🙏🙏यह कहानी एक स्त्री के अस्तित्व की एवं एक पुरुष के मनोवृति की है। मित्रों मैंने पूरे हृदय से मानवीय प्रवृति एवं उसके कमजोरीयो को उजागर करने की ईमानदार कोशिश की है...चूंकि कहानी बड़ी है इसलिये इसे मैं किस्तों में पोस्ट कर रहा हूँ....
🙏🙏मित्रों आप लोग इसपर अपनी प्रतिक्रिया देकर हमे कृतार्थ करें....मैं आप लोगों को विस्वास दिलाता हूँ की जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ेगी आपकी जिज्ञासा बढ़ती जायेगी.....
(राकेश पाण्डेय)
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लम्बी कहानी......भँवर
भाग-१
एक समय था, जब इतनी ज्यादा मशीने नही होती थी। तब रोजमर्रा की जरूरतों के लिये हम स्वं पर निर्भर होते थे। जिससे शरीर का व्यायाम भी हो जाता था और हम कई गंभीर बीमारियों से बचे भी रहते थे। किन्तु आज मशीनी युग में हम पूरी तरह मशीनों पर निर्भर हो गये हैं, फलस्वरूप तमाम तरह की बीमारियों ने हमे घेरना प्रारम्भ किया, तब जाकर हमने व्यायाम,टहलना ,योग आदि के महत्व को समझा...
इसलिये शहरों में सुबह सड़क पर एवं शाम को पार्क में खूब हलचल रहती है.....
ऐसी ही एक पार्क में काफी तेज-तेज चलने के बाद एक महिला वहीं बने बेंच पर बैठ कर अपने हृदयगति को नियंत्रित कर रही थी।
जब सांस कुछ नियंत्रित हुई तो उसने एक पैर पर दूसरा पैर डाल कर पीछे सर टिका दिया।
थकान एवं धीमे-धीमे बह रही पुरवा हवा की ताजगी से उसे नींद सी आने लगी.....
उसी पार्क में कुछ बालकों में खेलकूद को लेकर कुछ झड़प सी होंने लगी, जो की बालकों में आम बात होती है। हलचल से उसकी निद्रा भंग हो गयी और वो बालकों के ओर देखने लगी....
....जीवन में हमे किसी भी स्मृति से उतना लगाव नही होता,जितना हमे अपने बचपन से होता है।
उसकी खट्टी मीठी यादें हमे बोझिल करके ही मानती है, कई बार तो नेत्रों के कोर को कब नम कर जातीं है पता ही नही चलता।
उसी तरह उसकी भी आंखों के सामने,कच्चा घर, कच्ची सड़क एवं कच्ची ईंट और मिट्टी से बना घर, गुड्डे-गुड़िया, कागज की पोटली में छिपा कर रखी कच्ची इमली और नमक और कुछ सहेलियों के आस्पष्ट चेहरे....जो न चाहते हुये भी नैनों को निर्झरणी बनने से रोक न पायी...
उन्ही में से कुछ बुँदे लुढ़ककर कपोलों पर विखर गयीं...बचपन की तरह....
उसी समय उसके बगल में एक अन्य स्त्री आकर बैठी फलस्वरूप उसकी तन्द्रा टूटी ।
...उसने घड़ी पर दृष्टि डाली.....उफ्फ कितनी देर हो गयी! .....ट्यूशन में बच्चे आ गये होंगे..
सोचती खड़ी हुई की,... उसकी मोबाइल पर रिंग होने लगी,...नम्बर अंजान था और उसे देर हो रही थी, ....कई बार सेल्स के फोन आते है और न चाहते हुये भी उनकी स्कीम समझनी एवं सुननी पड़ती है, ..यही सोचकर उसने फोन नही उठाया..पूरी रिंग होकर फोन कट गयी...कुछ पल के बाद पुनः रिंग हुई तब तक वह रिक्से में बैठ चुकी थी....उसने देखा वही नम्बर है....झुंझला कर फोन उठाया।
उधर से किसी पुरुष की आवाज आई...
'हेल्लो'... इसने कहा 'हाँ बोलो'..कौन?
"शालिनी, मैं महीनों से प्रयास कर रहा हूँ किन्तु तुम्हारा फोन नही लग रहा था"..उस पुरुष ने कहा,...
"हेल्लो सर, मैं शालिनी नही हूँ मेरा नाम 'रेणुका' है, ...आपसे कोई गलती हुई है ये रॉन्ग नम्बर है"...रेणुका ने जवाब देकर फोन काट दिया।
....कुछ समय बाद पुनः रिंग हुई, किन्तु उसने उठाया नही....इसी प्रकार दो-तीन बार जब रिंग हुई तो उसने फोन स्विच-ऑफ कर दिया।
....
....घर पहुंचकर रेणुका ने ट्यूशन लिया, उसके बाद बच्चों को छोड़कर वहीं लान में बैठकर चाय पीने लगी, जो पहले ही नौकरानी शांता रख गयी थी...ये उसकी रोज की दिनचर्या थी... चाय पीते-पीते वो इधर-उधर पेड़ पौधों को देखने लगी..खिले लाल,पीले, एवं सफेद गुलाब कुछ रंगीन झाड़ीदार पौधे जिसमे झाड़ियां बढ़ गयी थी...शान्ता, "कल मैंने रमेश माली को कहा था की आकर पेड़ पौधों को काट-छाँट दे, आया नही क्या?"
"नही मेमसाहब, नही आया" शांता ने जवाब दिया....'इन लोगों को भी न पहले पैसे दे दो तो फिर काम करने की फिक्र नही रहती', बड़बड़ाते हुये रेणुका एक एक पौधे का निरीक्षण करने लगी...
टहलते-टहलते उसकी दृष्टि मनीप्लान्ट के बेल पर जाकर ठहर गयी...
तभी
"अरे महारानी, तुमको कुछ याद-वाद रहता है की नही" कहते हुये एक स्त्री प्रवेश करती है।
किन्तु रेणु अभी तक उसी प्लांट को एकटक निहार रही है।....तबतक वह स्त्री उसके समीप आ गयी.... "मधु, इस मनी प्लांट को देख रही है, दो तीन दिन पहले आयी आंधी में पूरी तरह विखर गयी थी। मैंने यहां पड़ी कुछ टहनियों को इसके सहारे के लिये रख दिया था, जिनसे लिपट कर ये पुनः अपनी पुरानी स्थिति में आ गयीं"
माधुरी, "हाँ ऐसे ही होता है"
रेणुका, "तो फिर मुझे भी अगर समय रहते सहारा मिल गया होता तो शायद मैं भी विखराव से बच जाती"...कहते- कहते रेणुका की आवाज भारी हो गयी और आंखें भीग गयी।
क्रमसः.....