जीवन तो ईश्वर प्रदत्त है, परन्तु हम जगत के प्राणी इसको अपना समझ बैठे है। हम इस शरीर को अपना समझ बैठे है, जो नाशवान है। पता नहीं कि कब यह शून्य हो जाये, कब शिथिल हो जाए। जैसे ही इसमें से आत्मा निकल जाती है, सड़न पैदा होने लगती है। यह मानव का शरीर बेकार हो जाता है, क्योंकि यह कचरे का ढेर ही तो है। बस हम, यानी कि आत्मा, इसमें है इसलिये चलायमान है। तो फिर हम घमंड क्यों करें, हम अपने आप को पाप कर्मों से क्यों नहीं बचाए। हम उन कमल नयन नारायण की आराधना क्यों नहीं करें। आपको इसी जीवन से संदर्भीत आचरणों को और नाम महिमा को बताने के लिए अजामील की कथा बताता हूं।
अजामील कान्यकुब्ज (प्राचीन कन्नौज) निवासी एक ब्राह्मण था। वह गुणी भी था और समझदार भी। उसने वेद-शास्त्रों का विधिवत अध्ययन प्राप्त किया था। अपने यहाँ आने वाले गुरुजन, संत तथा अतिथियों का सम्मान भी वह श्रद्धा पूर्वक करता था। इसके साथ ही वह उनसे ज्ञान चर्चा भी किया करता था। उसके घर में नित्यप्रति देव पूजन, यज्ञ तथा ब्राह्मण भोजन कराया जाता था। पूजन विषयक समस्त व्यवस्थाएँ स्वयं अजामील देखा करता था। वह प्रयास करता था कि पूजन में प्रयुक्त होने वाली सामग्री फल-फूल तथा समिधाएँ पवित्र और श्रेष्ठ हों। वह वन तथा उपवन में जाकर इन समाग्रियों को एकत्र करता था।
एक दिन अजामील वन से पूजन सामग्री एकत्रित कर घर लौट रहा था, तो उसने देखा एक कुंज में कोई युवक स्त्री के साथ प्रेम में लिप्त था। अजामील ने संस्कार वश अपने आपको यह देखने से रोकने का पूरा प्रयत्न किया, किन्तु सफल न हो सका। वह बार-बार इस प्रेम प्रसंग को देखकर आनंदित होने लगा। बाद में उसने स्त्री से परिचय प्राप्त किया। यह ज्ञात होने पर कि वह वेश्या है, अजामील प्रतिदिन उसके यहाँ जाने लगा। संसर्ग से धीरे-धीरे उसके सत्कर्म प्रभावित होने लगे और वह वेश्या की प्रत्येक कामना की तुष्टि के लिए तरह-तरह के दुष्कर्मों में लिप्त होता गया। उसने चोरी, डकैती और लूट-पाट शुरू कर दिए। हत्याएँ करने लगा तथा किसी भी प्रकार से धन प्राप्ति हेतु अन्यायपूर्ण कर्म करके उसे संतुष्टि प्राप्त होने लगी। स्थिति यह हुई कि वेश्या से अजामील को नौ पुत्र प्राप्त हुए तथा दसवीं सन्तान उसकी पत्नी के गर्भ में थी।
संयोग बस एक दिन कुछ संतों का समूह उस ओर से गुजर रहा था। रात्रि अधिक होने पर उन्होंने उसी गांव में रहना उपयुक्त समझा, जिसमें अजामील रहता था। गाँव बालों से आवास और भोजन के विषय में चर्चा करने पर गाँव बालों ने मजाक बनाते हुए साधुओं को अजामील के घर का पता बता दिया। संत समूह अजामील के घर पहुँच गए। उस समय अजामील घर पर नहीं था। गाँव बालों ने सोचा था कि आज ये साधु निश्चित रूप से अजामील के द्वार पर अपमानित होंगे तथा इन्हें पिटना भी पड़ेगा। आगे से ये स्वयं ही कभी इस गाँव की ओर कदम नहीं रखेंगे। संत मंडली ने उसके द्वार पर जाकर राम नाम का उच्चारण किया। घर में से उसकी वही वेश्या पत्नी बाहर आई और साधुओं से बोली- "आप शीघ्र भोजन सामग्री लेकर यहाँ से निकल जायें अन्यथा कुछ ही क्षणों में अजामील आ जायेगा और आप लोगों को परेशानी हो जायेगी।" उसकी बात सुनकर समस्त साधु गण भोजन की सूखी सामग्री लेकर उसके घर से थोड़ी ही दूरी पर एक वृक्ष के नीचे भोजन बनाने का उपक्रम करने लगे। भोजन बना, भोग लगा और संतों ने जब पा लिया, तब विचार किया कि यह भोजन किसी संस्कारी ब्राह्मण कुलोत्पन्न के घर का है। किन्तु समय के प्रभाव से यह कु-संस्कारी हो गया है।
सभी संत पुन: फिर से अजामील के घर पहुँचे। उन्होंने बाहर से आवाज़ लगाई। अजामील की स्त्री बाहर आई। संतों ने कहा- "बहन हम तुमसे एक बात कहने आये हैं।" स्त्री ने बताने के लिए कहा। संतों ने कहा- "तुम्हारे यहाँ जन्म लेने वाले शिशु का नाम 'नारायण' रखना।" संत गणो के ऐसा कहने पर अजामील की स्त्री ने उन्हें ऐसा ही करने का वचन दिया। अजामील की स्त्री ने दसवीं सन्तान के रूप में एक पुत्र को ही जन्म दिया, और उसका नाम 'नारायण' रख दिया। नारायण सभी का प्रिय था।
अब अजामील स्त्री और अपने पुत्र के मोह जाल में लिपट गया। कुछ समय बाद उसका अंत समय भी नजदीक आ गया। अति भयानक यमदूत उसे दिखलाई पड़े। भय और मोह वश अजामील अत्यंत व्याकुल हुआ। अजामील ने दुःखी होकर नारायण! नारायण! पुकारा। भगवान का नाम सुनते ही विष्णु पार्षद उसी समय उसी स्थान पर दौड़कर आ गए। यमदूतों ने जिस फाँसी से अजामील को बांधा था, पार्षदों ने उसे तोड़ डाला। तब यमदूतों ने कहा कि इस पापी अजामील ने शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करके स्वच्छंद आचरण किया है। इसने अनको वर्षों तक वेश्या के मल-समान अपवित्र अन्न से अपना जीवन व्यतीत किया है। इसका सारा जीवन पाप मय है और इस पापी के पापों का प्रायश्चित दंड पाणि भगवान यमराज के पास नरक यातनाएँ भोगकर ही होगा।
यमदूतों की बातें सुनकर भगवान के पार्षदों ने कहा- यमदूतों! इसने कोटि जन्म की पाप राशि का पूरा-पूरा प्रायश्चित कर लिया है क्योंकि इसने विवश हो कर ही सही, भगवान के परम कल्याण मय नाम का उच्चारण किया है। जिस समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय इस पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया। भगवन नाम उच्चारण बड़े से बड़े पाप को काटने की सामर्थ्य रखता है क्योंकि भगवान के नाम के उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान के गुण, लीला और स्वरूप में रम जाती है और स्वयं भगवान की भी उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है।
संकेत में, परिहास में, तान अलापने में अथवा किसी की अवहेलना करने में भी यदि कोई ‘नाम’ उच्चारण करें तो उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग भंग होते समय, साँप के डसते समय, आग में जलते समय व चोट लगते समय भी विवशता से ‘हरि-हरि’ कहकर भगवान के नाम का उच्चारण कर लेता है, वह यम यातना का पात्र नहीं रह जाता।
यमदूतों! जैसे जाने या अनजाने में ईंधन से अग्नि का स्पर्श हो जाए तो वह भस्म हो ही जाता है, वैसे ही जान बूझकर या अनजाने में, भगवान के नामों का संकीर्तन करने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं। जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृत को उसका गुण न जान कर अनजाने में पी ले, तो भी अमृत उसे अमर बना ही देता है वैसे ही अनजाने में उच्चारण करने पर भी भगवान का नाम अपना फल देकर ही रहता है। अजामील ने श्री भगवान का नाम नारायण का उच्चारण किया है अतः यमदूतों तुम अजामील को मत ले जाओ।
यमदूत नहीं माने। वे अजामील को पापी समझकर अपने साथ ले जाना चाहते थे। तब पार्षदों ने यमदूतों को डांटकर वहाँ से भगा दिया। हारकर सब यमदूतों ने यमराज के पास जाकर पुकार की। तब धर्मराज ने कहा कि "तुम लोगों ने बड़ा नीच काम किया है। तुमने बड़ा अपराध किया है। अब सावधान रहना और जहाँ कहीं भी, कोई भी किसी भी प्रकार से भगवान के नाम का उच्चारण करें, वहाँ मत जाना।" यमराज ने यमदूतों से कहा "अपने कल्याण के लिए तुम लोग स्वयं भी 'हरी' का नाम और यश का गान करो।
इधर अजामील ने यमदूतों व विष्णु दूतों के सारे संवाद को देखा व सुना। वह यमदूतों के फंदे से छूटकर निर्भय व स्वस्थ हो गया। सर्व पाप हारी भगवान की महिमा सुनने से अजामील के हृदय में शीघ्र ही भक्ति का उदय हो गयी। उसे अपने जीवन पर बहुत पश्चाताप होने लगा। उसके हृदय में संसार के प्रति तीव्र वैराग्य होने लगा। अजामील सब के संबंध और मोह को छोड़कर हरिद्वार चला गया। योग मार्ग व आत्म चिंतन का आश्रय लेकर अजामील ने इन्द्रिय, मन व बुद्धि को विषयों से पृथक कर भगवान में लीन कर दिया। तब उसने देखा कि उसके सामने वही चारों विष्णु दूत खड़े हैं, जिन्हें उसने पहले देखा था। अजामील ने सर झुका कर उन्हें नमस्कार किया। उनका दर्शन पाने के बाद अजामील ने उसी तीर्थ हरिद्वार में गंगा के तट पर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान के पार्षदों के साथ स्वर्णमय विमान पर आरूढ़ होकर आकाश मार्ग से भगवान लक्ष्मीपति के निवास स्थान वैकुंठ को चला गया।
संत हृदय, साधु और ऋषि- मुनि कहते है। इतना ही नहीं धर्म ग्रंथ भी कहती है कि भगवान की शरण में रहने वाले भक्तों के पाप श्री भगवान के नामों उच्चारण से ऐसे नष्ट हो जाते हैं जैसे सूर्य उदय होने पर कोहरा नष्ट हो जाता है। जिन्होंने अपने भगवद् गुण अनुरागी मन मधुकर को भगवान श्री कृष्ण के चरणारविंद मकरंद का एक बार पान करा दिया; उन्होंने सारे प्रायश्चित कर लिए। वे स्वप्न में भी यमराज और उनके पाश धारी दूतों को नहीं देखते। कमल नयन पद्धनाभ हरि का जो हो जाता है, उसे नरक लोक की यातना कभी भी नहीं सताती।
यह तो कथा प्रसंग है, परन्तु गोस्वामी तुलसी दास ने तो यहां तक कह दिया है-: कहां लगि करहूं नाम बराई, राम न सकही नाम गुण गाई। फिर भी हम जड़ जीव उन ईश्वर तत्व से नाता तोड़ कर मिथ्या जगत के मोह में फंसे रहते है। यह जगत जो है, नाटक का मंच है और हम सब अदाकार। बस यहां आने के बाद हमें अभिनय करना है और अभिनय खतम होते ही इस रंगमंच को छोड़ कर चले जाना है। फिर किस बात का अभिमान, जब हम जो सांस लेते है, वही अपना नहीं है। मैं फिर से कहता हूं कि हम-आप जगत में आए है, तो जगत के धर्मों का निर्वाह जरूर करें। इस संसार के ऐश्वर्य का जरूर ही उपभोग करें। परन्तु अपना मानवीय धर्म नहीं भूले। हम नारायण को नहीं भूले।
हमें भगवान के नामों का करतल ध्वनि से कीर्तन करना चाहिए। हमें श्री हरि के मोहक स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। हम चाहे भगवान के जिस भी रुपों की आराधना करें, उनके चाहे जिस नामों का उच्चारण करें ।परन्तु उनकी शरणागति जरूर स्वीकार करें। हम जगत में जरूर रहे, परन्तु जगत के गुणों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दे। हमें अपने आचरण को विशुद्ध बनाना चाहिए। हमें अपने आप को नारायण के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। यही तो जीवन है और इसकी यही सार्थकता है, कि हम नारायण के हो जाए।
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भक्तों की कथा कहने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि हम जाने, हम समझे कि जो नारायण का हो जाता है। नारायण किस प्रकार से उसके हो जाते है। इसी क्रम में मैं आज आपको राजा अंबरीष की कथा सुनाता हूं।-
राजा नाभाग के अंबरीष नामक एक प्रतापी पुत्र थे। वे बड़े वीर, बुद्धिमान व तपस्वी राजा थे। वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर प्राणी घोर नरक में जाते हैं वह कुछ ही दिनों का सुख है, इसलिए उनका मन सदैव भगवत भक्ति व दीनों की सेवा में लगा रहता था। राज्याभिषेक के बाद राजा अंबरीष ने अनेक यज्ञ करके भगवान विष्णु की पूजा-उपासना की जिन्होंने प्रसन्न होकर उनकी रक्षा के लिए अपने ‘सुदर्शन चक्र’ को नियुक्त कर दिया।
राजा अंबरीष भगवान के ऐसे भक्त थे कि वे हमेशा नारायण और नारायण की सेवा में ही लगे रहते थे। उनके भक्ति परायणता की सुगंध तीनों लोकों में फैलने लगी थी। एक बार की बात है, राजा अंबरीष के पास देवर्षि नारद आए। भक्त अंबरीष ने उनकी षोडशोपचार विधि से पुजा अर्चना की। फिर दोनों में बातें होने लगी। तभी राजा अंबरीष की नजर नारद जी के हाथों पर गई। जिसमें पीले रंग की डायरी थी। सहज ही राजा ने आश्चर्य चकित होकर देवर्षि से पुछा.......देवर्षि यह क्या है? राजा की बातें सुनकर देवर्षि मुस्करा कर बोले।...हे भक्त राज अंबरीष.....इसमें उनका नाम है, जो नारायण की भक्ति करते है।
अति उत्सुकता बस राजा अंबरीष ने वह डायरी ली और देखा। उस डायरी में उनका नाम कहीं नहीं था। उदास हो गए राजा अंबरीष...उनके मन में ग्लानि होने लगी। उनको लगने लगा कि शायद अभी भक्ति में कमी है। मैं कमल नयन नारायण का पूर्ण रुप से सेवक नहीं बन पाया हूं। नारद जी राजा अंबरीष के हृदय की पीड़ा समझ गए, परन्तु उन्होंने कुछ नहीं बोला। वे चले गए आगे भ्रमण करने को। ठीक कुछ दिनों बाद देवर्षि फिर राजा अंबरीष के पास आए। इस बार नारद जी के हाथों में लाल डायरी थी। भक्त राज ने उनका फिर से षोडशोपचार विधि से पुजा किया और फिर से वही सवाल।
नारद जी मुस्करा कर बोले, हे भक्त राज, इसमें उनका नाम है, जिनका भजन नारायण अपने श्री मुख से करते है। इसमें उनका नाम है, जिनकी भक्ति भक्त वत्सल श्री हरि खुद करते है। सुनकर सहज ही राजा अंबरीष को उत्सुकता हुई। उन्होंने डायरी लिया और देखा, प्रथम पन्ने पर ही सब से ऊपर राजा अंबरीष का नाम था। बस इतना देखना था कि राजा अंबरीष विह्वल होकर रोने लगे। उनके आँखों से अश्रु धारा बहने लगी। हृदय में श्री हरि के भक्त वत्सलता पर प्रेम का आवेग प्रवाहित होने लगा। नारद जी उनके हृदय की हालत जानते थे, परन्तु उन्होंने कुछ कहा नहीं। भक्त अंबरीष को उसी हालत में छोड़ कर नारद जी आगे भ्रमण के लिए निकल पड़े। जबकि अंबरीष हरि प्रेम में डूब गए।
भक्त राज अंबरीष की कुल सौ ब्याहता थी। ऐसा नहीं था कि उन्होंने इच्छा से इतने ब्याह किए थे। परन्तु राज कुमारियों के आग्रह पर उनको इतना ब्याह करना पड़ा था। परन्तु राजा अंबरीष, अपने किसी पत्नी के पास नहीं जाते थे। उन्होंने तो किसी का मुख भी नहीं देखा था। एक दिन की बात है, जब राजा पुष्प चुनने गए, छोटी रानी ने चौका- वर्तन कर दिया। वापस लौटने पर राजा ने देखा, तो आश्चर्य चकित हुए। पुछा, तो पता चला की छोटी रानी ने किया है, वे भी नारायण की भक्ति करना चाहती है। राजा अंबरीष प्रसन्न हुए, उन्होंने छोटी रानी के लिए श्री हरि का मंदिर बनवा दिया। अब तो राजा नित्य प्रति ही छोटी रानी के पुजा में सम्मिलित होते। बाकी रानियों ने जब देखा कि महाराज मंदिर के बहाने छोटी रानी के पास जाते है, उन्होंने भी राजा के सामने श्री हरि के भक्ति करने की इच्छा व्यक्त की।
इस प्रकार से बाकी रानियों के लिए भी नारायण के मंदिर का निर्माण हो गया। अब तो राजा अंबरीष भगवान की सेवा करने के बाद जो समय बचता था, इन मंदिरों में दर्शन करने में बीतने लगा। ऐसा ही बहुत दिनों तक चलता रहा। भले ही उनकी पत्नियां ईर्ष्या बस ही सही, ईश्वर की ओर उन्मुख हो गई। फिर तो राजा अंबरीष का महल साक्षात वैकुंठ ही हो गया। राजा अंबरीष भगवान के प्रिय और प्रिय होते गए, ठाकुर जी के और नजदीक होते गए।
एक बार अंबरीष ने अपनी पत्नी के साथ द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत करने का निश्चय किया। वे एक वर्ष पर्यंत एकादशी व्रत किए। इसके बाद उन्होंने हरिद्वार आकर यज्ञ किया, भगवान विष्णु का पूजन किया और ब्राह्मणों को अन्न-धन का भरपूर दान दिया। इधर उनके तप का प्रभाव तीनों लोकों में फैल चुका था। स्वाभाविक ही था कि देवलोक में भी उनके धर्म की चर्चा हो। देवलोक में मौजूद दुर्वासा ऋषि उनके गुणगान से ईर्ष्या से जलने लगे। अतः उन्होंने राजा अंबरीष की परीक्षा लेने की ठान ली और दुर्वासा हरिद्वार पहुंच गए। वे परम तपस्वी व अलौकिक शक्तियों से युक्त थे किंतु क्रोधी स्वभाव के कारण उनकी सेवा-सुश्रुसा में विशेष सावधानी अपेक्षित थी।
अंबरीष ने उनका स्वागत किया और उन्हें श्रेष्ठ आसन पर बिठाया। तत्पश्चात दुर्वासा ऋषि की पूजा करके उसने प्रेम पूर्वक भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। दुर्वासा ऋषि ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। किंतु भोजन से पूर्व नित्य कर्मों से निवृत्त होने के लिये वे गंगा नदी के तट पर चले गये। वे पर ब्रह्म का ध्यान कर गंगा के जल में स्नान करने लगे। वे तो इसलिये ही तो आए थे कि किसी प्रकार से राजा अंबरीष को धर्म से भ्रष्ट करना था। इस कारण से उन्होंने जान-बुझ कर समय यूं ही व्यर्थ में गंवाने लगे।
इधर द्वादशी केवल कुछ ही क्षण शेष रह गयी थी। स्वयं को धर्मसंकट में देख राजा अंबरीष ब्राह्मणों से परामर्श करते हुए बोले – “मान्यवरों ! ब्राह्मण को बिना भोजन करवाए स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते भोजन न करना – दोनों ही मनुष्य को पाप का भागी बनाते हैं। इसलिये इस समय आप मुझे ऐसा उपाय बताएँ, जिससे कि मैं पाप का भागी न बन सकूँ। ब्राह्मण बोले – “राजन ! शास्त्रों में कहा गया है कि जल के साथ तुलसी दल भोजन करने के समान है भी और समान नहीं भी है। इसलिये इस समय आप तुलसी दल डाला हुआ जल पी कर द्वादशी का नियम पूर्ण कीजिये।” यह सुनकर अंबरीष ने जल पी लिया और दुर्वासा ऋषि की प्रतीक्षा करने लगे।
इधर दुर्वासा ऋषि ने तपोबल से जान लिया कि अंबरीष भोजन कर चुके हैं। उनका एकादशी व्रत पूर्ण हो चुका है। अतः वे क्रोधित हो उठे और क्रोध में राजा अंबरीष के पास पहुंच कर कटु स्वर में बोले – “ दुष्ट अंबरीष ! तू धन के मद में चूर होकर स्वयं को बहुत बड़ा मानता है। तूने मेरा तिरस्कार किया है। मुझे भोजन का निमंत्रण दिया लेकिन मुझसे पहले स्वयं भोजन कर लिया। अब देख मैं तुझे तेरी दुष्टता का दंड देता हूँ। इतना कहने के बाद क्रोधित दुर्वासा ने अपनी एक जटा उखाड़ी और अंबरीष को मारने के लिए एक भयंकर और विकराल कृत्या उत्पन्न की। कृत्या तलवार लेकर अंबरीष की ओर बढ़ी किंतु वे बिना विचलित हुए मन ही मन भगवान विष्णु का स्मरण करते रहे। जैसे ही कृत्या ने उनके ऊपर आक्रमण करना चाहा; अंबरीष का रक्षक सुदर्शन चक्र सक्रिय हो गया और पल भर में उसने कृत्या को जलाकर भस्म कर दिया।
जब दुर्वासा ऋषि ने देखा कि चक्र तेजी से उन्हीं की ओर बढ़ रहा है तो वे भयभीत हो गये। अपने प्राणों की रक्षा के लिए वे आकाश, पाताल, पृथ्वी, समुद्र, पर्वत, वन आदि अनेक स्थानों पर शरण लेने गये किंतु सुदर्शन चक्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। घबराकर उन्होंने ब्रह्मा जी से रक्षा की गुहार लगायी। ब्रह्मा जी प्रकट हुए किंतु असमर्थ होकर बोले, “वत्स, भगवान विष्णु द्वारा बनाये गये नियमों से मैं बँधा हुआ हूँ। प्रजापति, इंद्र, सूर्य आदि सभी देव गण भी इन नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते। हम नारायण की आज्ञा के अनुसार ही सृष्टि के प्राणियों का कल्याण करते हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु के भक्त के शत्रु की रक्षा करना हमारे वश में नहीं है।”
ब्रह्माजी की बातों से निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान शंकर की शरण में गये। पूरा वृत्तांत सुनने के बाद महादेव जी ने उन्हें समझाया, “ऋषि वर ! यह सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का शस्त्र है जो उनके भक्तजन की रक्षा करता है। इसका तेज सभी के लिए असहनीय है। अतः उचित होगा कि आप स्वयं भगवान विष्णु की शरण में जाए। केवल वे ही इस दिव्य शस्त्र से आपकी रक्षा कर सकते हैं और आपका मंगल हो सकता है।” वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे और उनके चरणों में सिर नवाकर दया की गुहार लगायी। आर्त स्वर में दुर्वासा बोले, “भगवन मैं आपका अपराधी हूँ। आपके प्रभाव से अनभिज्ञ होकर मैंने आपके परम भक्त राजा अंबरीष को मारने का प्रयास किया। हे दया निधि, कृपा करके मेरी इस धृष्टता को क्षमा कर मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।”
भगवान नारायण ने दुर्वासा ऋषि को उठाया और समझाया, “मुनिवर ! मैं सर्वदा भक्तों के अधीन हूँ। मेरे सीधे-सादे भक्तों ने अपने प्रेम पाश में मुझे बाँध रखा है। भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। अतः मैं स्वयं अपने व देवी लक्ष्मी से भी बढ़कर अपने भक्तों को चाहता हूँ। जो भक्त अपने बंधु -बांधव और समस्त भोग-विलास त्यागकर मेरी शरण में आ गये हैं उन्हें किसी प्रकार छोड़ने का विचार मैं कदापि नहीं कर सकता। यदि आप इस विपत्ति से बचना चाहते हैं तो मेरे परम भक्त अंबरीष के पास ही जाइए। उसके प्रसन्न होने पर आपकी कठिनाई अवश्य दूर हो जाएगी।”
नारायण की सलाह पाकर दुर्वासा अंबरीष के पास पहुँचे और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगे। जब से दुर्वासा राजा अंबरीष के पास से जान बचा कर भागे थे और अब लौटे थे, इतने समय में पृथ्वी पर एक वर्ष बीत चुका था। परन्तु राजा अंबरीष उसी अवस्था में खड़े ही रहे, जैसे दुर्वासा जी उनको छोड़ कर गए थे। अब राजा ने जब परम तपस्वी महर्षि दुर्वासा की यह दुर्दशा देखी, उन्हें अत्यंत दुख हुआ। उन्होंने सुदर्शन चक्र की स्तुति की और प्रार्थना पूर्वक आग्रह किया कि वह अब लौट जाये। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर सुदर्शन चक्र ने अपनी दिशा बदल ली और दुर्वासा ऋषि को भयमुक्त कर दिया।
जब से दुर्वासा ऋषि वहाँ से गये थे तब से राजा अंबरीष ने भोजन ग्रहण नहीं किया था। वे ऋषि को भोजन कराने की प्रतीक्षा करते रहे। उनके लौटकर आ जाने व भयमुक्त हो जाने के बाद अंबरीष ने सबसे पहले उन्हें आदर पूर्वक बैठाकर उनकी विधि सहित पूजा की और प्रेम पूर्वक भोजन कराया। राजा के इस व्यवहार से ऋषि दुर्वासा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें अनेकशः आशीर्वाद देने लगे। तभी कमल नयन नारायण वहां प्रगट हुए। उन्होंने दुर्वासा से कहा कि हे ऋषि आप मेरा तो अहित कर लेना, परन्तु मेरे भक्तों का अपराध मत करना। मैं अपने भक्तों का अपराध करने बाले को कभी क्षमा नहीं करता। साथ ही नारायण ने दुर्वासा जी को कहा, हे ऋषि, आपने जो अंबरीष को दस जन्मो का श्राप दिया है। आपका वचन वृथा नहीं जाएगा। आपका श्राप मैं स्वीकार करता हूं। इस श्राप के कारण ही ऋषि वर मैं दस अवतार धारण करूंगा।
इस कथा का तात्पर्य यहीं है कि नारायण हमेशा अपने भक्तों की रक्षा धाय की तरह करते है। वे अपने आश्रितों का अहित नहीं होने देते। कमल नयन माधव के बारे में कहावत है-:पल-पल प्रभु का नियम बदलते देखा।" अपना मान टले-टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा। ऐसे माधवेंद्र की शरणागति स्वीकार क्यों नहीं करें।
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क्रमशः-