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भक्त कथा अमृत

7 जून 2022

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श्री बजरंग बली, अंजन सुत, पवन तनय वीर हनुमान की कथा भी इसी श्रेणी में आती है। महाबली हनुमान ग्यारहवें रुद्र है। बजरंग बली श्री राम के अनन्या-नन्य भक्त है। उनको राम नाम के अलावा जगत में कुछ भी तो प्रिय नहीं। वे संत जनों के हितकारी है, उनके हृदय में अवध बिहारी का निवास है। उनकी कथा समस्त मानव जगत के लिए शुभ और कल्याणकारी है। इसलिये आगे उनकी कथा सुनाता हूं।

                    हनुमान जी शंकर सुमन, ग्यारहवें रुद्र थे। माता अंजन जब कुमारी थी, तभी बजरंग बली ने जन्म लिया था। ऐसे में माता अंजन घबरा गई और उनकी घबराहट को देखकर ऋषियों ने उन्हें कहा कि वे मारुति को ढककर रख दे। जो उनके ढक्कन को हटाएगा, उनका पिता कहलाएगा। बस, पवन देव तीव्र गति से चले और उस टोकरी को पलट दिया, जिससे हनुमान जी को ढंककर रखा गया था, इसलिए हनुमान जी पवन पुत्र कहलाए। उस समय संध्या के चार बज रहे थे और माता अंजन जल भरने नदी को जा रही थी। जन्म लेते ही उन्होंने माता से भोजन की मांग की और माता ने लाल फल खाने को कहा।

               बस उन्होंने सूरज को फल समझकर निगल लिया । रास्ते में राहु ने उनका मार्ग रोका तो राहु को उन्होंने दूर फेंक दिया। फिर उन्होंने जैसे ही सूर्य को निगला, पूरी सृष्टि अंधकार में डूब गई। इससे घबरा कर देवताओं के साथ देखकर इंद्र आए। उन्होंने पहले तो मारुति को समझाया। परन्तु हनुमान सूर्य को उगलने को राजी नहीं हुए। तब इंद्र ने व्रज फेंककर उनकी ठुड्डी पर प्रहार किया तो उनकी ठुड्डी टूट गई और वे मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़े । जिसके चलते उनके पिता पवन देव नाराज हो गए। उन्होंने संपूर्ण विश्व से प्राण वायु को अपनी ओर खींच लिया। इससे संसार के सभी जीव जंतु मरने लगे। यह देखकर सभी देवता ब्रह्माजी के साथ एकत्रित होकर उन्हें मनाने लगे। उन्होंने हनुमान जी को पुन: सचेत किया, इसके  बाद सभी देवताओं ने हनुमान जी को अपनी- अपनी शक्तियां प्रदान की।

       हनुमान जी ने बचपन में पवन देव और ऋषि मातंग से शिक्षा ग्रहण की थी। वह बचपन में ऋषियों के आश्रम के सारे फल खा जाते थे और ऋषियों को बहुत परेशान करते थे। हनुमान जी बचपन में बहुत ही नटखट और उद्यमी बालक थे। एक बार फलों के वन में इंद्र पुत्र जयंत, सूर्य पुत्र शनि आदि देवताओं के पुत्रों से भी उनका सामना हुआ था। एक बार उनके हरकतों से परेशान होकर ऋषि ने उन्हें श्राप दिया था कि वे अपनी शक्ति भूल जाएंगे। तब माता अंजन ने ऋषि की स्तुति की, तो ऋषि ने कहा कि कोई इनको-इनकी शक्ति याद दिलाएगा, तो इन्हें याद आ जाएगा। हनुमान जी ने बचपन में ही अपने महाबली बाली काका का मान मर्दन कर दिया था । बाली को अपने उड़ने की तेज शक्ति पर बहुत अभिमान था लेकिन हनुमान जी ने उससे भी तेज उड़कर उसका अहंकार तोड़ दिया। परन्तु  बाली का फिर भी अभिमान नहीं टूटा और उसने गदा युद्ध किया और हार गया। तब उसने हनुमान जी के पैर पकड़ लिए ।

                  हनुमान जी ने एक बार शनि देव के अभिमान को बचपन में ही तोड़ दिया था। बचपन में शनि देव अपने माता पिता से रूठ कर घर से भाग गए और अपनी शक्ति के बल पर लोगों को परेशान करने लगे। इस तरह शनि देव ने एक गांव में इसलिए आग लगा दिया, क्योंकि उस गांव के लोग उन्हें पानी नहीं पीने दिया। सभी गांव वाले शनि देव को घेरकर मारने का प्रयास करने लगे, तो मारुति ने उन्हें बचा लिया । लेकिन शनि देव ने उनके  इस उपकार  को नहीं माना । उन्होंने हनुमान जी से कहा कि तुम्हें मेरे रास्ते में नहीं आना चाहिए था। हनुमान जी ने उनकी बातें सुनकर कहा कि अब तुम सीधे अपने पिता के पास जाओ।  लेकिन शनि देव उनसे वाद विवाद करने लगे। फिर दोनों में गदा युद्ध होने लगा, तब हनुमान जी ने उन्हें अपनी पूंछ में लपेट लिया और उनके पिता के पास ले गए । इस तरह ऐसे कई मौके आए जबकि हनुमान जी की शनि देव से टक्कर हुई और उन्हें शनि देव को सबक सिखाया। अंत: में रावण की कैद से वे शनि देव को छुड़ा दिया। तब शनि देव हनुमान जी के भक्त बन गए और उन्होंने कहा कि जो भी तुम्हारा भक्त होगा उस पर मेरी वक्र दृष्टि का असर नहीं होगा।

             प्रभु श्री राम−श्री हनुमान जी की प्रथम भेंट अति सुंदर प्रसंग है और सागर से भी गहरा व विशाल है। कारण कि सागर तो फिर भी असीम है लेकिन भक्त और भगवान की रसीली, अलौकिक व भावपूर्ण कथा इतनी विराट व अथाह है कि इस कथा का कोई ओर−छोर दिखाई नहीं देता। शब्दों व कलम में ऐसा सामर्थ्य कहाँ कि वे इस कथा को लिखित कर सके। लेकिन यह प्रभु की इच्छा है कि वे भिन्न−भिन्न साधनों से अपनी दिव्य लीलाओं का शिलान्यास करवा कर हमें आत्म कल्याण की ओर अग्रसर कराते हैं।

          भक्त हनुमान एवं भगवान श्री राम का अलौकिक व मीठा वार्तालाप में श्री हनुमान जी का भाव देखिए वे एक नन्हे शिशु की मानिंद व्यवहार कर रहे हैं। एक ऐसा शिशु जो अपनी माता से उलाहना करने में किंचित भी नहीं घबराता और न ही टलता है। शिशु का तो मानो स्वभाव ही है कि वह माटी व गंदगी से मलिन होगा ही होगा। यह तो जैसे उसके जन्मसिद्ध अधिकार जैसा है। फिर इसमें कैसी हैरानी? क्योंकि आश्चर्य तो तब है कि माँ यह सब देखती रहे और शिशु की गंदगी साफ ही न करें। शिशु की सुध तक न ले और उसे भूल जाए। श्री हनुमान जी यही तो उलाहना दे रहे हैं:-

एकु मैं मंद मोहवश कुटिल हृदय अज्ञान ।

पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान।।

                         अर्थात् हे प्रभु आप क्यों नहीं देख रहे? एक तो मैं मंद, मोह वश, हृदय का कुटिल एवं अज्ञान से भरा हूँ। मलिनताएं मुझे नख से सिर तक पीड़ित किए हुए हैं। आप को तो अविलम्ब मुझे शिशु की भांति गोद में उठा लेना चाहिए। लेकिन आप तो मुझसे उलटा यह पूछ रहे हैं कि मैं कौन हूँ? श्री राम से मुलाकात के दौरान अपना असली परिचय देने को आतुर थे हनुमान जी। प्रभु अधरों से तो कुछ नहीं बोले पर दिव्य मुस्कुराहट में गाथाओं का विवरण समेटे लिए । मानो पूछ रहे हों कि हनुमान तुमने अपने मुख्यतः चार रोग बताए− मंद, मोहबस, हृदय की कुटिलता व अज्ञानता। इनमें से सबसे अधिक व्याधि क्या प्रतीत होती है? भाव की गंगा श्री हनुमान जी के हृदय से भी फूट पड़ी कि हे प्रभु! मेरी चारों व्याधियां तो मानो कोढ़ी का कोढ़ था। जिससे पार पाने की मैंने आस ही त्याग दी थी। यही मेरी मानसिक दरिद्रता का केन्द्र बिंदु थे। लेकिन जो घाव व मानसिक पीड़ा आपने मुझे यह पूछकर दी है कि मैं कौन हूँ उसके सामने मेरी समस्त प्रीड़ाएँ गौण हैं। भला हमारा यह पंच तत्त्व देह धरण करने का औचित्य ही क्या रह गया? जब हम आपकी ही दृष्टि से ओझल हो गये। मानो पपीहा कब से पीउ−पीउ की रट लगा आकाश में नयन गड़ाए बैठा रहे और मेघ उस दिशा का पता ठिकाना ही भूल जाए। तो उस पपीहे की स्थिति कैसी दयनीय होगी पता है न! बस आपका भी मुझे यूं भूल जाना हृदय में चुभे कांटे की तरह अखर गया प्रभु−

          यद्यपि हे नाथ, मुझ में बहुत से अवगुण हैं तदापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े। सही भी था, क्योंकि अगर पृथ्वी ही किसी पेड़ को जड़ें जमाने से मना कर दे तो वह पेड़ की क्या गति होगी। पक्षी है तो आसमां भी उसे बाहें फैला कर स्वीकार करें। तभी तो वह उड़ पाएगा। वरना आसमां ने ही उसे पटक कर धरा पर दे मारे तो उसका अस्तित्व भला क्या बचेगा। माना कि आप उस पर रीझते हैं जो आपकी  भजन−बंदगी में लगा रहता है। तो लगे हाथ मैं आपको एक अंदर की बात बता दूं। क्योंकि लोग भले मुझे भक्त समझें। परंतु मैं शोर मचा−मचाकर कहता हूँ कि मुझे कोई भजन बंदगी नहीं आती:-

ता पर मैं रघुवीर दोहाई। 

जानऊँ नहीं कछु भजन उपाई।।

           श्री रघुवीर, वीर हनुमान जी के प्रेम भावों का बड़ी रीझ से रसपान कर रहे थे और कितने ही समय के पश्चात उन्हें कोई मिला था जो यह कह रहा था कि मुझे कोई भजन इत्यादि नहीं आता। वरना श्री राम तो प्रत्येक घड़ी ऐसे ही भक्तों का सामना करते हैं। जो जानते तो चुल्लू भर नहीं होते और गाल ऐसे बजाते हैं मानो सातों समुद्र उन्हीं की अंजुली में सिमटे हों। जैसे हैं वैसे तो अपने को कोई प्रस्तुत नहीं करता। बस नाम और दाम बड़ा दिखना चाहिए। भले ही इसके लिए राम कितने भी छोटे दिखाने पड़ जाएं। यूं ही अहंकार लेकर जब कोई प्रभु के समक्ष बिलकुल तना, सीधा व अकड़ा रहता है तो प्रभु के श्री चरणों में थोड़ी न टिका रहता है। जैसे धनुष व बाण को ही देखिए। तीर बिलकुल सीधा है उसमें कहीं कोई टेढ़ापन नहीं। यद्यपि धनुष टेढ़ा है, सीधा बिलकुल भी नहीं। क्या आप बता सकते हैं कि तीरंदाज किस को अपने पास रखता है? और किसको दूर धकेलता है। जी हाँ! तीर अंदाज धनुष को अपने कंधों पर सजाकर रखता है। और तीर को दूर भेजता है। 

                           कारण कि धनुष को कितने भी बार, मोड़ा जाए वह मुड़ने से कभी मना नहीं करता। और दोनों किनारों से रस्सी से बंधा होने पर भी कभी स्वतंत्र होने के लिए फड़फड़ाता नहीं। फलस्वरूप तीरंदाज के कंधों का श्रृंगार बना रहता है। यद्यपि तीर हमेशा तूणीर पर कब्ज़ा कर पीठ पर चढ़ा रहता है। और तीरंदाज की पीठ पीछे ही अपने शिकारों को निहारता रहता है। तीखी नुकीली नाक लिए सदैव रक्त का प्यासा रहता है। तीरंदाज जब उसे धनुष पर चढ़ाने के पश्चात अपनी ओर खींचता है तो मानो यही कहना चाहता है कि हे तीर तू मत जा कहीं पर! यही रह मेरे पास, देख मैं तुझे कैसे अपनी और खींच रहा हूँ। देख तुझे खींचने के चक्कर में मेरे धनुष की कमर भी मानो टूटने  को है। पर तब भी मैं तुझे और बल से खींच रहा हूँ। लेकिन तीर तो तीर है। कहाँ मानने वाला है। तीरंदाज सोचता है कि अब तो मैंने संपूर्ण बल से तीर को खींच लिया है। अब तो यह टिका ही रहेगा। चलो क्यों न अब मैं इस पर बल व प्रयास छोड़ दूं। जानते हैं सज्जनों! तीरंदाज के द्वारा तीर छोड़ते ही तीर उतनी गति व तीव्रता से दूर भागता है जितने अधिक बल से उसे अपने पास रखने का प्रयास किया गया था, वह उतनी ही गति से दूर हो जाता है।

                       इसके बाद हनुमान जी श्री राम को पहचान गए। वे अपने प्रभु के चरणों में गिर पड़े और भक्त वत्सल श्री राम भी तो विह्वल हो गए। उन्होंने बजरंग बली को हृदय से लगा लिया, भक्त को भगवान और भगवान को भक्त ने पहचान लिया। इसके बाद हनुमान जी प्रभु श्री राम को ऋृष्यमुक पर्वत पर लेकर आए, जहां उन्होंने सुग्रीव से उनकी मित्रता करवाई। परन्तु अभी तक मारुति को वह स्थान प्राप्त नहीं हुआ था, जो उनको चाहिए था। जब वे अशोक वाटिका में सीता जी की खोज करते हुए पहुंचे और जब माता सीता उनपर प्रसन्न हुई। उन्होंने बजरंगी को कहा।

अजर-अमर गुन निधि सुत होहूं। 

करहूं बहुत रघु नायक छोहूं।

                            इसके बाद हनुमान जी को माता का आशीर्वाद प्राप्त हुआ और बजरंगी राम के हो गए। तभी तो जब वे राम को सीता जी की सुधि बताते है, श्री राम पुलकित होकर बोले "सुनु सुत तोही उरिन मैं नाहीं। नारायण का जो हो जाता है, कमल नयन उसके ऋृनी हो जाते है। तभी तो राम का राज्याभिषेक हुआ, राम ने खुश होकर मणि की दिव्य माला हनुमान को पहना दी। परन्तु यह क्या, मारुति ने तो माला को तोड़ दिया और उसके एक-एक मनका को फोड़ कर उसके अंदर-बाहर देखने लगे। अब तो विभीषण जी नाराज हो गए, उन्होंने तो श्री राम को अमूल्य उपहार दिया था। परन्तु हनुमान, वे तो उसकी दिव्यता को ही नष्ट कर रहे है। 

                 विभीषण जी ने नाराज नजरों से श्री राम को देखा और राम उनका आशय समझ गए। उन्होंने मारुति को टोका!....हनुमान, यह तुम क्या कर रहे हो? तुमने तो अमूल्य मणि की माला को ही नष्ट कर दिया। बजरंग बली ने सुना और विनम्रता पूर्वक बोले। मैं इस माला में राम को ढूंढ रहा हूं और उनके नहीं मिलने पर इसे तोड़ कर फेंक रहा हूं। क्योंकि बिना राम नाम के संसार की सभी वस्तुएँ बेकार है, नाशवान है। बस......सभा में हलचल बढ गई और आवाज भी उठी कि क्या आपके हृदय में श्री राम है। मारुति ने ढृढता से कहा कि हां-है और उन्होंने हृदय को चिड़कर दिखला दिया। श्री राम जानकी सहित उनके हृदय में विराजमान थे। 

                          ऐसा नहीं है कि हनुमान जी सिर्फ भगवान की भक्ति ही करते है। वे अपने माता के परम आज्ञाकारी एवं अपने आश्रितों के हित रक्षक भी है। इसको लेकर एक वृतांत बतलाता हूं:-

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के परम भक्त श्री हनुमान जी अपने आराध्य का ही सुमिरन करते रहते है। दशरथनंदन राम हनुमान के हृदय में बसते हैं। परन्तु एक बार पवन सुत हनुमान ने श्री राम जी से ही लड़ाई की थी। हो सकता है यह पढ़कर आपको हैरानी हो। लेकिन यह सत्य है और इस घटना का जिक्र श्री राम कथा में भी सुनने और पढ़ने को मिलता है। लेकिन इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि पवन सुत जब श्री राम से लड़ने के लिए तैयार हुए तो उन्होंने सौगंध भी मर्यादा पुरुषोत्तम की ही ली। आइए जानते हैं कि ऐसा क्या हुआ था कि श्री राम के परम भक्त पवन सुत को उनसे युद्ध करना पड़ा?

               कथा है कि एक बार सुमेरू पर्वत पर सभी संतों की सभा का आयोजन हुआ। कैवर्त देश के राज सुकंत भी उसी सभा में सभी संतों का आशीर्वाद लेने जा रहे थे। रास्ते में उन्हें देवर्षि नारद मिले। राजा सुकंत ने उन्हें प्रणाम किया। इसपर श्री नारद जी ने उन्हें आशीर्वाद देकर यात्रा का प्रयोजन पूछा। राजा सुकंत ने उन्हें संत सभा के आयोजन की बात बताई। इस पर नारद मुनि ने कहा अच्छा है संतों की सभा में जरूर जाना चाहिए। ऐसा कहकर सुकंत को जाने का आदेश दिया। परन्तु उन्होंने सुकंत को समझा दिया कि उस सभा में सभी को प्रणाम करना, परन्तु विश्वामित्र को प्रणाम मत करना। हलांकि सुकंत ने कहा भी कि यह उचित नहीं होगा। परन्तु देवर्षि ने उन्हें समझाया कि आप भी क्षत्रिय हो और विश्वामित्र भी तो क्षत्रिय ही है।

                   राजा सुकंत देवर्षि की बातों में आ गया और उसने ऐसा ही किया। सभा के समाप्त होते ही विश्वामित्र जी श्री राम से मिलने पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने बताया कि उनका अपमान हुआ है। वह इसे भूल भी जाते लेकिन यह तो संत परंपरा का अपमान है। श्री राम जी ने पूछा किसने किया है? तब विश्वामित्र जी ने पूछा कि जानकर करोगे भी क्या? इसपर श्री राम जी ने कहा कि गुरु जी आपके चरणों की सौगंध लेकर प्रतिज्ञा करता हूं जो सिर आपके चरणों में नहीं झुका है, उसे काट दिया जाएगा। कल सुबह मैं उसका वध करूंगा।

                 श्री राम की इस सौगंध का जैसे ही राजा सुकंत को पता चला तो वे नारद मुनि को ढूंढने लगे। काफी देर तक वह परेशान रहे लेकिन नारद मुनि उन्हें मिल ही नहीं रहे थे। व्याकुल होकर जब वह रोने लगे तब नारद जी प्रकट हुए। सुकंत ने हाथ जोड़कर उन्हें सारी बात कह सुनाई। साथ ही प्राण दान की विनती की। इसपर नारद जी ने उन्हें माता अंजनजी की शरण में जाने की सलाह दी। यह भी कहा कि अगर उन्होंने तुम्हें बचाने का वचन दे दिया तो तुम जरूर बच जाओगे। लेकिन यह भी कहा कि वह किसी को यह नहीं बताएंगे कि नारद जी ने उन्हें यह सलाह दी है।

             राजा सुकंत बस दौड़ा- दौड़ा आंजन प्रदेश पहुंचा और माता अंजन के महल के सामने रोने लगा। उसके  रोने की आवाज सुनकर माता अंजनजी बाहर पहुंचीं। तब उन्होंने कहा कि माता मुझे बचा लें अन्यथा विश्वामित्र जी मुझे मार डालेंगे। इस पर माता अंजनजी ने सुकंत को उसके प्राण बचाने का वचन दिया। उन्होंने कहा कि तुम शरण में हो, तुम्हें कोई नहीं मार सकता। इसके बाद राजा सुकंत को विश्राम करने के लिए कहा।

            शाम ढले जब हनुमान जी माता अंजनजी के पास पहुंचे तो उन्होंने सारी बात बताई। लेकिन सुकंत को बुलाने से पहले पवन सुत से सौगंध लेने को कहा। तब श्री हनुमान जी कहा कि वह श्री राम के चरणों की सौगंध लेते हैं कि वह सुकंत के प्राणों की रक्षा करेंगे। तब माता अंजन ने राजा को बुलाया। हनुमान जी ने पूछा कौन तुम्हें मारना चाहता है? तब सुकंत ने बताया कि श्री राम उन्हें मार डालेंगे। इतना सुनते ही माता अंजनजी हैरान रह गईं। उन्होंने कहा कि तुमने तो विश्वामित्र जी का नाम लिया था। तब राजा ने कहा कि नहीं वह तो मरवा डालना चाहते हैं लेकिन मारेंगे तो राम ही।

                          हनुमान जी ने राजा सुकंत को उनकी राजधानी में छोड़ा और श्री राम के दरबार में पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने राम जी से पूछा कि वह कहां जा रहे हैं। तब मर्यादा पुरुषोत्तम ने बताया कि वह राजा सुकंत का वध करने जा रहे हैं। तब हनुमान जी ने कहा प्रभू उसे मत मारिए। राम जी ने कहा कि वह तो अपने गुरु की सौगंध ले चुके हैं। अब पीछे नहीं हट सकते। हनुमान जी ने कहा प्रभु मैंने उसके प्राणों की रक्षा के लिए अपने इष्टदेव यानी कि आपकी सौगंध ली है। तब राम जी ने कहा कि ठीक है तुम अपना वचन निभाओ, मैं तो उसे मारूंगा।

            हनुमान जी राजा सुकंत को लेकर पर्वत पर पहुंचे और राम नाम का कीर्तन करने लगे। उधर राम जी राजा सुकंत को मारने के लिए उनकी राजधानी पहुंचे। लेकिन वह नहीं मिले तो वह उन्हें ढूंढते हुए पर्वत पर पहुंचे। वहां हनुमान राम मंत्र का जप कर रहे थे। राम जी को देखते ही सुकंत डर गये। उन्होंने कहा कि अब तो राम जी उसे मार ही डालेंगे। वह बार-बार हनुमान जी पूछता कि बच जाएंगे हम। तब उन्होंने कहा कि राम मंत्र का जप करते रहो और निश्चिंत रहो। भगवन नाम पर पूरा भरोसा रखो। लेकिन वह काफी डरे हुए थे तो हनुमान जी ने सुकंत को राम नाम मंत्र के घेरे में बिठा दिया। इसके बाद राम नाम जपने लगे।

                      राम जी ने राजा सुकंत को देखकर जब बाण चलाना शुरू किया तो वह राम नाम के मंत्र के आगे विफल हो जाते। राम जी हताश हो गए कि क्या करें? यह दृश्य देखकर श्री लक्ष्मण जी को लगा कि हनुमान जी भगवान राम को परेशान कर रहे हैं तो उन्होंने स्वयं ही हनुमान जी पर बाण चला दिया। लेकिन यह क्या, उस बाण से पवन सुत के बजाए श्री राम मूर्छित हो गए। यह देखते ही लक्ष्मण जी दौड़ पड़े और देखते हैं कि बाण तो हनुमान जी पर चलाया था लेकिन मूर्छित राम जी कैसे हो गये। तब उन्होंने देखा कि पवन सुत के हृदय में तो श्री राम बसते हैं।

              राम जी जैसे ही होश में आए वह हनुमान जी की ओर दौड़े। उन्होंने देखा कि उनकी छाती से रक्त बह रहा है। वह हनुमान जी का दर्द देख नहीं पा रहे थे। वह बार-बार उनकी छाती पर हाथ रखते और आंखें बंद कर लेते। पवन सुत को होश आया तो उन्होंने देखा कि राम जी आंखें बंद करके हनुमान जी के छाती पर बार-बार हाथ रखते हैं फिर हनुमान जी के सिर पर हाथ फेरते हैं। तब पवन सुत ने सुकंत को पीछे से निकाला और उसे अपनी गोद में बिठा लिया। तभी राम ने फिर से हनुमान जी के माथे पर हाथ फेरा लेकिन इस बार वहां पवन सुत की जगह राजा सुकंत थे। राम जी मुस्कराए और हनुमान जी बोल उठे कि नाथ अब तो आपने इनके सिर पर हाथ रख दिया है। अब तो सब कुछ आपके हाथ में हैं इसकी मृत्यु भी और जीवन भी। आप ही सुकंत के जीवन की रक्षा करें।

                  राम जी ने हनुमान जी से कहा कि जिसे तुम अपनी गोद में बिठा लो उसके सिर पर तो मुझे हाथ रखना ही पड़ेगा। लेकिन गुरु जी को क्या जवाब देंगे। तभी हनुमान जी को विश्वामित्र जी सामने से आते दिखाई पड़े। उन्होंने राजा सुकंत से कहा कि जाओ तब प्रणाम नहीं किया तो क्या हुआ, अब कर लो। राजा ने दौड़कर विश्वामित्र जी के चरणों में लोट गया। वह भी प्रसन्न हो गए और बोले राम इसे क्षमा कर दो। मैंने इसे क्षमा कर दिया क्योंकि संत का काम मिटाना नहीं बल्कि सुधारना होता है। यह भी सुधर गया है। उन्होंने सुकंत से पूछा कि संत का सम्मान न करने की सलाह तुम्हें किस कुसंग में मिली।

                 राजा सुकंत विश्वामित्र जी से कुछ कहते कि इससे पहले नारद मुनि प्रकट हो गये। उन्होंने सारी घटना कह सुनाई। तब विश्वामित्र जी ने पूछा कि नारद कि आपने ऐसी सलाह क्यों दी? तब नारद जी ने कहा कि अकसर ही लोग मुझसे पूछते थे कि राम बड़े या राम का नाम बड़ा। तो मैंने सोचा कि क्यों न कोई लीला हो जाए कि लोग अपने आप ही समझ लें कि भगवान से अधिक भगवान के नाम की महिमा है। 

                       यही है भगवान के नाम की महिमा और उनके भक्तों की भक्ति। मैं फिर कहता हूं कि नारायण तो अपने भक्तों के आधीन है, वे अपने भक्तों के सामने अपने वचन का मोल नहीं देखते। ऐसे भक्त वत्सल श्री हरि से स्नेह का नाता जोड़ने में हमें संकोच क्यों? हमें तो उनके श्री चरणों का अनुरागी बनकर सांसारिक कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए। उनकी दासता स्वीकार करनी चाहिए, फिर देखिए, कभी आपका अमंगल नहीं होगा। मैं आपको इसी क्रम में आगे भक्त राज श्री उद्धव जी की कथा का श्रवण करवाऊंगा।

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वृष्णीनां प्रवरो मंत्री कृष्णस्य दयितः सखा ।शिष्यो बृहस्पतेः साक्षात् उद्धवो बुद्धिसत्तमः।।

उद्धवजी वृष्णिवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात् ब्रहस्पतिजी के शिष्य और परम बुद्धिमान थे। उनकी महिमा के सम्बन्ध में इससे पढ़कर और कौन-सी बात कही जा सकती है कि वे भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा तथा मंत्री भी थे। साथ ही वे भगवान कृष्ण द्वारा किए हुए भोजन को, जो जूठा बच जाता, वही खाते। यहां तक कि वे भगवान कृष्ण के द्वारा उतारे गए वस्त्र और आभूषण ही धारण करते।

                      उद्धव चरित्र श्रीमद भागवत का बड़ा ही मार्मिक प्रसंग है। प्रेम का दर्शन करवाता है उद्धव चरित्र। सूरदास जी महाराज ने भी उद्धव चरित्र का बहुत वर्णन किया है। या यूं कहा जाए, तो अनुचित नहीं होगा कि उद्धव जी ने ही कलियुग में सुर दास बनकर जन्म लिया था और ऐसा इसलिए हुआ था कि श्री ललिता ने उन्हें श्राप दे- दिया था। उद्धव, ललिता इत्यादि जितने भी राधा रानी या श्री कृष्ण के सखा है, वे सभी नित्य लीला के परिकर है। राधा कोई और नहीं, अपितु श्री नारायण के ही स्वरूप है और ऐसा उनको श्री दामा के श्राप के कारण लेना पड़ा। श्री प्रभु के जितने भी सखा है, नित्य गो लोक में निवास करते है और भगवान के अवतरित होने पर उनके लीला में सहयोग करने के लिए धरा धाम पर आते है।

                         ऐसे ही एक बार उद्धव जी श्री राधा जू से मिलने द्वारका से गोकुल आए और ललिता के घर पर चले गए। वहां उन्हें प्यास लग आई और ललिता घर में मौजूद नहीं थी। अतः उद्धव जी ने जूठा गिलास उठाकर पानी पी लिया। तभी ललिता देवी आ गई और उन्होंने उद्धव जी का उपहास कर दिया। बस उद्धव जी क्रोधित हो गए, उन्होंने ललिता जी को कहा कि तुम मलेच्छ की तरह आचरण करती हो, अतः मलेच्छ हो जाओ। इस पर ललिता देवी ने उन्हें भी श्राप दे दिया कि आपने आँखें रहते भी अंधे जैसा व्यवहार किया, अतः अंधे हो जाओ। इस कारण से उद्धव जी को इस कलियुग में सूरदास बन कर धरती पर आना पड़ा।

                  अब हम आते है उद्धव जी के जीवन चरित्र पर। एक बार  भगवान ने सोचा की ये उद्धव परम ज्ञानी है लेकिन अगर इस पर भक्ति रूपी रंग चढ़ जाये तो ज्ञान रूपी चादर बहुत अच्छी सुशोभित होगी। भगवान सोचने लगे कि, तो क्या मैं इस उद्धव को भक्ति का उपदेश दूँ?

फिर भगवान सोचा कि, नहीं-नहीं, भक्ति उपदेश देने से नहीं बल्कि भक्ति का क्रियात्मक रूप होना चाहिए। क्योंकि ज्ञान पुरुषार्थ(मेहनत) का फल है और भक्ति कृपा साध्य है। बिना भगवान की कृपा के भक्ति नहीं मिलती है।

                        भगवान ने सोचा की अगर कहीं भक्ति का दर्शन हो सकता है तो वह स्थान है वृंदावन। मैं इस उद्धव को वृंदावन भेजूंगा। भगवान प्रतिदिन सुबह उठकर यमुना का स्नान करने के लिए जाते थे।  आज भगवान जब यमुना का स्नान करने के लिए गए तो यमुना जी में एक कमल का फूल बहता हुआ आ रहा था । ये राधा रानी की प्रसादी थी। राधा रानी प्रतिदिन यमुना में भगवान के लिए फूल बहाती थी और फूल बहाते समय राधा जी के मन में ये बात आती थी की मेरे गोविंद यमुना का स्नान करने के लिए आते होंगे और इस फूल को वो देखेंगे, तो उन्हें मेरी याद अवश्य आएगी।

           आज भगवान ने उस फूल को सुंघा और यमुना में मूर्छित होने लगे। पास में खड़े थे उद्धव जी।  उद्धव जी ने जब ये देखा तो तुरंत दौड़कर गए और अपने हाथ का सहारा दिया भगवान को।  वे श्री राधा रमण जू को महलों में लेकर आ गए । महल में आकर उन्होंने देखा कि श्री कृष्ण की आँखों में आज आंसू हैं।  क्योंकि उद्धव जी ने भगवान को कभी रोते हुए नहीं देखा था। आज तो माधव के नयनों से अश्रु धारा बहती जा रही थी। ऐसे में उद्धव जी ने पूछा कृष्ण, आप भी किसी को याद करते हुए रोते हो क्या? भगवान उद्धव से कहने लगे-  उद्धव मोहे ब्रज बिसरत नाहीं। मैं अपने ब्रज को भूल नहीं पा रहा हूँ।

मैं एक क्षण के लिए भी ब्रज को भूल नहीं पा रहा हूँ। मैं अपनी माँ और पिता से कहकर आया था की मैं शीघ्र ही ब्रज आऊंगा।  लेकिन मैं जा नहीं सका।  मेरी गौए, मेरी गोपियाँ और मेरे ग्वाल बाल कितना स्मरण करते हैं।  ऐसा कहते हुए भगवान रोने लगे।  उद्धव ने भगवान के आंसू पोंछे और श्री कृष्ण को वेदों की बात बताने लगे। उन्हें समझाने लगे कि संसार में सभी रिश्ते-नाते बस लौकिक है, इसपर रोना क्यों? इसपर श्री कृष्ण ने कहा कि आप तो अज्ञानी हो, आप गोकुल जाओ और वहां मेरे विरह में व्याकुल वृज बासी को समझाओ।

            मेरी गोपियाँ, मेरी प्रेयसियाँ इस समय बड़े ही कष्ट और यत्न से अपने प्राणों को किसी प्रकार रख रही हैं। मैंने उनसे कहा था कि ‘मैं आऊँगा।’ वही उनके जीवन का आधार है। उद्धव! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं। आपने उन्हें जो समझा दिया और वे विरह-वेदना से उभर गई, मेरे कष्ट भी मिट जाएंगे। जब भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात कही, तब उद्धवजी बड़े आदर से अपने स्वामी का सन्देश लेकर रथ पर सवार हुए और नंद गाँव के लिये चल पड़े ।

             संधि काल को उद्धव जी महाराज वृंदावन की सीमा पर पहुंचे ,तो उनके पीतांबर कांटों से उलझ गए, मानो कह रहे हो। हे उद्धव, यह गोकुल है, अभी भी लौट जाओ, नहीं तो तुम्हारे ज्ञान की चादर चीथरे-चीथरे हो कर फट जाएगी। परन्तु उन्होंने समझा नहीं, क्योंकि उनके आँखों पर ज्ञान की चादर पड़ी हुई थी। उद्धव जब गोकुल पहुंचे, ग्वाल बालों ने देखा की कृष्ण आ गए हैं। ये ग्वाल बाल प्रतिदिन गाँव की सीमा पर बैठ जाते थे और कृष्ण जी का इंतजार करते थे। जब कृष्ण जी नहीं आते थे तो ये शाम को नंद बाबा के घर जाकर मैया-यशोदा और नंद बाबा से कहते थे- बाबा! मैया! कोई बात नहीं आज कृष्ण नहीं आये तो-तू रोना मत, तू चिन्ता मत करना। क्योंकि आज कृष्ण नहीं आये हैं तो कोई बात नहीं कल आ जायेंगे। इस तरह से ये माता पिता को सांत्वना देते थे।

       उद्धव जी ने रथ में बैठे हुए ग्वाल बालों से पूछा कि- भैया! नंद भवन कहाँ हैं? सभी ग्वाल बाल कहने लगे कि आप कौन हैं? देखने में तो एकदम कृष्ण जी जैसे दिखाई पड़ते हो। उद्धव जी ने कहा- भैया! मैं तुम्हारे कृष्ण का मित्र हूँ और उन्होंने ही मुझे तुम्हारे पास भेजा है। अब मुझे नंद भवन लेकर चलो। इतना सुनते ही ग्वाल बाल उद्धव जी को लेकर नंद भवन पहुंच गए । जैसे ही नंद भवन के द्वार पर पहुंचे, तो देखा। द्वार पर नंद बाबा जी मूर्छित पड़े हुए हैं। उद्धव जी महाराज ने अपने हाथ का सहारा देकर नंद बाबा जी को उठाया।

नंद बाबा जी कहते हैं- लाला तू आ गयो।

उद्धव जी ने कहा- मैं आपका लाला नहीं हूँ आपके लाला का मित्र हूँ। मेरा नाम है उद्धव।

नंद बाबा कहने लगे- क्या हमारे कन्हैया नहीं आये? आज मेरे लाला नहीं आये?

              जब माँ यशोदा ने द्वार पर कन्हैया का नाम सुना तो लाठी टेकती हुई आई क्योंकि बुढी हो गई थी 80 साल की। और द्वार पर उद्धव को देखा तो उद्धव को कसकर पकड़कर झकझोर कर पूछा- मेरो कनुवा कहाँ हैं? मेरा लाला कहाँ है? उद्धव जी ने कहा की मैया! मैं तेरे लाला का मित्र हूँ उद्धव और उसका सन्देश लेकर आया हूँ।

जब माँ ने सुना तो हाथ पकड़कर उद्धव को अंदर लेकर गई और बिठाकर पूछा- बता उद्धव मेरे लाला ने क्या सन्देश भेजो है? उद्धव ने कहा- माँ! तेरे लाला ने तेरे लिए प्रणाम भेजी है।

           जैसे ही माँ ने सुना तो हंसने लगी- की बस केवल प्रणाम भेजो है। ये तो मैं कितने दिन से प्रणाम सुन रही हूँ। क्या वो वहां से प्रणाम ही भेजता रहेगो। एक बार माँ से मिलने नहीं आयेगो। देख उद्धव मैं अपने लाला के लिए दिन-रात रोती रहती हूँ और अगर रोते-रोते मैं अंधी हो गई तो इन आँखों से अपने लाल का दर्शन भी नहीं कर पाऊँगी। मेरे लाला से कहियो की एक बार अपनी माँ से आकर मिल ले। माँ उद्धव को अब वहां पर लेकर गई जहाँ भगवान श्री कृष्ण का पलना था। और उस पालने को दिखाकर यशोदा मैया कहने लगी- उद्धव तू शोर मत करियो मेरो लाला सो रयो है। फिर कहती है- नहीं, नहीं वो तो मथुरा में गया हुआ है ना।

       फिर यशोदा मैया उद्धव को उस ऊखल के पास लेकर गई । जिस से माँ ने कन्हैया को एक बार माखन चोरी करने पर बाँध दिया था। वे कहने लगी, देख उद्धव, ये वही ऊखल है, जिससे मैंने कान्हा को माखन की मटकी फोड़ने पर बाँध दिया था। तो क्या उस दिन की बात से नाराज होकर मेरा लाला , मेरा कनुवा मुझसे रूठ गया है जो मथुरा में जाकर बैठ गयो है। देख तू उद्धव मेरे लाला से जाकर कहना की एक बार मुझे माफ़ कर दे और बस एक बार ब्रज आ जाए। 


इस प्रकार से रोते हुए यशोदा मैया के आंसू को उद्धव ने पोंछे। रात्रि भर कृष्ण चर्चा चलती रही। कब रात बीत गई उद्धव को भी पता नहीं चला। प्रातः काल हो गई। सूर्य देव उदय हो गए। उद्धव ने नंद बाबा से कहा की आप मुझे यमुना जी का स्नान करने की आज्ञा दो। गोपियों ने आज नंद भवन के द्वार पर एक रथ खड़ा देखा। गोपियों को लगा की क्या कृष्ण आ गए हैं?

             फिर सोचने लगी कि नहीं-नहीं! अगर श्यामसुंदर आते तो हमसे जरूर मिलकर जाते। पहले तो वो क्रूर अक्रूर आया था जो हमारे प्यारे को लेकर चला गया। अब तो केवल हमारे प्राण बचे हैं। तो क्या कोई हमारे प्राण लेने आया है। क्या कोई कंस का पिंड दान करने के लिए हमारे प्राण लेने आया है। ऐसा कहकर गोपियाँ राधा रानी को साथ लेकर यमुना के तट पर आ गई । उद्धव जी भी यमुना के तट पर आ गए। एक और गोपियाँ खड़ी हैं और एक और उद्धव।  उसी समय एक भ्रमर(भौंरा) आ गया और उस भ्रमर की आदत कभी तो उड़कर गोपियों की और जाये और कभी उद्धव जी की और जाये। जब गोपियों की और उड़कर भ्रमर आया तो गोपियों ने भ्रमर गीत गाया।

गोपी कहने लगी-  भ्रमर तू उस धूर्त कृष्ण का धूर्त मित्र है ना। हमें तुझसे घृणा हो गई है। जैसे तू फूलों का रस लेने के बाद उनका त्याग करके चला जाता है ऐसे ही कृष्ण ने हमारा त्याग कर दिया। तू हमारा स्पर्श मत कर।

कुछ संत कहते हैं की ये भ्रमर और कोई नहीं स्वयं श्री कृष्ण जी ही हैं।

        जब उद्धव जी ने भ्रमर गीत सुना तो उद्धव ने सोचा की यहाँ तो कोई दिखाई नहीं देता। तो ये गोपियाँ बातचीत किससे कर रही हैं। उद्धव जी महाराज गोपियों के पास गए और कहने लगे, हे गोपियों मैं तुम्हारे कृष्ण का मित्र हूँ। और तुम्हारे लिए कुछ सन्देश लेकर आया हूँ। गोपियों ने जब सुना,  कहने लगी, हे उद्धव! आपने बड़ी कृपा की जो कृष्ण जी का सन्देश लेकर आये। लेकिन आप पहले अपने मुख से ये बात बताओ की कृष्ण ने स्वयं आने के लिए कहा भी या नहीं। क्योंकि उनको देखे बिना हमारे एक-एक पल एक-एक युग की तरह बीतता है। और ये भी बताइये की क्या सन्देश भेजा है। गोपियाँ उद्धव को घेरकर खड़ी हो गई।

             इतना सुनना था कि उद्धव अपने ज्ञान का पिटारा गोपियों के आगे खोलने लगे और कहने लगे कि भगवान ने आपके लिए कहा है – हे गोपियों तुम अपनी नासिका के अग्र भाग पर उस ब्रह्म का ध्यान करो तो तुम्हें अपने अंतः करण में चतुष्ठ: में श्री कृष्ण के दर्शन होंगे। गोपियों ने जब ये ज्ञान की बात सुनी तो हँसने लगी –  और कहने लगी।  अच्छा तो हमारे प्यारे ने ये योग की चिट्ठी ब्रज में भेजी है। इस पाती को लेकर हम क्या करेंगे। सुनो उद्धव 

निस दिन बरसत नैन हमारे ।सदा रहत पावस ऋतु हम पर जब ते श्याम सिधारे ॥१॥

अंजन थिर न रहत अँखियन में कर कपोल भये कारे ।कन्चुकिपट सूखत नहीं कबहुँ उरबिच बहत पनारे ॥२॥

आँसू सलिल भए पग थाके बहे जात सित तारे ।सूरदास अब डूबत है ब्रज काहे न लेत उबारे ॥३॥

              सूरदास के पदों में गोपियों का विरह भाव स्पष्ट झलकता है। इस प्रसिद्ध पद में कृष्ण के वियोग में गोपियों की क्या दशा हुई, उसी का वर्णन सूरदास ने किया है। कृष्ण को संबोधन देते हुए गोपियां कहती हैं कि हे कन्हाई! जब से तुम ब्रज को छोड़ कर मथुरा गए हो, तभी से हमारे नयन नित्य ही वर्षा के जल की भांति बरस रहे हैं अर्थात् तुम्हारे वियोग में हम दिन-रात रोती रहती हैं। रोते रहने के कारण इन नेत्रों में काजल भी नहीं रह पाता अर्थात् वह भी आंसुओं के साथ बहकर हमारे कपोलों को भी श्यामवर्णी कर देता है। हे श्याम! हमारी कंचुकि आंसुओं से इतनी अधिक भीग जाती है कि सूखने का कभी नाम ही नहीं लेती। फलतः वक्ष के मध्य से परनाला-सा बहता रहता है।

इन निरंतर बहने वाले आंसुओं के कारण हमारी यह देह जल का स्रोत बन गई है, जिसमें से जल सदैव रिसता रहता है। सूरदास के शब्दों में गोपियां कृष्ण से कहती हैं कि हे श्याम! तुम यह तो बताओ कि तुमने गोकुल को क्यों भुला दिया है।

         फिर कृष्ण की लीला गोपियों को याद आने लगी। बिन गोपाल बैरन भइ कुंज, तब ये लता लगती अति शीतल¸ अब भइ विषम ज्वाल की पुंज।

गोपाल के बिना हमें ये ब्रज की कुंज अपनी बैरी लगती हैं। जो लता शीतलता प्रदान करती हैं उनमें से अब आग की लपटे निकल रही हैं। उद्धव हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म का उपदेश लेकर क्या करें! हमें तो वो शरद् की पूर्णिमा की रात्रि याद आती है जब हमने भगवान के उस रसमय रूप का दर्शन किया था। और भगवान ने हमारे साथ रास रचाया था। वह पल हमें एक क्षण के लिए भी नहीं भूलता और ना ही हम उसे भूलना चाहती हैं।

                 तुम कहते हो की तुम कृष्ण के मित्र हो। यदि मित्र होते तो हमारी विरह दशा को समझ पाते। कैसे मित्र हो तुम कृष्ण के? तुम्हें हमारी दशा समझ नहीं आती। उद्धव ने सुना और कहा – गोपियों तुम समाधि लगाकर भगवान का ध्यान करो। उस निर्गुण और निराकार ब्रह्म का ध्यान करो। भगवान ने ये सन्देश दिया है। इतना सुनते ही एक गोपी कहने लगी, उद्धव तुम यहाँ से चले जाओ। तुम गलती से ब्रज में आ गए हो। तुम योग की बात कर रहे हो तुम्हें जरा भी लज्जा नहीं आती। तुम इतने चतुर हो गए हो की उचित-अनुचित का तुम्हें ज्ञान ही नहीं। अपने निर्गुण ब्रह्म का राग अलापना बंद करो। अरे जो है ही नहीं वही निर्गुण है। जिसमें कोई गुण नहीं है जिसमें कोई रस नहीं है। वो क्या ख़ाख दिखेगा।

          दूसरी गोपी कहने लगी – जैसे कुत्ते की पूंछ को किसी भांति सीधा करने का प्रयास करो, लेकिन उसे कोई भी सीधा नहीं कर सकता। जैसे कौवा कितना भी प्रयत्न करें वो अभक्ष्य चीजे खाना नहीं छोड़ता। जैसे काले कंबल को कितना भी धो लो लेकिन उसका रंग तो काला ही रहेगा ना।  ऐसे ही उस काले(कृष्ण) का रंग हम पर चढ़ गया है तुम लाख कोशिश कर लो वो रंग अब उतरने वाला नहीं है। एक और गोपी बोली, उद्धव! एक बात कहूं ! आज हम धन्य हो गई हैं क्योंकि एक तो तुम्हें हमारे प्यारे कृष्ण ने हमारे लिए भेजा है और दूसरे अपनी आँखों से तुमने हमारे प्यारे कृष्ण को देखा है। जिन नेत्रों से तुमने कृष्ण को देखा है उन नेत्रों से तुम मुझे झांक रहे हो।

            इतना सुनते ही उद्धव ने फिर कहा, हे गोपियों! तुम जान बूझकर बावली मत बनो। तत्व(निर्गुण ब्रह्म) के भजन से तुम भी इसी प्रकार तत्व मय(निर्गुण ब्रह्म में रमण करने वाली) हो जाओगी। जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है। तुम सब सांसारिक मोह बंधन छोड़ दो।

            इतनी बात सुनते ही गोपी उद्धव का उपहास उड़ाने लगी- हे उद्धव! तुम्हारी तो अच्छी-खासी सद्बुद्धि थी, किन्तु निर्गुण ब्रह्म के चक्कर में पड़कर तुमने उसे भी खो दिया है। तुम्हारे इस उपदेश के कारण तुम्हारी ब्रज में हंसी हो रही है। तुम इसे अपने अंदर ही छिपाकर रखो, किसी को मत दिखाओ। तुम्हारी उलटी-सीधी बातें कौन सुनता रहेगा। यदि तुम ग्वालिन को योग सिखाने का काम करोगे तो लोग तुम्हें मूर्ख ही कहेंगे। तुम्हें एक बात बताएं उद्धव:

अँखियाँ हरि दर्शन की भूखी। अँखियाँ हरि दर्शन की प्यासी।

                    हमारी आँखें तो केवल श्री हरि के दर्शनों के लिए ही अत्यधिक भूखी हैं, हमारी आँखें तो केवल हरि दर्शन की प्यासी हैं। जब से श्यामसुंदर ब्रज से गए हैं ना उद्धव तभी से हमारा मन उनमें अटक गया है। हमने बहुत निकलने की कोशिश की लेकिन मन वहां से हट ही नहीं रहा है। उद्धव वैसे तो हमारे सारे अंग दुखी हैं लेकिन विशेष रूप से हमारी आँखें रात-दिन उनके जाने के कष्ट से दुखती रहती हैं। एक क्षण के लिए भी चैन से नहीं बैठती। बस उनके आने के मार्ग देखती रहती हैं। एक क्षण के लिए भी पालक नहीं झपकती की ना जाने कब श्यामसुंदर आ जाये और हम उनके दर्शन से वंचित रह जाए। फिर एक सखी कहती है – देखो, आओ सखियों! मथुरा से पंडित जी योग सीखने आये हैं। जो पंडित खा पीकर मस्त रहते है वे योग की चिट्ठी लेकर आये हैं।

                 गोपियों की बातें सुनकर  उद्धव जी ने कहा, हे गोपियों निर्गुण ज्ञान के बिना कहीं भी, कुछ भी सुख नहीं है। तुम लोग निर्गुण को छोड़कर सगुण के पीछे क्यों दौड़ती हो? अच्छा चलो , ये बताओ वो सगुण ब्रह्म किसके पास, और फिर तुम्हें उससे क्या मिल गया? केवल विरह ही तो मिला जिसे तुम दिन रात भोग रही हो। उनकी बाते सुनकर गोपियाँ कहने लगी- उद्धव तुमने बहुत बोल लिया। अब एक शब्द ना बोलना। कृष्ण की आराधना छोड़कर निर्गुण की बात कहने से हमारे प्राणों पर आघात होता हैं, फिर चाहे तुम्हारे लिए ये हंसी की बात हो। हमें हर पल मोहन का ध्यान रहता हैं। उनके दर्शनों के बिना तो जिन ही बेकार हैं। हमें तो रात-दिन श्याम का ही स्मरण रहता हैं, तुम्हारे योग की अग्नि में यहाँ कौन जलेगा।

              अरे उद्धव! तुम हरि को अंतर्यामी बताते हो, पर वे काहे के अंतर्यामी हैं, अगर अंतर्यामी होते तो क्या वे यह न जानते की उनके बिना हम गोपियाँ किस प्रकार विरह में व्याकुल होकर एक-एक पल काट रही हैं? इतने दुखी होने पर भी वो एक बार हमसे मिलने नहीं आये। तुम निर्गुण ब्रह्म की बात कर रहे हो, यह बताओ वह निर्गुण ब्रह्म रहता कहाँ हैं? वो किस देश का वासी हैं। उसकी माँ कौन हैं? पिता कौन हैं? वह किस नारी का दास हैं। उसका रंग कैसा हैं? उसका वेश कैसा हैं? वह कैसा श्रृंगार करता हैं और उसकी रुचि किस चीज में हैं?

         गोपियाँ कहने लगी, हे उद्धव! अब तुम्हारे पास हमारी इन बातों का कोई जवाब नहीं हैं। हमें तो लगता हैं एक ओर वो कृष्ण हैं जिसके दास ब्रह्मा हैं। दूसरी ओर वो कुब्जा हैं जो कंस की दासी हैं। वो कुब्जा से प्रेम करके मथुरा में रह रहे हैं। अब तो कृष्ण मथुरा वासी हो गए हैं ना! अरे उस कन्हैया ने क्या सोचकर कुब्जा से प्रेम कर लिया। उन्हें हमारी जरा भी याद नहीं आई। 

उद्धव जी बोले – गोपियों! हरि का सन्देश सुनो! हम तुम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से मिलकर बने हैं। मैं जिस ब्रह्म की बात कर रहा हूँ ना, उसकी ना कोई माँ हैं, ना कोई पिता हैं। ना स्त्री हैं। ना उसका कोई नाम हैं और ना कोई रूप ठिकाना हैं।

               गोपियाँ कहने लगी, उद्धव ऐसी बात मत कहो। सुनो हमारे भगवान कैसे हैं। तुम्हारे नहीं दिखते होंगे ठीक हैं लेकिन हमारे भगवान को देखो। हमारे भगवान सुबह उठकर माखन चुराने के लिए गोपियों के घर चले जाते है। फिर वो गौए चराने जाते हैं। और जब श्याम को वो लौटते हैं ना तो उनकी शोभा देखकर हम अपना तन मन भूल जाती हैं । तू योग की बात करता हैं ना तेरा योग और निर्गुण ब्रह्म की बात हमें ऐसे कष्ट दे रही हैं जैसे जले पे नमक। योगी जिस ब्रह्म तक कभी पहुंचा नहीं होगा उसी भगवान को माँ माखन के चुराने पर ऊखल से बाँध देती है। उद्धव काश हमारे पास दस-बीस मन होते। एक मन हम तुम्हारे उस निर्गुण ब्रह्म को भी दे देती।

उधौ मन ना भए दस बीस। एक हतौ सौ गयौ श्याम संग, को आराधे ईस।।

इंद्री शिथिल भइ केशव बिन, ज्यौं देही बिन सीस। आसा लगि रहित तन स्वाहा, जीवहिं कोटि बरिस।

तुम तौ सखा श्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस। सूर हमारे नंद-नंदन बिन, और नहीं जगदीश॥॥

                    अब थक हार कर गोपियाँ व्यंग्य करना बंद कर उद्धव को अपने तन मन की दशा कहने लगी। उद्धव हतप्रभ हो गए, भक्ति के इस अद्भुत स्वरूप से। हे उद्धव हमारे मन दस बीस तो हैं नहीं, एक था वह भी श्याम के साथ चला गया। अब किस मन से ईश्वर की आराधना करें? उनके बिना हमारी इन्द्रिय शिथिल हैं, शरीर मानो बिना सिर का हो गया है, बस उनके दर्शन की क्षीण सी आशा हमें करोड़ों वर्ष जीवित रखेगी। तुम तो कान्हा के सखा हो, योग के पूर्ण ज्ञाता हो। तुम कृष्ण के बिना भी योग के सहारे अपना उद्धार कर लोगे। हमारा तो नंद कुमार कृष्ण के सिवा कोई ईश्वर नहीं है।


गोपियाँ कहने लगी, हे उद्धव! हम तुम्हारी बात केवल एक शर्त पर मान सकती हैं- यदि तुम अपने निर्गुण ब्रह्म को मोर मुकुट और पीतांबर धारण किए हुए दिखा दो तो।

उद्धव सच मानना हम तुम्हारी योग के योग्य नहीं हैं। हम कभी पढ़ने लिखने स्कूल नहीं गई तो हम ये सब बातें क्या जाने। पर उद्धव जब हम आँख बंद करती हैं तो हमें अपने भगवान की मूरत सामने दिखाई पड़ती है। तुम्हें नहीं दिखता होगा लेकिन हमें तो दिखता है।

                 इसके बाद एक गोपी परिहास करते हुए कहने लगी- उद्धव! हम तुम्हारी योग को ले तो लें पर यह तो बताओ कि योग का करते क्या हैं? इसे ओढ़ा जाता है या बिछाया जाता है या किसी स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ की तरह खाया जाता है या पिया जाता है। ये कोई खिलौना है क्या या कोई सुंदर आभूषण है?  उद्धव हमें तो केवल नंद नंदन चाहिए जो हमारे मन को मोहने वाले और हमारे प्राणों के जीवन हैं। उद्धव हमारे कृष्ण गोवर्धन पर्वत धारी हैं। उनके हाथ में बांस की बंसी सदा रहती है। वो वृंदावन की भूमि पर नंगे पैर रहते हैं। लेकिन उनके जाने के बाद बस हम उनकी प्रतीक्षा में बैठी रहती हैं। उन्हीं को याद करती रहती हैं।

                   एक गोपी श्री राधा रानी की विरह दशा का वर्णन करके कहने लगी कि, हे उद्धव! अन्य गोपियाँ तो जैसी है वो तो ठीक हैं पर राधा की स्थिति सबसे खराब है। राधा जी बहुत दुखी और मलिन हैं। वे हमेशा नीचे की ओर मुख करके बैठी रहती हैं। आँखें उठकर भी नहीं देखती हैं। उनकी करुणामय दशा उस दुखी जुआरी की भांति है जो जुआ में अपनी सारी पूंजी हार गया हो। उनके बाल बिखरे हुए हैं। मुख इस प्रकार कुम्हलाया हुआ है। जैसे तुषार की मारी हुई कमलिनी हो। और उद्धव तुम्हारी उपदेश सुनकर वो एकदम मृत प्राय हो गई है, क्योंकि एक तो विरह-व्यथा से पहले ही मरणासन्न थी, दूसरे उद्धव जी के इन उपदेश ने आकर जला दिया है। वे श्याम सुंदर के बिना कैसे जी पाएंगी?

               गोपियों की बातें सुनकर उद्धवजी निरुत्तर हो गए। इसके बाद वे  गोपियों की विरह-व्यथा मिटाने के लिये महीनों तक वहीं रहे। वे भगवान श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ और बातें सुनाकर व्रज-वासियों को आनंदित करते रहे । नंद बाबा के व्रज में जितने दिनों तक उद्धवजी रहे, उतने दिनों तक भगवान श्रीकृष्ण की लीला की चर्चा होते रहने के कारण व्रज वासियों को ऐसा जान पड़ा, मानो अभी एक ही क्षण हुआ हो ।

                      भगवान के परम प्रेमी भक्त उद्धवजी कभी यमुना तट पर जाते, कभी वनों में बिहरते और कभी गिरिराज की गलियों में विचरते। कभी रंग-विरंग के फूलों से लदे हुए वृक्षों में ही रम जाते और यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने कौन-सी लीला की है, यह पूछ-पूछकर व्रज वासियों को भगवान श्रीकृष्ण के लीला के स्मरण में तन्मय कर देते ।

               गोपियों का प्रेम देखकर उद्धव जी गोपियों को नमस्कार करने लगे। इस पृथ्वी पर केवल इन गोपियों का ही शरीर धारण करना श्रेष्ठ एवं सफल है; क्योंकि ये सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण के परम प्रेममय दिव्य महा भाव में स्थित हो गयी हैं। प्रेम की यह ऊँची-से-ऊँची स्थिति संसार के भय से मुमुक्षु जनों के लिये ही नहीं, अपितु बड़े-बड़े मुनियों—मुक्त पुरुषों तथा हम भक्तजनों के लिये भी अभी वांछनीय ही है। हमें इसकी प्राप्ति नहीं हो सकी। सत्य है, जिन्हें भगवान श्रीकृष्ण की लीला-कथा के रस का चस्का लग गया है, उन्हें कुलीनता की, विजाति समुचित संस्कार की और बड़े-बड़े यज्ञ- याज्ञो में दीक्षित होने की क्या आवश्यकता है ? अथवा यदि भगवान की कथा का रस नहीं मिला, उसमें रुचि नहीं हुई, तो अनेक महा कल्पों तक बार-बार ब्रह्मा होने से ही क्या लाभ ?

              कहाँ ये वनचरी आचार, ज्ञान और जाति से हीन गाँव की गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानंद घन भगवान श्रीकृष्ण में यह अनन्य प्रेम! अहो, धन्य है! धन्य हैं! इससे सिद्ध होता है कि कोई भगवान के स्वरूप और रहस्य को न जानकर भी उनसे प्रेम करें, उनका भजन करें, तो वे स्वयं अपनी शक्ति से अपनी कृपा से उनका परम कल्याण कर देते हैं; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अनजान में भी अमृत पी ले तो वह अपनी वस्तु-शक्ति ही पीने वाले को अमर बना देता है । भगवान श्रीकृष्ण ने रासोत्सव के समय इन व्रजांगनाओं के गले में बाँह डाल-डालकर इनके मनोरथ पूर्ण किए। इन्हें भगवान ने जिस कृपा-प्रसाद का वितरण किया, इन्हें जैसा प्रेम दान किया, वैसा भगवान की परम प्रेमवती नित्य संगिनी वक्षःस्थल पर विराजमान लक्ष्मी जी को भी नहीं प्राप्त हुआ। कमल की-सी सुगन्ध और कांति से युक्त देवांगनाओं को भी नहीं मिला। फिर दूसरी स्त्रियों की तो बात ही क्या करें ?

                 मेरे लिये तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृंदावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा ओषधि—जड़ी-बूटी ही बन जाऊँ! अहा! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझ इन व्रजांगनाओं की चरण धूल निरन्तर सेवन करने के लिये मिलती रहेगी। इनकी चरण-रज में स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा। धन्य हैं ये गोपियाँ! देखो तो सही, जिनको छोड़ना अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन-सम्बन्धियों तथा लोक-वेद की आर्य-मर्यादा का परित्याग करके इन्होंने भगवान की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया है—औरो की तो बात की क्या—भगवद् वाणी, उनकी निःस्वासरूप समस्त श्रुतियां, उपनिषदों भी अब तक भगवान के परम प्रेममय स्वरूप को ढूँढती ही रहती हैं, प्राप्त नहीं कर पातीं ।

                  स्वयं भगवती लक्ष्मी जी जिनकी पूजा करती रहती हैं; ब्रह्मा, शंकर आदि परम समर्थ देवता, पूर्णकाम आत्माराम और बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदय में जिनका चिंतन करते रहते हैं, भगवान श्रीकृष्ण के उन्हीं चरणारविन्दों को रास-लीला के समय गोपियों ने अपने वक्षःस्थल पर रखा और उनका आलिंगन करके अपने हृदय की जलन, विरह-व्यथा शान्त की । नंद बाबा के व्रज में रहने वाली गोपांगनाओं की चरण-धूल को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ—उसे सिर पर चढ़ाता हूँ। अहा! इन गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण की लीला कथा के सम्बन्ध में जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोगों को पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा’ ।

                  इस प्रकार  महीनों तक व्रज में रहने के बाद उद्धवजी अब मथुरा जाने के लिये निकले। लेकिन यह क्या? जब वे मथुरा को लौटे, उनकी दशा ही बदल चुकी थी। बाल बिखरे हुए थे और पूरा शरीर व्रज धूल से लिपटा हुआ था। कपड़े फटे हुए थे और आँखों से अश्रु धारा बह रही थी। वे गिरते-पड़ते जैसे-तैसे गोकुल से मथुरा पहुंचे। जो उद्धव महा-पंडित बनते थे, उनकी पंडिताई खो गई थी। उनका तो प्रेमी का सा हाल हो गया था:-

उधो सुधो है चल्यो सुन गोपी के बोल, ज्ञान बजाये डुब डुबी और प्रेम बजाये ढोल ।।

                      कृष्ण के पास जाकर उद्धव जी कहने लगे हे कृष्ण तुम निष्ठुर हो गए हो। तुम अपने माता-पिता, ग्वाल बाल और प्रेमी गोपियों को भूलकर यहाँ बैठे हो। व्रज वासियों की प्रेममयी भक्ति का उद्वेग, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया। कृष्ण जी अब जान गए की मेरा उद्धव अब ज्ञानी ही नहीं रहा, प्रेमी भक्त भी बन गया हैं । कृष्ण जी कहते हैं- ब्रज वासी वल्लभ सदा मेरे जीवन प्राण।  ताको निमिष न बिसरहोँ मोहे नंद राय की आन।

मुझे ब्रज वासी अपने प्राणों से भी प्यारे हैं। मुझे अपने पिता नंद बाबा की सौगंध है यदि मैं इनको एक क्षण के लिए भी भूलता हूँ तो।

                    श्री उद्धव भगवान श्री कृष्ण के नित्य परिकर है। वे माधव को बचपन से ही अपना आराध्य मानते आए थे। परन्तु वे जब से गोकुल से लौटे, उनकी भक्ति में प्रेम की भी भी मिठास मिल गई। भगवान और उनके भक्त की कथा अमृत रस के समान है, जो हमारी आत्मा को तृप्त कर देती है। इसी संदर्भ में मैं आपको आगे भीष्म पितामह की कथा सुनाऊंगा।

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क्रमशः-


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जीवन तो ईश्वर प्रदत्त है, परन्तु हम जगत के प्राणी इसको अपना समझ बैठे है। हम इस शरीर को अपना समझ बैठे है, जो नाशवान है। पता नहीं कि कब यह शून्य हो जाये, कब शिथिल हो जाए। जैसे ही इसमें से आत्मा निकल जात

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भक्त कथा अमृत

5 जून 2022
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भक्ति की धारा प्रवाहित हो और उसमें भगवान के परम भक्तों की चर्चा नहीं हो, संभव ही नहीं। भक्तों के निर्मल चरित्र से हमें काफी कुछ सीखने-समझने का अवसर प्राप्त होता है। अब मैं आपको नारायण के ऐसे ही भक्त प

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भक्त कथा अमृत

7 जून 2022
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श्री बजरंग बली, अंजन सुत, पवन तनय वीर हनुमान की कथा भी इसी श्रेणी में आती है। महाबली हनुमान ग्यारहवें रुद्र है। बजरंग बली श्री राम के अनन्या-नन्य भक्त है। उनको राम नाम के अलावा जगत में कुछ भी तो प्रिय

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भक्त कथा अमृत

9 जून 2022
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भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा से हो गए, अन्यथा उनका नाम तो देवव्रत था। शांतनु और गंगा की आठवीं संतान और पिता के आज्ञाकारी। परशुराम शिष्य भीष्म साधारण नहीं थे, वे अजेय योद्धा थे। वे ऐसे वीर योद्धा थे कि उन्ह

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भक्त कथा अमृत

13 जून 2022
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नरसी मेहता महान कृष्ण भक्त थे. कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने उनको बावन बार साक्षात दर्शन दिए थे। नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़, गुजरात में हुआ था. इनका सम्पूर्ण जीवन भजन कीर्तन और कृष्ण की भक्ति में

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भक्त कथा अमृत

17 जून 2022
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धर्म की परिभाषा देना न तो सहज है और न ही सुलभ। परन्तु इसको सरल बनाते है संत। भगवान के भक्त ही हमें भगवान की ओर उन्मुख करते है। संत ही मानव जीवन के लिए जहाज रूपी साधन है, जो भवसागर रूपी संसार से पार लग

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ईश्वर की अनुभूति

26 जून 2022
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विलासिता क्या है? अतिशय गुढ प्रश्न है। क्योंकि यह अखिल संसार ही इसके पीछे अंधी दौड़ लगा रहा है। भला सुख-सुविधा और उपभोग की वस्तुएँ किस को पसंद नहीं। कौन नहीं चाहता कि वह अच्छा पहने, अच्छा खाए और अच्छी

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ईश्वर के स्वरुप एवं भक्ति भाव-:

21 सितम्बर 2022
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भगवान सगुन और निर्गुण दो भावना से पुजे जाते है। निर्गुण स्वरूप का कोई आकार-प्रकार नहीं होता, जबकि सगुन स्वरूप में नारायण की विग्रह की पुजा होती है। जो अवतार रुप में अन्यथा नारायण रुप में।

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