इक दरवाजा है, खुला भी है,
स्मृतियों का, अपने ही ज्ञान का,
सीमाओं में जकड़ा, उलझा इंसान,
थोड़े को
बहुत, बहुत को थोड़ा करता,
अपनी ही
द्वंद में इतराता इंसान,
बंद कमरे सा जीवन जीता नादान...
घुटी, पिघलती बदबूदार सांसें लेता,
सूरत से बेपरवाह, आईनें बदलता,
दिमाग खाली, घर के कमरे भरता,
गर्क यह कि दरवाजे सदाएं नहीं देतीं,
खुनक, गुलाबी सबा अजान नहीं देतीं...
रोशनी चुभे तो सुबह खुशगवार नहीं होतीं...
विस्तार, उस पार यूं दिखता भी नहीं,
चैतन्य के आयाम विज्ञापित भी नहीं,
तकनीक, भोग से इतर राहें दिखाती नहीं,
सुख का समृद्धि से कोई याराना भी नहीं,
गुरू को ’गोविंद’ से अब आसनाई ही नहीं,
कोई हाथ पकड़ ले, भरोसा भी नहीं...
छोड़िये ये मसले, बस इतना कर लीजे,
परदे नोंच दीजे, खिड़कियां खोल लीजे,
खुदी को बाजार की गलियों से निकाल लीजे,
घुटती सांसों को खुले चैतन्य का सहारा दीजे,
तकनीक की ताकत को हमसफर बना लीजे,
दरवाजे के पार अपार विस्तार का लुत्फ लीजे...