कुछ बेसबब से ख्वाब ,
चश्मे-तर में नहीं होते,
तकिये के नीचे दबे होते हैं...
दबे पांव निकल कर, संभल कर,
आपकी ठुड्डी सहला जाते हैं...
आलमे-इम्कां का एतबार न टूटे,
इस कर, थपकियों से जगा जाते हैं...
होने को जहां में क्या-क्या नहीं होता,
मगर यह ख्वाब मुकम्मल नहीं होता...!
फिर भी, तकिया किसके पास नहीं होता...
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... बात तो बस इतनी सी ही है कि खुशनुमेंपन के लिए बहुत से सहारे और संसाधन की जरूरत नहीं होती। ऐसा भले ही लगता न हो पर वह जो मूलभूत तत्व है जिससे इंसान खुद में ही खुशी तलाश पाये, वह कहीं बाहर नहीं होता बल्कि अपनी ही चेतना का अटूट हिस्सा होता है। कस्तूरी कुण्डल बसै...! आध्यात्म में कहा गया, किसी भी बाहरी तत्व का आप पर न ही कोई प्रभाव संभव है न ही उसकी कोई उपयोगिता-सार्थकता है आपके लिए। मतलब कि अपनी चेतना ही सारे सुख-दुख का कारक तत्व है। तो फिर देर किस बात की! अपनी ही चेतना के ही तो रंग बिखेरने हैं। फिर कमी किस बात की है। ख्वाब भी अपने हाथों में और उनकी मुकम्मलियत भी अपने ही बस में। बस, यह जो ‘तकिया’ है, वह आबाद रहे। यानि, अपनी चेतना ऐसे स्वभाव व भाव में रहे कि उससे खुशनुमांपन उपजाये जाने का बोधत्व बनता रहे। वाह...! कमाल है...! इतना आसान है आनंद में सराबोर होकर जीना फिर भी लोग खुश नहीं रह पाते...! क्यूं भला...!