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भक्त कथा अमृत

13 जून 2022

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नरसी मेहता महान कृष्ण भक्त थे. कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने उनको बावन बार साक्षात दर्शन दिए थे। नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़, गुजरात में हुआ था. इनका सम्पूर्ण जीवन भजन कीर्तन और कृष्ण की भक्ति में बीता। इन्होंने भगवान कृष्ण की भक्ति में अपना सब कुछ दान कर दिया था भक्त नरसी मेहता की भक्ति के कारण श्री कृष्ण ने नानी बाई का मायरा भी भरा था। श्री नरसी मेहता भगवान की भक्ति में इस प्रकार डूबे थे कि उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति संत सेवा में लगा दी थी। नरसी मेहता के बारे में विद्वानों एवं संतों की राय है कि वे राजा मुचकुंद ही थे। जब कालयवन को उन्होंने भस्म कर दिया, श्री कृष्ण ने उन्हें मोक्ष देना चाहा। परन्तु राजा ने मोक्ष नहीं ली और भगवान से भक्ति का वर मांगा।

                        नरसी मेहता बचपन से ही भक्ति में डूबे रहते थे. आगे चलकर उन्हें साधु संतों की संगत मिल गई जिसके कारण वे पूरे समय भजन कीर्तन किया करते थे। जिस कारण से घर वाले उनसे परेशान थे। घर के लोगों ने इनसे घर-गृहस्थी के कार्यों में समय देने के लिए कहा, किन्तु नरसी जी पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा। एक दिन इनकी भौजाई ने इन्हें ताना मारते हुए कहा कि ऐसी भक्ति उमड़ी है तो भगवान से मिल कर क्यों नहीं आते? इस ताने ने नरसी पर जादू का कार्य किया। वह उसी क्षण घर छोड़ कर निकल पड़े और जूनागढ़ से कुछ दूर एक पुराने शिव मंदिर में बैठकर भगवान शंकर की उपासना करने लगे। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए जिसपर भगत नरसी ने भगवान शंकर से कृष्णजी के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की। उनकी इच्छा की पूर्ति हेतु शिव इन्हें गोलोक ले गए जहाँ भगवान श्रीकृष्ण की रास लीला का दर्शन करवाये। भगत मेहता रास लीला देखते हुए इतने खो गए की मशाल से अपना हाथ जला बेठे। भगवान कृष्ण ने अपने स्पर्श से हाथ पहले जैसा कर दिया और नरसी जी को आशीर्वाद दिया।

           एक बार नरसी मेहता की जाति के लोगों ने उनसे कहा कि तुम अपने पिता का श्राद्ध करके सब को भोजन कराओ। नरसी जी ने भगवान श्री कृष्ण का स्मरण किया और देखते ही देखते सारी व्यवस्था हो गई। श्राद्ध के दिन कुछ घी कम पड़ गया और नरसी जी बर्तन लेकर बाजार से घी लाने के लिए गए। रास्ते में एक संत मंडली को इन्होंने भगवान नाम का संकीर्तन करते हुए देखा। नरसी जी भी उसमें शामिल हो गए। कीर्तन में वे इतने तल्लीन हो गए कि इन्हें घी ले जाने की सुध ही न रही। घर पर इनकी पत्नी इनकी प्रतीक्षा कर रही थी। भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ने नरसी का वेश बनाया और स्वयं घी लेकर उनके घर पहुंचे। ब्राह्मण भोज का कार्य सुचारु रूप से संपन्न हो गया। कीर्तन समाप्त होने पर काफी रात्रि बीत चुकी थी। नरसी जी सकुचाते हुए घी लेकर घर पहुंचे और पत्नी से विलंब के लिए क्षमा मांगने लगे। इनकी पत्नी ने कहा, ‘‘स्वामी! इसमें क्षमा मांगने की कौन-सी बात है? आप ही ने तो इसके पूर्व घी लाकर ब्राह्मणों को भोजन कराया है।

                      इसपर नरसी जी ने कहा, ‘‘भाग्यवान! तुम धन्य हो. वह मैं नहीं था, भगवान श्री कृष्ण थे। तुमने प्रभु का साक्षात दर्शन किया है. मैं तो साधु-मंडली में कीर्तन कर रहा था. कीर्तन बंद हो जाने पर घी लाने की याद आई और इसे लेकर आया हूं। यह सुन कर नरसी जी की पत्नी आश्चर्यचकित हो गईं और श्री कृष्ण को बारंबार प्रणाम करने लगी।

                एक बार उनके परोसियों ने नरसी जी की बेइज्जती करने के लिए कुछ तीर्थ यात्रियों को नरसी के घर भेज दिया और द्वारिका के किसी सेठ के उपर हुंडी लिखने के लिए कहा । नरसी के वहां कोई पहचान वाला ना होने पर भी साँवले  सेठ कर नाम पर चिट्टी लिखी। पहले तो नरसी जी ने मना करते हुए कहा की मैं तो गरीब आदमी हूँ, मेरे पहचान का कोई सेठ नहीं जो तुम्हें द्वारका में हुंडी दे देगा। पर जब साधु नहीं माने तो उन्होंने ने कागज ला कर पांच सौ रुपये की हुंडी द्वारका में देने के लिये लिख दी और देने वाले (टिका) का नाम सांवला शाह लिख दिया.

उस जमाने में हुंडी एक तरह के डिमांड ड्राफ्ट के जैसी होती थी। इससे रास्ते में धन के चोरी होने का खतरा कम हो जाता था। जिस स्थान के लिये हुंडी लिखी होती थी, उस स्थान पर जिस के नाम की हुंडी हो वह हुंडी लेने वाले को धन दे देता था।

          द्वारका नगरी में पहुँचने पर संतों ने सब जगह पता किया लेकिन कहीं भी सांवला शाह नहीं मिले। सब कहने लगे की अब यह हुंडी तुम नरसी से ही लेना। उधर नरसी जी ने उस धन का सामान लाकर भंडारा देना शुरू कर दिया। जब सारा भंडारा हो गाया तो अंत में एक वृद्ध संत भोजन के लिये आए। नरसी जी की पत्नी ने जो सारे बर्तन खाली किए और जो आटा बचा था उस की चार रोटियां बनाकर उस वृद्ध संत को खिलाई। जैसे ही उस संत ने रोटी खाई वैसे ही उधर द्वारका में भगवान ने सांवला शाह के रूप में प्रगट हो कर संतों को हुंडी दे दी।

                   भक्त नरसी की भगवान कृष्ण की भक्ति पर आधारित कथा है जिसमें ’मायरा”  अर्थात ’भात’ जो कि मामा या नाना द्वारा कन्या को उसकी शादी में दिया जाता है। नरसी के पास कुछ भी धन नहीं होने के कारण उनकी भक्ति की शक्ति से वह भात स्वयं भगवान श्री कृष्ण लेकर गए थे। लोचना बाई नानी बाई की पुत्री थी, नानी बाई नरसी जी की पुत्री थी और सु, सुलोचना बाई का विवाह जब तय हुआ था तब नानी बाई के ससुराल बालों ने यह सोचा कि नरसी एक गरीब व्यक्ति है। तो वह शादी के लिये भात नहीं भर पायेगा। उनको लगा कि अगर वह साधुओं की टोली को लेकर पहुँचे तो उनकी बहुत बदनामी हो जायेगी। इसलिये उन्होंने एक बहुत लम्बी सूची भात के सामान की बनाई उस सूची में करोड़ों का सामान लिख दिया गया। जिससे कि नरसी उस सूची को देखकर खुद ही न आये।

                    नरसी जी को निमंत्रण भेजा गया साथ ही मायरा भरने की सूची भी भेजी गई। निमंत्रण लेकर जब नाई नरसी मेहता के गांव पहुंचा। किसी ने भी उस नाई को नरसी मेहता का पता नहीं बताया। ऐसे में बांके बिहारी ने नाई का रुप धारण किया और उस नाई को नरसी मेहता का घर दिखा दिया। जब नाई नरसी मेहता के घर पहुंचा, नरसी मेहता ने उसका स्वागत किया और खुद नाई के भोजन का इंतजाम करने चले गए। इधर नारायण ने नरसी मेहता का रुप बनाया और सोने के पात्रों में नाई के लिए भोजन लेकर आए। जब नरसी मेहता लौटे, उन्होंने नाई से भोजन के लिए कहा।

                       परन्तु नाई तो तृप्त हो चुका था, अतः उसने मेहता जी को कहा कि आपने अभी तो मुझे भोजन कराया है। श्री नरसी मेहता को विश्वास दिलाने के लिए नाई ने सोने के पात्रों को भी दिखला दिया और बोला। आप ने ही तो बोला था कि भोजन कर लेना और इन बर्तनों को साथ ही ले जाना। नरसी मेहता भाव-विभोर हो गए। इसके बाद नाई ने उन्हें निमंत्रण पत्र दिया और उनसे विदा ली। नरसी मेहता ने निमंत्रण पत्र के साथ भात की लिस्ट देखी, वे हैरान हुए। परन्तु नरसी के पास केवल एक चीज़ थी वह थी श्री कृष्ण की भक्ति। 

                 आखिर वह दिन भी आ गया, जब उनको भात भरने के लिए जाना था। लेकिन जाए तो किस प्रकार से, ऐसे में उन्होंने एक मित्र से छकड़ा गाड़ी ली और दूसरे मित्र से बैल। फिर उनकी यात्रा प्रारंभ हुई। लेकिन यह क्या? बैलगाड़ी का जुआ टूट गया। परन्तु ठाकुर जी, अपने भक्त की दुविधा कैसे देखते? वे चट लोहार बन गए और बैलगाड़ी ठीक भी कर दी। इतना ही नहीं, ठाकुर जी गाड़ी हांकने के लिए भी बैठ गए और भक्तों के टोली संग चल पड़े। इसके बाद नरसी मेहता अपने संतों की टोली के साथ सुलोचना बाई को आशीर्वाद देने के लिये वहाँ पहुँच गये। उन्हें आता देख नानी बाई के ससुराल वाले भड़क गये और उनका अपमान करने लगे। अपने इस अपमान से नरसी जी व्यथित हो गये और रोते हुए श्री कृष्ण को याद करने लगे। नानी बाई भी अपने पिता के इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाई और आत्महत्या करने दौड़ पड़ी। परन्तु श्री कृष्ण ने नानी बाई को रोक दिया और उसे यह कहा कि कल वह स्वयं नरसी के साथ मायरा भरने के लिये आयेंगे।

               दूसरे दिन नानी बाई बड़ी ही उत्सुकता के साथ श्री कृष्ण और नरसी जी का इंतज़ार करने लगी और तभी सामने देखा कि नरसी जी और श्री कृष्ण जी रथ पर चले आ रहे है। उनके साथ लक्ष्मी देवी एवं कुबेर भी स्वरूप बदल कर आए थे।  उनके पीछे ऊँटों और घोड़ों की लम्बी कतार आ रही थी जिनमें सामान लदा हुआ था। दूर तक बैलगाड़ियाँ ही बैलगाड़ियाँ नज़र आ रही थी। ऐसा मायरा न अभी तक किसी ने देखा था न ही देखेगा।

                यह सब देखकर ससुराल वाले अपने किए पर पछताने लगे। इसके बाद तराजू लगाया गया और भात की लिस्ट निकाली गई। लिस्ट में जिस प्रकार से भात लिखी थी, भरा जाने लगा। आज ठाकुर जी के साथ भगवान श्री कुबेर भी मुनीम बनकर आए थे। इसलिये भात भरने के लिए वे ही आगे आए और समान तुलवाने लगे। सौ मन धनिया, सौ मन जीरा, सौ मन सौंफ। हर एक वस्तु को बहुत ही ज्यादा मात्रा में लिखा गया था। आधी रात तक भात ही भरी गई। भात भरी जा रही थी, इस दौरान नानी बाई के ससुराल वाले बांके बिहारी के मुनीम बाले रुप को ही देखकर सोचने लगे कि कौन है ये सेठ और ये क्यों नरसी जी की मदद कर रहा है? आखिरकार उन लोगों से नहीं रहा गया। उन्होंने जब ठाकुर जी से उनका परिचय जानना चाहा। बांके बिहारी ने जो जबाव दिया, वही इस कथा का सम्पूर्ण सार है तथा इस प्रसंग का केन्द्र भी है। इस उत्तर के बाद सारे प्रश्न अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं। सांवला सेठ का उत्तर था ’मैं नरसी जी का सेवक हूँ इनका अधिकार चलता है मुझपर। जब कभी भी ये मुझे पुकारते हैं मैं दौड़ा चला आता हूँ इनके पास। जो ये चाहते हैं मैं वही करता हूँ। इनके कहे कार्य को पूर्ण करना ही मेरा कर्तव्य है।

               श्री नारायण के संग श्री लक्ष्मी जी भी आई हुई थी। जब भात भरी जा चुकी, नानी बाई के ससुराल बालों ने अर्जी की कि आप लोग भोजन कर लो। परन्तु हमारे ठाकुर तो भक्त वत्सल है, वे तो भाव के भूखे है। उन्होंने उन लोगों के आग्रह को ठुकरा दिया और रुष्ट होकर बोले। नहीं, हम लोग आपके यहां भोजन नहीं करेंगे। आपने मेरे नरसी मेहता का अपमान किया है और जहां मेरे भक्त का अपमान हो, मैं अन्न तो क्या, जल भी ग्रहण नहीं करता। इसके बाद लक्ष्मी जी, नारायण एवं कुबेर नरसी मेहता को लेकर चल पड़े।

                            रास्ते में श्री लक्ष्मी देवी ने नारायण की ओर देखकर कहा। प्रभु! अभी भी बहुत कुछ बचा हुआ रह गया। श्री हरि मुस्कराए, भक्त वत्सल प्रभु समझ गए कि देवी भी नरसी मेहता की सेवा करना चाहती है। वे भी चमत्कार दिखलाना चाहती है। बस भक्त वत्सल भगवान ने मौन स्वीकृति दी। फिर क्या था, श्री लक्ष्मी देवी ने पूरी रात कुबेर के साथ मिल कर उस नगर में सोने- मोहरों की बारिश करने लगी। ऐसे है ठाकुर जी के भक्त और बांके बिहारी भी ऐसे ही-है। वे भक्त वत्सल है, दीनों के नाथ है, जो उनकी शरणागति हो जाता है, नारायण उसके ही हो जाते है। इसी संदर्भ में आपको आगे श्री सूरदास जी की कथा का वर्णन करूंगा।

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आगे सूरदास जी के बारे में चर्चा करूंगा। भक्त सूरदास जी विक्रमी संवत सोलहवीं सदी के अंत में एक महान कवि हुए हैं, जिन्होंने श्री कृष्ण जी की भक्ति में दीवाने हो कर महाकाव्य ‘सूर-सागर’ की रचना की।

                        ऐसा अनुमान है कि आप का आगरा के निकट जन्म स्थान था। हिन्दी साहित्य में आपका श्रेष्ठ स्थान है। सूरदास जी के बारे में अलग-अलग मंतब्य है। कुछ इतिहास कारों के अनुसार जन्म के समय का नाम मदन मोहन था। जन्म से सूरदास अंधे नहीं थे, जवानी तक उनकी आंखें ठीक रहीं तथा उन्होंने विद्या ग्रहण किया। विद्या के साथ-साथ राग भी सीखा था। प्रकृति ने उनका गला लचकदार बनाया गया था तथा तन से बहुत सुन्दर स्वरूप थे। बचपन में ही उन्होंने विद्या आरम्भ कर दी थी, तथा चेतन बुद्धि के कारण आप को सफलता मिली। 

                 उस समय भारत में मुस्लिम शासक का राज था, जिसके कारण फारसी पढ़ाई जाने लगी थी। संस्कृत तथा फारसी पढ़ना ही उच्च विद्या समझा जाता था। मदन मोहन ने भी दोनों भाषाएं पढ़ीं तथा राग के सहारे नई कविताएं तथा गीत बना-बना कर पढ़ने लगे। उनके गले की लचक, रसीली आवाज़, जवानी, आंखों की चमक हर आते-जाते राही-वटोही तो मोहित करने लगी, उनका आदर होने लगा तथा उन्हें प्यार किया जाने लगा। जब किसी पुरुष के पास गुण तथा ज्ञान आ जाए, फिर उसको किसी बात की कमी नहीं रहती। गुण भी तो प्रभु की एक देन है, जिस पर प्रभु दयाल हुए उसी को कला का वरदान प्राप्त होता है| मदन मोहन कविताएं गाकर सुनाते तो लोग प्रेम से सुनते तथा उनको धन, वस्त्र तथा उत्तम वस्तुएं भी दे देते। इस तरह मदन मोहन की चर्चा तथा यश होने लगा, इसके साथ ही दिन बीतते गए। मदन मोहन कवि के नाम से पहचाना जाने लगे।

            मदन मोहन एक सुंदर नवयुवक थे तथा हर रोज़ सरोवर के किनारे जा बैठकर  गीत लिखते रहते थे। एक दिन ऐसा कौतुक हुआ, जिस ने उसके मन को मोह लिया। वह कौतुक यह था कि सरोवर के किनारे, एक सुन्दर नवयुवती, जिसका गुलाब की पत्तियों जैसा तन था। पतली धोती बांध कर वह सरोवर पर कपड़े धो रही थी। उस समय मदन मोहन का ध्यान उसकी तरफ चला गया, जैसे कि आंखों का कर्म होता है, सुन्दर वस्तुओं को देखना। सुन्दरता हर एक को आकर्षित करती है। उस सुन्दर युवती की सुन्दरता ने मदन मोहन को ऐसा आकर्षित किया कि वह कविता लिखने से रुक गए, तथा मन वृति एकाग्र करके उसकी तरफ देखने लगे। उनको इस तरह लग रहा था, जैसे यमुना किनारे राधिका स्नान करके बैठी हुई वस्त्र साफ करने के बहाने मोहन मुरली वाले का इंतजार कर रही थी। सूरदास जी अपलक उस सुंदरी को   देखते रहे।

       उस भाग्यशाली रूपवती ने भी मदन मोहन की तरफ देखा। कुछ लज्जा की, पर उठी तथा निकट हो कर कहने लगी – ‘आप मदन मोहन हैं? हां, मैं मदन मोहन कवि हूं और गीत लिखता हूं, एवं गीत गाता हूं। यहां गीत लिखने ही आया था, तो आप की तरफ देखा। क्यों? क्योंकि आप बहुत ही सुन्दर हो। आप! सुन्दरता की देवी-राधा सी प्रतीत हो रही हो। सूरदास जी मधुर शब्दों में बोले, फिर एक पल रुक कर बोले। हे सुंदरी, आप मेरी आंखों की तरफ देख सकोगी। हां, देख रही हूं। सुंदरी ने जबाव दिया। क्या दिखाई दे रहा है? सूरदास जी ने सीधा प्रश्न किया। जिस पर युवती ने कहा । मुझे अपना चेहरा आपकी आंखों में दिखाई दे रहा है।

                       इसपर सूरदास जी ने कहा। कल भी आप आओगी? आ जाऊंगी! जरूर आ जाऊंगी! ऐसा कह कर वह पीछे मुड़ी तथा सरोवर में स्नान करके घर को चली गई। अगले दिन वह फिर आई। सूरदास जी ने उसके सौंदर्य पर कविता लिखी, गाई तथा सुनाई। सूरदास जी के कला से प्रभावित होकर वह भी उनसे प्यार करने लगी। प्यार का सिलसिला इतना बढ़ा कि बदनामी का कारण बनने लगा। सूरदास जी के पिता नाराज हो गए और उन्होंने सूरदास जी को घर से निकाल दिया। घर से निकल कर सूरदास जी मंदिर में गए, परन्तु मन संतुष्ट न हुआ। फिर तो वे चलते-चलते मथुरा आ गए| वृंदावन में अकारण ही  घूमते रहे, परन्तु मन में बेचैनी रही। सूरदास जी उस नारी के सौंदर्य को न भूल सके।

            एक दिन वह मंदिर में गए। मंदिर में एक सुन्दर स्त्री जो शादीशुदा थी, उसके चेहरे की पद्मिनी सूरत देख कर सूरदास जी का मन मोहित हो गया। वह मंदिर से निकल कर घर को गई तो सूरदास जी भी उसके पीछे-पीछे चल दिए। वह चलते-चलते उसके घर के आगे जा खड़े हो गए| जब वह घर के अंदर गई तो सूरदास जी ने घर का दरवाज़ा खट-खटाया। उस स्त्री का पति बाहर आया। उसने सूरदास जी को देखा और उसकी संतों वाली सूरत पर वह बोले, बताओ महात्मा जी। मदन मोहन, अभी जो आई है, वह आप की भी कुछ लगती होगी। सूरदास जी ने पूछा, जबाव में उस स्त्री का पति बोला। हां, महात्मा जी! हुक्म करो क्या बात हुई?

               सूरदास जी बोले। हुआ कुछ नहीं बात यह है, परन्तु मैं विनती करना चाहता हूं। इसपर गृहस्वामी ने कहा। आओ! अंदर आओ बैठो, सेवा बताओ, जो कहोगे किया जाएगा। सब आप महात्मा पुरुषों की तो माया है।

इसपर सूरदास जी घर के अंदर चले गए। अंदर जा कर बैठे तो गृहस्वामी ने अपन पत्नी को बुलाया| वह आ कर बैठ गई, तो सूरदास जी ने कहा-हे भक्त जाने दो। आप दो सिलाईयां गर्म करके ले आओ। भगवान आप का भला करेगा। 

                 वे दंपति समझ न सके कि किया मामला है। स्त्री सिलाईयां गर्म करके जब ले आई। सूरदास ने सिलाईयां पकड़ ली तथा मन को कहने लगे, ‘देख लो! जी भर कर देख लो! फिर नहीं देखना। यह कह कर सिलाईयों को आंखों में चुभो लिया तथा सूरदास बन गए। वह स्त्री-पुरुष स्तब्ध तथा दुखी हुए। उन्होंने महीना भर मदन मोहन को घर रख कर सेवा की। आंखों के जख्म ठीक किए। तथा फिर सूरदास बन कर मदन मोहन वहां से चल पड़े।

            सूरदास जी गीत गाने लगे। वह इतना विख्यात हो गया कि दिल्ली के बादशाह के पास भी उनका यश जा पहुंचा। अपने अहलकारों द्वारा बादशाह ने सूरदास को अपने दरबार में बुला लिया। उसके गीत सुन कर वह इतना खुश हुआ कि सूरदास को एक कस्बे का हाकिम बना दिया। पर ईर्ष्या करने बालों ने बादशाह के पास चुगली करके फिर उसे बुला लिया और जेल में नज़रबंद कर दिया। सूरदास जेल में रहते थे। उन्होंने जब जेल के दरोगा से पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? तो उसने कहा -‘तिमिर। यह सुन कर सूरदास बहुत हैरान हुए। कवि थे, ख्यालों की उड़ान में सोचा, ‘तिमिर…..मेरी आंखें नहीं मेरा जीवन तिमिर (अंधेर) में, बंदीखाना तिमिर (अंधेरा) तथा रक्षक भी तिमिर (अंधेर)। उन्होंने एक गीत की रचना की तथा उस गीत को बार-बार गाने लगे।

                 वह गीत जब बादशाह ने सुना तो खुश होकर सूरदास को आज़ाद कर दिया, तथा सूरदास दिल्ली जेल में से निकल कर मथुरा की तरफ चला गया। रास्ते में कुआं था, उसमें गिरे, पर बच गए तथा मथुरा-वृंदावन पहुंच गए। वहां भगवान कृष्ण का यश गाने लगे।

          सूरदास जी भगवान श्री कृष्ण जी की नगरी में पहुंचे। अनुभवी प्रकाश से उनकी आंखों के आगे श्री कृष्ण लीला आई। उन्होंने स्वामी ‘वल्लभाचार्य’ जी को गुरु माना तथा कहना मान कर ‘गऊ घाट’ बैठ कर ‘श्री मद भागवत’ को  कविता में उच्चारित करने लगे। उन्होंने एक आदमी लिखने के लिए रखा। सूरदास बोलते जाते तथा लिखने वाला लिखता रहता।

             सूर-सागर’ आप की एक अटल स्मृति है आपकी वाणी का एक शब्द है:-

हरि के संग बसे हरि लोक। ।तनु मनु अरपि सरबसु सभु अरपिओ अनद सहज धुनि झोक।।१।।

रहाउ ।।दरसनु पेखिभए निरबिखई पाए है सगले थोक।। आन बसतु सिउ काजुन कछुऐ सुंदर बदन अलोक ।।१।।सिआम सुंदर तजि आन जुचाहत जिउ कुसटी तनि जोक ।।

सूरदास मनु प्रभि हथि लीनो दीनो इहु परलोक ।।२।।

            परमार्थ-परमात्मा के भक्त परमात्मा के साथ ही रहते हैं। उन्होंने तो अपना सब कुछ हरि को अर्पण कर दिया है। वह सदा सहज प्यार तथा खुशी को अनुभव करते रहते हैं। भगवान श्री कृष्ण के दर्शनों ने उनको ऐसा संयम वाला बना दिया है कि उन्होंने इन्द्रियों पर काबू पा लिया है। जिसका फल यह हुआ कि भगवान ने उनको सब पदार्थ दिए हैं। जब प्रभु का खिलता मुख देखते हैं, तो किसी के दीदार की आवश्यकता नहीं रहती। परमात्मा को छोड़ कर जो लोग अन्य तरफ घूमते हैं, वे अपने तन-मन को नष्ट करते हैं। सूरदास जी कहते हैं, मैं तो उनका हूं, वह मेरे हैं।

               संत-वैष्णवों के अनुसार सूरदास जी का जन्म संभ्रांत परिवार में हुआ था। शारीरिक रुप से सुंदर और विद्वान सूरदास जी एक वेश्या के जाल में फंस गए। उन्होंने उस वेश्या के पीछे अपनी पूरी संपत्ति लूटा दी। उनकी ऐसी स्थिति थी कि उनका एक पल भी उस वेश्या के बिना नहीं बीतता था। ऐसे में एक दिन नारद जी आकाश मार्ग से ब्रह्मर्षि अत्री के साथ जा रहे थे। तभी उनकी नजर सूरदास पर पड़ी और दोनों चौंके। चौंकना भी स्वाभाविक ही था, क्योंकि सूरदास जिस कार्य के लिए आए थे, उसको छोड़ कर किस भ्रम में फंसे थे। दोनों ऋषियों ने मानव रुप धारण किया और वेश्या के पास जाकर समझाने लगे।

                   उन्होंने वेश्या को समझाया कि आप जिस पुरुष को अपने रुप-जाल में फंसाए हुए है, वो महान आत्मा है। उनका धरती पर किसी उद्देश्य से पदार्पण हुआ है, अतः आप उन्हें अपने रुप जाल से मुक्त करें। दोनों की बातें सुनकर उस वेश्या को ज्ञान हुआ। जब सूरदास जी शाम को उसके पास पहुंचे, वह वेश्या बोली। आप इस हाड़-मांस के शरीर पर जो इतने आसक्त है, जिसका पता नहीं कब नाश हो जाए। यह शरीर जो कि गंदगी का ढेर है, उसके बजाए श्री कृष्ण से नेह लगाया होता, आपका कल्याण हो गया होता।

                      उसी समय सूरदास जी ने अपनी आँखें सिलाईयों से फोड़ ली और अनजाने डगर पर चल पड़े। लेकिन यह क्या, वे तो कुएँ में गिर गए। ऐसे में श्री बांके बिहारी वहां आ गए और उन्होंने सूरदास जी को कुएँ से निकाला और हाथ छुटा कर जाने लगे। इसपर सूरदास जी ने बहुत ही सुंदर पद गाया:- बांह मचोड़े जात हो, अबल जान के मोए। हृदय से जाकर देख लो, मर्द बखानु तोए। बस बांके बिहारी प्रसन्न हो गए। उन्होंने सूरदास जी को फिर से आँखें दे-दी और अपने स्वरूप के दर्शन दिए। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण के रूप-माधुर्य का छक कर पान किया। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण से यह वर मांगा कि ‘‘मैंने जिन नेत्रों से आपका दर्शन किया, उनसे संसार के किसी अन्य व्यक्ति और वस्तु का दर्शन न करूं। सूरदास जी ने कहा कि प्रभु! अब आपको इस नयनों से देख लिया है। अब इन नयनों से संसार को नहीं देखना चाहता, इसलिये फिर से अंधा बना दे।

                        इसके बाद सूरदास जी ने भगवान से पुछा कि मैं कहां रहूं। भगवान ने कहा कि आप महा प्रभु वल्लभाचार्य के पास रहो। इसके बाद बांके बिहारी ने उनको महा प्रभु वल्लभाचार्य के आश्रम में पहुंचा दिया।

चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार सूरदास जी सारस्वत ब्राह्मण थे। पुष्टि सम्प्रदायाचार्य महा प्रभु वल्लभाचार्य स्वामी अपनी ब्रज यात्रा के समय मथुरा में निवास कर रहे थे। वही सूरदास जी ने उनसे दीक्षा प्राप्त की। आचार्य वल्लभाचार्य के इष्टदेव श्रीनाथ जी के प्रति इनकी अपूर्व श्रद्धा भक्ति थी। आचार्य जी की कृपा से ये श्रीनाथ जी के प्रधान कीर्तन कार नियुक्त हुए। प्रतिदिन श्रीनाथ जी के दर्शन करके उन्हें नए-नए पद सुनाने में इन्हें बड़ा सुख मिलता था।

          श्री राधाकृष्ण के अनन्य अनुरागी भक्त सूरदास जी बड़े ही प्रेमी और त्यागी भक्त थे। इनकी मानस पूजा सिद्ध थी। श्री कृष्ण लीलाओं का सुंदर और सरस वर्णन करने में ये अद्वितीय थे। गुरु की आज्ञा से इन्होंने श्रीमद भागवत की कथा की पदों में रचना की। इनके द्वारा रचित ‘सूर सागर’ में श्रीमद भागवत के दशम स्कंध की कथा का अत्यंत सरस तथा मार्मिक चित्रण है। उसमें सवा लाख पद बताए जाते हैं। यद्यपि इस समय उतने पद नहीं मिलते हैं।  कहते हैं कि इनके साथ बराबर एक लेखक रहा करता था। इनके मुंह से जो भजन निकलते, उन्हें वह लिखता जाता था। कई अवसरों पर लेखक के अभाव में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं इनके लेखक का काम करते थे। 

             संगीत सम्राट तानसेन एक बार बादशाह अकबर के सामने भक्त सूरदास जी रचित एक अत्यंत सरस और भक्तिपूर्ण पद गा रहे थे। बादशाह पद की सरसता पर मुग्ध हो गए और उन्होंने सूरदास जी से स्वयं मिलने की इच्छा प्रकट की। वह तानसेन के साथ सूरदास जी से मिलने गए। उनके अनुनय विनय से प्रसन्न होकर सूरदास जी ने एक पद गाया, जिसका अभिप्राय था ‘‘हे मन! तुम मानव से प्रीति करो। संसार की नश्वरता में क्या रखा है। बादशाह उनकी अनुपम भक्ति से अत्यंत प्रभावित हुए। भक्त श्री सूरदास जी की उपासना साख्य भाव की थी। यहां तक कि इन्हें उद्धव का अवतार भी कहा जाता है। इनके पद बड़े ही अनूठे हैं। इन्हें पढऩे से आत्मा को वास्तविक सुख शांति और तृप्ति मिलती है। शृंगार और वात्सल्य का जैसा वर्णन भक्त श्री सूरदास जी की रचनाओं में मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।

          अंतिम समय...आखिर सूर के जीवन की शाम ढल आई। सूर गोवर्धन से नीचे उतरकर घाटी में आ गए और आखिरी साँसे लेने लगे। उधर श्री वल्लभाचार्य जी के सुपुत्र गोस्वामी विटठलनाथ जी ने अपने सभी गुरु- भाइयों और शिष्यो के बीच डुगडुगी बजवा दी: भगवद् मार्ग का जहाज अब जाना चाहता है। जिसने आखिरी बार दर्शन करना है, कर लो। समाचार मिलते ही जनसमूह सूर की कुटिया तक उमड़ पड़ा। जिसने अपने कंठ की वीणा को झनका-झनका कर प्रभु-मिलन के गीत सुनाए, आज उसी से बिछड़ने की बेला थी। 

                 भक्त-हृदय भावुक हो उठे थे। बहुत संभालने पर भी सैकड़ो आंखों से रुलाइयाँ फूट रही थी। इसी बीच गुरूभाई चतुर्भुज दास जी ने सूर से एक प्रश्न किया: देव, एक जिज्ञासा है! शमन करें। सूरदास जी: कहो भाई। चतुर्भुज दास जी ने कहा। देव, आपने अपने जीवन भर कृष्ण-माधुरी छलकाया। कृष्ण प्रेम में पद रचे, कृष्ण-धुन में ही मंजीरे खनकाए। कृष्ण-कृष्ण करते-करते आप कृष्ण मय हो गए। परन्तु...इतना कहने के बाद चतुर्भुज दास जी रुक गए। तब सूरदास जी ने अधीर हो पुछा।  परन्तु क्या, चतुर्भुज..? चतुर्भुज दास जी ने हिम्मत करके पुछा। परन्तु आपने अपने और हम सब के गुरुदेव श्री वल्लभाचार्य जी के विषय में तो कुछ कहा ही नहीं। गुरु-महिमा में तो पद ही नहीं रचे।

                यह सुनकर सूर रसीली सी आवाज में बोले। अलग पद तो मैं तब रचता, जब मैं गुरु वर और कृष्ण में कोई भेद मानता। मेरी दृष्टि में तो स्वयं कृष्ण ही मुझे कृष्ण से मिलाने "वल्लभ" बनकर आए थे। ऐसा कहते ही सूर ने आखिरी सांस भरी और जीवन का आखिरी पद गुना। उनकी आंखें वल्लभ-मूर्ति के चरणों में गड़ी थी और वे कह रहे थे।

भरोसों द्रढ इन चरणन केरौ।

श्री वल्लभ नख चन्द्र छटा बिन-सब जग मांझ अन्धेरो ।साधन और नहीं या कलि में जासो होत निबेरौ ।

सूर कहा कहै द्विविध आंधरौ बिना मोल के चेरौ ।।

                  मुझे केवल एक आस, एक विश्वास, एक द्रढ भरोसा रहा-और वह इन गुरु चरणों का ही रहा। श्री वल्लभ न आते, तो सूर-सूर न होता। उनके श्री नखों की चाँदनी छटा के बिना मेरा सारा संसार घोर अंधेरे में समाया रहता। मेरे भाइयों, इस कलिकाल में पूर्ण गुरु के बिना कोई साधन, कोई चारा नहीं, जिसके द्वारा जीवन-नौका पार लग सके। सूर आज अंतिम घड़ी में कहता है कि, मेरे जीवन का बाहरी और भीतरी दोनों तरह का अंधेरा मेरे गुरु वल्लभ ने ही हरा। वरना मेरी क्या बिसात थी। मैं तो उनका बिना मोल का चेरा भर रहा।

                           यह है भगवान के भक्तों का हृदय और भगवान की भक्ति। भगवान भी तो अपने ऐसे भक्तों के ही अधीन रहते है। तो फिर हम मानव श्री हरि से विमुख रहना क्यों पसंद करते है? हम क्यों नहीं श्री पद्धनाभ को देखना चाहते? जबकि मुरली मनोहर, श्री राधा वल्लभ जू की छवि इतनी प्यारी है कि हमारे सारे दुःख का अवशोषण कर ले। मैं फिर कहता हूं कि हम संसार में रहें, संसार के भोगो को स्वीकार करें। परन्तु श्री दशरथ नंदन से स्नेह का धागा जरूर ही बांध ले। इसी संदर्भ में मैं आगे विठ्ठल नाथ जी के भक्ति की चर्चा करूंगा।

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 भगवान के भक्तों की कथा भी बहुत रसीली और जीवन का कल्याण करने बाली होती है। श्री हरि तो अपने मुख से ही कहते है-मोसो अधिक भक्त करी लेखो। यथार्थ, मुझसे ज्यादा मेरे भक्तों की पूजा करो। अपने श्री गुरुदेव जी की आराधना करो, संत जनो की सेवा करो। फिर देखो कि मैं तुम्हें सहज ही मिल जाऊँगा। भगवान के भक्त भगवान के ही आश्रित होते है। ऐसे में उनके हृदय के तार श्री हरि से सीधा जुड़ा होता है। बस जरूरत है, तो हमें उन सिद्ध संतों के कृपा कटाक्ष को पाने की। उनके हृदय के समीप होने की। फिर तो नारायण की कृपा दृष्टि होने में समय नहीं लगेगा और हम उनके करीबी हो जाएंगे। आज की चर्चा श्री माधव के ऐसे ही भक्त की है।

            श्री विट्ठलनाथ वल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी  श्री वल्लभाचार्य जी के द्वितीय पुत्र थे। गुसाईं विट्ठलनाथ का जन्म काशी के निकट चरणाट ग्राम में पौष कृष्ण नवमी को संवत्‌ १५७२ (सन्‌ १५१५ ई.) में हुआ। इनका शैशव काशी तथा प्रयाग के निकट अड़ैल नामक स्थान में अपने नाना जी के पास व्यतीत हुआ। जब वे पांच वर्ष के ही थे, तो उन्होंने लाडू गोपाल जी को साक्षात कर लिया था। बात कुछ ऐसी थी, उनके नाना जी जमींदार थे और एक काम से उनको शहर के बाहर जाना था। घर में काम करने के लिए नौकरों की कमी नहीं थी। परन्तु नाना जी ने बाल विठ्ठल को समझाया कि वो लाडू गोपाल जी को भोजन कराने के बाद ही भोजन करेंगे। इसके बाद उनके नाना जी शहर से बाहर चले गए।

                      इधर बाल विठ्ठल ने अपने नाना जी की बात सत्य मान ली। जैसे ही भोजन तैयार होकर आया, उन्होंने लाडू गोपाल को भोजन करने के लिए कहा। परन्तु धातु की मूर्ति भी भोजन करती है क्या? जब लाडू गोपाल जी ने भोजन नहीं किया, बाल विठ्ठल ने सोचा कि शायद भोजन बनाने में कोई त्रुटि होगी, इसलिये लाडू गोपाल नहीं खा रहे। जब लाडू गोपाल नहीं खा रहे, तो विठ्ठल जी कैसे खाते। उन्होंने सारा भोजन गऊ के आगे डाल दिया। फिर दूसरे दिन उन्होंने अपनी निगरानी में भोजन बनवाया। परन्तु लाडू गोपाल जी को नहीं खाना-खाना था, सो नहीं खाया। उस दिन भी विठ्ठल जी का फांका ही गया। परन्तु तीसरे दिन, बाल विठ्ठल छुरी लेकर लाडू गोपाल के आगे बैठ गए। 

                     फिर भी जब लाडू गोपाल में किसी प्रकार की हरकत नहीं हुई। बाल विठ्ठल ने छुरी उठाया और बोले। लाडू गोपाल, तुम तो मुझसे खाते ही नहीं हो। ऐसे में तुम नानाजी से शिकायत करोगे, इसलिये मैं अपने आप को ही खतम कर लेता हूं। इतना कह कर बाल विठ्ठल ने उस छुरी को अपने ऊपर चलाना चाहा। श्री कृष्ण तो भक्त वत्सल है, वे किस प्रकार से ऐसा होने देते। भाव के भूखे कमल नयन नारायण अपने बाल रुप में प्रगट हो गए। उन्होंने एक हाथ से विठ्ठल जी के उस हाथ को पकड़ा, जिसमें छुरी थी। दूसरे हाथ से खाने लगे। खाने ही नहीं लगे, बल्कि माधव तो विठ्ठल को देखते जा रहे थे और हाथों से भोजन करते जा रहे थे। इस बीच विठ्ठल जी शिकायत करते रहे और जैसे ही बाल विठ्ठल की नजर भोजन थाल पर गई। उन्होंने गोपाल के हाथ पकड़ लिए। साथ ही बोले, लाडू गोपाल, तुम भी न, नहीं खाते थे तो आते ही नहीं थे और जब आए हो, मेरे हिस्से का भी खाए जा रहे हो। मैं भी तो भूखा हूं।

           बस फिर क्या था, लाडू गोपाल की दोनों समय भोग लगने लगी और वे प्रगट होकर भोजन करने लगे। जब एक सप्ताह बाद उनके नाना जी लौटे, बाल विठ्ठल से पुछा कि लाडू गोपाल को भोजन करा के भोजन किया न? जबाव में विठ्ठल ने सारी बात बतला दी। नाना जी को विश्वास ही नहीं हुआ, यह कैसे संभव हो सकता है? जरूर विठ्ठल बातें बना रहा है। इसलिये नाना जी ने बात टाल दी। यह बात बाल विठ्ठल को चुभ गई। शाम को उन्होंने ही भोग लगाया और जब लाडू गोपाल खाने लगे, बाल विठ्ठल ने नाना जी से कहा। नानाजी! आपको विश्वास नहीं होता न, देखो लाडू जी खा रहे है। नाना जी की सांसारिक आँखों से लाडू गोपाल कैसे दिखते? 

                   उन्होंने कहा कि कहा लाडू गोपाल खा रहे है? बस उनके प्रश्न को सुनकर बाल विठ्ठल ने उनका हाथ पकड़ा और दिखाने लगे। देखो लाडू गोपाल खा रहे है। बस चमत्कार हुआ! नाना जी ने देखा कि मोर मुकुट धारी बाल गोविंद को देखा। जो अपने नन्हे हाथों से खाए जा रहे थे। बस नाना जी अपने दोहित्र के चरणों में गिर पड़े। उनके आँखों से अश्रु धारा बहने लगी, वे रोने लगे बाल विठ्ठल के चरणों में। वे तो बस इतना ही बोलते जा रहे थे कि धन्य हो लल्ला! मैं तो धातु की प्रतिमा को ही पुजता रहा। परन्तु तुमने तो कृपा करके मुझे गोपाल से मिलवा दिया।

                  ऐसे विठ्ठल स्वामी, काशी में रहकर इन्होंने अपने शास्त्र गुरु श्री माधव सरस्वती से वेदांत आदि शास्त्रों का अध्ययन किया। अपने ज्येष्ठ भ्राता गोपीनाथ जी के अकाल कवलित हो जाने पर संवत्‌ १५९५ में संप्रदाय की गद्दी के स्वामी बनकर उसे नया रूप देने में लीन हो गए। धर्म प्रचार के लिए इन्होंने दो बार गुजरात की यात्रा की और अनेक धर्म प्रेमियों का वैष्णव धर्म में दीक्षित किया। वे तो बस अब धर्म के प्रचार में जूट गए।

          वल्लभ संप्रदाय को सुसंगठित एवं व्यवस्थित रूप देने में विट्ठलनाथ का विशेष योगदान है। श्रीनाथ जी के मंदिर में सेवा पूजा की नूतन विधि, वार्षिक उत्सव, व्रतोपवास आदि की व्यवस्था कर उन्हें अत्यंत आकर्षक बनाने का श्रेय इन्हीं को है। संगीत, साहित्य, कला आदि के सम्मिश्रण द्वारा इन्होंने भक्तों के लिए अद्भुत आकर्षण की सामग्री श्रीनाथ जी के मंदिर में जुटा दी थी। अपने पिता के चार शिष्य कुंभन दास, परमानंद दास तथा कृष्ण दास के साथ अपने चार शिष्य चतुर्भुज दास, गोविंद स्वामी, छीतस्वामी और नंद दास को मिलाकर इन्होंने अष्ट छाप की स्थापना की। इन्हीं आठ सखाओं के पद श्रीनाथ जी के मंदिर में सेवा पूजा के समय गाए जाते थे। इनके बारे में भक्त माल में नाभादास ने लिखा है।

राजभोज नित विविध रहत परिचर्या तत्पर।

सज्या भूषण बसन रुचिर रचना अपने करावल्लभसुत वल भजन के कलिजुग में द्वापर कियौ।

विठ्ठलनाथ ब्रज राज ज्यों लाल लड़ाय कै सुख लियौ।              स्वामी विट्ठल जी का उस समय समाजिक स्तर पर भी बहुत प्रभाव था:-अकबर बादशाह ने इनके अनुरोध से गोकुल में वानर, मयूर, गौ आदि के वध पर प्रतिबंध लगाया था और गोकुल की भूमि अपने फरमान से माफी में प्रदान की थी। विट्ठलनाथ जी के सात पुत्र थे जिन्हें गुसाईं जी ने सात स्थानों में भेजकर संप्रदाय की सात गद्दियाँ स्थापित कर दीं। अपनी संपत्ति का भी उन्होंने अपने जीवन काल में ही विभाजन कर दिया था। सात पुत्रों को पृथक‌ स्थानों पर भेजने से संप्रदाय का व्यापक रूप से प्रचार संभव हुआ। इनके चौथे पुत्र गुसाईं गोकुल नाथ ने चौरासी वैष्णव की वार्ता तथा दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता का प्रणयन किया। कुछ विद्वान‌ मानते हैं कि ये वार्ताएँ प्रारंभ में मौखिक रूप में कही गई थीं, बाद में इन्हें लिखित रूप मिला।

                   विट्ठलनाथ जी के लिखे ग्रंथों में अणु भाष्य, यमुनाष्टक, सुवोधिनी की टीका, विद्वन्मंडल, भक्ति निर्णय और शृंगाररसमंडन प्रसिद्ध हैं। शृंगाररसमंडन ग्रंथ द्वारा माधुर्य भक्ति की स्थापना में बहुत योग मिला। गोस्वामी गोकुल नाथ वल्लभ संप्रदाय की आचार्य परंपरा में वचनामृत पद्धति के यशस्वी प्रचारक के रूप में विख्यात हैं। आप गोस्वामी विट्ठलनाथ के चतुर्थ पुत्र थे। आपका जन्म संवत्‌ सोलह सौ आठ, मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी को प्रयाग के समीप अड़ैल में हुआ था। गोस्वामी विट्ठलनाथ के सातों पुत्रों में गोकुल नाथ सबसे अधिक मेधावी, प्रतिभाशाली, पंडित और वक्ता थे। सांप्रदायिक गूढ़ गहन सिद्धांतों का आपने विधिवत्‌ अध्ययन किया था और उनके मर्मोद्घाटन की विलक्षण शक्ति आपको प्राप्त हुई थी। 

        सांप्रदायिक सिद्धांतों के प्रचार और प्रसार में अपने पिता के समान आपका भी बहुत योगदान है। संस्कृत भाषा के साथ ही हिंदी काव्य और संगीत का भी आपने गोविंद स्वामी से अध्ययन किया था, जिसका उपयोग आपने प्रचार कार्य में किया। गोकुल नाथ की वैष्णव जगत‌ में ख्याति के विशेषतः दो कारण बताए जाते है। पहला कारण यह है कि इन्होंने अपने संप्रदाय के वैष्णव भक्तों के चारित्रिक दृष्टांतों द्वारा सांप्रदायिक उपदेश देने की लोकप्रिय प्रथा का प्रवर्तन किया। इन कथाओं को ही हिंदी साहित्य में 'वार्ता साहित्य' का नाम दिया गया है। आपकी प्रसिद्धि का दूसरा कारण सांप्रदायिक अनुश्रुतियों में 'माला प्रसंग' नाम से अभिहित किया जाता है। इस माला प्रसंग के कारण, कहा जाता है कि, गोकुल नाथ जी को वैष्णव जगत में सार्वदेशिक यश और सम्मान प्राप्त हुआ था। माला प्रसंग का संबंध एक ऐतिहासिक घटना से बताया जाता है। 

             संवत्‌ सोलह सौ चौहत्तर में बादशाह जहाँगीर की उज्जैन और मथुरा में एक वेदांती संन्यासी चिद्रूप से भेंट हुई जिसकी निस्पृह साधना से बादशाह मुग्ध था। वैष्णवों में प्रचलित है कि उसके कहने पर बादशाह ने वैष्णवों के वाह्य चिन्हों माला, कंठी और तिलक के धारण करने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस निषेधाज्ञा को हटवाने में गोकुल नाथ जी ने सफलता पाई। यद्यपि इस वैष्णव परंपरा की पुष्टि ऐतिहासिक ग्रंथों से नहीं होती। जहाँगीर के 'आत्मचरित्र' अथवा फारसी की ऐतिहासिक सामग्री में इस घटना का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। परंतु गोकुल नाथ जी के विषय में यह मिलता है कि उन्होंने जहाँगीर से गोस्वामियों के लिए नि: शुल्क चरागाह प्राप्त किए थे। उनका यश और सम्मान पुष्टिमार्गी संत समाज में इससे अधिक बढ़ गया।

          चिद्रूप की लोकप्रियता कम हुई अथवा नहीं, किन्तु गोकुलनाथ जी का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया। आगे चलकर इसका स्पष्ट प्रभाव उनकी कृतियों पर पड़ा। वार्ता साहित्य के यशस्वी कृति कार एवं प्रचारक के रूप में उनका नाम बड़े आदर से लिया जाता है। वैष्णव मत के सिद्धांतों और भक्ति की सहानुभूति में उनकी लेखनी खूब चली। हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में गोकुल नाथ जी का उल्लेख उनके 'वार्ता साहित्य' के कारण हुआ है। गोकुल नाथ रचित दो वार्ता ग्रंथ प्राप्त हैं। पहला 'चौरासी वैष्णव की वार्ता' और दूसरा 'दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता'। इन दोनों की प्रामाणिकता और गोकुल नाथ रचित होने में विद्वानों में प्रारंभ से ही मतभेद रहा है। किंतु नवीनतम शोध और अनुशीलन से यह सिद्ध होता जा रहा है कि मूल वार्ताओं का कथन गोकुल नाथ ने ही किया था। इन वार्ताओं से वल्लभ संप्रदायी कवियों तथा वैष्णव भक्तों का परिचय प्राप्त करने में अत्यधिक सहायता प्राप्त हुई है। अतः इनको अप्रामाणिक कहकर उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता।

           सांप्रदायिक परंपराओं के अध्ययन से यह विदित होता है कि गोकुल नाथ जी ने सर्वप्रथम श्री वल्लभाचार्य जी के शिष्यों-सेवकों का वृत्तांत मौखिक रूप से 'चौरासी वैष्णव की वार्ता' के रूप में कहा और तदनंतर अपने पिता श्री विट्ठलनाथ जी के शिष्यों-सेवकों का चरित्र 'दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता' में सुनाया, यद्यपि गोकुल नाथ ने स्वयं इन वार्ताओं को नहीं लिखा। लेखन और संपादन का कार्य बाद में होता रहा। विशेष रूप से गुसाईं हरि राय ने इनके संपादन का महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने 'भाव प्रकाश' लिखकर इन वार्ताओं का पल्लवन करते हुए इनमें विस्तार के साथ कतिपय समसामयिक घटनाओं का भी समावेश कर दिया। इन घटनाओं में औरंगजेब के आक्रमणों की बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। वस्तुतः हरि राय जी ने अपने काल की वर्तमानकालिक घटनाओं को भाव प्रकाशन तथा पल्लवन के समय जोड़ा था। मूल वार्ताओं में वे घटनाएँ नहीं थीं। परवर्ती संपादकों और लिपिकारों ने अनेक नवीन प्रसंग जोड़कर वार्ताओं को बहुत भ्रामक बना दिया है। 

         किंतु वार्ताओं की प्राचीनतम प्रतियों में उन घटनाओं का वर्णन न होने से अनेक भ्रांतियों का निराकरण हो जाता है। वार्ता साहित्य का हिंदी गद्य के क्रमिक विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है और अब उनका विधिवत्‌ मूल्यांकन होने लगा है। गोकुल नाथ जी रचित कुछ और ग्रंथ भी उपलब्ध हैं जिनमें 'वनयात्रा', 'नित्य-सेवा-प्रकार', 'बैठक चरित्र', 'घरू वार्ता', 'भावना', 'हास्य प्रसंग' आदि हैं।

गोकुल नाथ जी की ख्याति का एक कारण उनकी सांप्रदायिक विशेषता भी है। गोकुल नाथ के इष्टदेव का स्वरूप 'गोकुल नाथ' ही है और उसके विराजने का स्थान गोकुल है। इनके यहाँ स्वरूप सेवा के स्थान पर गद्दी को ही सर्वस्व मानकर पूजा जाता है। इनका सेवक समुदाय भंडूची वैष्णवों के नाम से प्रसिद्ध है। गोकुल नाथ जी वचनामृत द्वारा वल्लभ संप्रदाय का प्रचार करने वाले सबसे प्रमुख आचार्य थे।

                          भगवान के भक्तों ने नारायण की तो आराधना की ही-है। साथ ही उन्होंने जीवन के उच्चतम आदर्शों को भी स्थापित किया है। मानव का आचरण किस प्रकार का होना चाहिए, इसको रेखांकित किया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि आप गृहस्थ ही रहो, परन्तु भगवान के चरणों का आश्रित रहो। मैं फिर कहता हूं कि हम चाहें किसी भी हाल में रहे, चाहे जो भी कर्म करें, परन्तु श्री राधा रमण, श्री सीता रमण का ध्यान करते रहे। इसी क्रम में आगे मैं श्री गोस्वामी श्री तुलसी दास जी का वृतांत चित्रण करूंगा।

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क्रमशः-


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रचनाएँ
भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुप
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इस पुस्तक में धर्म और अधर्म के बारे में बताने की कोशिश की गई है। मानव जीवन का सत्य उद्देश्य क्या है, उसकी व्याख्या की गई है। मानव जीवन में भक्ति की महता को निरुपीत किया गया है। साथ ही नारायण और उनके भक्तो का मधुर संबंध दृष्टांत के द्वारा बतलाया गया है। मानव जीवन की दुविधा, उसकी उपलब्धि और जरुरतों का सचित्र चित्रण किया गया है। मदन मोहन "मैत्रेय
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भक्ति की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुुप

1 जून 2022
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सबसे पहले तो मैं श्री गणेश की वंदना करता हूं। गौरी- महेश नंदन बिना विघ्न के मेरी इस रचना का पूर्ण करें। तत्पश्चात मैं वीणा धारनी शक्ति स्वरुपा जगदंबा शारदा की वंदना करता हूं। वे मुझे ज्ञान पुंज दे, जो

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भक्ति की धारा-भक्त विशेष

3 जून 2022
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जीवन तो ईश्वर प्रदत्त है, परन्तु हम जगत के प्राणी इसको अपना समझ बैठे है। हम इस शरीर को अपना समझ बैठे है, जो नाशवान है। पता नहीं कि कब यह शून्य हो जाये, कब शिथिल हो जाए। जैसे ही इसमें से आत्मा निकल जात

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भक्त कथा अमृत

5 जून 2022
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भक्ति की धारा प्रवाहित हो और उसमें भगवान के परम भक्तों की चर्चा नहीं हो, संभव ही नहीं। भक्तों के निर्मल चरित्र से हमें काफी कुछ सीखने-समझने का अवसर प्राप्त होता है। अब मैं आपको नारायण के ऐसे ही भक्त प

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भक्त कथा अमृत

7 जून 2022
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श्री बजरंग बली, अंजन सुत, पवन तनय वीर हनुमान की कथा भी इसी श्रेणी में आती है। महाबली हनुमान ग्यारहवें रुद्र है। बजरंग बली श्री राम के अनन्या-नन्य भक्त है। उनको राम नाम के अलावा जगत में कुछ भी तो प्रिय

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भक्त कथा अमृत

9 जून 2022
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भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा से हो गए, अन्यथा उनका नाम तो देवव्रत था। शांतनु और गंगा की आठवीं संतान और पिता के आज्ञाकारी। परशुराम शिष्य भीष्म साधारण नहीं थे, वे अजेय योद्धा थे। वे ऐसे वीर योद्धा थे कि उन्ह

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भक्त कथा अमृत

13 जून 2022
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नरसी मेहता महान कृष्ण भक्त थे. कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने उनको बावन बार साक्षात दर्शन दिए थे। नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़, गुजरात में हुआ था. इनका सम्पूर्ण जीवन भजन कीर्तन और कृष्ण की भक्ति में

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भक्त कथा अमृत

17 जून 2022
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धर्म की परिभाषा देना न तो सहज है और न ही सुलभ। परन्तु इसको सरल बनाते है संत। भगवान के भक्त ही हमें भगवान की ओर उन्मुख करते है। संत ही मानव जीवन के लिए जहाज रूपी साधन है, जो भवसागर रूपी संसार से पार लग

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ईश्वर की अनुभूति

26 जून 2022
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विलासिता क्या है? अतिशय गुढ प्रश्न है। क्योंकि यह अखिल संसार ही इसके पीछे अंधी दौड़ लगा रहा है। भला सुख-सुविधा और उपभोग की वस्तुएँ किस को पसंद नहीं। कौन नहीं चाहता कि वह अच्छा पहने, अच्छा खाए और अच्छी

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ईश्वर के स्वरुप एवं भक्ति भाव-:

21 सितम्बर 2022
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भगवान सगुन और निर्गुण दो भावना से पुजे जाते है। निर्गुण स्वरूप का कोई आकार-प्रकार नहीं होता, जबकि सगुन स्वरूप में नारायण की विग्रह की पुजा होती है। जो अवतार रुप में अन्यथा नारायण रुप में।

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