कुछ तय जैसा हुआ नहीं उनसे,
फैसले जैसे ठिठक से जाते हों,
उनके ही मिजाज के खौफ से...
मिजाज भी कहां तयशुदा होता है,
कौन जाने कहां क्या बदा होता है,
फिर, इंसान हमेशा ही खौफजदा होता है...
सबकुछ न सही, कुछ तय कर पाने का,
अपने मिजाज को सिरहाने बिठा पाने का,
अपने, चीजों के खौफ को समझ पाने का,
जुगत हो जाये, तो शायद इश्क भी हो जाये...
मगर, इतने मसलों के मिजाज से घिरा है,
कि ‘वो’ कहीं दिखता ही नहीं,
मिलूं उससे, आरजू करुं कि सिलसिला चले,
गर वो तन्हा कभी, कहीं नजर आये...