प्राचीन भारतीय चिंतन एवं दर्शन में, ईश्वर से ज्यादा महत्व व जोर ईश्वर तत्व या ईश्वरत्व भाव को दिया गया। संभवतः, या कह लें कि स्पष्ट तौर पर स्वयंसिद्ध भी है यह बात की ईश्वर की मूर्त रूप में स्थापना अपने आप में एक तरह की बाधा ही है। इसे समझना होगा...
निस्पृह भाव, अकाम कर्म एवं अप्रतिक्रियात्मक चेतना की प्राप्ति के मार्ग में सही मायनों में ईश्वर रूप प्रतिष्ठा एक तरह से बाधा ही उत्पन्न करती है। जीवन की उपलब्धि अगर अमूर्त, यानि इंटैंजिबल है, तो किसी भी स्वरूप में मूर्त तत्व व भाव, यानि टैंजिबल इस उपलब्धि प्रक्रिया को बाधित ही करेगी।
वि ज्ञान भी कहता है - पदार्थ की उपस्थिति मात्र से चेतना या दृश्य का स्वभाव व यथार्थ परिवर्तित हो जाता है। यह सोच जटिल दिखती है। इसे आसान करने की कोशिश करते हैं।
तो, मान लीजिये कि आपसे कहा जाय कि प्रेम कीजिये। तो आप और हम सब अपने से, अपने बच्चों से, परिवार के सदस्यों से प्रेम करने को प्रेरित होते हैं। मगर, उत्कृष्ट चिंतन व दर्शन कहता है कि नहीं साहब, वस्तु या व्यक्ति से प्रेम की बात नहीं की जा रही, सबसे एक समान प्रेम करिये, प्रेमभाव को साधिये, वस्तु व व्यक्ति को मत साधिये, और बेहतर है कि सिर्फ ईश्वर से प्रेम करिये, उसे ही साधिये...!
तो बात तो बराबर ही है। अगर स्वजनों से प्रेम निस्पृह भाव, अकाम कर्म एवं अप्रतिक्रियात्मक चेतना की प्राप्ति में बाधक है तब तो ईश्वर भी एक तरह की बाधा ही है। जैसे सबसे प्रेम करना संभव नहीं दिखता, वैसे ही बिना मूर्त स्वरूप के ईश्वर से प्रेम करना भी संभव नहीं दिखता। यह निश्चित तौर पर बाधा है।
इस संसार में ऐसे करोड़ों लोग हैं जो संत हैं या ईश्वर की राह में भिक्षु या साधु-संयासी हो गये हैं। मगर, हर धर्म में उन्हें घंटों ईश्वर की अराधना करने, ईश्वर को खुश करने के लिए मंत्रजाप करने व अन्य रिचुअल्स में समय बिताने की पाबंदी की गयी है। इतना ही नहीं, प्रेमभाव को साधने की बात कह के, सबसे प्रेम करने की भी छूट नहीं दी गयी है। सभी संतों, साधु-संयासी व भिक्षुओं को पूरी आबादी के आधे लोगों को देखने व छूने तक की मनाही है, प्रेम करना तो दूर की बात है। इस तरह, महिलाओं व स्त्री स्वरूप को अपमानित करके प्रेमभाव व ईश्वर को साधने की बात करना कहां तक निस्पृहता के चिंतन व दर्शन में फिट बैठता है, यह समझना होगा... इस पर चर्चा करनी होगी....!
तो, कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि निस्पृह भाव, अकाम कर्म एवं अप्रतिक्रियात्मक चेतना की प्राप्ति में ईश्वर व ईश्वरीय मूर्त अवधारणाओं, क्रियाकलापों व प्रवाधानों की एक बड़ी श्रृंखला ही सबसे बड़ी बाधा है। निस्पृहता का सबसे बड़ा अवरोध वही बन जाता है जो तथाकथित तौर पर सबसे व्यापक अवलम्ब होना चाहिए था...!
इसे समझने की जरूरत है... तो क्या निस्पृहता से ईश्वर का संबंध हटा देना ही उचित न होगा...? इसे समझने की जरूरत है...!
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