परबतिया
अपनी
सास
के
साथ
बिहार
से
कुछ
साल
पहले
पलायन
कर
देहरादून
आयी
और
अपनी
सास
की
तरह
ही
घरों
में
बर्तन-चौका
करती
है।
परबतिया
के
कुनबे
में,
जिसे
विकास
के
मानकों
के
हिसाब
से
‘हाउसहोल्ड’ कहा
जाता
है,
उसके
सास-ससुर
के
अलावा
उसका
पति
और
उसके
अपने
एवं
सास
के
बच्चे
हैं।
इस
‘हाउसहोल्ड’ की
मासिक
आय
है
तीस
हजार
रुपये।
जी
हां,
आपने
सही
पढ़ा,
तीस
हजार
रुपये!
आप कहेंगे,
लेखक-पत्रकारों
की
तो
आदत
है
बढ़ा-चढ़ा
कर
कहने
की
वर्ना
आज
देश
में
जहां
आधे
‘हाउसहोल्ड’ की
मासिक
आमदनी
चार-पांच
हजार
रुपये
हो,
वहां
भला
परबतिया
की
गृहस्थि
कैसे
तीस
हजार
कमा
लेती
है।
चलिये,
मैं
हिसाब
भी
दे
देता
हूं।
परबतिया
12 घरों
में
काम
करती
है।
सुबह
पांच
बजे
से
ही
उसकी
दिनचर्या
शुरु
होती
है
और
रात
आठ
बजे
तक
वो
काम
करती
है।
हर
घर
में
कामवाली
को
1000-1500 रुपये प्रतिमाह
के
बीच
पैसे
मिलते
हैं।
परबतिया
एक
घर
में
रोज
सिर्फ
24 रोटी
पकाती
है,
मालिक
के
दो
बड़े
कुत्तों
के
लिए
जिसके
लिए
उसे
पांच
सौ
ही
मिलते
हैं
लेकिन
बड़ी
कोठी
में
कहीं
2000 भी
मिलता
है।
परबतिया
अभी
जवान
है
मगर
उसकी
सास
भी
10 घरांे
में
काम
करती
है
और
लगभग
उतना
ही
कमा
लेती
है।
परबतिया
का
पति
गाड़ी
चलाता
है
और
दायें-बायें
करके
10-12 हजार
कमा
लेता
है।
हां,
परबतिया
का
ससुर
कुछ
नहीं
करता,
घर
पर
ही
रहता
है
मगर,
एक
कुशल
गृहिणी
की
तरह
खाना
बनाता
है।
बच्चों
की
देखभाल
नहीं
करता,
यह
शिकायत
परबितया
अक्सर
करती
है।
परबतिया
के
‘हाउसहोल्ड’ इनकम
का
तीस
हजार
होना
ही
एक
मात्र
अच्छी
खबर
नहीं
है।
परबतिया
और
उसकी
सास
दोनों
ने
बिहार
छोड़ने
के
बाद
भी
अपने
गांव
में
इंदिरा
आवास
योजना
के
तहत
चालिस-चालिस
हजार
रुपये
उठा
लिए
हैं।
उसके
ससुर
का
शहर
के
दलालों
से
अच्छे
संबंध
हैं
और
दलालों
का
लोकल
अधिकारियों
से,
इसलिए
सब
काम
आसानी
से
हो
गया।
गांव
में
अभी
भी
टूटी
झोपड़िया
ही
है
मगर
इंदिरा
आवास
योजना
के
पैसे
से
गांव
में
ही
दो
कट्ठा
जमीन
खरीद
ली
गयी
है।
परबतिया
ने
कहा
कि
ऐसा
करना
बेहद
जरूरी
था
क्यूं
कि
गांव
में
अगर
जमीन
न
हो
तो
उसके
बेटे
से
शादी
करने
को
कोई
तैयार
नहीं
होगा।
वैसे
बेटा
अभी
दो
साल
का
है।
परबतिया
के
विकास
के
पक्ष
में
और
भी
अच्छी
खबरें
हैं।
परबतिया
और
उसकी
सास
ने
बिहार
के
अपने
गांव
में
तो
‘बीपीएल’ कार्ड
बनवा
ही
लिया
था,
यहां
देहरादून
में
भी
सब
‘इंतजाम’ हो
गया
है
और
अन्न-पानी
की
दिक्कत
नहीं
है।
परबतिया
का
ससुर
भले
काम
कोई
नहीं
करता
पर
है
बेहद
‘जोगाड़ू’। अर्चना
एक्सप्रेस
से
‘अप-डाउन’ करता
रहता
है
और
दोनों
ही
राज्यों
से
‘विकास-मद’ की
सारी
सुविधाओं
का
पूरा
लाभ
लेता
रहता
है।
जरूरत
पड़ने
पर
सारा
कुनबा
बिहार
जाता
है।
हाल
ही
में,
परबतिया
का
पूरा
परिवार
किसी
की
शादी
के
सिलसिले
में
अपने
गांव
गया
था
और
वोट
भी
दे
आया
है।
चलिए,
अब
बात
की
जाये
परबतिया
की
समस्याओं
की।
आप
कहेंगे,
इतना
सब
कुछ
जब
है
तब
भला
परबतिया
को
क्या
समस्या
हो
सकती
है?
हर
विकास
माडल
की
अपनी
राम
कहानी
है,
परबतिया
की
भी
है!
परबतिया
के
दो
बेटियां
ही
थीं
सो
दो
साल
पहले
उसने
एक
लड़के
के
लिए
प्रयास
किया।
प्रयास
सफल
रहा,
बेटा
हुआ
मगर
मामला
‘कमप्लीकेटेड’ होने
के
कारण
प्राईवेट
में
डिलेवरी
करानी
पड़ी
सो
बेहद
खर्च
हुआ।
कुछ
दिनों
पहले
उसका
मुंडन
बेहद
धूमधाम
से
हुआ
उसमें
अलग
खर्चे
हुए।
इन
सबके
बाद
पता
चला
कि
परबतिया
फिर
मां
बनने
वाली
है
क्यों
कि
उसे
लगा
कि
एक
और
बेटे
के
लिए
एक
बेटी
का
रिस्क
लिया
जा
सकता
है।
वैसे,
उसने,
हरिद्वार
जा
कर
मनसा
देवी
से
मन्नत
मांगी
है
और
उसे
पूरा
विश्वास
है,
उसकी
मन्नत
जरूर
पूरी
होगी।
परबतिया
के
विकास
माडल
में
आस्था
की
बड़ी
भूमिका
है।
उसका
ठोस
विश्वास
है,
सरकारें
तो
कुछ
करती
नहीं
उसके
लिए
मगर
उसका
जीवन
चल
रहा
है
सिर्फ
भगवान
की
’किरपा’ से!
फिलहाल,
गृहस्थि
में
उसके
तीन
बच्चे
और
उसकी
सास
के
तीन
बच्चे
हैं।
उसकी
सास
के
वैसे
तो
सात
बच्चे
हैं
मगर
दो
बेटे
दिल्ली
में
दिहाड़ी
कमाते
हैं
और
एक
बेटी
यहीं
अलग
रहती
है।
बच्चे
सब
सरकारी
स्कूल
में
मुफ्त
में
पढ़ते
हैं
और
वहीं
दिन
में
फ्री
का
खाते
भी
हैं
मगर
बीमार
बहुत
पड़ते
हैं।
खुद
परबतिया
और
उसकी
सास
भी
महीने
में
सात
दिन
बीमार
हो
जाते
हैं।
बच्चों
को
कोई
देखने
वाला
नहीं
और
सास-बहु
ज्यादा
काम
की
वजह
से
बीमार
होते
हैं।
सरकारी
इलाज
पता
नहीं
क्यों
फायदा
नहीं
करता
इसलिए
प्राईवेट
डाक्टर
के
पास
जाना
पड़ता
है।
परबतिया
के
पति
और
उसके
ससुर
दोनों
को
एक
ही
रोग
है।
दोनों
रोज
पीते
हैं
और
पीकर
पत्नियों
को
गालियां
देते
हैं।
पिछले
साल
ही
परबतिया
के
पति
का
प्राईवेट
में
लिवर
का
इलाज
चला
और
नगद
कर्ज
के
अलावा
गांव
की
जमीन
भी
बंधक
रखनी
पड़ी।
पति
की
कमाई
शराब
में
बह
जाती
है
और
ससुर
पीने
के
लिए
सास
की
कमाई
ले
उड़ता
हैं।
महंगाई
भी
हद
से
ज्यादा
है,
परबतिया
का
यह
फेवरेट
टापिक
है।
परबतिया
बेहद
‘टेंशन’ में
रहती
है
और
सास-बहु
में
रोज
ही
गाल-फुलौवल
होता
है।
परिवार
के
हर
साल
बढ़
रहे
कर्जे
के
बोझ
से
दोनों
ही
चिंता
में
हैं।
परबतिया
का
कहना
है,
‘‘गरीब
के
त
किस्मतवो
दरिद्दर
लेखा
हो
जात
है...
कतनो
कमाओ,
जिंदगी
बाप-दादा
की
भी
कर्ज
में
गईल
और
हमनियो
के
कर्जे
में
जाई...’’।
बेहद
गंभीर
विषय
है
परबतिया
का
यह
विकास
माडल।
सरकार
किसी
की
भी
हो,
कैसी
भी
योजनाएं
बनें,
सबका
लाभ
परबतिया
जैसे
गरीब
और
पिछड़े
लोगों
के
लिए
ही
होता
है।
भारत
में
राजनीति
पिछड़ेपन
के
ही
इर्द-गिर्द
होती
है।
इसलिए
ही
चुनावों
में
भी
लोकलुभावन
वादे
ही
होते
हैं।
परबतिया
जैसे
ही
‘रिसोर्सफुल’ लोग
इन
सबका
जमके
लाभ
भी
उठा
रहे
हैं।
परबतिया
के
‘हाउसहोल्ड’ में
जो
तीस
हजार
रुपये
की
आमदनी
है,
वह
हालांकि
किसी
राजनीति
या
सरकार
की
देन
नहीं
है
बल्कि
इस
उन्मुक्त
बाजारवाद
की
देन
है,
जिसके
औचित्य
पर
विश्व
भर
में
बहस
जारी
है।
इस
बाजारवाद
ने
अवसरों
के
जो
जटिल
आयाम
सृजित
किये
हैं,
यह
विश्वकर्मा
के
भी
सीमाओं
के
परे
हैं।
परबतिया
के
विकास
माडल
की
खूबी
यही
है
कि
एक
बड़ा
वर्ग
भले
ही
इस
उन्मुक्त
बाजारवाद
की
पीड़ा
से
जूझ
रहा
हो,
परबतिया
को
यही
बेहद
लाभ
पहुंचा
रहा
है।
तो
क्या
खुशनुमेंपन
की
बात
है
कि
चाहे
राजनीति
हो,
सरकारें
हो,
गवर्नेंस
हो
या
बाजारवाद
की
अर्थिक
संस्कृति
हो,
सभी
कुछ
परबतिया
और
उसके
जैसे
करोड़ों
लोगों
को
फायदा
पहुंचा
रहे
हैं।
फिर
भी,
परबतिया
और
उसके
जैसे
करोड़ों
लोग
अभी
भी
संकट
में
हैं
और
बेहद
बेबसी
की
जिंदगियां
जी
रहे
हैं।
तो
क्या
इन
सबके
लिए
दोष
राजनीति
और
सरकारों
को
देंगे?
बेहद
स्पष्ट
है,
परबतिया
के
इस
विकास
माडल
में
जो
भी
संकट
है,
वह
सांस्कृतिक
एवं
वैचारिक
हैं।
अगर
परबतिया
एवं
उसकी
सास
का
परिवार
छोटा
होता,
अगर
परबतिया
का
पति
एवं
ससुर
शराब
की
लत
का
शिकार
नहीं
होते,
अगर
परबतिया
के
बच्चे
‘सार्थक’ शिक्षा
पाकर,
जिसमें
मूल
ज्ञान
के
साथ
हुनर
सिखा
पाने
की
व्यवस्था
होती,
अपने
सदियों
की
जर्जर
मानसिकता
से
मुक्ति
पा
सकते,
तो
परबतिया
का
यही
विकास
माडल
भारत
का
बेहद
समृद्ध
विकास
माडल
बन
जाता।
सांस्कृतिक
विकास
क्रम
की
बात
यहां
स्पष्ट
है।
अपने
देश
में
ही
नहीं,
विश्व
के
कई
अर्थषास्त्री
आपको
बताते
नहीं
थकते
कि
आर्थिक
विकास
ही
सब
रोग
का
ईलाज
है।
जब
अर्थव्यवस्था
में
पैसा
आता
है
तो
यह
आम
इंसान
और
निचले
तबके
तक
जाता
है
और
तभी
सभी
इसंानी
समस्याएं
दूर
हो
जाती
हैं।
वे
आपको
विश्वास
दिलाते
नहीं
थकते
कि
‘परचेसिंग
पावर’ ही
सबसे
जरूरी
‘एंपावरमेंट’ है।
इसके
हो
जाने
से
सब
हो
जाता
है।
आप
आसानी
से
देख
सकते
हैं,
सिर्फ
परबतिया
ही
नहीं,
विश्व
भर
में
हर
तबके
का
आर्थिक
विकास
हुआ
है
और
आगे
और
भी
होगा।
लेकिन
अगर
आर्थिक
व
सामाजिक
विकास
को
सांस्कृतिक
विकास
से
नहीं
जोड़ा
जाता
है
तो
समस्याएं
नहीं
सुलझतीं।
भारत
ही
नहीं,
दुनिया
भर
के
समाजों
का
आर्थिक
विकास
हुआ
है।
लोग
नई
सुविधाजनक
तकनीक
का
भी
लाभ
उठा
रहे
हैं।
परबतिया
के
ही
हाउसहोल्ड
में
चार
मोबाईल
सेट
हैं
और
इसमें
दो
लोकलमेड
स्र्माटफोन
हैं।
लेकिन,
समाज
व
अर्थतंत्र
का
विकास
अपने
आप
में
संस्कृति
के
विकास
को
सुनिश्चित
नहीं
करता।
बल्कि,
जब
विकास
की
अवधारणाएं
ऐसे
ही
अलग-थलग
करके
देखी
जाती
रहेंगी
तो
और
भी
समस्याएं
बढ़ेंगी।
समस्या
सिर्फ
परबतिया
जैसे
लोगों
की
ही
नहीं
है।
विशाल
मध्यवर्ग
एवं
उच्च-मध्य
वर्ग
भी
तमाम
आर्थिक
व
सामाजिक
विकास
के
बवजूद,
पहले
से
ज्यादा
समस्याएं
झेल
रहा
है।
यह कोई
राकेट
सायंस
नहीं
है
जिसे
आम
इसंान
समझ
न
सके।
भारत
एक
विशाल
देश
है
और
इस
देश
के
पास
अपार
प्राकृतिक
व
मानव
संसाधन
हैं
जो
इसे
विश्व
का
सबसे
उन्नत
देश
बना
सकते
हैं।
अगर
देश
की
आबादी
आज
आधी
हो
जाये,
तो
जो
आज
हमारे
संसाधन
हैं,
हम
स्वतः
ही
एक
उन्नत
देश
हो
जायेंगे।
बाकि,
जो
हमारी
जर्जर
और
अवैज्ञानिक
सोच
व
मानसिकता
है,
जो
हमारी
‘रिग्रेसिव’ कल्चर
का
अभिन्न
हिस्सा
बनी
हुई
हैं,
उसे
बदलने
के
लिए
हम
किसी
राजनीतिक
दल
या
सरकार
को
दोष
नहीं
दे
सकते।
न
ही
हम
आर्थिक
विकास
के
किसी
माडल
के
मत्थे
यह
दोष
मढ़
सकते
हैं
कि
सब
समस्याएं
इसकी
वजह
से
है।
यह
एजेंडा
निजी
व
सामाजिक
है,
राजनीतिक
नहीं।
वैसे
जब
भी
चुनाव
आता
है
तो
परबतिया
बेहद
गुस्से
में
वोट
देने
निकलती
है।
हर
सरकार
एवं
प्रशासन
तंत्र
से
उसको
बेहद
शिकायत
है
कि
आजतक
किसी
ने
उसके
लिए
कुछ
भी
नहीं
किया।
सरकारों
के
बदलने
में
परबतिया
जैसे
करोड़ों
लोगों
की
‘निगेटिव
एनर्जी’ ही
काम
करती
है।
जो
मसले
हमारे
निजी
व
सामाजिक-सांस्कृतिक
हैं,
उन्हें
राजनीतिक
बनाने
की
अपनी
जिद
को
लेकर
तमाशाई
बने
रहने
का
जो
सुख
है,
उससे
न
परबतिया
को
कोई
विमुख
कर
सकता
है
न
ही
करोड़ो
उसके
जैसे
लोगों
को।
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