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भक्त कथा अमृत

9 जून 2022

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भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा से हो गए, अन्यथा उनका नाम तो देवव्रत था। शांतनु और गंगा की आठवीं संतान और पिता के आज्ञाकारी। परशुराम शिष्य भीष्म साधारण नहीं थे, वे अजेय योद्धा थे। वे ऐसे वीर योद्धा थे कि उन्होंने अपने गुरु परशुराम को ही हरा दिया था। लेकिन वे सिर्फ योद्धा ही नहीं थे, वरण वे नारायण के भक्त भी थे। आगे मैं उनके व्यक्तित्व और उनकी भक्ति के बारे में बताता हूं।

                    भीष्म पितामह आदर्श पितृ-भक्त, आदर्श सत्य प्रतिज्ञ, शास्त्रों के महान ज्ञाता तथा परम भगवद् भक्त थे। इनके पिता भारत वर्ष के चक्रवर्ती सम्राट महाराज शांतनु तथा माता भगवती गंगा जी थीं। महर्षि वशिष्ठ के शाप से ‘द्यौ’ नामक अष्टम वसु ही पितामह भीष्म के रूप में इस धरा धाम पर अवतीर्ण हुए थे। बचपन में इनका नाम देवव्रत था। एक बार इनके पिता महाराज शांतनु कैवर्तराज की पालित पुत्री सत्यवती के अनुपम सौन्दर्य पर मुग्ध हो गये। कैवर्तराज ने उनसे कहा कि मैं अपनी पुत्री का विवाह आपसे तभी कर सकता हूँ, जब इसके गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही आप अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाने का वचन दें। महाराज शांतनु अपने शीलवान पुत्र देवव्रत के साथ अन्याय नहीं करना चाहते थे अतः उन्होंने कैवर्तराज की शर्त को अस्वीकार कर दिया, किंतु सत्यवती की आसक्ति और चिन्ता में वे उदास रहने लगे। जब भीष्म  को महाराज की चिन्ता और उदासी का कारण मालूम हुआ, तब इन्होंने कैवर्तराज के सामने जाकर प्रतिज्ञा की कि ‘आपकी कन्या से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा।

          जब कैवर्तराज को इस पर भी संतोष नहीं हुआ तो इन्होंने आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने का दूसरा प्रण किया। देवताओं ने इस भीष्म प्रतिज्ञा को सुनकर आकाश से पुष्प वर्षा की और तभी से देवव्रत का नाम भीष्म प्रसिद्ध हुआ। इनके पिता ने इनपर प्रसन्न होकर इन्हें इच्छा-मृत्यु का दुर्लभ वर प्रदान किया। सत्यवती के गर्भ से महाराज शांतनु को चित्रांगद और विचित्र वीर्य नाम के दो पुत्र हुए। महाराज की मृत्यु के बाद चित्रांगद राजा बनाये गये, किंतु गन्धर्वों के साथ युद्ध में उनकी मृत्यु हो गयी। विचित्र वीर्य अभी बालक थे। उन्हें सिंहासन पर आसीन करके भीष्म जी राज्य का कार्य देखने लगे। विचित्र वीर्य के युवा होने पर उनके विवाह के लिये काशी राज की तीन कन्याओं का बल पूर्वक हरण करके भीष्म जी ने संसार को अपने अस्त्र कौशल का प्रथम परिचय दिया।

               काशी-नरेश की बड़ी कन्या अम्बा शल्य से प्रेम करती थी, अतः भीष्म ने उसे वापस भेज दिया; किंतु शल्य ने उसे स्वीकार नहीं किया। अम्बा ने अपनी दुर्दशा का कारण भीष्म को समझकर उनकी शिकायत परशुराम जी से की। परशुराम जी ने भीष्म से कहा कि ‘तुमने अम्बा का बल-पूर्वक अपहरण किया है, अतः तुम्हें इससे विवाह करना होगा, अन्यथा मुझसे युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।’ परशुराम जी से भीष्म का इक्कीस दिनों तक भयानक युद्ध हुआ। अन्त में ऋषियों के कहने पर लोक-कल्याण के लिये परशुराम जी को ही युद्ध-विराम करना पड़ा। भीष्म अपने प्रण पर अटल रहे।

              महाभारत के युद्ध में भीष्म को कौरव पक्ष के प्रथम सेना नायक होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस युद्ध में भगवान श्री कृष्ण ने शस्त्र न ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की थी। एक दिन भीष्म पितामह ने भगवान को शस्त्र ग्रहण कराने की प्रतिज्ञा कर ली। इन्होंने अर्जुन को अपनी बाण-वर्षा से व्याकुल कर दिया। भक्त-वत्सल भगवान ने भक्त के प्राण की रक्षा के लिये अपनी प्रतिज्ञा को भंग कर दिया और रथ का टूटा हुआ पहिया लेकर भीष्म की ओर दौड़ पड़े। भीष्म पितामह मुग्ध हो गये भगवान‌ की इस भक्त वत्सलता पर। अठारह दिनों के युद्ध में दस दिनों तक अकेले घमासान युद्ध करके भीष्म ने पांडव-पक्ष को व्याकुल कर दिया और अन्त में श्रिखण्डी के माध्यम से अपनी मृत्यु का उपाय स्वयं बताकर महाभारत के इस अद्भुत योद्धा ने शर-शय्या पर शयन किया।

                    अपने वंश के नाश से दुखी पांडव अपने समस्त बन्धु- बान्धवों तथा भगवान श्रीकृष्ण को साथ ले कर कुरुक्षेत्र में भीष्म पितामह के पास गये। भीष्म जी शर शैया पर पड़े हुए अपने अन्त समय की प्रतीक्षा कर रहे थे। भरत वंश शिरोमणि भीष्म जी के दर्शन के लिये उस समय नारद, धौम्य, पर्वतमुनि, वेदव्यास, वृहदस्व, भारद्वाज, वशिष्ठ, त्रित, इन्द्रमद, परशुराम, गृत्समद, असित, गौतम, अत्रि, सुदर्शन, काक्षीवान्, विश्वामित्र, शुकदेव, कश्यप, अंगिरा आदि सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा राजर्षि अपने शिष्यों के साथ उपस्थित हुए। भीष्म पितामह ने भी उन सभी ब्रह्मर्षियों, देवर्षियों तथा राजर्षियों का धर्म, देश व काल के अनुसार यथेष्ट सम्मान किया।

          सारे पांडव विनम्र भाव से भीष्म पितामह के पास जाकर बैठे। उन्हें देख कर भीष्म के नेत्रों से प्रेमाश्रु छलक उठे। उन्होंने कहा, "हे धर्मावतारों! अत्यन्त दुःख का विषय है कि आप लोगों को धर्म का आश्रय लेते हुए और भगवान श्रीकृष्ण की शरण में रहते हुए भी महान कष्ट सहने पड़े। बचपन में ही आपके पिता स्वर्गवासी हो गये, रानी कुन्ती ने बड़े कष्टों से आप लोगों को पाला। युवा होने पर दुर्योधन ने महान कष्ट दिया। परन्तु ये सारी घटनाएँ इन्हीं भगवान श्रीकृष्ण, जो अपने भक्तों को कष्ट में डाल कर उन्हें अपनी भक्ति देते हैं, की लीलाओं के कारण से ही हुए। जहाँ पर धर्मराज युधिष्ठिर, पवन पुत्र भीमसेन, गांडीवधारी अर्जुन और रक्षक के रूप में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हों फिर वहाँ विपत्तियाँ कैसे आ सकती हैं? किन्तु इन भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानी भी नहीं जान सकते। विश्व की सम्पूर्ण घटनाएँ ईश्वाराधीन हैं! अतः शोक और वेदना को त्याग कर निरीह प्रजा का पालन करो और सदा भगवान श्रीकृष्ण की शरण में रहो।

ये श्रीकृष्ण चन्द्र सर्वशक्तिमान साक्षात् ईश्वर हैं, अपनी माया से हम सब को मोहित करके यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। इस गूढ़ तत्व को भगवान शंकर, देवर्षि नारद और भगवान कपिल ही जानते हैं। 

             तुम लोग तो इन्हें मामा का पुत्र, अपना भाई और हित ही मानते हो। तुमने इन्हें प्रेम पाश में बाँध कर अपना दूत, मन्त्री और यहाँ तक कि सारथी बना लिया है। इनसे अपने अतिथियों के चरण भी धुलवाये हैं। हे धर्मराज! ये समदर्शी होने पर भी अपने भक्तों पर विशेष कृपा करते हैं तभी यह मेरे अन्त समय में मुझे दर्शन देने कि लिये यहाँ पधारे हैं। जो भक्तजन भक्ति भाव से इनका स्मरण, कीर्तन करते हुए शरीर त्याग करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। मेरी यही कामना है कि इन्हीं के दर्शन करते हुए मैं अपना शरीर त्याग कर दूँ।

                       धर्मराज युधिष्ठिर ने शर शैया पर पड़े हुए भीष्म जी से सम्पूर्ण ब्रह्मर्षियों तथा देवर्षियों के सम्मुख धर्म के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। तत्व ज्ञानी एवं धर्म वेत्ता भीष्म जी ने वर्णाश्रम, राग-वैराग्य, निवृति- प्रवृति आदि के संबंध में अनेक रहस्यमय भेद समझाये, उन्हें धर्म बताया तथा दान धर्म, राज धर्म, मोक्ष धर्म, स्त्री धर्म, भगवत धर्म, विविध धर्म आदि के विषय में विस्तार से चर्चा की। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के साधनों का भी उत्तम विधि से वर्णन किया।

                             इसके बाद पितामह भीष्म श्री कृष्ण को एकटक देखने लगे। उन्हें अपनी ओर इस प्रकार से देखता पाकर माधव के होंठों पर मुसकान छा गई। उन्होंने पितामह से अपनी ओर देखने का कारण पुछा। इसपर भीष्म पितामह बोले, हे माधव, हे दामोदर। आपने जो कुरुक्षेत्र में रुप धारण किया था, एक बार उस रुप के दर्शन करवा दो। भीष्म पितामह की बातें सुनकर माधव उलझन में बोले। पितामह....आप किस रुप की बातें करते हो? कृष्ण के प्रश्न सुनकर पितामह ठठाकर हंसे और बोले। हे देवकी नंदन वासुदेव, अब तो इतने कठोर न बनो। मुझे इस प्रकार से न उलझाओ कि मैं सब भूलने लगूं। मैं जानता हूं केशव, तुम्हारे विश्वरूप से भलीभांति परिचित हूं। इसलिए मुझे उस रुप को दिखा दो, जब क्रोध में लाल- पीले होकर तुम मुझे मारने के लिए दौड़े थे।

                      पितामह की बातों ने कन्हैया के चेहरे पर गंभीरता ला दी। आज उनका अनन्य भक्त उनसे जो कामना कर रहा था, वह अप्रतिम था। माधव तो उदास थे, उनका अनन्य भक्त आज धरा धाम से विदा ले रहा था। केशव तो अकारण ही करुणा वरुणालय है, उसमें भी अपने आश्रितों के तो प्राण धन है। वे अपने भक्तों का ध्यान उस धाय की तरह रखते है, जो अपने बच्चे के रोने से विकल हो जाती है। आज पितामह ने जो उनसे मांगा था, वह साधारण नहीं था, देय योग्य नहीं था। काश कि पितामह ने अमरता मांग ली होती, ब्रह्मा होने का वर मांग लिया होता। काश कि वे वैकुंठ भी मांग लेते, तो माधव संकोच नहीं करते। लेकिन उस भक्त पर क्रोधित कैसे हो, जो बावन दिनों तक वाणों की शैया पर लेटा हुआ है। बिना किसी प्रकार का आहार लिए सिर्फ इसलिये ही अपने प्राणों को रोका है कि सूर्य उतरायण हो जाए।

                   विश्वरूप परमेश्वर का हृदय तो क्रंदन कर रहा था। मुरारि की तो इच्छा हो रही थी कि पितामह के पास बैठ जाए, उनके सिर को गोद में ले-ले और जार-जार रोए। ऐसे में पितामह की इच्छा, माधव का हृदय कंपित हो गया और उन्हें वह प्रकरण भी याद हो आया, जब वे पितामह पर कुपित हो गए थे। बात थी महाभारत युद्ध की और युद्ध में दुर्योधन के अंठावन भाई वीर गति को प्राप्त हो चुके थे। ऐसे में दुर्योधन ने उलाहना दिया कि पितामह, आपके होते हुए भी मेरे भाई स्वर्ग सिधार रहे है, परन्तु पांडव तो जैसे अक्षय वर प्राप्त किए हुए है।

                        दुर्योधन की बातें सुनकर पितामह आहत हुए और उन्होंने ने प्रतिज्ञा कर ली कि कल युद्ध भूमि में एक पांडव को मार दूंगा। बस पांडव शिविर में हलचल होने लगी, बात ही भीष्म प्रतिज्ञा की। इस परिस्थिति में पांडव पाँचों भाई उदास हो गए। परन्तु रात के दो बजे अचानक ही कृष्ण ने द्रोपदी को उठाया और उसे सोलह श्रृंगार करने के लिए बोला। द्रोपदी पहले तो चौंकी, परन्तु माधव ने आदेश दिया था, तो नव विवाहिता की तरह श्रृंगार किया। इसके बाद श्री कृष्ण द्रोपदी को लेकर चल पड़े और भीष्म पितामह के शिविर के पास पहुंचे। वहां पहुंचने पर केशव ने द्रोपदी को समझाया कि तुम पितामह के चरणों में जाकर प्रणाम करो और वे जब तक आशीर्वाद नहीं दे, कुछ बोलना नहीं।

                           वही हुआ, द्रोपदी पितामह के शिविर में गई और उनके चरणों में झुक गई। ब्रह्म मुहूर्त था और पितामह नित्य क्रिया-क्रम से नृवित होकर श्री कृष्ण का ही ध्यान कर रहे थे। ऐसे में जैसे ही उन्होंने नव विवाहिता को देखा, अखण्ड सौभाग्य वती भव "बोल पड़े। फिर क्या था, द्रोपदी ने घूंघट हटाया और बोल पड़ी। पितामह.... आपने तो व्यर्थ ही सौभाग्य वती भव" कहा। क्योंकि कल रणभूमि में आप एक पांडव को मार देंगे।

                     सुनकर पितामह हंसने लगे, वे बोले। द्रोपदी! यह तुम नहीं कर सकती, तुम बोलो कि तुमको लेकर आने बाला छलिया कहां है। इतना कह कर पितामह आसन से उठे और बाहर आ गए। बाहर आकर उन्होंने देखा कि श्री कृष्ण के कांख में द्रोपदी" का पगरखा दबा हुआ है। श्री कृष्ण ने पितामह को देखा, तो हाथों को जोड़ कर मुस्करा पड़े। जबकि पितामह, वे बोले, हे माधव। आप ने जैसे मेरी प्रतिज्ञा तोड़ा है, वैसे ही आपकी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी तो शांतनु सुत नहीं कहलाऊँ और सच वही हुआ। दूसरे दिन रणभूमि में पितामह उग्र हो गए।

                          आज उनके सामने कोई टिक ही नहीं पा रहा था। ऐसे में केशव ने रथ को उनके सामने किया। परन्तु यह क्या, पितामह ने ऐसे वाणों की वर्षा की कि अर्जुन धनुष भी संभाल नहीं पा रहे थे। अर्जुन का शरीर वाणों से बिंध गया और केशव भी इस वाणों के वर्षा से घायल हो गए। तब माधव ने क्रोधित होकर कहा, पार्थ, तुम क्या युद्ध करोगे, तुम्हें तो अपने सारथी की रक्षा भी करना नहीं आता। तुम देखो कि युद्ध कैसे होता है और बोल कर माधव रथ से कूद गए और टूटे रथ का पहिया उठाकर पितामह को मारने दौड़े। बस......पितामह ने धनुष रखकर दोनों हाथ जोड़ दिए और मुस्कराने लगे। सच ही है:-

पल-पल प्रभु का नियम बदलते देखा।

अपना मान टले-टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा।

                    बस श्री कृष्ण को वही बात याद आ गई और उन्होंने अश्रु पूरित नयनों से पितामह को देखा। माधव के इस रुप को देखकर पितामह मुग्ध हो गए। उसी समय उत्तरायण सूर्य आ गये। अपनी मृत्यु का उत्तम समय जान कर भीष्म जी ने अपनी वाणी को संयम में कर के मन को सम्पूर्ण रागादि से हटा कर सच्चिदानंद भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना चतुर्भुज रूप धारण कर के दर्शन दिये। भीष्म जी ने श्रीकृष्ण की मोहिनी छवि पर अपने नेत्र एकटक लगा दिये और अपनी इन्द्रियों को केंद्रित कर के भगवान की इस प्रकार स्तुति करने लगे - "मैं अपने इस शुद्ध मन को देवकी नंदन भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र के चरणों में अर्पण करता हूँ। जो भगवान अकर्मा होते हुए भी अपनी लीला विलास के लिये योग माया द्वारा इस संसार की सृष्टि रच कर लीला करते हैं, जिनका श्यामवर्ण है, जिनका तेज करोड़ों सूर्यों के समान है, जो पीतांबर धारी हैं तथा चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म कंठ में कौस्तुभ मणि और वक्षस्थल पर वनमाला धारण किए हुए हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र के चरणों में मेरा मन समर्पित हो।

इस तरह से भीष्म पितामह ने मन, वचन एवं कर्म से भगवान के आत्म रूप का ध्यान किया और उसी में अपने आप को लीन कर दिया। देवताओं ने आकाश से पुष्प वर्षा की और दुंदुभि बजाये। मैं फिर से कहता हूं कि जनार्दन की शरणागति से बेहतर आश्रय कोई हो-ही नहीं सकता। भले ही हम संसार के धर्म को निभाए, परन्तु हमें नारायण के भजन से विमुख नहीं होना चाहिए। आगे मैं आपको भक्त कथा अमृत के संदर्भ में भगवान के कलयुग में हुए भक्तों की कथा बताऊँगा।

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हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण- कृष्ण हरे- हरे, हरे राम हरे राम, राम -राम हरे-हरे ।।

यह भगवान नाम संकीर्तन है और इसमें वह सूर-तान है कि कितनी भी बार सुनो, मन भरता नहीं। नाम संकीर्तन की अप्रतिम महिमा है और हमें जब भी समय मिले, ईश्वर के नामों का गान करना चाहिए। आगे मैं भक्त कथा अमृत के संदर्भ में श्री चैतन्य महा प्रभु एवं निताई महा प्रभु के बारे में चर्चा करूंगा। श्री चैतन्य महा प्रभु एवं निताई महा प्रभु और कोई नहीं, अपितु श्री कृष्ण एवं बलदाउ ही है। श्री राधा वल्लभ, श्री कुंज विहारी ने ही चैतन्य महा प्रभु का स्वरूप धारण किया है।

                       श्री दामोदर भगवान ने ही कलिकाल के प्रभाव से हम जीवों को उवारने के लिए कलियुग में चैतन्य स्वरूप धारण किया है। चैतन्य का शाब्दिक अर्थ ही होता है, जो कभी न मिटने बाला हो। कमल नयन नारायण ने हम जीवों पर कृपा करने के लिए, इस कलिकाल में भक्ति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ही चैतन्य रुप में अवतार लिया है। इसका एक दूसरा कारण भी है और वो है श्री राधा जू की विरह वेदना। सौ वर्षों तक बनवारी के विरह में श्री राधिका रानी जलती रही। उनके इसी विरह वेदना को समझने के लिए श्री माधव ने चैतन्य रुप धारण किया है। श्री चैतन्य महा प्रभु बांके बिहारी के विरह में जलते ही तो रहे है। उन्हीं चैतन्य महा प्रभु की दिव्य लीला कथा की आगे चर्चा करता हूं।

           श्री चैतन्य महा प्रभु का जन्म संवत् पंद्रह सौ बयालीस विक्रमी संवत की फालगुनी पूर्णिमा, होली के दिन बंगाल के नव द्वीप नगर में हुआ था । उनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शची देवी था। पिता सिलहट के रहनेवाले थे। नव द्वीप में पढ़ने के लिए आये थे। बाद में वहीं बस गये। वहीं पर शची देवी से विवाह हुआ। एक के बाद एक करके उनके आठ कन्याएं पैदा हुईं और मरती गईं। फिर एक लड़का पैदा हुआ। भगवान की दया से वह बड़ा होने लगा। उसका नाम उन्होंने विश्वरूप रखा। विश्वरूप जब दस बरस का हुए तब उसके एक भाई और हुआ।

           माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। बुढ़ापे में एक और बालक को पाकर वे फूले नहीं समाये। कहते हैं, यह बालक तेरह महीने माता के पेट में रहा। उनकी कुंडली बनाते ही ज्योतिषी ने कह दिया था कि वह महापुरुष होगा। यही बालक आगे चलकर चैतन्य महा प्रभु हुए। बालक का नाम विश्वंभर रखा गया। प्यार से माता-पिता उसे 'निमाई' कहते। जिनके घर बच्चे मर जाते हैं, वे इसी तरह के बे सिर-पैर के नाम अपने बच्चों के रख देते हैं।

एक दिन की बात है। बालक के स्वभाव की जांच करने के लिए पिता ने उसके सामने खिलौने, रुपये और भगवत गीता रख दी। बोले, बेटा, इनमें से कोई-सी एक चीज़ उठा लो। बालक ने भगवत गीता उठा ली। पिता समझ गये कि आगे चलकर यह बालक भगवन का बड़ा भक्त होगा।

         एक बार निमाई काले नाग से खेलते हुए पाये गए। उनके चारों ओर सांप-कुंडली मार कर बैठा हुआ था ओर वह बड़े प्यार से उसके शरीर पर हाथ फेर रहे थे। लोगों को पक्का विश्वास हो गया कि हो-न-हो, इस बालक के शरीर में कोई महान आत्मा रहती है। बचपन में निमाई का पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। शैतान लड़कों के वह नेता थे। उन दिनों देश में छुआछूत ओर ऊंच-नीच का भेद बहुत था। वैष्णव और ब्राह्मण अपने या अपने घरवाले के ही हाथ का पका हुआ खाना खाते थे। एक दिन एक ब्राह्मण निमाई के यहां आया। जगन्नाथ मिश्र ने उसकी बड़ी आवभगत की। शची देवी ने उन्हें सीधा दिया, भोजन बनाने के लिए ।ब्राह्मण ने चौका लीप-पोत कर तैयार किया और खाना बनाया। खाने से पहले वह आंखें बन्द करके विष्णु भगवान को भोग लगाने लगा। तभी निमाई ने आकर उसकी थाली में से खाना-खाना शुरू कर दिया। यह देखकर ब्राह्मण चिल्लाने लगा।

              उनकी आवाज सुनते ही मिश्र जी और शची देवी दौड़े आये। मिश्र जी ने निमाई को पकड़ लिया और उन्हें पीटना ही चाहते थे कि ब्राह्मण ने छुड़ा दिया। मिश्र जी और शची देवी के आग्रह पर ब्राह्मण ने दूसरी बार भोजन तैयार किया। निमाई को अलग जाकर रस्सी से बांध दिया, पर भगवान को भोग लगाते समय फिर वही घटना घटी। निमाई रस्सी खोलकर आ गये। और थाली में से चावल खाने लगे। अब की बार मिश्र जी के गुस्से का ठिकाना न रहा। वह मारने को लपके, पर ब्राह्मण ने उन्हें रोक दिया। उसी समय पाठशाला से पढ़कर विश्वरूप आ गये। सब ने मिलकर ब्राह्मण से फिर खाना बनाने का आग्रह किया।

             ब्राह्मण मान गया। विश्वरूप और माता ने निमाई के रस्सी से बांधकर अपने पास बिठा लिया। कहते हैं, जब ब्राह्मण ने भोजन बनाकर भगवान विष्णु को भोग लगाया तो भगवान चतुर्भुज रूप में उसके सामने आ खड़े हुए और बोले, "तुम्हारे बुलाने पर मैं बालक के रूप में दो बार तुम्हारे पास आया, पर तुम पहचान नहीं पाये। अब जो इच्छा हो, मांगो। ब्राह्मण गदगद हो गया। बस, मुझे यही वर दीजिए कि आपकी मूर्ति सदा मेरे हृदय में बसी रहे।

            विष्णु भगवान ने कहा, ऐसा ही होगा।  ब्राह्मण ने बड़ी खुशी से भोजन किया। फिर वह निमाई को देखने गया। वह सो रहे थे। ब्राह्मण ने मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया और अपने घर लौट गया। जिसके घर से जो कुछ मिलता, निमाई वही खा लेते। पड़ोसिन प्यार से उन्हें खिलाती। कोई-कोई कहतीं, निमाई ब्राह्मण होकर हर किसी का छूआ खा लेते है। निमाई हंसकर कहते, हम तो बाल गोपाल हैं। हमारे लिए ऊंच-नीच क्या! तू खिला, हम तेरा खा लेंगे।

        निमाई जितने शरारती थे, बड़े भाई उतने ही गम्भीर और अपने विचारों की दुनिया में मस्त रहने वाले आदमी थे।  विश्वरूप की उम्र इस समय पंद्रह-सोलह साल की थी। माता-पिता विश्वरूप के विवाह की बात सोचने लगे, किन्तु उनकी लगन दूसरी ही ओर थी। मां-बाप ने जोर दिया तो मौका पाकर एक दिन वह रात को घर से निकल गये और संन्यासी हो गये। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनका पता न चला। मिश्र जी और शची देवी के दुःख की सीमा न रही। निमाई पर भी इस घटना क बहुत असर पड़ा। वह भी अब गम्भीर रहने लगे।

                  निमाई का मन अब पढ़ने की ओर झुका, पर मिश्र जी को उसमें रस न था। वह सोचते थे कि एक लड़का तो खो ही गया, कहीं दूसरा भी हाथ से न चला जाये। वह निमाई को पढ़ते देखते तो बहुत नाराज होते। पर निमाई जब पढ़ने पर ही तुल थे, तो उन्हें कौन रोक सकता था! वह पिता से छिपकर पढ़ते। इस समय उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने बहुत-कुछ पढ़ डाला। पिता अपने पुत्र की चतुराई की बातें सुन-सुनकर बहुत खुश होते। पर भाग्य के आगे किसका बस चलता है! एक दिन अचानक मिश्र जी को जोर का बुखार चढ़ा और कुछ ही दिनों में वह चल बसे।

               घर पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। पर निमाई ने हिम्मत से काम लिया। अपने-आपको तो सम्हाला ही, मां को भी को भी धीरज बंधाया। दुखी मां का अब निमाई ही सहारा थे। पढ़ने से जो समय बचता, उसमें वह माता की खूब सेवा करते। व्याकरण के साथ-साथ अब वह और चीजें भी पढ़ने लगे। धीरे-धीरे उनके ज्ञान की चर्चा चारों ओर होने लगी। उनकी उम्र सोलह साल की हो चुकी थी। लोग उन्हें 'निमाई पंडित' कहने लगे।

                       निमाई के एक मित्र थे पं० रघुनाथ। वह उन दिनों एक पुस्तक लिख रहे थे। उनका विचार था कि इस पुस्तक को लिख लेने पर उस विषय का उनसे बड़ा विद्वान कोई नहीं होगा। तभी उन्हें पता लगा कि निमाई पंडित भी उसी विषय पर पुस्तक लिख रहे हैं। वह जानते थे कि निमाई इस विषय के पंडित हैं। वह उनके घर पहुंचे। रघुनाथ ने कहा, "सुना है, तुम न्याय पर कोई पुस्तक लिख रहे हो। हंसते हुए निमाई ने कहा, अजी, छोड़ो। तुम्हें किसी ने बहका दिया होगा। कहां मैं और कहां न्याय जैसा कठिन विषय! मन-बहलाव के लिए वैसे ही कुछ लिख रहा हूं। फिर भी मैं उसे सुनना चाहता हूं। रघुनाथ ने जोर देकर कहा।

                   जैसी तुम्हारी इच्छा! चलो, गंगाजी पर नाव में सैर करेंगे और पुस्तक भी सुनायेंगे। दोनों गंगा-घाट पर पहुंचे और नाव में बैठकर घूमने लगे। निमाई ने अपनी पुस्तक पढ़नी शुरू की। सुनकर रघुनाथजी रोने लग गये। निमाई ने हैरानी से पूछा, क्यों, क्या हुआ? रो क्यों रहे हो? निमाई, मेरी बरसों की मेहनत बेकार गई। तुम्हारी इस पुस्तक के सामने मेरी पुस्तक पर कौन ध्यान देगा? अपनी जिस पुस्तक पर मुझे इतना गुमान था, वह तो इसके सामने कुछ भी नहीं है।" रघुनाथ ने ठंडी सांस भरते हुए कहा। निमाई हंसने लगे। बोले, बस इतनी-सी बात के लिए परेशान हो। यह कहकर उन्होंने झट अपनी पुस्तक गंगाजी में फेंक दी। बोले, यह तो एक पुस्तक है। मित्र के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं।

                उस दिन के बाद से फिर निमाई पाठशाला में पढ़ने नहीं गये। घर पर ही पिता और भाई की किताबों से पढ़ने लगे। कुछ दिन बाद उन्होंने लड़कों को पढ़ाने के लिए एक पाठशाला खोली। धीरे-धीरे उसमें बहुत-से विद्यार्थी हो गये। उनमें कई तो उम्र में उनसे बड़े थे। निमाई अपने विद्यार्थियों को खूब मेहनत से पढ़ाते और मित्र की तरह उनसे प्रेम भाव रखते। माता के बहुत दबाव डालने पर उन्होंने पंडित बल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मी देवी से विवाह कर लिया। लक्ष्मी देवी को वह बचपन से ही जानते थे। इन्हीं दिनों नव द्वीप में एक पंडित आये। उन्हें अपने ज्ञान का बड़ा घमंड था, लेकिन निमाई के सामने उन्हें मुंह को खानी पड़ी। इससे निमाई का नाम और फैल गया। उनकी पाठशाला विद्यार्थियों से भरी रहती।

              कुछ दिनों के लिए निमाई पूर्वी बंगाल की यात्रा पर गये। इसी बीच घर पर मामूली बुखार से लक्ष्मी देवी की मृत्यु हो गई। बेचारी मां को उस समय धीरज बंधाने वाला कोई न था। लौटने पर निमाई को जब यह समाचार मिला तो वह  बहुत दुखी हुए। इसी तरह एक-दो बरस निकल गए। निमाई विद्वानों और मात की सेवा करते अपनी पाठशाला में छात्रों को पढ़ाते। अपनी मां का वह बहुत मान करते थे। माता की आज्ञा और आग्रह से उन्होंने पंडित सनातन मिश्र की कन्या विष्णुप्रिया से विवाह कर लिया। सूने घर में फिर चहल-पहल हो गई। विष्णुप्रिया के अच्छे स्वभाव के कारण धीरे-धीरे शची देवी और निमाई लक्ष्मी देवी के विछोह का दुःख भूल-सा गये।

              इस बार नव द्वीप से गया आने बालों में निमाई भी थे। वह वहां जाकर अपने पिता का श्राद्ध करना चाहते थे। गया में इस समय बड़ी भीड़ थी। माने हुए सिद्ध-महात्मा वहां आये हुए थे। वहीं पर संन्यासी ईश्वर पुरी से निमाई की भेंट हुई। नव द्वीप में एक बार वह पहले भी मिल चुके थे। पर तब के और अब के निमाई में बड़ा अन्तर था। भेंट होते ही निमाई ने श्रद्धा से उनके चरण पकड़ लिये। संन्यासी ने उन्हें प्यार से आशीर्वाद दिया। निमाई बोले, स्वामी! संसार की गति के साथ यह जीवन इसी तरह बीत जायेगा। अब हमें भी कृष्ण-भक्ति दीजिये। संन्यासी ने सरलता से कहा, आप तो स्वयं कृष्ण रूप हैं। पहुंचे हुए पंडित हैं, आपको कोई क्या दीक्षा देगा।

              निमाई के बहुत जोर देने पर पुरी स्वामी ने उन्हें दीक्षा दे- दी। ज्यों ही निमाई के कान में मंत्र फूंका गया, वह बेहोश हो गए और उसी हालत में चिल्लाने लगे, अरे प्यारे कृष्ण, तुम कहां हो? मुझे भी अपने पास बुला लो।" होश आने पर अपने साथियों से बोले, "भैया, तुम घर लौट जाओ। हम तो अब कृष्ण के पास वृंदावन जाते हैं। पर पुरी स्वामी ने उन्हें समझाकर कहा, वृंदावन बाद में जाना। पहले नव द्वीप में कृष्ण-भक्ति की गंगा बहाओ। बुराइयों में अपने यहां के लोगों का उद्धार करो। गुरु की आज्ञा से निमाई नव द्वीप लौट आये। बंगाल का यह इलाका उन दिनों गौड़ देश के नाम के नाम से प्रसिद्ध था। वहां पर मुसलमान बादशाह का राज्य था। राज्य की ओर से हर बड़े नगर में काजी की अदालत थी।

           गया से लौटने के बाद निमाई का मन पाठशाला में न लगा। वह हर समय कीर्तन में लीन रहने लगे। व्याकरण पढ़ाते-पढ़ाते श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने लगते, फिर कृष्ण-वियोग में फूट-फूटकर रोने लगते। धीरे-धीरे पाठशाला का अन्त हो गया। निमाई के कारण नव द्वीप के वैष्णवों में एक नई लहर आ गई। जोरों का कीर्तन होता। निमाई कीर्तन करते-करते नाचने लग जाते। उनके साथ-साथ और भी भक्त नाचने लगते। भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। बिना जात-पात के भेद के सब लोग उनके कीर्तन में शामिल होते थे। लोग उनको भगवान कृष्ण का अवतार मानने लगे।

                      बंगाल में उन दिनों काली पूजा का बहुत प्रचार था। काली पूजा में बहुत-से पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। निमाई पंडित इन बुरी बातों के विरोध में ही कृष्ण-भक्ति का संदेश लेकर हुए थे। निभाई के विरोधी उन्हें नीचा दिखाने के उपाय सोचते रहते थे। एक बार उन्होंने काजी से शिकायत की कि उनके कीर्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर राज को सोने नहीं देते और कीर्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर रात को सोने नहीं देते और कीर्तन के बहाने बुरे-बुरे काम करते हैं। साथ ही उन्होंने मुसलमानों को कृष्ण बना लिया है। यह सुनते ही काजी जल भुन गया। उसने फौरन आज्ञा दी कि कहीं भी कीर्तन नहीं होगा।

          भक्तों ने आकर जब काजी की यह आज्ञा सुनाई ते निमाई पंडित मुस्कराते हुए बोल, "घबराते क्यों हो? नगर में ढिंढोरा पिटवा दी कि मैं आज शहर के बाजारों में कीर्तन करता हुआ काजी के मकान के सामने जाऊंगा और वहां कीर्तन करूंगा। काजी साहब के उद्धार का समय आ गया है। इस मुनादी को सुनकर लोगों की खुशी की कोई सीमा न रही। लोगों ने नगर के बाजार सजाये। दूसरे मत को मानने वाले लोगों ने भी मकानों को सजाया। निमाई पंडित अपने भक्तों के साथ कीर्तन करते चले। “हरि बोल! हरि बोल!" की ध्वनि से आकाश गूंज उठा। जलूस कीर्तन करता हुआ बाजारों से गुजरने लगा। निमाई प्रभु-भक्ति में लीन होकर नृत्य कर रहे थे। उनकी आंखों से कृष्ण-विरह में आंसू बह रहे थे। उन्हें देखकर विरोध करने बालों के भी हृदय उनके चरणों में झुके जा रहे थे। जनता में काजी की आज्ञा के खिलाफ जोश पैदा होने लगा। जनता चिल्लाने लगी, काजी का मकान जला दो, काजी को मार दो। लोग गुस्से में भरे हुए काजी के मकान की ओर बढ़ने लगे।

          निमाई पंडित कीर्तन में मस्त थे। जब भक्तों ने उन्हें लोगों के जोश की बात बतलाई तो उन्होंने कीर्तन बन्द कर दिया और गुस्से से भरी हुई जनता के सामने जाकर बोले, काजी का बुरा करने वाला मेरा बुरा करेगा। मैं काजी को प्रेम से जीतना चाहता हूं, डर दिखाकर नहीं। इसलिए आप मेरे काम में रुकावट न डालें। काजी डर के मारे अपने घर में छिपकर बैठ गया था। निमाई ने उसके नौकरों से कहा, काजी साहब को मेरे आने की खबर दो। उनसे कहो कि डर की कोई बात नहीं। वह मुझ पर यकीन करें। मेरे होते हुए उनका बाल भी बांका न होगा। गांव के नाते काजी निमाई के मामा लगते थे। नौकरों के समझाने-बुझाने पर काजी बाहर आये।

           निमाई पंडित ने प्यार से कहा, मामा जी, भानजा मिलने आये और मामा मकान के द्वार बन्द करके अन्दर जा बैठे, यह भी कोई बात हुई! काजी ने कहा, मैं डर से नहीं, शर्म के मारे अन्दर जा बैठा था। मैं अपनी मदद के लिए सेना बुला सकता था, पर जब मैंने अपनी आंखों तुम्हारा कीर्तन देखा तो मैं खुद पागल हुआ जा रहा था। तुम तो नारायण रूप हो। तुम्हारे कीर्तन में रुकावट डालने का मुझे दुःख हैं। मैं लोगों के बहकावे में आ गया था। अब तुम खूब कीर्तन करो, तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।

                            इस घटना से निमाई पंडित के हृदय में एक बड़ा परिवर्तन आने लगा। संन्यास लेने की इच्छा पैदा होने लगी। वह सोचते थे कि मेरे यश और वेश से डाह करने बालों को सीधे रास्ते पर लाने का केवल एक ही उपाय है और वह है त्याग। त्याग करके ही मैं दुनिया की भलाई में लग सकता हूं। यह इच्छा जब उन्होंने भक्तों, अपनी माता और पत्नी के बताई तो सब रोने लगे। सब ने उन्हें समझाने की कोशिश की, पर बेकार। निमाई पंडित चट्टान की तरह अटल थे। बाद में सब ने उनकी बात मान ली। एक रात को माता और पत्नी को सोता छोड़ वह संन्यास लेने के लिए घर से निकल पड़े। घर से निकलकर वह केशव भारती की कुटी पर पहुंचे और उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की। उस समय निमाई की उम्र चौबीस साल की थी।

                  केशव भारती ने उन्हें बहुत समझाया। कहा, अभी तुम्हारी उम्र छोटी है। तुम्हारे कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। इस हालत में तुम्हारे लिए संन्यास लेना ठीक नहीं होगा। जाओ, घर लौट जाओ।  निमाई ने हाथ जोड़कर कहा, गुरुदेव, घर में रहते हुए मैं वह काम नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूं। देश में नास्तिकता, हिंसा और वाम-मार्ग के कारण बड़ी बुरी-बुरी बातें फैल रही है। मैं अज्ञान के अंधेरे को दूर करना चाहता हूं। घूम-घूमकर कृष्ण भक्ति का सन्देश सारे देश को सुनाना चाहता हूं। जात-पात के बंधनों से लोगों को निकालना चाहता हूं। आप मुझ पर दया करें, मुझे दीक्षा दें।"

        केशव भारती कुछ सोचते हुए बोले, अच्छा, निमाई पंडित, एक शर्त पर मैं तुम्हें दीक्षा दे सकता हूं। तुम अपनी माता और पत्नी से आज्ञा ले आओ। निमाई ने कहा, "गुरुदेव उन दोनों ने मुझे आज्ञा दे दी है। मैं उनसे पहले ही पूछ चुका हूं। निमाई के बहुत कहने पर केशव भारती उन्हें दीक्षा देने को तैयार हो गए। इतने में निमाई को ढूंढते हुए नव द्वीप के अनेक भक्त वहां आ पहुंचे। वह बड़ा ही दिल को हिला देनेवाला दृश्य था। यह सुनकर कि एक युवक पत्नी और मां को छोड़कर संन्यासी बन रह है, आसपास के गांव के नर-नारी इकट्ठे हो गये। वे उन्हें मना करते और केशव भारती को गालियां देते। कोई भी नाई निमाई पंडित के सुन्दर बाल काटने को तैयार न होता।

             तब निमाई ने अपनी मधुर वाणी से सभी को शान्त किया। नाई ने उनके केश काटे, पर उसने कसम खा ली कि आगे से वह यह काम नहीं करेगा। वह कृष्ण-भक्त हो गया। निमाई पंडित अब चैतन्य कहलाने लगे। कृष्ण-भक्ति के गीत गाते हुए वह जनता के हृदय में भगवत भक्ति की भावना भरने लगे। उन दिनों अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग राजाओं के राज्य थे; किन्तु चैतन्य प्रभु इतने मशहूर थे कि उन्हें कहीं भी जाने की रोक-टोक न थी। एक यात्रा में उन्हें पता चला कि उनके बड़े भाई विश्वरूप दो वर्ष साधु रहकर मर गये।

                साधु बनने के बाद दो बार चैतन्य अपनी माता से मिले। वैसे माता के समाचार वह समय-समय पर अपने भक्तों से पूछते रहते थे। एक बार जब वह नव द्वीप गये, तो विष्णुप्रिया उनसे मिली। चैतन्य बोले, "देवी, इस संन्यासी के लिए क्या आज्ञा है? विष्णुप्रिया ने सिर झुकाकर कहा, "महाराज, मुझे आपके खड़ाऊं चाहिए।" चैतन्य प्रभु ने खड़ाऊं दे दिया। बाद में  विष्णुप्रिया ने कृष्ण-भक्ति की दीक्षा ले ली। एक बार चैतन्य प्रभु अकेले ही चेरानन्दी वन में जा रहे थे। उस वन में मशहूर डाकू नौरोजी रहता था। उसका नाम सुनकर लोग कांप उठते थे। चैतन्य को इस वन में से जाने के लिए लोगों ने बहुत मना किया, पर उनके मन में नौरोजी को सही रास्ते पर लाने की धुन समाई हुई थी। नौरोजी उनको देखते ही उनका भक्त हो गया और वह संन्यासी बनकर महा प्रभु के साथ रहने लगा। चैतन्य प्रभु अधिकतर जगन्नाथ पुरी में रहते थे और जगन्नाथ जी की मूर्ति के आगे खड़े होकर घंटों रोया करते थे।

               श्री  नित्यानंद जी  को  गौरांग महा प्रभु के  बड़े  भाई  का  दर्जा  प्राप्त  हुआ , दोनों के शरीर भिन्न होने पर भी एकात्म ही थे, ये महा प्रभु के प्रमुख पार्षद और संगी है, नित्यानंद जी ने हरि नाम संकीर्तन को अत्यधिक प्रचारित किया, ये गली-गली, गाँव-गाँव, घर- घर जाकर हरि नाम का प्रचार और प्रसार करते थे।

            नित्यानंद प्रभु चैतन्य महा प्रभु के प्रथम शिष्य थे। इन्हें निताई भी कहते हैं। इन्हीं के साथ अद्वैताचार्य महाराज भी महा प्रभु के आरंभिक शिष्यों में से एक थे। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया। नित्यानंद जी का जन्म एक धार्मिक बंध्यगति ब्राह्मण, मुकुंद पंडित और उनकी पत्नी पद्मावती के यहां वर्तमान पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के एक चक्र या चाका नामक छोटे से ग्राम में हुआ था। इनके माता-पिता, वासुदेव रोहिणी थे तथा नित्यानंद बलराम के अवतार माने जाते हैं। बाल्यकाल में यह अन्य बालकों को लेकर कृष्ण लीला तथा राम लीला किया करते थे और स्वयं सब बालकों को कुल भूमिका बतलाते थे। इससे सभा को आश्चर्य होता था कि इस बालक ने यह सारी कथा कैसे जानी। विद्याध्यायन में भी यह अति तीव्र थे और इन्हें 'न्याय चुड़ा मणि' की पदवी मिली।

              यह जन्म से ही विरक्त थे। जब ये बारह वर्ष के ही थे, माध्व संप्रदाय के एक आचार्य लक्ष्मीपति इनके गृह पर पधारे तथा इनके माता पिता से इस बालक का माँगकर अपने साथ लिवा गए। नीति अपने माता-पिता के प्राण के समान प्रिय थे, एक क्षण के लिए भी इनसे विछोह इन्हें सहन नहीं था, जब सन्यासी ने वचन लेकर इनके पिता से इन्हें ही मांग लिया तो उनकी दशा जल विहीन मछली के जैसी हो गयी, उस समय राजा दशरथ की दशा स्मरण हो आती है, जब महर्षि विश्वामित्र श्री राम जी को मांगते है, तो दशरथ कहते है, देह प्राण ते प्रिय कछु नाहीं, सोउ मुनि देऊ निमिष एक माहि I 

  सब सूत प्रिय मोहि प्राण की नाई, राम देत नहीं बनत गोसाई  II 

                  जब गुरु वशिष्ठ ने समझाया तब कहीं उनका मोह भंग हुआ, और रामचंद्र जी को विश्वामित्र जी को सौंप दिया, ऐसे ही नित्यानंद के पिता जी की धर्मनिष्ठा ने उन्हें समझाया की धर्म के कार्य के लिए त्याग आवश्यक है, और उन्होंने अपनी धर्मपत्नी से सब बात कही तब वह भी अपने पति की विरुद्ध कुछ नहीं बोली और सहर्ष मान गयी, तब निताई को सन्यासी जी को सौंप दिया, उसके बाद नित्यानंद जी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, मार्ग में उक्त संन्यासी ने इन्हें दीक्षा मंत्र दिया और इन्हें सारे देश में यात्रा करने का आदेश देकर स्वयं अंतर्हित हो गए। नित्यानंद ने कृष्ण कीर्तन करते हुए बीस वर्षों तक समग्र भारत की यात्राएँ कीं तथा वृंदावन पहुँच कर वहीं रहने लगे। जब श्री गौरांग का नव द्वीप में वैराग्य हुआ, यह भी नव द्वीप चले आए।

                         अवधुत नित्यानंद जी सीधे महा प्रभु के पास नहीं गए, वे पंडित नंदनाचार्य के घर ठहरे। इधर प्रभु को दिव्यदृष्टि से ज्ञान हो गया था कि नित्यानंद जी नव द्वीप पधार चुके है। तब वही भक्तों सहित पहुँच कर वे नित्यानंद प्रभु से मिले। प्रभु और नित्यानंद का मिलन संपन्न हुआ। नित्यानंद जी गौरांग प्रभु को एकटक लगाए देखे जा रहे थे। उनकी पलकें झपक ही नहीं रही थी, प्रेमाश्रु नयनों से निरंतर वह रहा  था। उन्मादित सी दशा हो गयी थी उनकी, किसी बात का होश-हवास उन्हें नहीं रहा। यह प्रभु और प्रभु प्रेमी का मिलन हो रहा था। अति आनंदित घड़ी थी, सभी भक्तजन इस प्रेम मिलन को देखकर भाव-विभोर हो रहे थे, प्रभु ने नित्यानंद को गले से लगा लिया, दोनों देव पुरुष ने एक दूसरे को आलिंगन किया।

             नित्यानंद जी बेसुध से दिखाई दे रहे थे, उनके पैर इधर-उधर पड़ रहे थे। कभी जोर-जोर से रुदन करते थे। हा कृष्ण ! हा कृष्ण कहकर करुण पुकार करते थे। उनकी दशा विचित्र हो गयी और वे महा प्रभु कि गोदी में गिर पड़े, महा प्रभु ने कहा, “श्री पाद, आज हम सब धन्य हो गए जो आपके दर्शन यहाँ हुए, आप कृपा करने के लिए हमें यहाँ घर बैठे ही दर्शन देने आ गए।

                     नित्यानंद, प्रभु कि वाणी सुनकर अधीरता से बोले, हमने श्री कृष्ण विरह में सभी तीर्थों की यात्राएं की, लेकिन सभी जगह सिंहासन प्रभु ही मिले। तब बहुत तलाशने पर मुझे पता लगा की प्रभु नव द्वीप में अवतरित हुए है, और नाम-संकीर्तन का प्रचार कर रहे है, वही जाकर आपको शांति मिलेगी। इसलिये ही मैं यहाँ पर आया हूँ, अब प्रभु की इच्छा है की दर्शन तो दिए किन्तु क्या वे अपनी शरण में रखते है या नहीं। इतना कह कर वे वही प्रभु के चरणों में लुढ़क गए, मानो अपना सर्वस्व प्रभु को अर्पण कर रहे हो। महा प्रभु उनकी वंदना कर रहे थे और नित्यानंद स्वामी महा प्रभु की। इस प्रकार दोनों महापुरुष एक दूसरे के आभार जता रहे थे और दोनों का अद्भुत मिलन देखकर सभी भक्त गण भी आश्चर्यचकित हो रहे थे। अद्भुत मिलन था यह, यहाँ नित्यानंद तथा श्री गौरांग दोनों नृत्य कीर्तन कर भक्ति का प्रचार करने लगे।

             इनका नृत्य कीर्तन देखकर जनता मुग्ध हो गई तथा 'जय निताई- जय गौर' कहने लगी। नित्यानंद के सन्यास ग्रहण करने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता पर यह जो दंड कमंडल यात्राओं में साथ रखते थे उसे यही कहकर तोड़ फेंका कि हम अब पूर्णकाम हो गए। यह वैष्णव संन्यासी थे। नव द्वीप में ही इन्होंने दो दुष्ट ब्राह्मणों जगाई-मधाई का उद्धार किया, जो वहाँ के अत्याचारी कोतवाल थे। जब श्री गौरांग ने सन्यास ले लिया वह उनके साथ शांतिपुर होते जगन्नाथ जी गए। कुछ दिनों बाद श्री गौरांग ने इन्हें गृहस्थ धर्म पालन करने तथा बंगाल में कृष्ण भक्ति का प्रचार करने का आदेश दिया। यह गौड़ देश लौट आए। अंबिका नगर के सूर्य नाथ पंडित की दो पुत्रियों वसुधा देवी तथा जाह्नवी देवी से इन्होंने विवाह किया। इसके अनंतर खंडदह ग्राम में आकर बस गए और श्री श्यामसुंदर की सेवा स्थापित की। 

                        श्री चैतन्य महा प्रभु एवं श्री नित्यानंद महा प्रभु ने कलिकाल में धरा धाम पर अवतरित होकर हम मानवों के कल्याण के लिए भक्ति मार्ग की आधार शिला रखी। उन्होंने सनातन धर्म को पुनर्जीवित किया और मानव के लिए जीवन के उचित मानदंड की स्थापना की। उन्होंने गौड़ीय संप्रदाय की स्थापना की और भक्ति धारा के मार्ग को प्रशस्त किया। भक्ति एवं वैराग्य की महता बतलाई और नाम संकीर्तन का प्रचार-प्रसार किया। परन्तु हम मानव अपने मूल उद्देश्य को ही भूलने लगते है। मैं फिर से कहता हूं कि जरूरत नहीं कि हम संसार के सुखों का त्याग करें। परन्तु जीवन में एक नियम बना ले कि जब भी समय मिले, भगवान के नामों का उच्चारण करने लगे। हम चाहे जिस काम में लगे हो, कमल नयन श्री हरि के छवि को हृदय में बसाए रहे। आगे इसी संदर्भ में आपको श्री नरसिह मेहता के चरित की चर्चा करूंगा।

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क्रमशः-


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रचनाएँ
भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुप
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इस पुस्तक में धर्म और अधर्म के बारे में बताने की कोशिश की गई है। मानव जीवन का सत्य उद्देश्य क्या है, उसकी व्याख्या की गई है। मानव जीवन में भक्ति की महता को निरुपीत किया गया है। साथ ही नारायण और उनके भक्तो का मधुर संबंध दृष्टांत के द्वारा बतलाया गया है। मानव जीवन की दुविधा, उसकी उपलब्धि और जरुरतों का सचित्र चित्रण किया गया है। मदन मोहन "मैत्रेय
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भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुुप

1 जून 2022
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सबसे पहले तो मैं श्री गणेश की वंदना करता हूं। गौरी- महेश नंदन बिना विघ्न के मेरी इस रचना का पूर्ण करें। तत्पश्चात मैं वीणा धारनी शक्ति स्वरुपा जगदंबा शारदा की वंदना करता हूं। वे मुझे ज्ञान पुंज दे, जो

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भक्ति की धारा-भक्त विशेष

3 जून 2022
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जीवन तो ईश्वर प्रदत्त है, परन्तु हम जगत के प्राणी इसको अपना समझ बैठे है। हम इस शरीर को अपना समझ बैठे है, जो नाशवान है। पता नहीं कि कब यह शून्य हो जाये, कब शिथिल हो जाए। जैसे ही इसमें से आत्मा निकल जात

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भक्त कथा अमृत

5 जून 2022
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भक्ति की धारा प्रवाहित हो और उसमें भगवान के परम भक्तों की चर्चा नहीं हो, संभव ही नहीं। भक्तों के निर्मल चरित्र से हमें काफी कुछ सीखने-समझने का अवसर प्राप्त होता है। अब मैं आपको नारायण के ऐसे ही भक्त प

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भक्त कथा अमृत

7 जून 2022
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श्री बजरंग बली, अंजन सुत, पवन तनय वीर हनुमान की कथा भी इसी श्रेणी में आती है। महाबली हनुमान ग्यारहवें रुद्र है। बजरंग बली श्री राम के अनन्या-नन्य भक्त है। उनको राम नाम के अलावा जगत में कुछ भी तो प्रिय

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भक्त कथा अमृत

9 जून 2022
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भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा से हो गए, अन्यथा उनका नाम तो देवव्रत था। शांतनु और गंगा की आठवीं संतान और पिता के आज्ञाकारी। परशुराम शिष्य भीष्म साधारण नहीं थे, वे अजेय योद्धा थे। वे ऐसे वीर योद्धा थे कि उन्ह

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भक्त कथा अमृत

13 जून 2022
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नरसी मेहता महान कृष्ण भक्त थे. कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने उनको बावन बार साक्षात दर्शन दिए थे। नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़, गुजरात में हुआ था. इनका सम्पूर्ण जीवन भजन कीर्तन और कृष्ण की भक्ति में

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भक्त कथा अमृत

17 जून 2022
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धर्म की परिभाषा देना न तो सहज है और न ही सुलभ। परन्तु इसको सरल बनाते है संत। भगवान के भक्त ही हमें भगवान की ओर उन्मुख करते है। संत ही मानव जीवन के लिए जहाज रूपी साधन है, जो भवसागर रूपी संसार से पार लग

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ईश्वर की अनुभूति

26 जून 2022
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विलासिता क्या है? अतिशय गुढ प्रश्न है। क्योंकि यह अखिल संसार ही इसके पीछे अंधी दौड़ लगा रहा है। भला सुख-सुविधा और उपभोग की वस्तुएँ किस को पसंद नहीं। कौन नहीं चाहता कि वह अच्छा पहने, अच्छा खाए और अच्छी

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ईश्वर के स्वरुप एवं भक्ति भाव-:

21 सितम्बर 2022
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भगवान सगुन और निर्गुण दो भावना से पुजे जाते है। निर्गुण स्वरूप का कोई आकार-प्रकार नहीं होता, जबकि सगुन स्वरूप में नारायण की विग्रह की पुजा होती है। जो अवतार रुप में अन्यथा नारायण रुप में।

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