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भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुुप

1 जून 2022

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सबसे पहले तो मैं श्री गणेश की वंदना करता हूं। गौरी- महेश नंदन बिना विघ्न के मेरी इस रचना का पूर्ण करें। तत्पश्चात मैं वीणा धारनी शक्ति स्वरुपा जगदंबा शारदा की वंदना करता हूं। वे मुझे ज्ञान पुंज दे, जो मैं इस रचना को पूर्ण कर सकूं-


सबसे पहले अपनी बात शुरु करें, उससे पहले भक्त और भगवान दोनों के भाव चित्रित होना जरूरी है। आप या हम ईश्वर की जिस रुप में आराधना करते है, ईश्वर उसको स्वीकार करते है। अगर हम ईश्वर को सगुन मानते है, तो उनका अकार है-प्रकार है, निर्गुण रुप में मानते है, तो वे ब्रह्म है। परन्तु ईश्वर की सत्ता तो है, अन्यथा इस अनंत कोटी ब्रह्मांड को संतुलित कौन करता है?

                             प्रश्न गूढ़ है-यथार्थ प्रश्न है और इसका जबाव यही होगा कि कोई तो शक्ति है। वही शक्ति ईश्वर है। जिनकी उपासना की जाती है-आराधना की जाती है। ईश्वर जो कि इस संसार का स्वर है, जड़ और चेतन में विराजमान है। फिर मानव मन ईश्वर के समीप जाना क्यों नहीं चाहता? प्रश्न स्वाभाविक ही है और इसका उत्तर है, भ्रम। मानव जो भी कहता है, करता है, उसे सर्वथा यही भ्रम रहता है कि उसने ही किया है, अन्यथा नहीं हो पाता। फिर परिस्थितियां भी ऐसी ही बनने लगती है कि मानव अहंकार के वशीभूत हो जाता है। उसे वास्तव में ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए थी, परन्तु ऐसा वह कर ही नहीं पाता। या यूं कहें कि उसका चंचल मन उसे ऐसा करने से रोकता है। तभी तो स्वार्थ के बाजार में मानवता निलाम हो जाती है। अहंकार का आडंबर बढने लगता है और इतना बढ जाता है कि मानव अपनी छाया ही नहीं ढूंढ पाता।

                        कहने की बात से पहले एक छोटा सा वृतांत की चर्चा कर लूं। एक बार श्री हरि विष्णु शेष शैया पर लेटे-लेटे एक भजन कर रहे थे। अब कहेंगे कि वे तो नारायण है, वे किसका भजन करेंगे। तो ऐसी बात नहीं है, भगवान भी अपने भक्तों का करतल ध्वनि से भजन करते है। वे अपने आश्रित को कभी भी भूलते ही नहीं। बस प्रभु का भजन चल रह रहा था, तभी ऋषि नारद वैकुंठ में पधारे। उन्होंने जैसे ही देखा कि नारायण भजन में तल्लीन है, वे आश्चर्य चकित हो गए। वे अपलक ही श्री हरि को निहारते रहे। परन्तु सर्वज्ञ प्रभु ने तो जैसे सुध ही नहीं ली। अब तो नारद जी का धैर्य जबाव देने लगा। उन्होंने जोर से वीणा और करतल बजा दी और नारायण...नारायण का सुस्वर उच्चारन करने लगे।

                              श्री हरि के भजन का सिलसिला थमा, उन्होंने करुणामय कमल नयन खोला और नारद को देखा। नारद को देखने के साथ ही उनके होंठों पर मुस्कान छा गई, वह मधुर मुस्कान, जिससे पूरा विश्व संचालित है। पूरे विश्व को मात्र संकल्प मात्र से बनाने बाले, संकल्प मात्र से मिटा देने बाले मुस्कान। प्रभु को इस प्रकार से मुस्कराते देख कर नारद से नहीं रहा गया। उन्होंने विष्णु भगवान से उनके इस मुस्कान का कारण पुछ ही लिया। परन्तु प्रभु ने नारद की बातों को जैसे अनसुना कर दिया। उन्होंने देवर्षि का स्वागत किया और आने का कारण पुछा। परन्तु देवर्षि, वे तो नारायण की ही वाणी है। भला वे नारायण की बातों में उलझ कैसे जाते? 

                        उनके हृदय कुंज में जो शंका उठी थी, उसका समाधान उन्हें चाहिए था। ऐसी बातें नहीं थी कि नारायण उनके मन में उठे हुए तूफान से अपरिचित थे। वे समझ रहे थे, परन्तु उनको तो देवर्षि के मुख से सुनना था। अतः नारद जी ने हरि से सीधा प्रश्न किया। प्रभु.....आप इस तरह से ध्यानस्थ होकर किसके भजन में तल्लीन थे? हरि ने बिना किसी छिपाव के बता दिया कि वे अपने भक्त का भजन कर रहे थे। नाम भी बता दिया, जगह भी बता दी। अब देवर्षि, उनको किस प्रकार से स्वीकार्य होता कि भू-लोक के इंसान का भजन नारायण करें। बात असह्य थी, तो नारद जी वैकुंठ से निकल कर भू-लोक पर आ गए। परन्तु भू-लोक पर आने पर उनके आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं रहा।

                  बात ही कुछ ऐसी थी, श्री हरि जिसका भजन कर रहे थे, वह किसान था। परन्तु उसमें एक खासियत थी, वह कृषि कार्य एवं गृहस्थी से जब समय बचता, नारायण नाम का रट लगा लेता। अब तो नारद जी बेचैन होने लगे, उनसे नहीं रहा गया। कहां तो एक से एक ऋषि मुनि है, जो निरंतर उस प्रभु करुणाकर के गुणों का सुस्वर गान करते है और कहां यह किसान। इसकी तो तुलना ही नहीं हो सकता। फिर क्या था, वे नारायण के सामने पहुंच गए और उन्होंने अपनी शंका हरि के सनमुख बता भी दी। कमल नयन ने उनकी बातें सुनी और जलता हुआ दीप उनके हाथ में थमा दिया। साथ ही नियम भी बता दिए कि न तो एक बूंद तेल टपके और न ही दीपक बुझे, जाओ त्रिभुवन घूम कर आओ।

                            जोगीश्वर का आदेश और देवर्षि अपनी यात्रा पर चल पड़े और जब यात्रा पूरी करके श्री हरि के पास वापस पहुंचे। कमल नयन तो पूर्ववत मुस्करा ही रहे थे। देवर्षि के आने पर उन्होंने सीधा सा प्रश्न किया, आपने त्रिभुवन भ्रमण के दौरान कितनी बार मेरे नाम का स्मरण किया? देवर्षि ने सहज ही उत्तर दिया कि एक बार भी नहीं, प्रभु मैं तो आपके नियमों में ही उलझा रहा। हृदय में भय बना रहा कि कहीं दीप न बुझ जाए, कहीं तेल की बुंदे न टपक जाए। बस श्री हरि अपने कोमल अधर से मुस्कान मिश्रित शब्दों को बोल पड़े। नारद, जो जीव संसार में रहकर, संसार के धर्म को निभा कर भी मुझे नहीं भूलता, उसका भजन नहीं करुं तो किसका करुं। मैं अपने भक्तों के अधीन हूं और उनके नाम जपता रहता हूं।

                     यथार्थ है! नारायण दयालु है, कृपालु है, करुणा के भंडार है। वे कोमल कमल नयन हमेशा ही हमें अपनाना चाहते है, परन्तु एक हम ही है जो उनका होना ही नहीं चाहते। हम भगवान के नामों को ध्यान करना तो दूर, अपने धर्म से भी दूर होते जा रहे है। फिर जीवन में व्याधियों के प्रहार से विकल हो रहे है। जीवन को समझ ही नहीं रहे, बस झुठी आशा-प्रत्याशा में जी रहे है। फिर जीवन स्थिर किस प्रकार से हो, मन शांत किस प्रकार से हो? हम तो अपने मुल स्वभाव से ही परिचित नहीं है, जिसे भक्ति रूपी धारा का निर्मल जल चाहिए। जीवन का वह अमूल्य सुधा चाहिए, जिसके बिना हम खंडित है। फिर ऐसा भी तो नहीं है कि भगवान संसार का निषेध करते है, वे तो कहते है कि संसार के धर्म निभाते हुए हमारा हो जाओ।

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हम भक्ति की धारा में प्रवाहित होने से पहले जीवन को तो समझ ले। हम यह तो समझ ले कि जीवन की सार्थकता किस में है। इसका उद्देश्य क्या है? तभी हम जीवन को सही से जी पाएंगे, जीवन का उत्सव मना पाएंगे। एक्चुली होता क्या है कि हम जीवन के बेतरतीब पन्नों में इस प्रकार से उलझ जाते है कि इसकी मौलिकता ही खतम हो जाती है। हमें जीवन को सही से मानना ही नहीं आता, जो कि अपेक्षित है। हम अपने स्वार्थ के जाले में इस कदर फंस जाते है कि दूसरे की भावना समझना ही नहीं चाहते। अपने स्वार्थ की पूर्ति करने के लिए दूसरे को उत्पीड़ित करने से तनिक भी नहीं हिचकते। फिर हम धर्म-अधर्म के तराजू को तौलने के लिए बैठते है। जबकि तुलसी दास जी ने स्पष्ट लिखा है।

परहित सरस धर्म नहीं भाई।

पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।

                           लेकिन हम जीवन के इस मूल तत्व को ही नहीं समझ पाते। फिर हम खुद ही व्यथित होते है और दूसरों को कहते है कि हम तो धर्म का ही पालन करने में विश्वास रखते है। इसलिये सबसे पहले तो हमें समझना होगा कि जीवन उन्मुक्त है। यह हमारे बंधन में रहने बाला नहीं, क्योंकि यह काल चक्र के साथ कदम से कदम मिला कर चलता है। तो फिर हम ईश्वर के प्रति समर्पित क्यों नहीं हो, जो पूर्ण सत्य है, शाश्वत है। अन्यथा, जो हम इकट्ठा कर रहे है, वह कंकर-पत्थर के अलावा कुछ भी नहीं है। क्यों? क्योंकि मानव जीवन की सार्थकता ही इसी में है कि वो इसको सही तरीके से आयोजित करें। तभी तो वह पूर्णता को प्राप्त करेगा। जीवन के मौलिक उद्देश्यों को समझ ले, तभी तो उसे सुख अनुभूति होगी।

                          अब धर्म क्या है? इसकी पूर्ण परिभाषा अभी तक कोई नहीं दे पाया है। कहने का तात्पर्य यही है कि जितने भी धर्माचार्य है, उन्होंने इस संदर्भ में अलग- अलग मंतब्य दिए है। परन्तु एक बात तो सभी ने एक स्वर में कही है कि मानव जीवन किस प्रकार का हो। मानव को मानवता का अनुकरण करना चाहिए और मानवता क्या है? मानवता है जीव जगत के प्रति दया, स्नेह, करुणा। जीव जगत में ईश्वर की शाश्वत शक्ति एवं स्वरूप की अनुभूति करना। भूखे को खाना खिलाना, नि: वस्त्र को वस्त्र देना एवं कमजोरों की सहायता करना। जीवन के रुप को तभी हम समझ सकते है, जब हम दूसरों के प्रति भी दया और करुणा रखेंगे।

                            इसी संदर्भ में हम आपको भक्त माल की एक छोटी सी कथा सुनाते है। देखिए, धर्मग्रंथ ईश्वर के चरित्र को दर्शाता है, तो भक्त माल भक्तों के जीवन को निरूपित करता है। वैसे यह कथा भागवत जी में भी वर्णित है। कथा है जड़ भरत जी की। जड़ भरत जी, स्वभाव से ही अवधुत। न तो अपमान की चिन्ता और न स्वमान की चाह। ऐसे में परिवार में निष्कृत जीवन जीते थे, परन्तु उन्हें इसकी भी चिन्ता नहीं थी। ऐसे में परिवार ने उन्हें खेत संभालने की जिम्मेदारी दे-दी। परन्तु वे कैसे अवधुत थे कि जब खेत में चिड़ियों का झुंड दाना चुंगने आया, उनके शब्द थे-

राम जी की चिड़ियां, राम जी का खेत।

खाओ री चिड़ियां भर-भर पेट।

                         ऐसे जड़ भरत जी से तंग आकर उनके भाई-भाभी ने मार-पीट कर घर से निकाल दिया। परन्तु उन्हें इस बात पर भी तनिक रोष नहीं हुआ। वे तो बस रमते-राम, जंगल की ओर निकल पड़े। जंगल में डाकुओं द्वारा पकड़ लिए गए और उनकी बलि देने की कोशिश हुई। अब ऐसे अवधुत की बलि आदि शक्ति जगदंबा, जगत माता किस प्रकार से स्वीकार करती। उन्होंने डाकुओं का संहार कर दिया। परन्तु इसका भी अंश प्रभाव नहीं हुआ उनपर। वहां से निकले, तो राजा नहुष के पालकी में जोत दिए गए। परन्तु इसकी भी ग्लानि उनको नहीं हुई। 

                वैसे तो जड़ भरत जी की कथा पूर्व जन्म से संबंधित है, परन्तु बात है सिर्फ जीव के प्रति दया की। इस कारण से उनके इस जीवन के प्रकरण के बारे में ही बतला रहा हूं। पालकी लिए चलते जड़ भरत जी जमीन को देखते जा रहे थे कि पांव के नीचे कोई जीव नहीं आ जाए। किसी जीव मात्र की हत्या उनके द्वारा न हो जाए। वे जब भी किसी जीव को देखते, कूद कर उसे पार करते। इससे राजा नहुष नाराज हुए, तब भरत जी ने उन्हें तत्व अज्ञात दिया था। जीव मात्र के नैतिक दायित्व से उनको अवगत करवाया था। उन्हें बतलाया था कि जीव मात्र ईश्वर का ही अभिन्न अंश है और उसका जीवन के प्रति धर्म है कि वह जीव मात्र से स्नेह रखे, उसपर करुणा बरसाए। आत्मा शाश्वत है और इसका कभी विनाश नहीं होता, तो फिर हम मानव का सही मूल्य क्यों न समझे।

                              जीवन का मूल स्वभाव क्या है? यह जानना बहुत ही जरूरी है। जीवन के प्रति हम सकारात्मक होंगे, तभी हमारा नैतिक स्वभाव जागृत होगा। जीवन के प्रति हम निर्मल होने लगेंगे। हम जब जीव जगत के प्रति उदार होंगे, प्रकृति के प्रति उदार होंगे। तभी तो जीव जगत, प्रकृति हमारे साथ उदार होगा। हम जीवन को समझेंगे उद्घात होंगे, तभी तो हम अपने कल को बेहतर कर पाएंगे। नूतनता-नवीनता को अंगीकार कर पाएंगे। इस के निर्मल उत्सव मना पाएंगे। हम उस चैतन्य प्रवाह को स्पर्श कर पाएंगे, जिसके बिना जीवन का कोई मूल्य ही नहीं है, सार्थकता ही नहीं है।

                                 हम तो व्यर्थ के अपने अहं भाव को ही पोषित करते है, अपने आप को श्रेष्ठ समझते है। दूसरे को हमेशा ही नीचा दिखाने की कोशिश करते है। फिर कहते है कि मन के अंत करण में संतुष्टि नहीं है। वह तृप्ति नहीं मिल पा रही है, जिसके कि वास्तव में हम हकदार है। हम अपने स्वभावगत जीवन को जीते है, अपने मूल रुप में जाना ही नहीं चाहते। फिर तो अंत करण में वेदनाएँ तो चुभेगी ही। जीवन के प्रति जो हम सकारात्मक नहीं होंगे, जीवन हमारे प्रति किस प्रकार से सकारात्मक होगा। कहने को तो हम कहेंगे कि हम धर्म के प्रति सजग है, परन्तु यह तो थोथी बातें है। इसलिए जीवन को समझने से पहले ही हमें इसके उपलक्ष्य को समझना होगा।

               हम जब तक जीवन के प्रति निर्मल व्यवहार नहीं करेंगे, जीवन की अनुभूति किस प्रकार से कर पाएंगे। जीवन के उत्सव को मनाने के लिए हमें इसकी अनुभूतियों का रस आस्वादन करना होगा। इसके लिए हमें धर्म और अधर्म के बीच की सूक्ष्म रेखा को समझना होगा। हमें धर्म के रुप का अवलोकन करना होगा, नितांत अपने जीवन को इसके अनुरूप ढालना होगा। मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध करनी होगी और ईश्वर के नजदीक होना होगा।

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जीवन का पुनीत उद्देश्य क्या है?

प्रश्न स्वाभाविक भी है और गंभीर भी। परन्तु इसके उत्तर को तलाश करने की हम कोशिश ही नहीं करते। क्यों नहीं कोशिश करते? क्योंकि हमारा अहं इसके आड़े आ जाता है। अहंकार वह अंधकार है, जो पूरी कोशिश करता है कि चाहे जैसे भी हो, प्रकाश पर विजय पाया जाए। उसे दबाया जाए, उसको पथ पर आलोकित नहीं होने दिया जाए।

               जीवन की गरिमा तभी है, जब हम इसके आधार को मजबूत करें। हम वह करने का प्रयास करें, जिसके लिए हमें मानव जीवन मिला है। अब मैंने जो कहा, कुछ लोग तो विरोध कर सकते है। उनका यही तर्क होगा कि अज्ञात धर्म को नहीं मानता। ईश्वर की किसी प्रकार की सत्ता नहीं है। यह तो सिर्फ प्रकृति का क्रमिक विकास है। जिसमें जीव जगत की उत्पत्ति हुई है। तो फिर इस प्रकृति को कौन नियंत्रित कर रहा है? मतलब कोई तो सर्वोच्च सत्ता है, जो इन सभी को कंट्रोल कर रहा है। अन्यथा ब्रह्मांड अनंत-अनंत फैला हुआ है, जिसका कोई आदि-अंत नहीं। यह अपने आप में शून्य है, रिक्त है। परन्तु इसमें आश्चर्य की बात यह है कि पूरी सृष्टि इसी ब्रह्मांड में टिकी हुई है। इस शून्यता में फिर ऐसा वह कौन सा आधार है, जो इन ग्रहों को थामे हुए है। असंख्य तारों की शृंखला को संचालित कर रहा है।

                            अब कहेंगे कि अज्ञात का तर्क है कि यह भौतिक चक्र है। माना कि यह भौतिकी का ही सिद्धांत है। फिर भी यह सिद्धांत एक ग्रह से दूसरे ग्रह और  एक तारा से दूसरे तारे तक जाते-जाते बदल क्यों जाता है। अज्ञात भले ही कितना भी तर्क दे, परन्तु वह इस ब्रह्मांड के अंश भाग का रहस्य भी नहीं पता कर सका है। बस सब कुछ आकड़े पर ही चलता है और आकड़ों पर ही वैज्ञानिक अपनी थ्योरी देते है। परन्तु नई शोध होने के साथ ही पुरानी थ्योरी बेकार हो जाती है। इसका मतलब है कि कुछ तो है, जो मानव बुद्धि से परे है। तो फिर हम अपनी तुच्छ बुद्धि से उस सत्ता के अस्तित्व को चुनौती क्यों देने की कोशिश क्यों करते है?

                                हमें उस सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार करके उनके शरणागत को स्वीकार करना चाहिए। अब हम यह नहीं कहते कि हमें जीवन के ऐश्वर्य का बहिष्कार करना चाहिए। नहीं, ऐसी बात नहीं है, संसार में जितनी भी उपभोग की वस्तु है, जितने भी संसाधन है, ईश्वर के द्वारा जीव मात्र के लिए ही प्रदत्त है। बस हम इन संसाधनों का उपभोग तो करें, परन्तु मानवीय धर्म का निर्वाह करते हुए। इसी संदर्भ में आपको एक दृष्टांत बतलाता हूं।........ बात उन दिनों की है, जब स्वामी सुख देव जी की शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी, परन्तु। परन्तु उन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई थी। ऐसे में उन्होंने अपने पिता वेदव्यास से जिज्ञासा की।

                      पिता ने कहा कि ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना है, तो राजा जनक से मिलो। पिता की अनुमति लेकर सुख देव जी चले। उनको ज्यादा समय तो लगना नहीं था, क्योंकि वे आकाश मार्ग से विचरण करते थे। ऐसे में जब सुख देव जी राजा जनक जी के दरबार में पहुंचे, उन्हें तीव्र घृणा हुई। परिस्थिति ही ऐसी थी, राजा जनक दरबार में बैठे थे और वहां नृत्यांगनाएँ अलमस्त हो नृत्य कर रही थी। सहज ही सुख देव जी के मन में हुआ कि रास रंग में डूबा राजा जनक हमें क्या ब्रह्मज्ञान देंगे। वे वापस लौट आए अपने पिता के पास। पिता ने फिर से राजा जनक के पास भेजा। इस बार राजा जनक ने सुख देव जी के स्वागत के लिए उत्तम व्यवस्था की। माता सुनयना से कहा कि इस प्रकार से भोजन बनाओ, जो उलटी-पलटी हो। सब्जी और दाल में चीनी, तो खीर में नमक, इस प्रकार से भोजन को बनवाया जाए।

                   सुख देव जी जब वहां पहुंचे, राजा जनक ने उनका यथोचित सत्कार किया, उनके पांव धोए। इसके बाद अपने महल को दिखाने के लिए लेकर चल पड़े। जहां पूरे महल में अंधकार ही अंधकार था। महल के छत से नंगी धारदार तलवारें धागे के सहारे लटक रही थी। ऐसे में राजा जनक हाथों में दीपक लिए आगे बढ़ते जा रहे थे। परन्तु सुख देव जी, उन्हें तो भय लग रहा था कि एक भी तलवार नीचे आकर गिरी, शरीर को वेध देगी। परन्तु चलते- चलते वे दोनों स्वागत कक्ष में पहुंचे। जहां माता सुनयना दोनों की भोजन के लिए प्रतीक्षा कर रही थी। दोनों के स्वागत के लिए तत्पर थी।

                             वहां पहुंचने पर दोनों भोजन करने के लिए बैठे। परन्तु यह क्या? राजा जनक तो खाए जा रहे थे, लेकिन सुख देव जी। उन्हें तो सब कुछ अटपटा सा लग रहा था। भोजन करने में उनकी जिह्वा साथ ही नहीं दे रही थी। खैर, भोजन समाप्त होने के बाद राजा जनक ने सुख देव जी से आने का प्रयोजन पुछा। स्वाभाविक था कि सुख देव जी ने कहा, ब्रह्मज्ञान की अभिलाषा लेकर आया हूं। बातें सुनकर राजा जनक मुस्करा पड़े, वे सहज ही बोले कि आपको तो ब्रह्मज्ञान मिल गया। सुख देव जी नहीं  समझ पाए, तब राज-राजेश्वर जनक ने कहा। हे ऋषि वर, आप जब पहली बार आए, मेरे सभा में नृत्य हो रहा था, मैं वहां होकर भी नहीं था। मुझे न तो घृणा थी और न ही लगाव। दूसरी बार, आप महल में लटकती तलवार से भयभीत हो गए। परन्तु यह संसार ही अंधकार मय महल है और लोभ-मोह, मत्सर, अहंकार इत्यादि लटकती हुई तलवार। ऐसे में हमें उस दीपक के समान ही प्रज्वलित होकर जलना है और चलना है। 

                                राजा जनक ने सुख देव जी को भोजन को लेकर भी कहा। जिस प्रकार से भोजन बिना स्वाद के बेतुका है, उसी प्रकार से संसार में भोज्य वस्तु है। हमें इनका सेवन तो करना चाहिए, परन्तु इनके प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। बस सुख देव जी को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया। हमने आपको जो बतलाया वह सिर्फ एक दृष्टांत ही नहीं, आचरण करने योग्य है। यह जीवन का उद्देश्य है कि हम मानव नित आचरण का अनुसरण करके पूर्णता की ओर अग्रसर हो। फिर तो धर्म का स्वतः ही पालन हो जाएगा। हमें ज्यादा कुछ करने की जरूरत ही नहीं रहेगी, हमारा आचरण ही धर्म युक्त हो जाएगा। हमारा जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदल जाएगा और आप रुप ही हम ईश्वर के नजदीक होते चले जाएंगे।

                                      जीवन का उद्देश्य भी यही है और आधार भी यही है कि हम मानव के निर्धारित कर्मों का अनुसरण करें। मानव के लिए शास्त्रों द्वारा बताएँ हुए रास्ते पर चले। अपने स्वभाव को अपने बस में करें और ईश्वर की आराधना करें, चाहे जिस रुप में करना चाहे। हमें संसार से घृणा या द्वेष नहीं रखना चाहिए, वरण इसमें रहकर ही अपने लिए निर्धारित धर्मों का पालन करना चाहिए। हमें उन कर्मों को करना चाहिए, जो सदाचार युक्त हो। हमें सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए, हमें राष्ट्र के प्रति कर्तव्य निभाना चाहिए। परन्तु हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? और जिसपर यह टिका हुआ है, उसका आधार सही है या नहीं। 



ईश्वर ने इस ब्रह्मांड की रचना की है, जो अति सुन्दर है। परन्तु इसकी संरचना जटिल है, क्योंकि पूरा ब्रह्मांड ही रिक्त है, शून्य है। फिर भी इसमें अशंख्यों युनिवर्स समाई हुई है और निरंतर गति कर रही है।

           ब्रह्मांड की उत्पत्ति और उसकी संरचना के बारे में विभिन्न धर्मों ने अपनी-अपनी व्याख्याएं दी हैं। सच कहें तो धर्म और अध्यात्म की शुरुआत ही इसी शाश्वत प्रश्न से होती है। धर्म, सर्वोच्च सत्ता से प्रस्फुटित हुआ ज्ञान है, आस्था है, विश्वास है, वही विज्ञान तथ्यों से प्रतिपादित ज्ञान है जो सर्वोच्च सत्ता तक क्रमशः पहुंचने का मार्ग है। जिस दिन विज्ञान और वैज्ञानिक ब्रह्मांड के रहस्यों को जान लेंगे उस दिन विज्ञान अपनी चरम परिणति पर ज्ञान बनकर खड़ा होगा। परत दर परत उघड़ते नए तथ्यों में पुराने तथ्य दबते चले जाते हैं। जिसे आज हम सत्य मानते हैं कल वह भ्रम सिद्ध हो जाता है। 

                एक समय पृथ्वी को चपटी और उसे ब्रह्मांड का केंद्र माना गया था। तब वही सत्य था। तथ्य बदलते गए सत्य बदलता गया। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियमों में, आइन्स्टीन ने विराट खगोलीय पिंडों और प्रकाश की गति के प्रभाव का समावेश कर उसमें सुधार किया। आइन्स्टीन के सापेक्षता वाद के सिद्धांत को वैज्ञानिक प्लांक के सिद्धांत का बल मिला और विश्व के वैज्ञानिकों को ब्रह्मांड में घुसने की चाबी मिली। पृथ्वी पर मानव मस्तिष्क को सबसे जटिल रचना माना गया है क्योंकि इसकी बनावट और कार्यप्रणाली को जीव वैज्ञानिक बहुत कम समझ पाए हैं। इसके बावजूद ब्रह्मांड के रहस्यों को सुलझाने के लिए वर्तमान मानव मस्तिष्क को अभी बहुत विकास करना है। अनंत विस्तार को समझने के लिए योग्यता भी अनंत चाहिए। ब्रह्मांड की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विज्ञान का महा विस्फोट (बिग बेंग) का सिद्धांत सर्वाधिक मान्य सिद्धांत है। 

           इसके अनुसार ब्रह्मांड का जन्म 13.7 अरब वर्षों पहले एक असीमित घनत्व वाले बिंदु के अनंत विस्तार या स्फीति से हुआ था। यह कोई विस्फोट नहीं था। मान्यता यह है कि यह एक आवेश था, एक आवेग था, एक प्रलय था जो क्षण मात्र में घट गया और इसने हमारे इस विराट अंतरिक्ष को जन्म देकर समय को भी आरंभ कर दिया। इस विस्तार ने पूरे अन्तरिक्ष को ऊर्जावान कर दिया। यह तीव्र विस्तार जिसका न हमें आदि मालूम हैं, न अंत, वह केवल क्षण भर का सृजन था। इसी क्षण के अंत में विस्तार किंचित धीमा हुआ क्योंकि ब्रह्मांड का आकार बढ़ने से तापमान और घनत्व कम हुआ और इसी क्षण के भीतर गुरुत्वाकर्षण बल, विद्युत चुम्बकीय बल और अन्य बलों का उत्सर्जन हुआ। इस क्षण के बाद एक सेकंड के अन्दर सारे मूलभूत कणों जैसे इलेक्ट्रान, प्रोटोन, न्यूट्रान, फोटान आदि का प्रादूर्भाव हो गया। तीन सेकंड में सरल रचना वाले अणु जैसे हाइड्रोजन, हीलियम आदि का निर्माण हो गया। इसके बाद की कहानी बहुत लम्बी है। महा विस्फोट के तीस करोड़ वर्षों के पश्चात कुछ क्षेत्रों में जहां गैस के बादलों का घनत्व बढ़ गया था वहां सितारों और सितारों के समूह (आकाश गंगाओं) का जन्म हुआ। तत्पश्चात अनगिनत सौर मंडल जन्मे। 

                       महा विस्फोट के नौ सौ वर्षों पश्चात हमारे सौर मंडल का निर्माण हुआ। निर्माण का यह काम अभी भी अनवरत जारी है। नए सितारों और नई आकाश गंगाओं का सृजन अभी भी लगभग उतनी ही तेजी से चल रहा है। प्रश्न यहां उलझ जाता है कि इन नए सितारों और खगोलीय पिंडों को गढ़ने के लिए कच्चे माल की आपूर्ति कौन कर रहा है? ब्रह्मांड की संरचना को समझने के लिए, ब्रह्मांड की एक मकान के रूप में कल्पना कीजिए। उस पूरे मकान का वज़न करें। फिर उस वजन में मकान में बसी हर वस्तु का, ईंटों का, गिट्टी-सिमेंट का, हवा आदि सभी का वज़न घटा दें। वज़न शून्य हो जाना चाहिए किन्तु परिणाम चौंकाने वाले हैं। सारे वज़न निकालने के बाद भी 95 प्रतिशत भार शेष रह जाता है। जितने ईंट पत्थर हैं उनका वजन केवल एक प्रतिशत है यानी ब्रह्मांड में जो ग्रह नक्षत्र हैं उनका वज़न पूरे ब्रह्मांड के वज़न का मात्र 1 प्रतिशत है। मकान की बाकी वस्तुओं का वज़न जोड़ लें तो सब मिलाकर वजन चार प्रतिशत तक आता है। बाकी 95 प्रतिशत अदृश्य और रहस्यमय शक्तियां हैं। वैज्ञानिकों ने इन दिव्य शक्तियों का नाम दिया कृष्ण द्रव्य (ब्लैक मेटर) और कृष्ण ऊर्जा (ब्लैक एनर्जी)।वैज्ञानिक मानते हैं कि कृष्ण द्रव्य और कृष्ण ऊर्जा ने ही संसार को वर्तमान स्वरूप दिया है। 

                    जो नए सितारे और ग्रह जन्म ले रहे हैं उनके लिए कच्चा माल ये शक्तियां ही प्रदान कर रही हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि यही शक्तियां ब्रह्मांड का निरंतर विस्तार कर रही हैं। आकाशगंगा को बांधे रखने का काम कृष्ण द्रव्य करता है। निरंतर फैलते ब्रह्मांड को गति देने का काम कृष्ण ऊर्जा करती है। यह एक ऐसी रहस्यमय शक्ति है जो आकर्षित करने की अपेक्षा विकर्षित करती है और संसार को गतिमान करती है। धर्म को धर्मगुरुओं ने जन-जन तक पहुंचाया, जो आवश्यक था। 

            अब आते है संरचना और प्रयोजन के बारे में, तो वह अलौकिक शक्ति है। वही ईश्वर है और वही सत्य है, वही सनातन है। सापेक्ष भक्ति के लिए वही साकार रुप नारायण, शिव और ब्रह्म है, तो जो निराकार रुप की पुजा करते है, उनके लिए शक्ति पुंज है। हम समस्त सृष्टि उसी शक्ति पुंज के द्वारा रचित है और उस शक्ति पुंज ने संकल्प मात्र से ही अखण्ड सृष्टि की संरचना की है, बस अपने भाव को प्रगट करने के लिए। परन्तु मैंने जैसे विज्ञान की बातें कहीं, वह इस ब्रह्मांड के रहस्य को सुलझाना चाहता है, परन्तु जितना सुलझाने की कोशिश करता है और भी उलझता चला जाता है।

                          हम भले ही शोध करें, परन्तु सकारात्मक दृष्टि से। उस विश्वेश्वर नारायण की सत्ता को स्वीकार करके, फिर जो शोध किया जाए, तो शत- प्रतिशत सकारात्मक परिणाम मिलेगा। क्यों? क्योंकि ज्ञान- विज्ञान का उद्गम स्थल तो वेद ही है। वही से इसका प्रारंभ हुआ है और वेद उस सर्व शक्ति स्वरूप की वाणी है। परन्तु आज की शिक्षा इस प्रकार से अर्थहीन हो गई है कि आज के युवा को बस तर्क की कसौटी कसना आता है। परन्तु आश्चर्य की बात है कि वह तर्क की कसौटी खोटी है। क्योंकि विज्ञान का अधिकांश भाग थ्योरी पर आधारित है और ब्रह्मांड के मामले में तो शत-प्रतिशत। कल नया शोध किया जाएगा और पुरानी थ्योरी व्यर्थ प्रतीत होने लगेगी।

                        क्यों? क्योंकि भले ही आज दुनिया में ज्ञान- विज्ञान बढ गया है। नित नए खोज, नित नए आविष्कार किए जा रहे है। परन्तु उस सर्वोच्च सत्ता को ही स्वीकार नहीं किया जाता, अथवा उनकी सत्ता स्वीकार करने में हम हिचकते है, तो फिर हमारा शोध सही दिशा में गति किस प्रकार से करेगा। इसके लिए हमें ईश्वर में पूर्ण श्रद्धा रखनी होगी। हमें उनकी भक्ति में खुद को डुबोना होगा, तब देखिए, आपको सकारात्मक परिणाम मिलेगा। इसके लिए हम एक बात समझते है, भले ही आज का युवा ईश्वर को मानना नहीं चाहे। परन्तु श्री नटवर कृष्ण को एक वैज्ञानिक तो मान ही सकता है। इस बात को तो नाशा भी मानती है, क्योंकि शून्य या रिक्त का प्रतिपादन उन्होंने ही किया था, गोवर्धन धारण करके। उन्होंने ही सबसे पहले गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को दिया था।

                            अतः ,जो भी करें, उस दयालु ईश्वर को समर्पित करके करें, आपको सकारात्मक परिणाम मिलेगा। आप उनके शरण को ग्रहण करके तो देखे, आपकी बुद्धि निर्मल हो जाएगी, आपका ज्ञान उज्ज्वल हो जाएगा। क्यों? क्योंकि हमारे ऋषि-मुनि ने जो ज्ञान- विज्ञान दिया है, आज का शोध उसी सिद्धांत पर चलता है। भले ही वैज्ञानिक स्वीकार करें, न करें, परन्तु उन्होंने जो किया है, आदिकाल के विज्ञान से लघुतम ही है। अतः हमें भक्ति की धारा में प्रवाहित होना चाहिए, उस प्रभु की शरणागत लेनी चाहिए। क्यों? क्योंकि विकास विनाश की जननी है और न जाने अनंत विकसित सभ्यता काल के गाल में समा चुकी है।

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जीवन जीने की कला सीखना आज के समय में बहुत ही उपयोगी हो गया है। क्यों? क्योंकि अधिकांश अपने जीवन के प्रति ही उदास रहते है। हायर क्लास की शिक्षा प्राप्त हो गई, अच्छे पोस्ट पर नौकरी भी कर रहे है। इच्छित जीवन साथी से शादी कर लिया है, परन्तु फिर भी पूर्णता का अभाव है। एक हताशा सी घेरे हुए है, एक गिल्टी फिल हो रही है। क्यों? क्योंकि न तो हम जीना चाहते है और न ही अपने उत्तराधिकारी को सिखाना चाहते है। परिणाम हताशा और गिल्टी का भार जब अधिक होने लगता है, इंसान टूट सा जाता है। वह अपने जीवन लीला को ही समाप्त कर लेता है। खासकर आज के युवा, आज के युवा के अंदर धैर्य की कमी है। वह परिस्थिति से लड़ना ही नहीं चाहता। क्यों? क्योंकि वह खुद से अंजान है, अपने आत्म भाव को ही नहीं जानता।

                              इसमें उसकी भी गलती नहीं है, उसे तो किसी ने अनुभव ही नहीं करवाया कि वह कौन है? बस उसके अंदर अहंकार के भावों को भर दिया गया। जब उसके अंदर संस्कार सिंचन करने का समय था, उस समय उसे अपने-पराए का भेद बतलाया गया। फिर तो परिणाम सुखद कैसे होते? जो पौधे में समय से खाद-पानी नहीं दिया जाए, उसकी निकाई-गुड़ाई नहीं की जाए, तो फिर पौधे का क्रमिक विकास कैसे संभव होगा। उसका विकास तो अवरूद्ध हो जाएगा। ठीक ऐसी ही स्थिति मानव की है, क्योंकि मानव अपनी सभ्यता से जुड़ा है। सभ्यता संस्कृति से और संस्कृति धर्म से। परन्तु इंसान इन तीनों से ही कटकर रहना चाहता है, बंटकर रहना चाहता है। तो फिर उसके सुख की कामना व्यर्थ है।

                            माना कि आज अर्थ युग है, अर्थ का वर्चस्व है। तो मना कहां है, खुब कमाए, ऊँची शिक्षा को हासिल कीजिए, ऊँचे ओहदे संभालिए। लेकिन अपने सभ्यता, अपने संस्कृति, अपने धर्म से विमुख मत होइए। धर्म से अलग होने से आप उस कटे पतंग के समान हो जाएंगे, जो आधार हीन गुलाटी मारता है और कांटों में फंस कर कट-फट जाता है। आप जीवन जीने की कला सीखिए, अपने वारिस को सिखाइए। जीवन की महता को समझिए और फिर देखिए। आपको जीवन का पूर्ण आनंद मिलेगा। आपको हताशा-निराशा नहीं घेरेगी। आपको लगेगा कि जिन्दगी खिलखिला रही है, मुस्करा रही है और आप जीवंत हो चुके है।

                             परन्तु आज का मानव का दुर्भाग्य है कि वह इन चीजों से दूर भागता है। वह समझ ही नहीं रहा है, अथवा समझना ही नहीं चाहता। आज आधुनिकता नाम की महामारी ने मानव को ग्रसित कर लिया है। जिसके प्रभाव में आने के बाद इंसान उस सर्वोच्च सत्ता से विमुख हो रहा है, उसकी सत्ता को नकार रहा है। परन्तु वह भुलाता है कि विकास विनाश की जननी है। जो बना है, वह विनष्ट जरूर होगा। फिर किस बात की आधुनिकता, किस तरह का भ्रम? आखिर मानव खुद भी तो नष्ट हो जाता है। वह भी तो क्रमिक विकास करता है और एक दिन जर्जर होकर खतम हो जाता है। फिर वह किस बात पर अहंकार करता है।

                           मूलतः मानव का जन्म धर्म का प्रचार- प्रसार करने के लिए ही हुआ है। उस सर्व शक्तिमान ईश्वर ने इस अखण्ड सृष्टि का निर्माण ही इसी उद्देश्य से किया है कि मानव मानवीय धर्म का निर्वाह करें। वह संस्कार को माने, सभ्यता को माने, संस्कृति को माने और धर्म का अनुकरण करें। ईश्वर की लीलाएँ है, वे समस्त सृष्टि का संचालन करते है, सृष्टि करते है और संहारक भी वही है। परन्तु कमल नयन, पद्धनाभ विश्वेश्वर यही चाहते है कि मानव जीवन उन्नत हो, उसका क्रमिक विकास हो। वह संसार की समस्त सुख-सुविधाओं को भोगे और सृष्टि के संचालन में अपना योगदान दे।

                          परन्तु मानव, वह तो अपने आप को धरा धाम पर आकर मालिक ही समझने लगता है। वह इतनी बात तो अच्छी तरह से समझता है कि वह नश्वर है। वह जिस मद पर, जिस शरीर पर, जिस शक्ति पर घमंड करता है, वह स्थिर नहीं है। उसके साथ अगले पल क्या होने बाला है, उसको खुद नहीं पता। वह कच्चे मटके के समान है, जो पानी की बूंद पड़ते ही गल जाएगा। वह एक हल्का सा आघात भी नहीं सह पाएगा, तो फिर इसका अहंकार क्यों? यह तो मानव नित स्वभाव ही नहीं है। मानव का तो स्वधर्म है मानवता, मानवीय मूल्यों का संवर्धन करना और ईश्वर की भक्ति करना।

                          मानव अपने जीवन में भले ही सुख- सुविधाओं का अंबार लगा ले, परन्तु ईश्वर को भूले नहीं। वह भले ही ऐश्वर्य का उपभोग करें, ऐसा करना भी चाहिए। क्योंकि इसके लिए ईश्वर की अनुमति प्राप्त है। परन्तु वह ईश्वर की वंदना करना नहीं भूले। ऐसा करना भी चाहिए, क्यों? क्योंकि चौरासी लाख योनियों में मानव को भगवान ने श्रेष्ठ बनाया है। धर्म ग्रंथ तो यहां तक कहते है कि मानव जीवन देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। तो फिर इसकी उपेक्षा क्यों? मानव जीवन का चार पुरुषार्थ है, अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष। तो फिर मानव दो ही चीज क्यों याद रखता है? अर्थ और काम। 

                        मानव को तो मानव बनना ही नहीं आता। वह तो जीवन के उपलक्ष्य को ही नहीं समझता। वह समझना ही नहीं चाहता कि उसको यह जीवन क्यों मिला है। वह तो बस समझता है कि उसे मानव जीवन मिला है, तो बस सुख-सुविधा का उपभोग करने के लिए। वह तो बस अपने जीवन के महत्वपूर्ण पल को यूं ही बेकार में गुजार देता है। वह जीवन का उत्सव मनाना ही नहीं चाहता। जीवन के चक्र को मानना ही नहीं चाहता। वह अपने मूल की ओर लौटना ही नहीं चाहता। तो फिर उसे हताशा ही घेरेगी, उसे निराशा ही संतप्त करेगी। उसे पल- पल यही आभास होगा कि जीवन में पूर्णता नहीं है, वह संतुष्टि नहीं है, जो चाहिए था।

                          मानव को मानव बनने के लिए उसे हृदय में भाव को जगाना होगा। खुद के आत्म भाव को जानना होगा-समझना होगा। खुद के विचारों का आत्म- मंथन करना होगा। जीवन को उत्सव बनाना होगा, इसके लिए प्रयास करने होंगे। वह भले ही अर्थ के लिए प्रयास रत रहे, परन्तु अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति और धर्म से जुड़ना होगा। जीवन कोई गणित नहीं है, जीवन के लिए जहां अर्थ और काम जरूरी है, वही धर्म की जरूरत है। ईश्वर के आराधना करने की जरूरत है। कमल नयन भगवान श्री कृष्ण के चरणों में रमने की जरूरत है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम से स्नेह का बंधन बांधने की जरूरत है। 

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जीवन में अनंत-अनंत इच्छाएँ है, जिसका ओर-अंत नहीं। जिसकी आज तक पूर्ण रुप से संतुष्टि नहीं हुई। आज तक इस संसार में मानव कभी पूर्ण हो-ही नहीं सका। उसके हृदय में तृप्ति के भाव जागृत होते ही नहीं, क्योंकि उसको अभी बहुत कुछ पाना जो है। तृप्ति तो तभी संभव है, जब जो भी मिला, उसको ईश्वर का प्रसाद समझ कर स्वीकार करें और इसके लिए प्रभु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें। परन्तु नहीं, आज तो हम मानव इस संसार में इस तरह से तल्लीन हो गए है कि प्रभु के प्रति कृतज्ञता क्या व्यक्त करेंगे। प्रभु की पुजा-अर्चना भी करते है, तो अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए।

                  हम आज प्रभु के सामने दो अगर बत्ती जला दिए, दीप जला दी और दो लड्डू क्या भोग लगाए। प्रभु के सामने हाथ जोड़ दिए और लगे दुःख सुनाने। प्रभु.....जरा इस बार मेरे काम पर ध्यान देना, वैसे तो आप मेरी सुनते नहीं हो, परन्तु अब की जरूर सुन लेना। प्रभु.....वह बिजनेस डील है न, उसको अपनी कृपा दृष्टि से पूरा करवा देना। है न प्रभु.....मेरे बच्चे को डाक्टरी करने के लिए काँलेज में दाखिला करवा देना। बहुत सी बातें, जो हमें लगता है कि असंभव है, प्रभु के सामने सुनाने लगते है। जैसे कि लगता है, प्रभु की हमने जो पुजा की है, उनपर उपकार किया हो। 

                    फिर क्या कहेंगे, प्रभु....मेरे इस काम को पूरा करवा देना, मैं आपको सवा किलो लड्डू चढाऊंगा। आपके सामने घी के दीप जलाऊँगा और मानता ज्यादा बड़ी है, तो कहेंगे, प्रभु.....मैं आपकी पुजा करवाऊँगा। जैसे कि जगत आधार-जगत नियंता को हम घुस दे रहे हो। हां, यह घुस देने के समान ही है, क्योंकि इसमें आस्था नहीं अपितु इच्छाएँ है। हम उनके सामने धूप-दीप जला रहे है, नैवेद्य चढा रहे है। उसमें भक्ति का भाव नहीं है, है तो सिर्फ स्वार्थ। हम उनका नाम जाप सिर्फ इसलिये करते है कि कहीं हमारे हाथ से आने बाली सफलता फिसल नहीं जाए। तो फिर हमारे हृदय में संतुष्टि के भाव कहां से प्रगट हो। हमें जीवन में शांति कहां से मिले।

                      हम जिसके अंश मात्र है, हां हम अंश ही है उस ईश्वर के। गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी कहा है कि- ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि। यथार्थ, इस जगत में जितने भी जीवात्मा है, नारायण का ही अंश है। परन्तु जीवात्मा इस सत्य को भूल जाता है। उसे याद रहता है, तो सिर्फ स्वार्थ की बातें और मिथ्या जगत। फिर तो हम जो भी करेंगे, वह स्वार्थ से ही लेपित होगा। जबकि इस प्रकार होना नहीं चाहिए। हमें ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए, उनके अनुग्रह को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। परन्तु हम ऐसा नहीं करते, हम ऐसा करने के लिए उत्सुक ही नहीं है। जबकि ऐसा नहीं है, हम संसार में जन्म लिए हुए है और संसार भ्रम के जाले से बना हुआ है। ऐसे में हमें ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए, उनका सरना गति स्वीकार करना चाहिए। लेकिन हम ऐसा नहीं करते। हम नारायण के नाम का जाप भी करते है, तो उसमें भी हमारा स्वार्थ छिपा हुआ है। हम भक्ति तो करते है, परन्तु भाव नहीं है।

                     इसके लिए मैं आपको भक्त माल की कथा बतलाता हूं। विठ्ठल स्वामी से गोविंद गिरिधर साकार थे। विठ्ठल स्वामी की नटवर नागर से बात होती थी, जैसे हम और आप करते है। एक दिन की बात है, विठ्ठल स्वामी ने मुरली मनोहर से अजीजी की । बात ही कुछ ऐसी थी, उस नगर में एक लकड़हारा दंपति रहता था। दोनों पति-पत्नी ही रहते थे, क्योंकि उनकी कोई संतान नहीं थी। बात इतनी सी होती तो फिर भी कोई बात नहीं, दोनों ही निर्धन का जीवन बिताते थे। मुश्किल से ही उनको कभी-कभी दोनों समय आहार मिल पाता था। नहीं तो कभी-कभी तो उपवास की भी स्थिति आ जाती थी। परन्तु इतनी बातें होने पर भी उनकी ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा थी। साथ ही वे घर आए हुए अभ्यागत की सेवा भी अपने सामर्थ्य के अनुसार करते थे।

                     इस परिस्थिति में विठ्ठल स्वामी ने मुरली मनोहर से कहा। प्रभु.....कभी अपने उस गरीब भक्त पर भी अपनी कृपा दृष्टि डाल दो। बातें सुनकर माधव सहज ही मुस्करा कर बोले। मैं तो कृपा दृष्टि बरसाना ही चाहता हूं। परन्तु वह तो कभी कुछ मांगता ही नहीं। बस विठ्ठल स्वामी तपाक से बोले, बिना मांगे ही दे-दो। इसके जबाव में नारायण बोले, वह भी नहीं लेगा। परन्तु विठ्ठल स्वामी को विश्वास नहीं हुआ। जिसका परिणाम हुआ कि मुरली मनोहर ने विठ्ठल स्वामी की बातें मानकर उस लकड़हारे का मदद करने की ठान ली। जिस रास्ते से लकड़हारा जंगल को जाता था, अशरफी के ढेर लगा दिए और विठ्ठल स्वामी के साथ छिप कर देखने लगे।

                          नियत समय पर लकड़हारा वहां से गुजरा। जैसे ही उसकी नजर अशरफियों पर गई, वह उसपर मिट्टी डालने लगा। पीछे से आ रही उनकी पत्नी ने टोका, आप क्यों मिट्टी पर मिट्टी डाल रहे हो। लकड़हारा प्रसन्न हो गया, अपनी पत्नी की बातों को सुनकर। वह बोला, देवी, आप तो मुझसे भी श्रेष्ठ हो गई, जो आपकी नजर में स्वर्ण मुद्रा भी मिट्टी प्रतीत होता है। इसके बाद वे दोनों दंपति जंगल में गए, जहां पर गिरिधर ने उनकी मदद के लिए सारी सुखी लकड़ी तोड़ कर गट्ठर बना कर रख दिया था। ऐसे में लकड़हारा दंपति सुखी लकड़ी नहीं मिलने पर निराश हो गए। वे भला दूसरे द्वारा इकट्ठा किए हुए लकड़ी को कैसे लेते। लकड़हारा ने अपनी अर्धांगिनी को कहा कि देवी, लगता है आज कोई दूसरा लकड़हारा आकर लकड़ी चुन लिया है। ऐसे में आज हमें उपवास करना होगा, लेकिन कोई बात नहीं, जैसी हरि इच्छा। बोलने के बाद दोनों लौट गए। अब तो विठ्ठल स्वामी और मुरली मनोहर को आघात लगा। कहां तो उन्होंने उस भक्त की मदद करना चाहा और कहां अहित हो गया।

                          कहने का तात्पर्य है कि हम भगवान की शरणागत स्वीकार करें। जो पूर्ण रुप से निस्वार्थ हो। हम अतिथि और साधु-संतों की सामर्थ्य अनुसार सेवा करें। अब ऐसी भी बात नहीं कि हमेशा बस नाम जप ही करें। मानव है, मानवीय कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए, जब भी समय मिले, प्रभु का ध्यान करें। उनके कल्याणकारी नामों का करतल ध्वनि से कीर्तन करें, जाप करें। हमारी भक्ति भाव प्रधान हो, जिसमें आराध्य भाव हो, स्वार्थ नहीं हो। हम उनका जब भी ध्यान करें, पूर्ण रुप से उन्हीं में रम जाए, उनका हो जाए। अब ऐसी भी बात नहीं कि उनसे मांगे नहीं, उनसे जरूर मांगे, परन्तु दासत्व भाव से। धन मांगे, तो साथ में भक्ति भी मांगे। सफलता मांगे, तो साथ में विनम्रता भी जरूर मांगे। यही तो भक्ति है, जो कमल नयन को बहुत ही प्यारी है। भक्ति भाव प्रधान होती है, अतः हमारे हृदय में कोमल भाव हो।

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जीवन में अनंत-अनंत इच्छाएँ है, जिसका ओर-अंत नहीं। जिसकी आज तक पूर्ण रुप से संतुष्टि नहीं हुई। आज तक इस संसार में मानव कभी पूर्ण हो-ही नहीं सका। उसके हृदय में तृप्ति के भाव जागृत होते ही नहीं, क्योंकि उसको अभी बहुत कुछ पाना जो है। तृप्ति तो तभी संभव है, जब जो भी मिला, उसको ईश्वर का प्रसाद समझ कर स्वीकार करें और इसके लिए प्रभु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें। परन्तु नहीं, आज तो हम मानव इस संसार में इस तरह से तल्लीन हो गए है कि प्रभु के प्रति कृतज्ञता क्या व्यक्त करेंगे। प्रभु की पुजा-अर्चना भी करते है, तो अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए।

                  हम आज प्रभु के सामने दो अगर बत्ती जला दिए, दीप जला दी और दो लड्डू क्या भोग लगाए। प्रभु के सामने हाथ जोड़ दिए और लगे दुःख सुनाने। प्रभु.....जरा इस बार मेरे काम पर ध्यान देना, वैसे तो आप मेरी सुनते नहीं हो, परन्तु अब की जरूर सुन लेना। प्रभु.....वह बिजनेस डील है न, उसको अपनी कृपा दृष्टि से पूरा करवा देना। है न प्रभु.....मेरे बच्चे को डाक्टरी करने के लिए काँलेज में दाखिला करवा देना। बहुत सी बातें, जो हमें लगता है कि असंभव है, प्रभु के सामने सुनाने लगते है। जैसे कि लगता है, प्रभु की हमने जो पुजा की है, उनपर उपकार किया हो। 

                    फिर क्या कहेंगे, प्रभु....मेरे इस काम को पूरा करवा देना, मैं आपको सवा किलो लड्डू चढाऊंगा। आपके सामने घी के दीप जलाऊँगा और मानता ज्यादा बड़ी है, तो कहेंगे, प्रभु.....मैं आपकी पुजा करवाऊँगा। जैसे कि जगत आधार-जगत नियंता को हम घुस दे रहे हो। हां, यह घुस देने के समान ही है, क्योंकि इसमें आस्था नहीं अपितु इच्छाएँ है। हम उनके सामने धूप-दीप जला रहे है, नैवेद्य चढा रहे है। उसमें भक्ति का भाव नहीं है, है तो सिर्फ स्वार्थ। हम उनका नाम जाप सिर्फ इसलिये करते है कि कहीं हमारे हाथ से आने बाली सफलता फिसल नहीं जाए। तो फिर हमारे हृदय में संतुष्टि के भाव कहां से प्रगट हो। हमें जीवन में शांति कहां से मिले।

                      हम जिसके अंश मात्र है, हां हम अंश ही है उस ईश्वर के। गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी कहा है कि- ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि। यथार्थ, इस जगत में जितने भी जीवात्मा है, नारायण का ही अंश है। परन्तु जीवात्मा इस सत्य को भूल जाता है। उसे याद रहता है, तो सिर्फ स्वार्थ की बातें और मिथ्या जगत। फिर तो हम जो भी करेंगे, वह स्वार्थ से ही लेपित होगा। जबकि इस प्रकार होना नहीं चाहिए। हमें ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए, उनके अनुग्रह को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। परन्तु हम ऐसा नहीं करते, हम ऐसा करने के लिए उत्सुक ही नहीं है। जबकि ऐसा नहीं है, हम संसार में जन्म लिए हुए है और संसार भ्रम के जाले से बना हुआ है। ऐसे में हमें ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए, उनका सरना गति स्वीकार करना चाहिए। लेकिन हम ऐसा नहीं करते। हम नारायण के नाम का जाप भी करते है, तो उसमें भी हमारा स्वार्थ छिपा हुआ है। हम भक्ति तो करते है, परन्तु भाव नहीं है।

                     इसके लिए मैं आपको भक्त माल की कथा बतलाता हूं। विठ्ठल स्वामी से गोविंद गिरिधर साकार थे। विठ्ठल स्वामी की नटवर नागर से बात होती थी, जैसे हम और आप करते है। एक दिन की बात है, विठ्ठल स्वामी ने मुरली मनोहर से अजीजी की । बात ही कुछ ऐसी थी, उस नगर में एक लकड़हारा दंपति रहता था। दोनों पति-पत्नी ही रहते थे, क्योंकि उनकी कोई संतान नहीं थी। बात इतनी सी होती तो फिर भी कोई बात नहीं, दोनों ही निर्धन का जीवन बिताते थे। मुश्किल से ही उनको कभी-कभी दोनों समय आहार मिल पाता था। नहीं तो कभी-कभी तो उपवास की भी स्थिति आ जाती थी। परन्तु इतनी बातें होने पर भी उनकी ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा थी। साथ ही वे घर आए हुए अभ्यागत की सेवा भी अपने सामर्थ्य के अनुसार करते थे।

                     इस परिस्थिति में विठ्ठल स्वामी ने मुरली मनोहर से कहा। प्रभु.....कभी अपने उस गरीब भक्त पर भी अपनी कृपा दृष्टि डाल दो। बातें सुनकर माधव सहज ही मुस्करा कर बोले। मैं तो कृपा दृष्टि बरसाना ही चाहता हूं। परन्तु वह तो कभी कुछ मांगता ही नहीं। बस विठ्ठल स्वामी तपाक से बोले, बिना मांगे ही दे-दो। इसके जबाव में नारायण बोले, वह भी नहीं लेगा। परन्तु विठ्ठल स्वामी को विश्वास नहीं हुआ। जिसका परिणाम हुआ कि मुरली मनोहर ने विठ्ठल स्वामी की बातें मानकर उस लकड़हारे का मदद करने की ठान ली। जिस रास्ते से लकड़हारा जंगल को जाता था, अशरफी के ढेर लगा दिए और विठ्ठल स्वामी के साथ छिप कर देखने लगे।

                          नियत समय पर लकड़हारा वहां से गुजरा। जैसे ही उसकी नजर अशरफियों पर गई, वह उसपर मिट्टी डालने लगा। पीछे से आ रही उनकी पत्नी ने टोका, आप क्यों मिट्टी पर मिट्टी डाल रहे हो। लकड़हारा प्रसन्न हो गया, अपनी पत्नी की बातों को सुनकर। वह बोला, देवी, आप तो मुझसे भी श्रेष्ठ हो गई, जो आपकी नजर में स्वर्ण मुद्रा भी मिट्टी प्रतीत होता है। इसके बाद वे दोनों दंपति जंगल में गए, जहां पर गिरिधर ने उनकी मदद के लिए सारी सुखी लकड़ी तोड़ कर गट्ठर बना कर रख दिया था। ऐसे में लकड़हारा दंपति सुखी लकड़ी नहीं मिलने पर निराश हो गए। वे भला दूसरे द्वारा इकट्ठा किए हुए लकड़ी को कैसे लेते। लकड़हारा ने अपनी अर्धांगिनी को कहा कि देवी, लगता है आज कोई दूसरा लकड़हारा आकर लकड़ी चुन लिया है। ऐसे में आज हमें उपवास करना होगा, लेकिन कोई बात नहीं, जैसी हरि इच्छा। बोलने के बाद दोनों लौट गए। अब तो विठ्ठल स्वामी और मुरली मनोहर को आघात लगा। कहां तो उन्होंने उस भक्त की मदद करना चाहा और कहां अहित हो गया।

                          कहने का तात्पर्य है कि हम भगवान की शरणागत स्वीकार करें। जो पूर्ण रुप से निस्वार्थ हो। हम अतिथि और साधु-संतों की सामर्थ्य अनुसार सेवा करें। अब ऐसी भी बात नहीं कि हमेशा बस नाम जप ही करें। मानव है, मानवीय कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए, जब भी समय मिले, प्रभु का ध्यान करें। उनके कल्याणकारी नामों का करतल ध्वनि से कीर्तन करें, जाप करें। हमारी भक्ति भाव प्रधान हो, जिसमें आराध्य भाव हो, स्वार्थ नहीं हो। हम उनका जब भी ध्यान करें, पूर्ण रुप से उन्हीं में रम जाए, उनका हो जाए। अब ऐसी भी बात नहीं कि उनसे मांगे नहीं, उनसे जरूर मांगे, परन्तु दासत्व भाव से। धन मांगे, तो साथ में भक्ति भी मांगे। सफलता मांगे, तो साथ में विनम्रता भी जरूर मांगे। यही तो भक्ति है, जो कमल नयन को बहुत ही प्यारी है। भक्ति भाव प्रधान होती है, अतः हमारे हृदय में कोमल भाव हो।

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धर्म और अधर्म को लेकर व्याख्याकारों ने अलग-अलग परिभाषा दी है। परन्तु इसमें भी भेद है, क्यों? क्योंकि धर्म और अधर्म में बहुत ही सूक्ष्म रेखा है। उस रेखा को समझना इतना आसान नहीं। श्रेष्ठ विद्वान भी आज तक  इस भेद रखा को नहीं समझ सके है, तो हम लोगों की बिसात ही क्या है? परन्तु जीवन है और इसमें हमें संभलना चाहिए। हमें जीवन पथ पर संभलकर चलना चाहिए। हमें अधर्म की छाया से बचना चाहिए, क्योंकि यह छाया विषम कालिख लिए हुए है। जो हमारे वर्तमान को कलंकित करता है। भूत के धर्म को नष्ट कर देता है और भविष्य की संभावनाओं को भी अवरुद्ध कर देता है। अधर्म की छाया जब इंसान पर पड़ती है, उसके सुख- शांति को खा जाती है।

                          जीवन का धरातल अति कठोर है, खुरदरा है, जिसपर चलना है। इसलिये हमें अपने विचारों को हमेशा उत्तम रखना चाहिए। हमें उन बिंदुओं पर विचार करना चाहिए, जिसपर से होकर अधर्म की ओर उन्मुख हुआ जाता है। हमें आत्म केंद्रित होना चाहिए, स्व केंद्रित नहीं। वैसे भी तुलसी दास जी ने रामायण में लिखा है- परहित सरस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई। अतः हमें दूसरों को कष्ट पहुंचाने से बचना चाहिए। यह अखण्ड जीव जगत ईश्वर की रचना है, इसके कण-कण में नारायण का बास है। अतः समस्त सृष्टि को भगवान का रुप समझ कर हमें अपना व्यवहार करना चाहिए। हम ऐसी गलती, ऐसा अपराध नहीं करें, जिससे जीव मात्र को कष्ट पहुंचे। इसके लिए आपको एक वृतांत सुनाता हूं, जिससे आप धर्म और अधर्म को समझ सकेंगे।

                          राजा नृग बहुत ही धर्मात्मा थे, उन की धर्म ध्वजा फहरा रही थी। वे अखण्ड भू-मंडल के चक्रवर्ती सम्राट थे। परन्तु स्वभाव से विनम्र, जीव मात्र के प्रति दया रखने बाले। वे हमेशा याचकों को याचना अनुरूप दान देते थे। धर्मग्रंथ श्रीमद भागवत में वर्णित है कि वे नित्यप्रति सुबह के सूर्योदय होने के बाद वे पूजा-अर्चना करके ब्राह्मणों को स्वर्ण से मढी हुई एक लाख गायों का दान करते थे। यह राजा नृग की दैनिक दिनचर्या थी। उनके ऐश्वर्य और धर्म से समस्त भू-मंडल आलोकित हो रहा था। ऐसे राजा नृग ने एक दिन दान की और उसके साथ एक गरीब ब्राह्मण की गाय दान हो गई। जो नहीं घटित होना चाहिए था, वह घटित हो चुका था।

                          जिसका परिणाम भी भयावह हुआ। जिस ब्राह्मण की गाय खो गई थी, अपने गाय को ढूंढ रहा था। जबकि जिस ब्राह्मण ने गाय दान ली थी, वह अपनी गायों के साथ जा रहा था। तभी दूसरे ब्राह्मण, जिनकी गाय खो गई थी, उन्होंने अपनी गाय पहचान ली। उन्होंने दूसरे ब्राह्मण को रोक दी और अपनी गाय मांगने लगे। फिर तो दोनों ब्राह्मण में ठन गई। एक को तो गाय दान में मिला था, तो दूसरे की थी। ऐसे में दोनों में संघर्ष छिड़ा और दोनों ही न्याय के लिए राजा नृग के पास पहुंचे। परिस्थिति विषम थी और राजा नृग धर्म संकट में फंस चुके थे। आज उनके सामने जो न्यायिक प्रकरण आया था, बहुत ही विचित्र था। इसमें अपराधी राजा खुद थे और न्याय भी उनको खुद ही करना था। 

                        राजा नृग ने इस परिस्थिति में दोनों ही ब्राह्मण को समझाया। कहा कि आप दोनों में से जो भी मान लेगा, उसे एक लाख गाय दूंगा। लेकिन दोनों ही में से कोई भी ब्राह्मण इस बात के लिए तैयार नहीं हुआ। फिर तो जो होना था, वही घटित हुआ। ब्राह्मणों ने कोप किया और राजा नृग सिंहासन से लुढ़क गए, पल में ही उनका शरीर नि:सप्राण हो गया। राजा से अनजाने में एक भूल हुई, जिसका कीमत उनको अपने प्राणों से चुकाना पड़ा। फिर तो वे यमराज के दरबार में पहुंचे। चित्र गुप्त ने उनकी खाता -वही देखी और धर्मराज से बोले। महाराज.....राजा नृग ने अपने जीवन में कोई पाप नहीं किया है। बस इनके नाम से एक पाप है कि इन्होंने धोखे से एक ब्राह्मण की गाय दान कर दी है। 

                   बस धर्मराज ने राजा नृग को अनंत काल तक के लिए गिरगिट बनने का डंड दिया। हलांकि राजा नृग ने भी धर्मराज को डंड दिया कि आप भी भू-मंडल पर जन्म ले और धर्म और अधर्म के बीच की सूक्ष्म रेखा को समझे। समझे कि धरा पर मानव जीवन धारण करने के बाद जीवात्मा के लिए कितना कठिन होता है धर्म और अधर्म के बीच भेद कर पाना। खैर यह तो हुई राजा नृग की बातें, उनसे धोखे में जो भूल हुआ, उसके परिणाम से वे बच नहीं पाए, उनको गिरगिट बनना पड़ा। तो हमारी- आपकी बिसात ही क्या है। हम-आप तो न तो धर्म के इतने मर्मज्ञ है और न ही इतने सामर्थ्यवान। उसपर भी विषम परिस्थिति यह कि हम कलिकाल के प्रभाव से ग्रसित है। हमारी बुद्धि राग-द्वेष, लोभ-मोह और अपने-पराए में उलझा हुआ है।

                    अभी कलिकाल है, कलयुग का साम्राज्य चल रहा है। लेकिन इसमें एक विशेषता है कि मन से सोचा हुआ पाप-पाप नहीं होता। परन्तु मन में संकल्प करते ही वह धर्म में गिनती हो जाता है। फिर भी न जाने हम क्या सोचते है, क्या चाहते है? हमारे मन में अंधकार का गहन साम्राज्य फैला हुआ है। हम सिर्फ मैं के प्रभाव में हो गए है। औरो के प्रति हमारी बुद्धि, हमारा हृदय संकुचित हो चुका है। हम अकसर भूल जाते है कि यह शरीर हमें किराये पर मिला हुआ है। हम इस शरीर के किरायेदार है और जिस प्रकार से किरायेदार को अचानक ही मकान छोड़ कर जाना होता है, उसी प्रकार हमें भी यह शरीर छोड़ कर जाना होगा। 

                 हमारा यह है, इसपर हमारा अधिकार है, इसका मिथ्या अभिमान फिर क्यों? जब हम जानते ही नहीं कि हम जो सांसे ले रहे है, अगले पल चलेगी भी या नहीं। तो फिर हम अहंकार के चादर को अपने हृदय पर क्यों लपेटे हुए है? ऐसी बात नहीं है कि इंसान इन बातों से अंजान होता है, वह सब समझता है। उसे इन प्रश्नों एवं उसके उत्तर की अनुभूति है। परन्तु वह स्वार्थ के जाले में लिपट कर इन बातों को भूलना चाहता है। वह अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए दूसरे का गला काटने से भी नहीं हिचकता। वह जीवन का उत्सव मनाना ही नहीं चाहता। वह धर्म करना नहीं चाहता और अधर्म से बचना नहीं चाहता है।

                आज हम दया जो कि धर्म है, हम करना नहीं चाहते। क्रूरता, छल, लोभ और अनीति जैसे कर्मों में लिप्त होकर हम अधर्म पर ही तूले रहते है। फिर हम कहेंगे कि हमें कष्ट है। यह तो सत्य ही-है कि हम अगर बबूल का पौधा लगाएंगे, तो हिस्से में कांटा ही आएगा। हम जो कर्म करेंगे, उसका प्रतिफल तो हमें प्राप्त होगा ही। फिर तो हमारा हृदय संतप्त रहेगा ही, क्योंकि हमारी रुची अधर्म की तरफ है। हम धर्म का अनुसरण करना ही नहीं चाहते। तो फिर हमारे लिए शुभ किस प्रकार होगा। हमारा आचरण शुभता लिए धर्म युक्त होगा, तभी तो हम जीवन में शुभता प्राप्त कर पाएंगे। हमें धर्म-अधर्म के बीच की सूक्ष्म रेखा को समझना होगा। धर्म की ओर उन्मुख होना होगा और अधर्म की काली परछाईं से खुद को बचाना भी होगा।

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भगवन नारायण अति कृपालु है, वे बिना कारण ही जीव मात्र के प्रति करुणा बरसाते रहते है। तो फिर उनके भक्तों के क्या कहने। श्री हरि अपने कोमल अमृत वाणी द्वारा खुद कहते है कि "मैं अपने भक्तों का दास हूं। सही भी तो है, भगवान अपने भक्तों की देखभाल धाय की तरह करते है। जैसे माता अपने नवजात शिशु की रक्षा करती है, उसका प्रति पल ख्याल रखती है। उसके भूख लगने पर दौड़ पड़ती है। बच्चे के रोने मात्र से समझ जाती है कि उसे क्या तकलीफ है? उसी प्रकार ईश्वर अपने आश्रितों के लिए सजग होते है। वे अपने आश्रितों का बाल बराबर भी अहित नहीं होने देते।

                          उसके संबंध में रामायण के प्रथम कांड में ही चरित है। देवर्षि नारद ने बद्रिका वन में तपस्या की। वे नारायण की भक्ति में लीन हो गए। परन्तु यह बात तो राजा इंद्र को चूभी, उन्हें भय लगने लगा कि कहीं नारद उनका देव सिंहासन पाने को तो नहीं उत्सुक है? जरूर ऐसा ही है, अन्यथा वे इस प्रकार से तपस्या में लीन नहीं होते। अतः देव राज इंद्र ने कामदेव के साथ अप्सराओं को भेजा देवर्षि की तपस्या को भंग करने के लिए। परन्तु कामदेव और अप्सराओं के सारे प्रयास विफल हो गए। स्वाभाविक ही था कि उनको भय हो। वे नारद के चरण में गिर पड़े। परन्तु देवर्षि तो शांत चित थे, उनके मुख मंडल पर तनिक भी क्रोध नहीं था। उन्होंने कामदेव और अप्सराओं को सहज ही माफ कर दिया।

                        बस यही बात, देवर्षि के हृदय में घर कर गई। उनके अंतःकरण में अहंकार ने जन्म ले-लिया कि मैंने काम के साथ क्रोध को भी जीत लिया। वे बस चल पड़े, शिव लोक पहुंचे और भोले शंकर के सामने अपने जीत की बराई करने लगे। परन्तु शिव, वे महाकाल, समझ गए कि नारद को अहंकार ने घेर लिया है और अब उनका कल्याण नहीं होने बाला। परन्तु शिव तो कल्याणकारी है। उन्होंने देवर्षि को समझाया कि आपने जो मुझे कहा, श्री हरि से मत कहना। औढर ढरण ने तो देवर्षि पर दया करके इस बात को कही, परन्तु नारद को यह बात चुभने लगी। भला वे अपनी बातें नारायण से नहीं कहेंगे, तो कहेंगे किस से? उनके स्वामी तो नारायण ही है, उनको अपनी जीत की बात जरूर बताऊँगा।

                             देवर्षि, मन की गति से विचरण करने बाले, पहुंच गए वैकुंठ। उन्होंने नारायण के सामने अपनी बराई हांक दी। कमल नयन तो मंद-मंद मुस्करा रहे थे। वे समझ चुके थे कि उनके प्रिय नारद को अहंकार ने घेर लिया है। भला वे अपने आश्रित का अहित कैसे होने देते? नारद के हृदय में जन्म ले चुके अहंकार को किस प्रकार से रहने देते? इससे तो नारद का अहित होने बाला था। इसलिये वे मुस्करा रहे थे, परन्तु सामने कुछ भी तो नहीं कहा। वे तो देवर्षि की बराई करने लगे। अपने स्वामी के मुख से अपनी बराई सुनकर नारद फूलकर कुप्पा हो गए। उन्हें अब क्या? 

                     वहां से लौटकर वे भू-मंडल में विचरण करने लगे। इधर श्री हरि ने नारद का मोह भंग करने के लिए माया नगरी श्री निवासपुर का सृजन किया। वहां के राजा शील निधि थे। संयोगवश नारद उस नगर से गुजरे। वह नगर की सुंदरता से प्रभावित हो गए और राजा से मिलने की इच्छा जताई। नगरवासियों ने आदर सहित नारद को राजा के महल में पहुंचाया। राजा ने देवर्षि का आदर, सत्कार करने के बाद विश्व सुंदरी का भविष्य बताने को कहा और जैसे ही देवर्षि ने विश्व मोहिनी का हाथ देखा। वे आश्चर्य चकित हो गए, मोहित हो गए। बात ही कुछ ऐसी थी, विश्व मोहिनी के हाथों की रेखा बतला रही थी कि उनका वरण करने बाला त्रिलोक विजयी होगा। वह सर्व शक्तिमान होगा।

                         फिर क्या था, देवर्षि खुद की गृहस्थी बसाने के लिए लालायित हो गए। उन्होंने राजा शील निधि को कुछ बातें बनाकर कह दी और चल पड़े नारायण के पास। उन्होंने श्री हरि से उनका ही स्वरूप मांगा, जिससे कि विश्व मोहिनी स्वयंवर में उनका वरण कर ले। हलांकि पद्धनाभ ने नारद को कहा भी-रोगी मांगही कुपथ, वैद्य न देही, सुनहू मुनि जोगी। परन्तु देवर्षि को तो भगवान की जोग माया ने ग्रसित कर लिया था, तो किस प्रकार से समझते। वे तो चले और स्वयंवर सभा में पहुंच गए। साथ में भोलेनाथ ने अपने दो गण लगा दिए थे। स्वयंवर सभा में अजीब बातें हुई। वहां मौजूद देवता देख रहे थे कि देवर्षि आए है और विश्व मोहिनी उनके वानर मुख को देख रही थी। इस बात को शिव के गण भी जानते थे।

                        इधर देवर्षि विकल होकर विश्व मोहिनी के आगे-आगे जाते थे। परन्तु विश्व मोहिनी ने नारद को देखा भी नहीं। तभी सभा के बीच नारायण प्रगट हुए, विश्व मोहिनी ने उनको जयमाला पहनाई और वे विश्व मोहिनी को लेकर अंतर्ध्यान हो गए। इधर तो देवर्षि आवेश में थे, तभी शिव गणो ने उन्हें प्रतिबिंब देखने को कहा और डर कर भाग गए। बस, ज्यों ही जल में नारद जी ने अपने बंदर मुख को देखा, क्रोध से जलने लगे। उन्होंने शिव गणो को राक्षस होने का शाप दिया और चल पड़े वैकुंठ। जो इच्छा हुई, देवर्षि को नारायण रास्ते में ही मिल गए। गुरूर वाहन पर विश्व मोहिनी और श्री लक्ष्मी जी के संग। फिर तो नारद जी के क्रोध का आवेग फूट पड़ा। उन्होंने नारायण को भला-बुरा कहा और शाप दे दिया कि जिस प्रकार से मैं स्त्री विरह में मैं व्याकुल हूं, आप भी होना। आपने मुझे कपि का रुप दिया है, तो इसी रुप की आपको सहायता की जरूरत हो।

                             क्रोध शांत हुआ, तो देखा कि न तो नारायण के संग उनकी प्रिया है और न विश्व मोहिनी। शांत ,कोमल चित कमल नयन मंद-मंद मुस्करा रहे थे। बस नारद को अपने भूल की अनुभूति हुई। वे नारायण के श्री चरणों में गिर पड़े। उनकी वेदना देखकर नारायण मधुर वचन बोले। नारद, मैं अपने भक्तों का कभी भी अहित नहीं होने देता। उन्हें कभी भी अकेला नहीं छोड़ता और येन-केन-प्रकारेन उनकी रक्षा करता हूं। श्री हरि ने जो कहा, वह पूर्ण सत्य है। वे परम कृपालु है, वे अपने आश्रितों का हमेशा खयाल रखते है। उसका अहित कभी भी होने ही नहीं देते।

                         करुणा सिंधु विश्वेश्वर परम कृपालु की करुणा के क्या कहने। उनकी कृपा दृष्टि से अमी वर्षा होती रहती है। अतः हम जगत के प्राणी नारायण की भक्ति क्यों न करें। हम ईश्वर के अंस जीव रुप है, तो उस जगत पति का आधार क्यों न धारण करें। उनके कृपा कटाक्ष को पाने के लिए क्यों न लालायित हो, जिसको पाने के लिए ऋषि -मुनि युगों- युगों तक तप-ध्यान करते है। वह नारायण हमें सहज ही प्राप्य है। हम उनकी शरणागत लेकर तो देखे, उनके चरणों से कृपा की धारा बहती रहती है। हम उनको हृदय में तो बसाकर तो देखे, श्री हरि हमारे हो जाएंगे। भगवान तो हमारे ही-है, बस उनको अपना बनाने की जरूरत है। हम उनकी ओर एक कदम बढ़ाकर तो देखे, वे करुणा के सागर है, हमारी और सौ कदम दौड़ कर आएंगे।

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श्री राम चरित मानस में भक्ति के नौ स्वरूप बतलाए गए है। जब श्री सीता माता का रावन के द्वारा हरण कर लिया जाता है। तब प्रभु श्री राम और लक्ष्मण सीता की खोज करते हुए आगे बढ़ते है। वे कबंध का वध करके जब डंडक वन में शबरी के आश्रम में पहुंचते है। माता शबरी उनकी प्रतीक्षा अनेक- अनेक वर्षों से कर रही थी। प्रति दिन कोमल पुष्पों को चुनकर उनके आने के राह में बिछा रही थी। उनके लिए मीठे-मीठे वैर को चुन-चुन कर रखती जा रही थी।

                शबरी का जिक्र तो आपने रामायण के दौरान सुना, जाना और पढ़ा ही होगा आइए आज जानते हैं उनके बारे में विस्तार से... शबरी श्री राम की परम भक्त थीं। जिन्होंने राम को अपने झूठे बेर खिलाए थे। शबरी का असली नाम श्रमणा था। वह भील समुदाय के शबर जाति से संबंध रखती थीं। इसी कारण कालांतर में उनका नाम शबरी पड़ा।

                                 उनके पिता भीलों के मुखिया थे। श्रमणा का विवाह एक भील कुमार से तय हुआ था, विवाह से पहले कई सौ पशु बलि के लिए लाए गए। जिन्हें देख श्रमणा बड़ी आहत हुई.... यह कैसी परंपरा? ना जाने कितने बेजुबान और निर्दोष जानवरों की हत्या की जाएगी... इस कारण शबरी विवाह से एक दिन पूर्व भाग गई और दंडकारण्य वन में पहुंच गई।

            दंडकारण्य में मातंग ऋषि तपस्या किया करते थे, श्रमणा उनकी सेवा तो करना चाहती थी पर वह भील जाति की होने के कारण उसे अवसर ना मिलाने का अंदेशा था। फिर भी शबरी सुबह-सुबह ऋषियों के उठने से पहले उनके आश्रम से नदी तक का रास्ता साफ़ कर देती थीं, कांटे चुनकर रास्ते में साफ बालू बिछा देती थी। यह सब वे ऐसे करती थीं कि किसी को इसका पता नहीं चलता था।

 एक दिन ऋषि श्रेष्ठ को शबरी दिख गई और उनके सेवा से अति प्रसन्न हो गए और उन्होंने शबरी को अपने आश्रम में शरण दे दी। जब मातंग का अंत समय आया तो उन्होंने शबरी से कहा कि वे अपने आश्रम में ही भगवान राम की प्रतीक्षा करें, वे उनसे मिलने जरूर आएंगे।

                 मातंग ऋषि की मौत के बात शबरी का समय भगवान राम की प्रतीक्षा में बीतने लगा, वह अपना आश्रम साफ सुथरा रखती थी, नित्य प्रति श्री राम के नामों का गान करती थी। यह उनका वर्षों का तप था, उन्हें विश्वास था कि श्री राम एक दिन जरूर उनकी कुटिया में आएंगे और उनकी तपस्या पूर्ण भी हुई। भगवान राम अपने भ्राता सहित शबरी के आश्रम में पहुंचे। शबरी के हर्ष की तो जैसे कोई सीमा ही नहीं रही। माता शबरी ने राम लक्ष्मण के पांव पखारे और उनको आसन दिया बैठने के लिए। फिर जिस प्रकार से एक माता अपने पुत्र को भोजन कराती है। शबरी प्रभु श्री राम को अपने जूठे वैर खिलाने लगी। जब भोजन हो गई, तब प्रभु से माता शबरी ने भक्ति के प्रकार को पुछा।-:


उनके प्रश्न सुनकर प्रभु श्री राम ने शबरी को नवधा भक्ति के अनमोल वचन दिए थे।

            नवधा भक्ति के अंतर्गत प्रथम भक्ति है -संत सत्संग। श्रेष्ठ जनों के जिस सत्संग से जड़ता, मूढ़ मान्यताएं टूटती हैं वह सत्संग सर्वोच्च कोटि का होता है। संत वे होते हैं जिनके पास बैठने पर हमारे अंतःकरण में ईश्वर के प्रति ललक-जिज्ञासा पैदा होती है। दूसरी भक्ति यानी दूसरी रति है- ‘मम कथा प्रसंगा’। भक्ति साधना का सबसे सुलभ मार्ग है-भगवान के लीला-प्रसंगों का चिंतन व गुणगान। आर्ष साहित्य के पौराणिक कथा-प्रसंगों ने लोक मानस को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। मन को भगवान के स्वरूप में लीन करने की इसमें जबरदस्त शक्ति है। इसीलिए श्री रामचरित्र मानस व श्रीमद भागवत जन सामान्य में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। भगवद् भक्ति की ओर उन्मुख करने वाले कथा-प्रसंग लोक मानस को छूते हैं, भाव संवेदना जगाते हैं एवं मानव कल्याण का पथ प्रशस्त करते हैं। इस भक्ति का एक श्रेष्ठतम उदाहरण है राजा परीक्षित द्वारा अपने जीवन के अंतिम क्षणों में श्रीमद भागवत कथा को सुनकर मोक्ष को प्राप्त होना।

              तीसरी भक्ति है-अभिमान रहित होकर गुरु के चरणकमलों की सेवा। भारतीय अध्यात्म में गुरु को ईश्वर का दर्जा दिया गया है। गुरु के प्रति सर्वस्व समर्पण जब तक नहीं होगा, भक्ति नहीं सधेगी। श्री अरविंद कहते थे-गुरु की चेतना का शिष्य में अवतरण तभी हो पाता है जब शिष्य की चेतना भी शिखर पर हो। चौथी भक्ति है-छल कपट छोड़कर भगवद् संकीर्तन करना। श्रीमद भागवत में बाल यति शुकदेव जी कहते हैं कलियुग में भगवान के संकीर्तन से व्यक्ति परम गति को प्राप्त हो सकता है। श्री भगवान ने भी गीता में कहा है कि यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मुझको भजता है तो भजन के प्रभाव से वह शीघ्र धर्मात्मा हो जाता है और परम शांति को प्राप्त होता है।

                                पांचवीं भक्ति है-दृढ़ विश्वास के साथ भगवान का मंत्र जप। मंत्र का महात्म्य समझकर भाव पूर्वक परमात्मा सत्ता में गहन विश्वास रख जब जप किया जाता है तो वह सिद्धि का मूल बन जाता है। ईश्वर को संबोधित निवेदन ही मंत्र है। चाहे ‘नमो भगवते वासुदेवाय’ हो, ‘नम: शिवाय:’ हो अथवा गायत्री मंत्र के रूप में सद्बुद्धि की प्रार्थना। विश्वासपूर्वक किया गया जप निश्चित फल देता है। छठी भक्ति है- इंद्रिय निग्रह। ‘षट् दम शील-विरत बहुकर्मा- निरत निरंतर सज्जन धर्मा।’ संयम सधते ही शरीर स्वयंमेव सध जाता है। इंद्रियों पर नियंत्रण की महत्ता बताते हुए ऋषि विचार संयम, इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम व आस्वाद व्रत पर जोर देते हैं। इस भक्ति में भगवान श्री राम ने शील की चर्चा की है। अश्लील का उलटा है शील। शील अर्थात शालीनता। जब पति-पत्नी सद् गृहस्थ के रूप में परस्पर सहमति से संयम-पूर्वक जीवनयापन करते हैं तो इसे शील व्रत कहते हैं। अमर्यादित काम को मर्यादित करते हुए जीवनयापन शील व्रत का पहला चरण है। 

                          नवधा भक्ति में सातवीं भक्ति है विश्व के प्रत्येक जीव व घटक को परमात्म भाव से देखना। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि जो मुझे सर्वत्र संव्याप्त देखता है और सब को मुझमें देखता है कि उसके लिए मैं अदृश्य नहीं, सर्वत्र हूं। इसे इस उदाहरण से और स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है -सोना एक धातु है। उससे बने विभिन्न आभूषणों में अंगूठी-कंगन-बाजूबंद को हम अलग-अलग रूप में देखते हैं किंतु सुनार को आभूषणों में सोना ही दिखाई देता है। उसी तरह सच्चा भक्त सभी को प्रभु में और प्रभु को सभी में देखता है।

              आठवीं भक्ति है-यथा लाभ संतोषा । सपनेहुं नहीं देखहिं परदोषा। यानी जो कुछ मिल जाए उसी में संतोष, स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना। इसीलिए कबीर दास जी कहते हैं, ‘साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाये । मैं भी भूखा न रहूं साधु न भूखा जाये।’ नवधा भक्ति का अंतिम सोपान है-सरलता, सब के साथ कपट रहित बर्ताव करना व हृदय में परमात्मा का भरोसा रख किसी भी स्थिति में हर्ष व दैन्य का भाव न होना। भगवान इस अंतिम भक्ति प्रकरण में सर्वाधिक जोर सरल व निष्कपट होने पर देते हैं। ऐसा वही हो पाता है जिसकी भावनाएं ईश्वरोन्मुख हों, कामनाएं न के बराबर हों। ईश्वर की सहज भक्ति के माध्यम से ऐसा भक्त बुद्धि के सारे मानदंडों, कुचक्रों से भरे षड्यंत्रों से उबरकर बुद्धि से प्रज्ञा के धरातल पर पहुंच जाता है।

                               इस प्रकार से भगवान राम ने शबरी को नौ प्रकार की भक्ति और इसके गुणों को बतलाए। इसके बाद नारायण ने अपने श्री मुख से शबरी को कहा, हे माता, मैंने जो आपको नवधा भक्ति बतलाई है। आपमें तो नवों प्रकार के भक्ति के लक्षण है। बस, धन्य हो गई शबरी, उन्होंने श्यामल गात श्री राम को सजल नयनों से देखा, इसके बाद उन्होंने अपने शरीर को योगाग्नि से भस्म कर लिया और नारायण के नित्य धाम को चली गई। खैर यह तो त्रेता की बातें हुई और हम कलयुग में है। विषम कलिकाल के पहरे में है, इसलिये हम इन नौ प्रकार की भक्ति का आचरण नहीं कर सकते। परन्तु जितना संभव हो इन भक्ति के नवों गुण को अपने जीवन में उतारने की चेष्टा तो कर ही सकते है।

                              एक हम ही है, जो शबरी बनना ही नहीं चाहते। नहीं तो नारायण तो भक्तों के आधीन है, वे हमारे तंडुल को भी खाने को लालायित रहते है। एक हम ही है, जो उनका होना ही नहीं चाहते, नहीं तो वे परम कृपालु उदार है, वे तुलसी दल और जल पर ही रीझ जाते है। उनको छप्पन भोग भाता ही नहीं, हम प्रेम से उन्हें केले के छिलके जीमा कर तो देखें। लेकिन नहीं, हम इतने कृतघ्न है कि धरा भूमि पर जन्म लेने के साथ ही सबसे पहले उन्हें ही भूला बैठते है। हमारी आकांक्षा ऐश्वर्य भोग के प्रति तो रहता है, परन्तु एक बार हृदय से उनका नाम नहीं लेना चाहते।

                       हम जो मंदिरों और देव स्थानों में जाते है, वह बस छलावा होता है। हम तो उनसे सुख समृद्धि मांगने जाते है। हम उन नारायण के सामने अपना दुख रोने जाते है, उनके सामने क्रंदन करने जाते है, अपने ऊपर आए हुए विपदा का। हम तो उनके दरबार में जाते है, तो प्रसाद का भी हिसाब लगा लेते है। जितनी बड़ी मान्यता, उतने महंगे प्रसाद। हमारा उनके करीब जाने का आशय ही पवित्र नहीं होता। हमारा हृदय भक्ति के रस से अछूता ही रहता है। तो फिर जीवन में शांति कहां से रहेगी। जब हम ही शुद्ध नहीं है, हमारा अंतर मन ही शुद्ध नहीं है, तो फिर हमें हताशा-निराशा घेरेगी ही। 

                             हम जीव रुप होकर जब तक उस विश्वरूप, विराट स्वरूप अनंत विग्रह में एकाकार होने का प्रयास नहीं करेंगे। हमारा जीवन काल चक्र में फंसा ही रहेगा- इसको लेकर बहुत ही सुंदर श्लोक है-:

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम् ।

इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपया पारे पाहि मुरारि ।।


अर्थ-:बार जन्म लेना और बार-बार मृत्यु को प्राप्त होना, बार-बार माता के गर्भ में निवास करना यही चक्र चलता रहता है। संसार के इस चक्र से छुटकारा पाना और उससे मुक्त होना अत्यंत कठिन है । हे मुरारि आप ही कृपा करें और मुझे भवसागर से पार कराइए ।

                         लेकिन कैसे? जब तक हम मुरारि की शरणागत को स्वीकार नहीं करेंगे, इस जन्म-मरण के व्यूह से किस प्रकार निकलेंगे। हम तो मिथ्या अभिमान-अहंकार को ही धारण किए रहते है, तो फिर चौरासी लाख योनियाँ हमारे स्वागत के लिए तत्पर रहेगी ही। हमें जो काल चक्र के इस विषम जाल से बचना होगा, हमें नारायण के शरण में जाना होगा। उनके नाम का जाप करना होगा। जीव जगत के प्रति दयालुता दिखलानी होगी। तभी हम इस विषम कलिकाल के दावानल से अपने-आप को बचा सकेंगे। अगले अध्याय में मैं आपको इसी से संदर्भीत नाम महिमा और अजामील की कहानी बताऊंगा।

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क्रमशः-


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रचनाएँ
भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुप
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इस पुस्तक में धर्म और अधर्म के बारे में बताने की कोशिश की गई है। मानव जीवन का सत्य उद्देश्य क्या है, उसकी व्याख्या की गई है। मानव जीवन में भक्ति की महता को निरुपीत किया गया है। साथ ही नारायण और उनके भक्तो का मधुर संबंध दृष्टांत के द्वारा बतलाया गया है। मानव जीवन की दुविधा, उसकी उपलब्धि और जरुरतों का सचित्र चित्रण किया गया है। मदन मोहन "मैत्रेय
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भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुुप

1 जून 2022
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सबसे पहले तो मैं श्री गणेश की वंदना करता हूं। गौरी- महेश नंदन बिना विघ्न के मेरी इस रचना का पूर्ण करें। तत्पश्चात मैं वीणा धारनी शक्ति स्वरुपा जगदंबा शारदा की वंदना करता हूं। वे मुझे ज्ञान पुंज दे, जो

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भक्ति की धारा-भक्त विशेष

3 जून 2022
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जीवन तो ईश्वर प्रदत्त है, परन्तु हम जगत के प्राणी इसको अपना समझ बैठे है। हम इस शरीर को अपना समझ बैठे है, जो नाशवान है। पता नहीं कि कब यह शून्य हो जाये, कब शिथिल हो जाए। जैसे ही इसमें से आत्मा निकल जात

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भक्त कथा अमृत

5 जून 2022
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भक्ति की धारा प्रवाहित हो और उसमें भगवान के परम भक्तों की चर्चा नहीं हो, संभव ही नहीं। भक्तों के निर्मल चरित्र से हमें काफी कुछ सीखने-समझने का अवसर प्राप्त होता है। अब मैं आपको नारायण के ऐसे ही भक्त प

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भक्त कथा अमृत

7 जून 2022
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श्री बजरंग बली, अंजन सुत, पवन तनय वीर हनुमान की कथा भी इसी श्रेणी में आती है। महाबली हनुमान ग्यारहवें रुद्र है। बजरंग बली श्री राम के अनन्या-नन्य भक्त है। उनको राम नाम के अलावा जगत में कुछ भी तो प्रिय

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भक्त कथा अमृत

9 जून 2022
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भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा से हो गए, अन्यथा उनका नाम तो देवव्रत था। शांतनु और गंगा की आठवीं संतान और पिता के आज्ञाकारी। परशुराम शिष्य भीष्म साधारण नहीं थे, वे अजेय योद्धा थे। वे ऐसे वीर योद्धा थे कि उन्ह

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भक्त कथा अमृत

13 जून 2022
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नरसी मेहता महान कृष्ण भक्त थे. कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने उनको बावन बार साक्षात दर्शन दिए थे। नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़, गुजरात में हुआ था. इनका सम्पूर्ण जीवन भजन कीर्तन और कृष्ण की भक्ति में

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भक्त कथा अमृत

17 जून 2022
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धर्म की परिभाषा देना न तो सहज है और न ही सुलभ। परन्तु इसको सरल बनाते है संत। भगवान के भक्त ही हमें भगवान की ओर उन्मुख करते है। संत ही मानव जीवन के लिए जहाज रूपी साधन है, जो भवसागर रूपी संसार से पार लग

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ईश्वर की अनुभूति

26 जून 2022
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विलासिता क्या है? अतिशय गुढ प्रश्न है। क्योंकि यह अखिल संसार ही इसके पीछे अंधी दौड़ लगा रहा है। भला सुख-सुविधा और उपभोग की वस्तुएँ किस को पसंद नहीं। कौन नहीं चाहता कि वह अच्छा पहने, अच्छा खाए और अच्छी

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ईश्वर के स्वरुप एवं भक्ति भाव-:

21 सितम्बर 2022
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भगवान सगुन और निर्गुण दो भावना से पुजे जाते है। निर्गुण स्वरूप का कोई आकार-प्रकार नहीं होता, जबकि सगुन स्वरूप में नारायण की विग्रह की पुजा होती है। जो अवतार रुप में अन्यथा नारायण रुप में।

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