नाम से यह उपन्यास है, तो स्वाभाविक ही है कि चरित्र विशेष होगा। कहते है न कि युवा अवस्था जीवन का वह पड़ाव है, जहां पहुंचने के बाद मन की इच्छा पंख लगा कर उड़ने की होती है।....वह भले-बुरे के भेद को न तो समझना चाहता है और न ही समझ पाता है। फिर तो उसका जो हश्र होता है, वह इतना भयावह होता है कि.... वह संभल ही नहीं पाता। अनियंत्रित इच्छाएँ जब उसपर हावी होती है, वह बस उलझ कर रह जाता है। मदन मोहन "मैत्रेय
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