नाहक ही...
बेसबब न भी हो,
पर, नाहक ही...
शायद, यही सिला है,
बचपन से पचपन तक,
ये जो उड़ता बुलबुला है,
मिला तो क्या मिला है,
खामखा का सिलसिला है,
सोचिये तो, नाहक ही...
जो थे, जो चाहा, जो हुए,
अब जो हैं, हुए बैठे हैं,
इब्तदा में क्या बुरे थे,
जो इन्तेहा समेटे बैठे हैं...
देखिये ये मंजर जरा,
पाला-पोसा अपना वज़ूद,
कम्बख्त मुझसे ही ऐंठे है...!
चलिये, कुछ यूं करते हैं,
वापस वहीं चलते हैं,
शुरुआत को अंत करके,
अंत से फिर शुरु करते है
नाहक ही...
बेसबब न भी,
मगर, नाहक ही...
खैर...!