लम्बी कहानी--भँवर,
भाग-३
...अभी तक आप लोगों ने पढ़ा की रेणुका को एक फोन आता है जो की शालिनी को पूछ रहा है, उधर एक व्यक्ति बनारस के घाट पर बैठा है जिसके पास एक विखरा मोबाइल पड़ा है..
अब आगे.....
"अभी तो इसका जिंदा होना मुश्किल है मैं इसे बनवाकर तुम्हे मेसेज करता हूँ"...अविनाश ने जवाब दिया...
"ठीक है पर मेसेज दोपहर में करना ये घर पर नही होते हैं" ...कविता ने आगाह किया
अच्छा अब मैं चलती हूँ काफी देर हो गया, 'ये' नाराज होते होंगे......
....बाजार से लौटकर मधुरिमा रेणुका को उसके घर पर छोड़कर जाने को हुई तो रेणुका ने कहा, "बाबू चाय तो पीकर जाओ"
"अभी भागने दो डार्लिंग बहुत देर हो गयी"....मधुरिमा ने विवशता जाहिर की
ठीक है, रेणुका ने कहकर उसे विदा किया और गेट बन्द करके अंदर मुड़ी ही थी की शांता बोल पड़ी....."मेंम साहब आप जब मधुरिमा मेम साहब के साथ जाती हैं तो आप बिल्कुल भूल जाती हैं की आपके घर में एक छोटा बच्चा भी है....और मुझे भी घर जाना होता है"
रेणुका ने मुस्कुरा कर कहा "हाँ मेरी मां गलती हो गयी...आगे से ध्यान रखूंगी"
शांता का भी गुस्सा शान्त हो गया....
"मेमसाहब बाबा को दूध दे दिया है और रसोईं के काम निपटा दी हूँ, अब मैं निकलती हूँ बड़ी देर हो गयी"...
"हाँ ठीक है, कहते हुये रेणुका ने हैंडबैग से कुछ पैसे निकाल कर शांता के हाथ में रख दिया....."कुछ बच्चों के लिये लेते जाना"...
शांता मुस्कुराते हुये कृतज्ञ भाव से बाहर निकल जाती है....
रेणुका कमरे में जाती है। एक दृष्टि सो रहे अपने बच्चे पर डालती है.. फिर उसी बेड पर बैठकर दिन भर के घटनाक्रम की स्मृतियों को टटोलती है....उसके चेहरे पर कई भाव आते-जाते हैं......तभी उसका फोन रिंग होता है,
रेणुका अनमने भाव से उठाती है...
"हेलो....मैं कविता बोल रही हूँ"...
"हाँ... जी बताइये किससे बात करनी है"....रेणुका ने पूछा
क्या मेरी बात शालिनी से हो रही है?....
कविता ने पूछा.....
रेणुका कुछ देर के लीये चुप हो गयी....फिर सम्भल कर बोली...."कौन.....शालिनी...यहां कोई शालिनी-वॉलिनी नही है....मेरा नाम रेणुका है"......कहकर रेणुका ने फोन काट दिया.....
उधर कविता को रेणुका के व्योहार से कुछ-कुछ शक हो चला था की हो न हो ये शालिनी ही है.......और इधर रेणुका विस्तर पर औंधे मुह गिरकर फूट-फूट कर रोने लगी..
हलचल से बालक की नींद खुल गयी....बालक कौतुहल से अपनी मां के तरफ देखने लगा...
बालमन कुछ तो समझ पाया नही किन्तु जब जननी को रोते देखा तो स्वं भी रोने लगा...
माँ बेटे को छाती से लगा कर उसके मुख को बेतहासा चूमने लगी....
"क्या हुआ बेटा क्यों रो रहा है?"
"मम्मी आप क्यों रो रही हो"...बालक ने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न किया"......
"कुछ नही बेटा, या तो जिंदगी में सबकुछ मिलने वाला है, या जो है वो भी जाने वाला है।"
ये बात तीन-चार वर्ष के बालक के समझ में क्या आती.... बालक मुस्कुराकर मां के छाती से चिपक गया.....
रेणुका कुछ देर विचार करती रही.... फिर लान में आकर टहलने लगी...उसके हृदय में एक तरह का अन्तर्द्वन्द चल रहा था कि... जैसे है वैसे चलने दूँ या फिर अपनी सच्चाई प्रकट कर दूँ.....लम्बी उधेड़बुन के बाद उसने कुछ सोचकर मोबाइल उठाया.....
......इधर अविनाश जब घाट से घर पहुंचा तब उसकी बूढ़ी दादी ने बताया की घर की सफाई में कुछ पुराने कागज-पत्र निकले हैं, तुम इनको देख लो जो काम के हों उसे रखो नही तो बाकी कबाड़ी को दे दो"......
अपने कमरे में कूड़े का ढेर देखकर अविनाश का मन खिन्न हो गया, अनमने भाव से उनको देखने लगा.....देखते-देखते उसकी दृष्टि एक लिफाफे पर पड़ी जिसपर उसका नाम लिखा था अंदर कुछ पेपर थे। पर हैरत की बात अभी तक उसे खोला न गया था.....उसने पलटकर देखा पर उसपर प्रेषक का नाम नही था...
उसने तुरन्त उसे खोला......अंदर के पेपर को देखकर अविनाश के होश उड़ गये....उसमे रेणुका का अंतिम पत्र था जो उसने अविनाश के लिये बनारस छोड़ने के पहले लिखा था...
अविनाश ने हृदय गति रोककर पत्र पढ़ना प्रारम्भ किया....
...प्रिये अविनाश,
मैं नही जानती की मैं अपनी बात तुमको कितना समझा पाउंगी फिरभी मैं कोशिश कर रही हूँ....
अविनाश मैं ये नही बता सकती की तुम मुझसे ज्यादा प्रेम करते हो या मैं तुमसे ज्यादा, किन्तु इतना जानती हूँ की मेरी जिंदगी तुम बिन अधूरी थी,अधूरी है, और अधूरी रहेगी....तुमने जाते समय मुझसे वादा किया था की एक वर्ष में आ जाओगे। किन्तु वहां जाने के बाद तुमने मेरे बारे में जानने की कोई जरूरत ही नही समझी। ....तुम्हारे जाते ही एक रोड एक्सीडेंट में माता जी एवं पिता जी दोनो बुरी तरह घायल हो गये। कुछ दिन तो घर में रखे रुपये-पैसे से उनका इलाज चला फिर गहनों ने कुछ दिन ये जिम्मेदारी उठायी....फिर कर्ज ने....इन सब के बावजूद भी,पहले माता जी फिर पिता जी मुझे इस दुख भरे संसार में ठोकरे खाने के लिये अकेला छोड़कर चले गये।.....
अब जीवन में सारी उलझनों से स्वं लड़ना था। तो मैंने एक निजी स्कूल में नौकरी कर ली। किन्तु उसकी सैलरी पूरी कर्ज चुकाने में चली जाती। तो मैंने नीचे का पोर्शन किराये पर उठा दिया.....
इन सब परेशानियों के बीच कुछ दिन तो तुम मुझे बहुत याद आये....जानते हो जब व्यक्ति मजधार में होता है तो सबसे पहले अपने आसपास के आलम्ब को पकड़ना चाहता है। किन्तु जब वह हाथ नही आता तो धीरे-धीरे उससे मोहभंग होने लगता है। मैं जैसे-जैसे उलझनों में उलझती गयी तुमको भूलती गयी।
.....इधर लगातार काम करने की वजह से मुझे कई दिनों से ज्वर सा महसूस हो रहा था किन्तु दवा लेती रही और चलती रही....
एक दिन दोपहर से ही सिरदर्द बहुत तेज से हो रहा था । किसी तरह दिन निकाला और छुट्टी होते ही घर की तरफ लम्बे कदम से बढ़ने लगी....घर पहुंचते-पहुंचते ज्वर तेज हो गया,सीढ़ी के दरवाजे का ताला खोलते ही चक्कर खा कर गिर पड़ी....उसके बाद क्या हुआ मुझे कुछ खबर नही....जब आँख खुली तो खुद को अपने बिस्तर पर पाया सामने डॉक्टर बैठे थे और अतुल उनसे कुछ बात कर रहा था....
मुझे होश में आया देख डॉक्टर ने कहा की मैंने इंजेक्शन दे दिया है और ये कुछ टेस्ट है जिसे कल करा लेना....इतना बोलकर डॉक्टर चले गये.....डॉक्टर के जाने के बाद कुछ देर तक कमरे में सन्नाटा पसरा रहा..फिर....
मैं उठकर बैठने का प्रयास करने लगी तो अतुल ने मना कर दिया....बोला की आप लेटे रहिये....उसने बताया की कैसे?, मैं सीढ़ियों के पास बेहोश हो गयी थी, फिर वो उठाकर मुझे यहां तक लेकर आया....
अच्छा अतुल तुम काफी देर से यहीं हो, अब तुम नीचे जाओ अमृता परेसान हो रही होगी...
"मैं आजकल अकेला हूँ, अमृता के पापा की तबियत खराब है इसलिये वो मायके गयी है "
अतुल ने बताया.....
फिरभी तुम जाओ मैं बाकी का काम देख लूँगी...
शाम आकर जा चुकी थी, रात्री अपनी यात्रा प्रारम्भ कर चुकी थी।दवा के असर से ज्वर जब कम हुआ तो भूख सी लगने लगी....तभी अतुल ने भोजन के लिये पूछा...मैंने संकोचवश न कर दिया ....किन्तु वो लगातार मनुहार करता रहा तो मैंने हाँमी भर दी....फिर उसने कहा की चलिये नीचे ही बैठिये मैं भोजन बनाता हूँ, मुझे भी थोड़ी कम्पनी मिल जायेगी।
मैं उसके सहारे से नीचे आ गयी। वो भोजन बनाने में तल्लीन हो गया साथ-साथ इधर-उधर की बातें करता जाता....
...इतने दिन से अतुल अपनी वाइफ के साथ हमारे यहाँ किराये पर था, किन्तु कभी मुझे उससे बात करने का मौका न मिला...हाँ दो एक बार अमृता से बात जरूर हुई थी....
.....कुछ देर बातें करने के पश्चात मैं ऊपर चली गयी,पीछे से अतुल भोजन तैयार करके ले आया....
....सुबह....मेरे मना करने के बाद भी मुझे टेस्ट के लिये लेकर गया....टेस्ट में टायफाइड पॉजीटिव आया डॉक्टर ने मुझे कमसे कम दस से पन्द्रह दिन आराम करने की सलाह दी...
एक दो दिन आराम करने के बाद मैं स्कूल जाने के लिये निकली तो अतुल ने मुझे जबरदस्ती घर में बैठा दिया.....पता नही क्यों मुझे उसका मुझे यूँ रोकना अच्छा लगा...मैं कुछ न बोली, चुपचाप घर में बैठ गयी...मेरी सारी जिम्मेदारी अतुल ने ले रखी थी यहां तक दवाओं तथा अन्य खर्च का वहन भी वही कर रहा था.....जैसे -जैसे समय बीतता जा रहा था मुझे उसके साथ रहना अच्छा लगने लगा...मैं अपनी स्थिति,माता-पिता का दुख यहां तक तुम्हारी स्मृति भी मेरे हृदय से क्षीण होती गयी।
......उस दिन कई दिन बाद बाद 24 घण्टे से ज्वर थोड़ा भी नही आया था...शरीर एकदम हल्का..हल्का लग रहा था मैंने अतुल को भोजन बनाने को मना कर दिया..और मैं उसके रसोंई में भोजन बनाने के लिये चली गयी ....अतुल भी साथ-साथ लगा रहा कई बार उसका हाथ मेरे हाथ से लग जाता या फिर उसकी नजरें मेरी आंखों से टकरा जाती....मन में अजीब सी गुदगुदी होती....जैसे बिना पंख के उड़ने जैसा या फिर दुनिया की तमाम खुशी पा लेने जैसा.....किन्तु शायद मैं और अतुल दोनो अपनी मर्यादा में विबश....पर ये सत्य था की अगर कोई एक पहल कर देता तो दूसरा कभी भी स्वं को रोक न पाता....
उसदिन रोज के अपेक्षा हमारे बीच कम बात हुई.....मैं भोजन करके कमरे में आ गयी...
मन-मास्तिष्क में अजीब सी द्वन्द चल रही थी....मैं अपनी किस्मत को कोसने लगी, हे भगवान तू मेरे साथ क्या करने वाला है। एक को प्रेम किया वो मुझे छोड़ गया पता नही वापस आयेगा की नही....और अब ऐसा व्यक्ति हृदय पर दस्तक दे रहा है जिसकी पहले से पत्नी है .....पता नही अब इस जीवन का क्या होगा...अगर कहीं अतुल ने एक छोटा सा भी कदम मेरी तरफ बढ़ाया तो मैं स्वं को रोक नही पाउंगी.......सोचते-सोचते कब आंख लग गयी पता न चली......
....पता नही ये स्वप्न था या सच, लाइट बुझी हुई थी ऊपर की रोशनदान एवं खिड़की से दूधिया चांदनी छनकर कमरे में आ रही थी।
अतुल मेरे सिराहने बैठा एक हाथ से मेरा सिर सहला रहा है......दूसरे हाथ से मेरा एक हाथ अपने हाथों में लिये हुये है....मैं कह रहीं हूँ अतुल तुमको जाना चाहिये.....वो उठने को होता है.....मैं उसका हाथ नही छोड़ती ....मैंने कह दिया तो तुम चल दिये, इतना भी न सोचा की मेरा क्या होगा....अतुल पुनः बैठ जाता है....तभी खिड़की से दो छोटी-छोटी आकृतियां प्रवेश करती हैं.....देखते-देखते दोनो विशालकाय रूप में परिवर्तित हो जाती है....अधनंगा शरीर बड़े-बड़े बाल हाथ में बड़ी सी तलवार लिये अतुल के तरफ बढ़ते हैं....मैं अतुल को जोर से पकड़ लेती हूँ, दोनो आगे बढ़कर अतुल को मुझसे छीन लेते हैं, मैं उठना चाहती हूँ किन्तु उठ नही पाती.... जैसे किसी ने मेरे हाथ-पैर बांध दिये हों....उनमे से एक अतुल को पकड़ कर नीचे झुका देता है,, एवं दूसरा तलवार से उसकी गर्दन उसके धड़ से अलग कर देता है.....मेरे मुख से जोर से चीख निकल जाती है.....अतुल....और निद्रा टूट जाती है समस्त दृश्य गायब हो जाते है....किन्तु भयातुर मन स्वप्न एवं हक़ीक़त में भेद नही कर पाता....मैं पागलों की तरह भाग कर नीचे आती हूँ और अतुल का दरवाजा पीटने लगती हूँ....अतुल मुझको देखकर थोड़ा भी अचंभित नही होता है....जैसे वो मेरा ही इंतजार कर रहा हो...वो दरवाजा खोलता है मैं सहमी सी उससे लिपट कर उसके एक-एक अंग को टटोल कर देखने लगती हूँ......जब हृदय को तसल्ली हो जाती है तो पुनः उससे लिपट जाती हूँ .....वो भी बिना कुछ बोले.....अपने दोनो हाथ से मेरे पीठ को सहलाने लगता है.....धीरे-धीरे डर निकलता जाता है और कामना हावी होती जाती है......अधरों ने अधरों निमन्त्रण क्या स्वीकारा की बलवती नदी ने अपने समस्त तटबन्ध तोड़ डाले....न रति ने विरोध किया न कामदेव को कुछ गलत लगा...अगर इस समय चाहकर भी कोई न कुछ कर सकता था....
जब तूफान ने वर्षा का रूप लिया तब जाकर पृथ्वी सन्तुष्ट हुई.....जब मुझे होश आया तो मैं लज्जा एवं ग्लानि से भर गयी.....उधर अतुल भी अपने शर्मिंदा था.....किन्तु कौन किसको दोष देता जब फैसला दोनो का था....
....मेरे सर्वनाश के अगले दिन अतुल की पत्नी अमृता आ धमकी....अब अतुल मुझसे नजरें चुराने लगा और मैं भी चाहती थी की उसका मेरा सामना न हो.....
वक़्त तेजी से फिसल रहा था....मेरे शरीर में कुछ बदलाव से होने लगे .....खाने में स्वाद न आना...मतली होना...किन्तु मुझे कुछ समझ न आया....पीरियड्स भी बहुत मामूली आते थे...
अपनी उलझनों के कारण मैं कभी डॉक्टर के पास न जा सकी.....इसी तरह लगभग चार महीने बीत गये ....एक दिन तबियत ज्यादा बिगड़ने लगी तो मैं डॉक्टर के पास गयी सब निरीक्षण करने के बाद डॉक्टर ने मेरा प्रेग्नेंसी टेस्ट किया तो पॉज़िटिव आया मैं.....मैं जीवन में तो जैसे भूचाल आ गया मैंने लगभग रोते हुये डॉक्टर से पूछा .....पर मेरे पीरियड्स कम मात्रा में किन्तु हर महीने आ रहे हैं....ये कोई बड़ी बात नही है बहुत सी स्त्रियों को छठे महीने तक मामूली स्राव होता रहता है.....
मैंने डॉक्टर से कहा की मैं अभी बच्चा वहन नही कर सकती, तो उसने कुछ टेस्ट किया उसके बाद बोली अब बहुत देर हो चुकी है चार महीने का भ्रूण हो गया है गर्भपात में बहुत खतरा है...
......जिंदगी में मुसीबतें कम थीं क्या जो एक नयी मुसीबत ने अकारण दस्तक देदी....कुछ ही दिनों में पेट छुपाना दूभर हो जायेगा.....मेरे समझ में कुछ नही आ रहा था.....अब मेरे पास बनारस छोड़ने के अलावां कोई चारा न रहा ....मुझे नही लगता की तुम्हारे अलावा किसी को कुछ बताने के लिये में बाध्य हूँ फिरभी मैं अपना सच तुमसे बताना उचित समझा..... ये सच है की कुछ कमजोर पलों में मैं ये भूल कर बैठी किन्तु ये भी सच है की मैं आज भी तुमसे बेइंतहां प्यार करती हूँ... अब तुम मुझे कुल्टा समझो या कलंकिनी किन्तु यही मेरे जीवन का सच है....जब तक तुम्हे यह पत्र मिलेगा तब तक मैं यहां से अपना सबकुछ बेंचकर किसी अंजान शहर के लिये जा चुकी होउंगी.....
किन्तु ये भी सच है की मैं आजीवन तुम्हारा इंतजार करती रहूंगी और हर वर्ष दुर्गा-अश्टमी को उसी घाट पर जहां हम पहले मिलते रहे हैं आउंगी जरूर चाहे कुछ हीं पलों के लिये....
जब भी मेरी गलतियों को माफ कर सको उस वर्ष आकर मुझे बिना किसी प्रश्न के मुझे ले जाना......
..........अभागिनी.....शालिनी...
क्रमसः.......जारी है