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ख्वाब और उनकी मुकम्मलियत...

1 जुलाई 2017

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कुछ बेसबब से ख्वाब ,

चश्मे-तर में नहीं होते,

तकिये के नीचे दबे होते हैं...

दबे पांव निकल कर, संभल कर,

आपकी ठुड्डी सहला जाते हैं...

आलमे-इम्कां का एतबार न टूटे,

इस कर, थपकियों से जगा जाते हैं...

होने को जहां में क्या-क्या नहीं होता,

मगर यह ख्वाब मुकम्मल नहीं होता...!

फिर भी, तकिया किसके पास नहीं होता...


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... बात तो बस इतनी सी ही है कि खुशनुमेंपन के लिए बहुत से सहारे और संसाधन की जरूरत नहीं होती। ऐसा भले ही लगता न हो पर वह जो मूलभूत तत्व है जिससे इंसान खुद में ही खुशी तलाश पाये, वह कहीं बाहर नहीं होता बल्कि अपनी ही चेतना का अटूट हिस्सा होता है। कस्तूरी कुण्डल बसै...! आध्यात्म में कहा गया, किसी भी बाहरी तत्व का आप पर न ही कोई प्रभाव संभव है न ही उसकी कोई उपयोगिता-सार्थकता है आपके लिए। मतलब कि अपनी चेतना ही सारे सुख-दुख का कारक तत्व है। तो फिर देर किस बात की! अपनी ही चेतना के ही तो रंग बिखेरने हैं। फिर कमी किस बात की है। ख्वाब भी अपने हाथों में और उनकी मुकम्मलियत भी अपने ही बस में। बस, यह जो ‘तकिया’ है, वह आबाद रहे। यानि, अपनी चेतना ऐसे स्वभाव व भाव में रहे कि उससे खुशनुमांपन उपजाये जाने का बोधत्व बनता रहे। वाह...! कमाल है...! इतना आसान है आनंद में सराबोर होकर जीना फिर भी लोग खुश नहीं रह पाते...! क्यूं भला...!

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ख्वाब और उनकी मुकम्मलियत...

1 जुलाई 2017
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कुछ बेसबब से ख्वाब, चश्मे-तर में नहीं होते,तकिये के नीचे दबे होते हैं... दबे पांव निकल कर, संभल कर, आपकी ठुड्डी सहला जाते हैं... आलमे-इम्कां का एतबार न टूटे, इस कर, थपकियों से जगा जाते हैं... होने को जहां में क्या-क्या नहीं होता, मगर यह ख्वाब मुकम्मल नहीं होता...! फिर भी

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गर तन्हा कहीं नजर आये

28 जुलाई 2017
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दावेदारी

29 जुलाई 2017
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यथार्थ पर यूं तो दावेदारी सबकी है,दावेदारी की यूं तो खुमारी सबको है,खुमारी की यह बीमारी गालिबन सबको है,मगर, यथार्थ खुद अबला-बेचारी है, पता सबको है।फिर, रहस्यवाद का अपना यथार्थ है,रहस्य क्या है कि सबका अपना स्वार्थ है,अहसास का रहस्यवाद से गहरा संवाद है,जो महसूस होता है, उसका जायका, स्वाद है,फिर दिमाग

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कि गुलशन का करोबार चले...

6 अगस्त 2017
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कुछ पता न चलेपर कारोबार चले,भरोसा न भी चले,जिंदगी चलती चले,चलन है, तो चले,रुकने से बेहतर, चले,न चले तो क्या चले,यूं ही बेइख्तियार चले,सांसें, पैर, अरमान चले,फिर, क्यूं न व्यापार चले,सामां है तो हर दुकां चले,हर जिद, अपनी चाल चले,अपनों से, गैर से, रार चले,इश्क है, न ह

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निस्पृह भाव व अकाम कर्म प्राप्ति की सबसे बड़ी बाधा ही ईश्वर है...!

7 सितम्बर 2017
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तो इसलिए लोग इश्क को बला, आफते-जां कहते हैं...?

19 सितम्बर 2017
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महबूबा

11 अगस्त 2021
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दुःख सीहसीन तोकोई दिलरुबा हीनहीं,हर लम्हा रहे जोजेहन मेंअसल महबूबा भीवही,लाख चाहूं किनिकल जाएजिंदगी सेमेरी,बेशर्म लिपटी हैकलेजे सेकि जाती हीनहीं,कहती है, कमबख्तबिफर केअजब नाज से,दुःख हूं, रिश्ता नहीं,मौत तकपीछा छोड़ूंगी नहीं,मै हीलोरी, गज़ल भी मैं,फातिहा पढ़ूंगी मैं ही.

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न सिला, न गिला---

11 अगस्त 2021
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उम्र सेपूछिये, लम्हों का सिला,खुद सेपूछिये, दूसरों का गिला,जूते जानते हैं, कौन कितना चला,दौलत वही, जो ऐनजेब से निकला... दूर तलक जोकाफिला निकला,गंुजाईश कोहमसफर भी मिला,मीर नहीं मैं, न गालिब सेमिला,जो बसर हुई, वही कहके निकला... यही कौम है, ऐसे ही चले है काफिला,बदनसीबी

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परबतिया का विकास माडल

12 अगस्त 2021
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परबतियाअपनीसासकेसाथबिहारसेकुछसालपहलेपलायनकरदेहरादूनआयीऔरअपनीसासकीतरहहीघरोंमेंबर्तन-चौकाकरतीहै।परबतियाकेकुनबेमें,जिसेविकासकेमानकोंकेहिसाबसे‘हाउसहोल्ड’ कहाजाताहै,उसकेसास-ससुरकेअलावाउसकापतिऔरउसकेअपनेएवंसासकेबच्चेहैं।इस‘हाउसहोल्ड’ कीमासिकआयहैतीसहजाररुपये।जीहां,आपनेसहीपढ़ा,तीसहजाररुपये!आप कहेंगे,लेखक-पत्र

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नाहक ही...

13 अगस्त 2021
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नाहक ही...बेसबब न भी हो,पर, नाहक ही...<!--[if !supportLineBreakNewLine]--><!--[endif]-->शायद, यही सिला है,बचपन से पचपन तक,ये जो उड़ता बुलबुला है,मिला तो क्या मिला है,खामखा का सिलसिला है,सोचिये तो, नाहक ही.

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तब जा के...

13 अगस्त 2021
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बहुत साल जाया हुए,कई रातें कटीं आंखों में,पैर जख्मों सेरुबरु हुए,तब जाके यह तय हुआ,झूठ कितना विस्तृत है,सच कितना बेबुनियाद है,यथार्थ कितना बेचारा है,भटकाव कितना व्यापक है... ... बहुत साल जाया हुए,तब जाके यह तय हुआ,लोग कैसे गुमराह जीते हैं,दुनिया क्यूं फरेब खरीदती है,इ

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दिल चाहता है...

14 अगस्त 2021
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जिंदगी बेहद मुख्तसर,इसकी रस्मे-अदायगी,गोया औरभी मुख्तसर...बन पड़ते हैं गाहे-बगाहे,शफकत-अखलाक केअवसर,खुलती हैं दिलों कीखिड़कियां,सबा आती है, मगर, पल भर,फिर वही, पुरानी सीवीरानगी...कमाल है, अपनों की दीवानगी...तहजीब की,फुलझड़ी सी रवानगी...बस चंद कतरे अल्फाज परोसिये, या फिर

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बस लुत्फ लीजे...

17 अगस्त 2021
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इकदरवाजा है, खुला भी है,स्मृतियों का, अपने ही ज्ञान का,सीमाओं में जकड़ा, उलझा इंसान,थोड़े कोबहुत, बहुत को थोड़ा करता,अपनी हीद्वंद में इतराता इंसान,बंद कमरे साजीवन जीता नादान... घुटी, पिघलती बदबूदार सांसें लेता,सूरत सेबेपरवाह, आईनें बदलता,दिमाग खाली, घर केकमरे भरता,गर्क यहकि दरवाजे सदाएं नहीं देतीं,खुन

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हालिया तहजीब

18 अगस्त 2021
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हस्ती का शोर तो है मगर, एतबार क्या,दुनिया तमाशाई, हर कुंदजेहन यहां अदीब है... जिंदगी के रंगमंच की रवायत ही देखिए,दीद अंधेरे में, उजाले अदायगी को नसीब है... जवाब भी ढूंढ़ते है सवालों के उस फकीर से,जिसकी कैफियत, उसकी दाढ़ी सी बेतरतीब है... उलझे हुए लोग, चौराहों पर दुकान

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