बहुत साल जाया हुए,
कई रातें कटीं आंखों में,
पैर जख्मों से रुबरु हुए,
तब जा के यह तय हुआ,
झूठ कितना विस्तृत है,
सच कितना बेबुनियाद है,
यथार्थ कितना बेचारा है,
भटकाव कितना व्यापक है...
... बहुत साल जाया हुए,
तब जा के यह तय हुआ,
लोग कैसे गुमराह जीते हैं,
दुनिया क्यूं फरेब खरीदती है,
इंसान क्यूं खुद का ही बैरी है,
जीवन कैसे मौत बेचती है,
सुख कैसे दुख गले लगाती है,
दुःख क्यूं लाचार कर जाती है...
... बहुत साल जाया हुए,
तब जा के यह तय हुआ,
मैं जो हूं, खुद अपना दर्द हूं,
मैं जो
हूं, खुद अपना मर्ज हूं,
मैं जो हूं, खुद में पूर्ण हूं,
मैं जो हूं, अपना खुदा हूं,
मेरे अंदर ही है यह दुनिया,
सच-झूठ मेरी बनावट है,
सुख-दुख मेरे बोध की उपज है,
यथार्थ मेरे अंदर की बुनावट है...
... बहुत साल जाया हुए,
तब जा के यह तय हुआ,
मैं बेहद मूर्ख तो हूं मगर,
यही मेरी असली ताकत है,
इसे स्वीकारते ही खुल जाते हैं,
मेरी सफलता के सारे रास्ते,
यही मूर्खता सिखाती है मुझे,
सहजता... सुगमता... सरलता,
जिससे ही तो पा सका हूं मैं,
अपनी चेतना-बोध की स्थिरता...
...बहुत साल जाया हुए,
तब जा
के यह तय हुआ...!