भाग..३ से आगे...
अभी इधर कुछ दिन से इंद्रदेव का क्रोध शांत भले हो गया हो किन्तु,नदियाँ तो अब भी अब भी अथाह सागर सी फैली हुई हैं। जिन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे सबकुछ अपने साथ बहा ले जाना चाहती हों....
कुछ इसी मनोयोग से बह रही पतित- पावनी गंगा के मध्य धार में एक छोटी सी नौका हिलती-डुलती जा रही है। अंदर बैठे नाविक एवं ब्राह्मण को तो डर नही लग रहा क्योंकि उनके लिये ये रोज का कृत्य है। किन्तु अंदर बैठा व्यक्ति जिसके हाथ में एक कलस है वो थोड़ा सा भयाकुल है.....
तभी तन्द्रा को तोड़ती हुई ब्राह्मण देव की वाणी मुखरित होती है...
"यजमान....अब मैं मन्त्र उच्चरित करता हूँ तुम अस्थियां माँ को अर्पित करो"
ब्राह्मण मन्त्र बोलना प्रारम्भ करते हुये....
'मृतिका का नाम'....अमृता शास्त्री
'पति का नाम'.......अतुल शास्त्री..
नाविक नाव को दोनो छोरों को जोड़ने वाली एक पक्के पुल के करीब से गुजरते हुये किनारे के तरफ बढ़ता है....
तभी पुल से नाव के बगल में एक व्यक्ति गिरता है...गिरते ही धारा के साथ हिचकोले लेने लगता है...
किसी के कुछ समझ न आया की व्यक्ति गिरा है या जानबूझकर कूदा है...नाविक नाव में सवार व्यक्तियों को छोड़ कूद नही सकता किन्तु सामने किसी को डूबते नही देख सकता....नाविक असमंजस में पड़ा सोच ही रहा था की नाव में बैठा व्यक्ति कूद जाता है, और उसे खीच कर नाव तक लाता है...नाविक एवं ब्राह्मण दोनो सहारा देकर उसे नाव में लेते हैं।......पानी ज्यादा पी लेने के कारण व्यक्ति होश में नही है। उसे उल्टा लिटाकर नाविक कमर से ऊपर दबाव देकर उसके शरीर से पानी निकालता है .....फेफड़े से पानी बाहर निकलते ही व्यक्ति होश में आ जाता है...तब तक नाव किनारे पर पहुंच चुकी होती है...
सब लोग नीचे उतर-जाते है। व्यक्ति नीचे उतर कर ब्राह्मण को दक्षिणा एवं नाविक को पारिश्रमिक देकर उस व्यक्ति का हाथ पकड़कर घाट के ऊपर आ जाता है.....
...."तुम कैसे नीचे गिरे"....अतुल ने प्रश्न किया
किन्तु वो व्यक्ति कुछ न बोला...
अतुल बार-बार पूछता रहा किन्तु वह व्यक्ति अपना सर झुकाये बैठा रहा....
कुछ क्षण मौन रहने के बाद उस व्यक्ति ने सर ऊपर उठाया....."क्यों बचाया मुझे"...शब्दों के साथ नेत्रों की नदी तटबंध तोड़कर कपोलों पर विखरने लगी...
"तो क्या तुम आत्महत्या करने के लिये कूदे थे?"......हाँ... व्यक्ति ने सर हिलाकर जवाब दिया...
..."तो क्या मृत्यु का वरण करना जीवन जीने से शरल है?"....अतुल ने आश्चर्य से पूछा,
....."कभी-कभी जीवन इतना कष्टकारी हो जाता है, इतनी पीड़ामय हो जाती है की जीवन जीने से बेहतर मृत्यु के गोद में सो जाना श्रेयस्कर लगता है"....उस व्यक्ति ने गहरी सांस छोड़ते हुये जवाब दिया....
....अतुल ने उसकी मनोदशा समझते हुये अभी और कुछ पूछना उचित न समझा ...
और न ही उसे इस हाल में अकेला छोड़ना।
..."उठो चलो चलते हैं" अतुल ने उससे कहा
"कहाँ?"....उसने कौतुहल बस पूछा..
"फिलहाल तुम और हम दोनो पूरी तरह भीग गये हैं...थोड़ी दूर पर घर है मेरा, पहले कपड़े बदलते हैं फिर सोचेंगे क्या करना है"...
"नही आप जाओ मुझे नही जाना"...उसने खीझते हुये जवाब दिया...
"चलो भाई कुछ समय हमारे साथ बिता लो अन्यथा ही सही किन्तु मैंने आपकी जान बचाई है, इसमे मेरी भी जान जा सकती थी तो इतना तो हक़ बनता है मेरा की कुछ तुम्हारे बारे में थोड़ा सा जान लूँ,......उसके बाद तो गंगा जी कहाँ जा रहीं है जब चाहे कूद जाना"
अतुल ने मुस्कुराते हुये कहा,
....यूँ तो व्यक्ति पीड़ा में आत्मघाती फैसले तो ले लेता है किन्तु जब मौत करीब से छूकर गुजरती है तब जिंदगी की कीमत पता चलती है,
.....इस घटना के बाद उस पुरुष के मन में आत्महत्या का भाव पहले से काफी कमजोर अवस्था में पहुंच चुका था....वह न चाहते हुये भी अतुल के पीछे-पीछे हो लिया....
...घाट से बाहर निकलकर दोनो मुख्य सड़क पर आ गये, वहां से एक रिक्शे को रोककर उसे गन्तव्य समझाकर दोनो बैठ जाते हैं....
...पूरे रास्ते एकदम चुप्पी, कभी-कभी अतुल एक निगाह उसके चेहरे पर डाल देता है। नजर मिलते ही वह अपनी नजर नीचे झुका लेता है। जैसे कोई नवोदित अपराधी किसी अपराध की ग्लानि से मरा जा रहा हो....
घर पहुंचकर अतुल ने घर का ताला खोला फिर दरवाजा खोलकर उसे अंदर चलने का संकेत करता है। दोनो लॉन से होते हुये एक कमरे में आ जाते हैं, उसमे रखी अलमारी खोलकर अतुल उसके लिये और अपने लिये सूखे कपड़े निकालता है। वह व्यक्ति कपड़े बदलकर वहीं पड़े सोफे पर बैठ जाता है और अतुल किचेन में चाय बनाने लगता है।
.....अतुल चाय उस व्यक्ति को देकर उसके बगल में बैठ जाता है....
"हाँ तो मित्र बताओ ऐसा क्या हुआ की तुम अपनी इहलीला समाप्त करना चाहते हो"...अतुल ने मुस्कुराते हुये पूछा...
मित्र कभी-कभी जीवन का जो सबसे सुखद पल होता है वही पल सबसे कष्टकारी हो जाता है....कष्ट निष्क्रियता बढ़ती है और निष्क्रियता से स्वं का स्वं से प्रेम मरने लगता है, कोई ज्ञानी कितना भी ज्ञान दे किन्तु जब पीड़ा अंतर्मुखी हो तो हृदय फटने लगता है। फिर जीवन से मृत्यु श्रेष्ठकर लगता है....व्यक्ति ने जवाब दिया...
"मित्र पर ऐसा हुआ क्या?".....अतुल ने विस्मय से पूछा..
मेरा नाम अविनाश है मेरी एक प्रेमिका थी जिसका नाम शालिनी था, मैं कुछ काम से कुछ दिनों के लिये बाहर चला गया वहां मुझे समय ज्यादा लग गया।....इसी बीच कुछ परिस्थितियां उसके प्रतिकूल हुई...और उसने अपना सबकुछ अपने किरायेदार अतुल को सौंप दिया जो पहले से शादीशुदा था"
अतुल अवाक रह गया उसे समझते देर न लगी की ये किसकी बात कर रहा है...फिरभी स्वं को नियंत्रित कर उसने पूछा फिर आगे क्या हुआ...
"इस घटना के बाद वह अपना सबकुछ छोड़ कर किसी अनजान जगह किसी और नाम से रह रही है।.....मैं वर्षों से उसका इंतजार कर रहा था किन्तु कोई पता न चला...कुछ दिन पहले उसका नम्बर लगा तो उसने पहचानने से इनकार कर दिया"
"तो तुमको कैसे पता चला अतुल के बारे में?"
अतुल ने पूछा,
...कल उसका खत मिला जो उसने मेरे लिये बनारस छोड़ने से पहले लिखा था"
..तो वह चाहती तो छुपा भी सकती थी उसने तुमको सच-सच बता दिया यही तो सच्चा प्रेम है....गलती करना कोई बड़ी बात नही है किन्तु उसे स्वीकार कर लेना बहुत बड़ी बात है। तुम्हे तो खुश होना चाहिये की तुम्हे ऐसी प्रेमिका मिली"...अतुल ने समझाते हुये कहा,
अतुल, मैं भी अकेला रहा मेरे आसपास भी बहुत सी स्त्रियां थी, मेरे भी जिंदगी में बहुत से कमजोर पल आये पर मैंने तो कभी उसके अलावां किसी को हृदय में स्थान नही दिया।"...
अविनाश ने तर्क दिया...
"मित्र, स्त्री पुरुष में बहुत अंतर होता है, पुरुष जबतक चाहे तबतक अपनी भावना के ज्वार को थामे रह सकता है। किन्तु स्त्री अपनी दुनिया अपने आसपास ही देखती है। वो जरा सी तपिस से पिघल जाती है.....तुमने तो कोमल लताएं देखी होंगी कैसे आलम्ब से लिपट जाती हैं। किन्तु पुरुष कठोर वृक्ष होता है.....जो या तो टूट जाता है या अपने स्थान पर यथावत खड़ा रहता है"...
...वो उसका स्त्रीत्व गुण ही था की एक बार गिरने के बाद उठ खड़ी हुई अगर उसके जगह कोई पुरुष होता तो कभी न उठ पाता... ये उसका समर्पण ही है तुम्हारे प्रति जिसने उसे उठने का सम्बल दिया नही तो इतना आसान नही रहा होगा...कोई भी स्त्री किसी पुरुष के सानिध्य में तब तक नही जा सकती जबतक की उसके हृदय में उसके प्रति प्रेम का अंकुरण न हो...और उसको कुचलना बड़ा दुस्कर रहा होगा....अतुल ने समझाने का प्रयास किया...
"मित्र, मैं एक बार सब भूल कर उसे अपना भी लुँ...किन्तु मैं जब उसके बच्चे को देखूंगा तब उसके पतिता होने का भाव मेरे मन में आयेगा"...अविनाश ने अपनी मजबूरी कही,
.....अब चौकने की बारी अतुल की था,
वो मन ही मन सोचने लगा....हमारा एक बेटा भी है मुझे आज तक न पता चला...हे शालिनी ये तुमने क्या किया एक बार कहा तो होता...
...क्या हुआ मित्र? किस सोच में पड़ गये...अविनाश ने अतुल को झिड़कते हुये कहा....
"नही...नही...कुछ नही बस ऐसे सोच रहा था की....अगर तुम बुरा न मानो तो"...अतुल ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया..
बोलो न मित्र..अविनाश ने अधीर होते हुये पूछा...
"मित्र मेरी पत्नी का लम्बी बीमारी के बाद देहांत हो गया...और मुझे कोई औलाद भी नही..अगर तुम दोनो चाहो तो मैं उसे गोद ले सकता हूँ....मुझे जीने का सहारा मिल जायेगा और तुमको तुम्हारी पुरानी प्रेमिका"....अतुल ने अपनी मंसा जाहिर की....
हाँ ये सही रहेगा...कल दुर्गा अष्टमी है कल शालिनी घाट पर आयेगी वहीं बात कर लेंगे...अविनाश खुश होते हुये बोला..
.........
इधर कविता कई दिनों से अविनाश से सम्पर्क करने की कोशिश कर रही है, किन्तु उसका फोन नही लग रहा था। उसने अपने छोटे भाई को उसके घर भेजा किन्तु उसका कोई पता न चला....
कविता परेसान सी आंगन में चहल कदमी कर रही थी..."कल दुर्गाअश्टमी है और अविनाश की कोई खबर नही...मैं शालिनी से क्या बोलूं"
इसी उधेड़बुन में वो टहल रही थी...उसके पति ने उसे कई बार टोका किन्तु उसने कोई जवाब न दिया.....पता नही क्या सोचकर उसने अपने पति से कहा..."तैयार हो जाओ हमे बनारस निकलना है".....
अभी इस वक़्त..क्यों?...पति ने आपत्ति जताई
"तुम्हारे जीवन का सबसे बड़ा कांटा निकालना है".....कविता ने मुस्कुराते हुए कहा...
"मेरे जीवन का कौन सा कांटा" उसके पति ने हैरानी जताते हुये पूछा...
"ये मुझे अच्छी तरह पता है पतिदेव की आप जानते हो की मेरे मन में अविनाश के लिये कुछ था किन्तु यह बस मेरी तरफ से ही था। क्योंकि अविनाश सदा से शालिनी को चाहते थे ...इसीलिये तो आप मुझे वहाँ रुकने न देते"...शालिनी ने अपने पति को छेड़ने के भाव में बोला....
ये बात सच थी उसके पति झेंप गये, अपनी झेंप को मिटाने के लिये बोले "ऐसा कुछ नही तुम ऐसे ही बकवास कर रही हो"...
कविता ने उनका हाथ पकड़ते हुये बोला मेरे भोले बाबू जबसे आप से मेरी शादी हुई है मैंने आप से ज्यादा प्रेम किसी और से नही किया है...स्त्री स्वभाव बस भावुक होती है इतना कहते...कहते कविता के आंखें सजल हो उठी...
उसके पति ने बात काटते हुये बोला"वैसे काम क्या है?...
"अविनाश और शालिनी को मिलाना है"....बाकी की कहानी उसने अपने पति को संछेप में सुना डाली....
दोनो तैयार होकर बनारस के तरफ निकल पड़ते हैं... चलते-चलते कविता शालिनी को फोन कर देती है..बताती है की अविनाश से सम्पर्क नही हो पाया...लेकिन कल उसे कैसे भी कहीं से भी खोज कर घाट पर लेकर आउंगी...तुम समय पर पहुंच जाना.....
.....इधर शालिनी फोन रखने के बाद विचारमग्न हो जाती है....पता नही अविनाश को मेरा पत्र मिला भी की नही...जब हृदय असहज होता है तब तमाम तरह की आशंकाये जन्म लेती हैं। वैसे ही जीवन में एक दाग लिये जी रही थी...और अगर कहीं अविनाश ने अपनाने से इनकार कर दिया तो कैसे जी पाउंगी......
...रात का एक पहर बीत गया था, शांता कब की जा चुकी थी..और बेटा मां से कुछ अटपटे प्रश्न करते...करते निद्रा में लीन हो गया...पूरे कमरे का वातावरण एकदम शांत था...और शालिनी व्यथित होकर इधर उधर घूम रही थी...जब मन किसी तरह मन शांत न हुआ तो दरवाजा खोलकर लॉन में आ गयी...कुछ देर इधर-उधर टहलने के बाद वहीं पड़े एक कुर्सी पर बैठ गयी....आस-पास के पंडालों से आ रहे भक्ति भाव के गीत संगीत उसे बिल्कुल अच्छे नही लग रहे थे.....उसने आसमान को निहारना प्रारम्भ किया....दूर-दूर तक अथाह सन्नाटा जैसे किसी ने किसी विशालकाय मुखपर कालिख पोत दिया हो....कहीं-कहीं टिमटिमाते तारे कालिमा को धोकर कुछ उजाला करने की कोशिश करते किन्तु उस अथाह कालिमा में खो जाते....तभी कहीं दूर क्षितिज में बादलों को चीरता हुआ चमकता चाँद दिखाई पड़ता है...उसकी शीतल चांदनी से शालिनी का आहत मन कुछ शांत होता है...और इस विचार के साथ कमरे में आ जाती है की कल मैं जाउंगी अब जो भी हो देखा जायेगा.....
....कुछ सोच-विचार कर शालिनी--मधुरिमा।को फोन करती है और सुबह साथ चलने के लिये तैयार कर लेती है.....
क्रमसः.......जारी है