गंगा जी में स्नान करने सिद्धाश्रम गए। संयोगवश वहाँ श्री राधा रानी भी उसी समय अपनी हजारों सखियों के साथ गंगा स्नान करने पहुंची। रुक्मिणी जी ने श्री राधा रानी के अद्भुत सौंदर्य के बारे में सुना था। जब उन्हें यह पता चला तो वे राधा रानी से मिलने के लिए उत्सुक होने लगीं । उन्होंने श्री राधा रानी जु सरकार को अपने परिसर में आमंत्रित किया। जिसे श्री राधा रानी ने स्वीकार कर लिया। जैसे ही श्री राधा रानी ने रुक्मिणी जी के परिसर में प्रवेश किया, तो सभी रानियां उनके रूप माधुर्य तथा उस माधुर्य की आभा को देखकर स्तब्ध रह गईं। उन्होंने सहर्ष श्री राधा रानी तथा सखियों का स्वागत किया । 
                 तब रुक्मिणी जी ने श्री राधा रानी से एक प्रश्न किया।" सभी रानियां तथा गोपियां श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम मानकर प्रेम करती हैं। क्या तुम्हें उनसे ईर्ष्या नहीं होती?” श्री राधा रानी मुसकुराई तथा बड़ा ही सुंदर उत्तर दिया:-
चन्द्रो यथैको बहवश्चकोराः, सूर्यो यथैको बहवः दृशस्युः ।श्री कृष्ण चन्द्रो भगवाँस्थैको, भक्ता भगिन्यो बहवो वयं च ॥
                    यदि एक चकोर चंद्रमा पर अपना अधिकार कर ले तो बाकी सभी चकोर तो मर जायेंगे। मेरी प्यारी बहनों! चंद्रमा तो केवल एक ही है, परंतु चकोर तो बहुत हैं। कल्पना कीजिए कि यदि एक चकोर चंद्रमा पर अपना अधिकार कर ले तो बाकी सभी चकोर तो मर जायेंगे । इसी प्रकार सूर्य एक है और हम सभी उसी के प्रकाश से दृष्टि पाते हैं। यदि कोई एक सूर्य पर अधिकार कर ले तो बाकी सब नेत्रहीन हो जाएंगे। संक्षेप में कहें, श्री कृष्ण ही प्रेम तत्व हैं । यदि मैं उन पर अपना एकाधिकार कर लूंगी तो अन्य जीव उनके प्रेम से वंचित रह जायेंगे। दूसरी बात यह है कि मेरे श्याम सुंदर अन्य जीवों से प्रेम करके सुख प्राप्त करते हैं, तो मुझे कोई आपत्ति क्यों होगी? “इन उदाहरणों से अब आप यह समझ गए होंगे कि मायिक प्रेम की तुलना श्री राधा रानी सरकार एवं गोपियों के प्रेम से नहीं की जा सकती। यहां तक कि दोनों एक क्षेत्र के भी नहीं है, तो तुलना करना नितांत मूर्खता का द्योतक ही- है। संसार में जीव स्वार्थ से ही प्रेम करता है । इसलिये प्रेम का भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक कामनाओं से परे होना, जीव की कल्पना से परे है । 
              हमारा अनुभव मायिक क्षेत्र तक सीमित है, अतः हम दिव्य प्रेम को भी उसी पैमाने से नापते हैं। इसलिए हम दोनों प्रेम की तुलना करने की चेष्टा करते हैं। मायिक  प्रेम का आधार स्वसुख है जब कि श्री राधा रानी सरकार जु के प्रेम में स्वसुख वासना की गंध भी नहीं है। मायिक प्रेम को काम या राग कहते हैं, जिसका आधार केवल और केवल स्वार्थ है। जबकि दिव्य प्रेम स्वार्थ रहित होता है, जिसमें सिर्फ देना और देना ही होता है। दिव्य प्रेम का माप दण्ड यह है कि:-
सर्वथा ध्वसरहितं सत्यपि ध्वसं कारणे ।
                "प्रेम के समाप्त होने का कारण हो, तो भी वह समाप्त नहीं हो, तो वह प्रेम है।" "तस्सुखसुखित्वं" अपने प्रेमास्पद के सुख में सुखी रहना। हमें दिव्य प्रेम का कोई अनुमान नहीं है, इसलिए हम अपने स्वार्थ सिद्धि करने के आधार पर हुए राग को ही प्रेम मान लेते हैं। आइए जानते हैं कि मायिक प्रेम तथा दिव्य प्रेम में अंतर। काम वासना के लिए किया गया प्रेम सीमित मात्रा का होता है और सीमित काल के लिये होता है। उस के बाद वह स्वतः ही समाप्त हो जाता है । जबकि दिव्य प्रेम हर क्षण प्रेम सुधा से भरा होता है, तथा अनंत काल के लिये होता है । कामना की सफलता इंद्रियों के सुख पर निर्भर होती है ।जबकि प्रेम की सफलता प्रेमास्पद के सुखी होने पर निर्भर होती है । 
                 काम से इंद्रियों की क्षणिक तृप्ति होती है और इसका अंतिम परिणाम दुख ही होता है ।प्रेम में कभी तृप्ति नहीं होती, फिर भी निरंतर आनंद मिलता है । काम जड़ होता है जबकि प्रेम चेतन और दिव्य जो बढ़ता ही जाता है । काम वियोग होने पर घटता जाता है और एक दिन समाप्त हो जाता है । प्रेम वियोग होने पर भी दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जाता है और कभी समाप्त नहीं होता । काम की पराकाष्ठा आत्म तृप्ति है जबकि प्रेम की पराकाष्ठा में आत्म विस्मृति होती है । इस संदर्भ में आपको मैं एक वृतांत सुनाता हूं:-
                    लैला-मजनु के प्रेम से एवं उनके नाम से संसार का प्रत्येक व्यक्ति परिचित होगा। लेकिन दोनों के रुप सौंदर्य में कोई समानता नहीं थी। लैला जहां काली- कलुटी थी, वही मजनु अत्यंत रूपवान था। परन्तु दोनों में प्रेम था और वह भी दिव्य। जब मजनु लैला के वियोग में रेगिस्तान में भटक रहा था। तब वृंदावन में श्री बांके बिहारी ने राधा किशोरी जु को कहा:-देखो, दिव्य प्रेमी जा रहा है। परन्तु श्री राधा रानी जु को विश्वास नहीं हुआ, तब श्री राधा प्राण वल्लभ ने लैला का रुप बनाया और रेगिस्तान में पहुंच गए। वे मजनु के करीब पहुंचे और लैला के स्वर में बोले:- मजनु! देखो, मैं तुम्हारी लैला आ गई।
                      परन्तु मजनु तो उनसे दूर भागने लगा। इस पर लैला बने माधव ने कहा कि तुम दूर क्यों भाग रहे हो? मैं तो तुम्हारी ही लैला हूं। इसपर मजनु ने बहुत ही मार्मिक उत्तर दिया था, जो हम संसारियों के लिए प्रेरणा लेने योग्य है। मजनु ने लैला बने श्री माधव को कहा था कि तुम मेरी लैला नहीं हो सकती। मेरी लैला जब मेरे करीब आती है, मेरे हृदय में स्पंदन होने लगता है। तुम जब मेरे करीब आई, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अतः तुम मेरी लैला नहीं हो सकती। प्रेम की दिव्यता ऐसी होती है, जो पूर्ण निष्काम होता है।
                  गोपियों का प्रेम, भक्ति, ज्ञान, धर्म व सुख भी तो केवल श्री राधा कृष्ण जुगल सरकार को सुखी करने के लिये ही है। काम का उद्देश्य इन्द्रिय सुख है, जबकि दिव्य प्रेम का उद्देश्य ही श्री कृष्ण का सुख। भक्त श्री कृष्ण प्रेम में समस्त सामाजिक व वैदिक बंधन, भौतिक सुखों, शिष्टाचार, धैर्य, स्वसुख का त्याग कर देता है और श्री कृष्ण भजन में निमज्जित रहता है। अतः काम और प्रेम में बहुत बड़ा अंतर है। काम घोर अंधकार है तथा प्रेम निर्मल प्रकाश है। "श्री राधा रानी के प्रेम का अनुमान ब्रह्मा शंकर तक नहीं लगा सकते। अतः काम की तुलना राधा रानी के शुद्ध प्रेम से करना हास्यास्पद है।
                       हमारे शास्त्र एवं वेद इस संसारी दुखों से ही छुटकारा दिलाने के लिये हमारे कामेंद्रियों को वश में रखने का निर्देश करते हैं। संसार में परमानंद का लवलेश भी नहीं है । हम सुख प्राप्त करने के उद्देश्य से संसारी व्यक्तियों एवं वस्तुओं से राग करते हैं । जब हमें वहां सुख नहीं प्राप्त होता तो हम दुखी होते हैं। उस दुख को हम क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, अहंकार आदि के रूप में व्यक्त करते हैं, जिससे दुख और बढ़ जाता है। अतः हमारी बुद्धिमत्ता इसी में है कि अपने मन को भगवान श्री हरि के चरण कमल में लगा दें और शांति व अनंत आनंद को प्राप्त कर लें।
                    जीवन का सार भी तो यही है कि जीव रुपी आत्मा, यानी कि हम और ईश्वर रुपी परमात्मा का एकाकार हो जाए। मैं फिर कहता हूं कि हम संसार को त्याग नहीं करें, परन्तु संसार के सुख-भोग में आसक्त भी नहीं हो। हम अपने जीवन को संवार ले, जो नारायण ने अतिशय कृपा करके हमें मानव रुपी आवरण में मिला है। हम संसार के सभी कर्म-सभी भोगो का स्वाद लें, परन्तु अपने जीवन स्तर को सात्विक रखें। आगे अंतिम शब्दों में इस "भक्ति की धारा-संभवा एकाकार विश्वरूप स्वरूप का उपसंहार लिखूंगा और श्री हरि की स्तुति एवं धर्म की सार्थकता पर चर्चा करूंगा।
*************
अब इस पुस्तक "भक्ति की धारा-संभवा एकाकार विश्वरूप स्वरूप का समापन करता हूं। अब कहूं तो कैसे? न तो मेरी वाणी में ही उतनी सामर्थ्य है और न ही लेखनी इतनी सामर्थ्य वान है कि श्री हरि के गुणों का गान कर सकूं। न ही इतनी सामर्थ्य है कि भगवान कमल नयन के भक्तों के चरित्र को ही अंकित कर सकूं। सच ही तो है:-
"हरि अनंत हरि कथा अनंता।
कहहिं सुनहिं बहुविध सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए।
कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥"
श्री हरि विष्णु अनंत हैं उनका कोई पार नहीं पा सकता और इसी प्रकार उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से सुनते और सुनाते हैं। श्री रामचन्द्र जी के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते। फिर भी जो भी समझ में आया, अपनी लेखनी से लिखने का प्रयास किया है और यह उस सच्चिदानंद आनंद घन प्रभु की कृपा एवं प्रेरणा से ही किया है। 
                     जीवन छनिक है, इसका कोई भरोसा नहीं कि अगले पल साथ देगा या नहीं। पता नहीं सांसों की डोर कब टूट जाए और यह नाशवान शरीर कब साथ छोड़ जाए, पता ही नहीं। तो फिर यह अभिमान क्यों? फिर व्यर्थ का मोह किसलिये और इससे उत्पन्न संताप किसलिये? क्यों नहीं हम उस सर्वेश्वर श्री हरि, श्री नारायण, माधव चंद्र, श्री राम सरकार का भजन करते है। हमारा जीवन तभी सार्थक होगा, जब हम श्री नारायण के नामों का करतल ध्वनि के साथ कीर्तन करेंगे। श्री हरि के चरण कमलों में खुद को समर्पित कर देंगे। श्री हरि के नाम संकीर्तन से ही हमारा कल्याण होगा।
                अब मैं भगवान की स्तुति के साथ ही इस पुस्तक को विराम दूंगा। भगवान सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं सच्चिदानंद स्वरूप हैं। एकमात्र वे ही समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान आत्मा हैं। उनकी लीला अमोघ है। उनकी शक्ति और पराक्रम अनंत है। महर्षि व्यास जी ने 'श्रीमद भागवत' के महात्म्य तथा  प्रथम स्कंध के प्रथम अध्याय के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रुप में भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति इस प्रकार से की हैः-
सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः।।
'सच्चिदानंद भगवान श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं।  जो जगत की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय के हेतु तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक – इन तीनों प्रकार के तापो का नाश करने वाले हैं।
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि।।
          जिससे इस जगत का सर्जन, पोषण एवं विसर्जन होता है।  क्योंकि वह सभी सत्य रूप पदार्थों में अनुगत है और असत्य रुपी पदार्थों से पृथक है। जड़ नहीं, चेतन है; परतंत्र नहीं, स्वयं प्रकाश है। जो ब्रह्मा अथवा हिरण्य गर्भ नहीं, प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेद ज्ञान को दान किया है। जिसके सम्बन्ध में बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं। जैसे तेजोमय सूर्य रश्मियों में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है। वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत- स्वप्न-सुषुप्ति रूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान-सत्ता से सत्यवत् प्रतीत हो रही है। उस अपनी स्वयं प्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और माया कार्य से पूर्णतः मुक्त रहने वाले सत्य रूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं।
                        जब मृत्यु की प्रतीक्षा रत उत्तरानन्दन राजा परीक्षित ने भगवत स्वरूप मुनिवर शुकदेव जी से सृष्टि विषयक प्रश्न पूछा कि अनंत शक्ति परमात्मा कैसे सृष्टि की उत्पत्ति, रक्षा एवं संहार करते हैं और वे किन-किन शक्तियों का आश्रय लेकर अपने-आपको ही खिलौने बनाकर खेलते हैं? इस प्रकार परीक्षित द्वारा भगवान की लीलाओं को जानने की जिज्ञासा प्रकट करने पर वेद और ब्रह्मतत्त्व के पूर्ण मर्मज्ञ शुकदेव जी लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की मंगलाचरण के रूप में इस प्रकार से स्तुति करते हैं-
               'उन पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों में मेरे कोटि-कोटि प्रणाम हैं। जो संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करने के लिए सत्त्व, रज तथा तमोगुण रूप तीन शक्तियों को स्वीकार कर ब्रह्मा, विष्णु और शंकर का रूप धारण करते हैं। जो समस्त चर-अचर प्राणियों के हृदय में अंतर्यामी रूप से विराजमान हैं। जिनका स्वरूप और उसकी उपलब्धि का मार्ग बुद्धि के विषय नहीं हैं। जो स्वयं अनंत हैं, तथा जिनकी महिमा भी अनंत है। हम पुनः बार-बार उनके चरणों में नमस्कार करते हैं। जो सत्पुरुषों का दुःख मिटाकर उन्हें अपने प्रेम का दान करते हैं। दुष्टों की सांसारिक बढ़ती हुई शक्ति को रोककर उन्हें मुक्ति देते हैं। तथा जो लोग परमहंस आश्रम में स्थित हैं, उन्हें उनकी भी अभीष्ट वस्तु का दान करते हैं। 
              क्योंकि चर-अचर समस्त प्राणी उन्हीं की मूर्ति हैं, इसलिए किसी से भी उनका पक्षपात नहीं है। जो बड़े ही भक्त वत्सल हैं और हठपूर्वक भक्ति हीन साधन करने वाले लोग जिनकी छाया भी नहीं छू सकते। जिनके समान भी किसी का ऐश्वर्य नहीं है, फिर उससे अधिक तो हो ही कैसे सकता है। तथा ऐसे ऐश्वर्य से युक्त होकर जो निरन्तर ब्रह्म स्वरूप अपने धाम में विहार करते रहते हैं। उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। जिनका कीर्तन,  स्मरण, दर्शन, वंदन, श्रवण और पूजन जीवों के पापों को तत्काल नष्ट कर देता है। उन पुण्य कीर्ति भगवान श्रीकृष्ण को बार-बार नमस्कार है:-
विचक्षणा यच्चरणोपसादनात् संगं व्युदस्योभयतोऽन्तरात्मनः।
विन्दन्ति हि ब्रह्मगतिं गतक्लमास्तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः।।
तपस्विनो दानपरा यशस्विनो मनस्विनो मन्त्रविदः सुमंगलाः।
क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः।।
                विवेकी पुरुष जिनके चरण कमलों की शरण लेकर अपने हृदय से इस लोक और परलोक की आसक्ति निकाल डालते हैं और बिना किसी परिश्रम के ही ब्रह्म पद को प्राप्त कर लेते हैं। उन मंगलमय कीर्ति वाले भगवान श्रीकृष्ण को अनेक बार नमस्कार है। बड़े-बड़े तपस्वी, दानी, यशस्वी, मनस्वी, सदाचारी और मंत्र वेत्ता जब तक अपनी साधनाओं को तथा अपने-आपको उनके चरणों में समर्पित नहीं कर देते। तब तक उन्हें कल्याण की प्राप्ति नहीं होती। जिनके प्रति आत्मसमर्पण की ऐसी महिमा है, उन कल्याणमयी कीर्ति वाले भगवान को बार-बार नमस्कार है।
                 किरात, हूण, आंध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यमन और खस आदि नीच जातियाँ तथा दूसरे पापी जिनके शरणागत भक्तों की शरण ग्रहण करने से ही पवित्र हो जाते हैं। उन सर्वशक्तिमान भगवान को बार-बार नमस्कार है। वे ही भगवान ज्ञानियों के आत्मा हैं, भक्तों के स्वामी हैं एवं कर्मकाण्डियों के लिए वेद मूर्ति हैं। ब्रह्मा, शंकर आदि बड़े-बड़े देवता भी अपने शुद्ध हृदय से उनके स्वरूप का चिंतन करते और आश्चर्यचकित होकर देखते रहते हैं। वे मुझ पर अपने अनुग्रह की, कृपा प्रसाद की वर्षा करें।
                 जो समस्त सम्पत्तियों की स्वामिनी लक्ष्मी देवी के पति हैं, जो समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं फलदाता है, जो प्रजा के रक्षक हैं, जो सब के अंतर्यामी और समस्त लोकों के पालनकर्ता हैं। तथा पृथ्वी देवी के स्वामी हैं। जिन्होंने यदुवंश में प्रकट होकर अंधक, वृष्णि एवं यदुवंश के लोगों की रक्षा की है। तथा जो उन लोगों के एकमात्र आश्रय रहे हैं – वे भक्त वत्सल, संत जनों के सर्वस्व श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों। विद्वान पुरुष जिनके चरणकमलों के चिंतन रूप समाधि से शुद्ध हुई बुद्धि के द्वारा आत्म तत्त्व का साक्षात्कार करते हैं। तथा उनके दर्शन के अनंतर अपनी-अपनी मति और रुचि के अनुसार जिनके स्वरूप का वर्णन करते रहते हैं। वे प्रेम और मुक्ति को लुटाने वाले भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों। 
            जिन्होंने सृष्टि के समय ब्रह्मा के हृदय में पूर्वकाल की स्मृति जाग्रत करने के लिए ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी को प्रेरित किया और वे अपने अंगों के सहित वेद के रूप में उनके मुख से प्रकट हुई। वे ज्ञान के मूल कारण भगवान मुझ पर कृपा करें, मेरे हृदय में प्रकट हों। भगवान ही पंच महाभूतों से इन शरीरों का निर्माण करके इनमें जीव रूप से शयन करते हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों, पाँच प्राण और एक मन – इन सोलह कलाओं से युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयों का भोग करते हैं। वे सर्वभूतमय भगवान मेरी वाणी को अपने गुणों से अलंकृत कर दें। संत पुरुष जिनके मुख कमल से मकरंद के समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधा का पान करते रहते हैं। उन वासुदेवावतार सर्वज्ञ भगवान व्यास के चरणों में मेरा बार-बार नमस्कार है।
                        जो भक्तों के लिए वांक्षा कल्पतरु के समान है और जो अपने भक्तों के आधीन रहते है, वे कमल नयन मेरे ऊपर करुणा करें। जो नारायण अखिल सृष्टि की संरचना संकल्प मात्र से करते है और अपने कृपा दृष्टि से इसका संचालन करते है, वे श्री हरि हमें अपनी चरण में स्वीकार करें। जो श्री हरि गोपी प्राण वल्लभ है और श्री राधा किशोरी जु के सरकार है, वे माधव हम पर करुणा की बरसात करें। श्री हरि, अकारण ही करुणा करने बाले, नटवर नागर हमें अपना समझे। जो नारायण सदा अपने भक्तों के स्वामी है, अपनी दासता मुझे भी दे। पद्धनाभ श्री लक्ष्मी पति नारायण के चरण कमलों में नमस्कार करते हुए मैं अपनी लेखनी को विराम देता हूं।
:- जय सीता राम, सीता राम-सीता राम जै सीता राम।
  जय सीता राम, सीता राम-सीता राम, जै सीता राम।।

ऊँ श्री हरि
*************











समाप्त-:

 
 
 

9
रचनाएँ
भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुप
0.0
इस पुस्तक में धर्म और अधर्म के बारे में बताने की कोशिश की गई है। मानव जीवन का सत्य उद्देश्य क्या है, उसकी व्याख्या की गई है। मानव जीवन में भक्ति की महता को निरुपीत किया गया है। साथ ही नारायण और उनके भक्तो का मधुर संबंध दृष्टांत के द्वारा बतलाया गया है। मानव जीवन की दुविधा, उसकी उपलब्धि और जरुरतों का सचित्र चित्रण किया गया है। मदन मोहन "मैत्रेय
1

भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुुप

1 जून 2022
0
0
0

सबसे पहले तो मैं श्री गणेश की वंदना करता हूं। गौरी- महेश नंदन बिना विघ्न के मेरी इस रचना का पूर्ण करें। तत्पश्चात मैं वीणा धारनी शक्ति स्वरुपा जगदंबा शारदा की वंदना करता हूं। वे मुझे ज्ञान पुंज दे, जो

2

भक्ति की धारा-भक्त विशेष

3 जून 2022
0
0
0

जीवन तो ईश्वर प्रदत्त है, परन्तु हम जगत के प्राणी इसको अपना समझ बैठे है। हम इस शरीर को अपना समझ बैठे है, जो नाशवान है। पता नहीं कि कब यह शून्य हो जाये, कब शिथिल हो जाए। जैसे ही इसमें से आत्मा निकल जात

3

भक्त कथा अमृत

5 जून 2022
0
0
0

भक्ति की धारा प्रवाहित हो और उसमें भगवान के परम भक्तों की चर्चा नहीं हो, संभव ही नहीं। भक्तों के निर्मल चरित्र से हमें काफी कुछ सीखने-समझने का अवसर प्राप्त होता है। अब मैं आपको नारायण के ऐसे ही भक्त प

4

भक्त कथा अमृत

7 जून 2022
0
0
0

श्री बजरंग बली, अंजन सुत, पवन तनय वीर हनुमान की कथा भी इसी श्रेणी में आती है। महाबली हनुमान ग्यारहवें रुद्र है। बजरंग बली श्री राम के अनन्या-नन्य भक्त है। उनको राम नाम के अलावा जगत में कुछ भी तो प्रिय

5

भक्त कथा अमृत

9 जून 2022
0
0
0

भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा से हो गए, अन्यथा उनका नाम तो देवव्रत था। शांतनु और गंगा की आठवीं संतान और पिता के आज्ञाकारी। परशुराम शिष्य भीष्म साधारण नहीं थे, वे अजेय योद्धा थे। वे ऐसे वीर योद्धा थे कि उन्ह

6

भक्त कथा अमृत

13 जून 2022
0
0
0

नरसी मेहता महान कृष्ण भक्त थे. कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने उनको बावन बार साक्षात दर्शन दिए थे। नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़, गुजरात में हुआ था. इनका सम्पूर्ण जीवन भजन कीर्तन और कृष्ण की भक्ति में

7

भक्त कथा अमृत

17 जून 2022
0
0
0

धर्म की परिभाषा देना न तो सहज है और न ही सुलभ। परन्तु इसको सरल बनाते है संत। भगवान के भक्त ही हमें भगवान की ओर उन्मुख करते है। संत ही मानव जीवन के लिए जहाज रूपी साधन है, जो भवसागर रूपी संसार से पार लग

8

ईश्वर की अनुभूति

26 जून 2022
1
0
0

विलासिता क्या है? अतिशय गुढ प्रश्न है। क्योंकि यह अखिल संसार ही इसके पीछे अंधी दौड़ लगा रहा है। भला सुख-सुविधा और उपभोग की वस्तुएँ किस को पसंद नहीं। कौन नहीं चाहता कि वह अच्छा पहने, अच्छा खाए और अच्छी

9

ईश्वर के स्वरुप एवं भक्ति भाव-:

21 सितम्बर 2022
1
0
0

भगवान सगुन और निर्गुण दो भावना से पुजे जाते है। निर्गुण स्वरूप का कोई आकार-प्रकार नहीं होता, जबकि सगुन स्वरूप में नारायण की विग्रह की पुजा होती है। जो अवतार रुप में अन्यथा नारायण रुप में।

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए