ये किताब उन कविताओं का संग्रह है...जो मैंने जीवन के संघर्षों में महसूस किया है...इनमे कुछ छोटी कुछ बड़ी कविताएँ है जो निःसंकोच आपको प्रभावित करेंगी..
0.0(0)
2 फ़ॉलोअर्स
6 किताबें
निर्धनता *********** निर्धनता तो, खेत में बैठे उस काम-चोर - बैल के तरह होती है, जिसे किसान के अनाचार, अत्याचार.... पर भी लज्जा नही आती... या फिर, अति भोजन प्रेमी उस ब्रह्मण- जैसा... जिसे यजमान गृहणी
थी उजाली रात, जब हम-तुम मिले थे, फूल जीवन में, हजारों ही खिले थे, जागते थे हम, जगत सोया हुआ था, हर कोई सपनो में, अपने खोया हुआ था, वायु पत्तों को, सहला रही थी, कान में कुछ कहके, हुलसा रही थी, झींगुर
करियारी-कारी-काजर सी, इन नैनन में तुम्हे भर लूंगा, इकबार अगर जो आ जाओ , तो प्यार तुम्हे मैं कर लूंगा... तुम चंचल-चपल-चकोरी सी, तू वरसाने की गोरी सी, तुम अमृत भरी कटोरी हो, तुम गुड़ की मीठी ढेरी हो,
धर्म का क्या मूल चिंतन?? ********************* पड़ रही दिन-रात प्रतिक्षण, हवन-कुण्ड में समिधायें है खड़ा मस्जिद नमाजी, सिर को सजदे में झुकाये हो रही गिरजा सुशोभित, प्रार्थना के जोर से गूंजता पावन गुरु
विसंगति ************ नही देखा नियति को- होते लज्जाशील या, फिर विलाप करते, अपने विषंगति कृत्य पर-- किन्तु देखा है--- कठोर पर्वतों के पांव में, उगते छालों को-- हाँ देखा है-- घने वृक्ष के जड़ों को, धूप
कोई स्वपन संजोने लगता है,, ----------------------------------^^^ कूँ -कूँ करती कोयल की, जब गीत सुहानी लगती है,,, मीठी-मीठी स्वर कोई, जब जानी-पहचानी लगती है, जब प्रेम कापोलें भरतें है, जब मन मे कलरव हो
मन मेरा एकाकी था, हाँ मन मेरा एकाकी था, हाँ कुछ ना इसमे बाकी था..... फिर एक दिन तुम आ मिली, सुर -तरंगित हो गये, गीत यौवन के शरण में, अधरों पे इंगित हो गये... तुम्हे देखकर ऐसा लगा, नवदिप्ति-सुभ्रा सी
सुनो, कल तुम भी आना, मैं भी आऊंगा, उसी पेड़ के नीचे, हरी घास पर, बैठेंगे कुछ बाते करेंगे, सोचेंगे कल के बारे में, जब तुम और मैं मिलकर, हम हो जाएंगे, पर हाँ....... तुम जो डरती हो, समाजिक ताने-बाने से,
हाँ शायद तुमने, सीख लिया होगा शायद तुमने, अबतक मन मार कर जीना... हाँ शायद..... हाँ शायद, तुम देखती होंगी जब, कभी दर्पण में प्रतिविम्ब मेरा बन्द कर लेती होगी नेत्र- भय से...... शायद, जो अबतक पसरा ह
तुम मत बोलो 'सॉरी जी' ******************** हर बार तड़पता रहता हूँ, पथहीन भटकता रहता हूँ, मेरा, स्वप्न धूमिल हो जाता है, मेरा,मौन शिथिल हो जाता है, मैं और विकल हो जाता हूँ, खुद ही विह्वल हो जाता हूँ,
मैं क्या प्रमाण दूँ तुम्हे- अपने प्रेम का हाँ दे देता, अगर होता प्रचलन में- कोई अधोलिखित पत्रावली हाँ अगर सत्यापित ही करना है- तो बन्द कर लो अपने नेत्र, और आभाष करो अपने अधरों पर, मेरे अधरों की गर्माह
नेह में कोई समाये.. -------------------------- हाय ये कैसी विसंगति, कैसी निष्ठुर नियति हाय... नेह में कोई समाये... देंह कोई और पाये... जब वस्त्रों से श्रृंगारों से-- साजन में खोई होंगी.. तब कितनी
स्त्री,,,😢😢 ************ मैंने आदिकाल से , संघर्षों को देखा है, सहा है, मेरे ही आंखों से पानी, आँचल से दुध बहा है, पुरातन में जब, तुम बिना वस्त्र , उदर-छुधा मिटाने को, भटकते थे कंदराओं में, और फिर
फिर तो जीना बेमानी है....................................कतरा-कतरा, नदिया,दरिया-सब आंखों का पानी है...तुमको देखूँ और आह! न निकले-फिर तो जीना बे-मानी है..जब कोरे पर कोई रंग चढ़ जाये-फिर दूजा रंग न चढ़ता
'स्त्री'''''__कई बार,बार-बार।।आलम्ब से गिरी हूँ मैं,,..कभी तत्काल,कभी कुछ क्षण ठहरी हूँ मैं,,,,😢आह री विडम्बना !!!अपनी नारित्व पर ,अभिमान करूँ,या भोग्या का ,अपमान सहूं।।जब कोई? ????पिता तुल्य पुरुष न
परिणाम क्या है****************कर लिया जो प्रेम तुमसे,अब मगर मैं सोचता हूँइस अनोखे प्रेम का-- फिर कहो परिणाम क्या हैतुम अधूरी हो कहींहम अधूरे हैं कहींइस अधूरी सी कहानी --का कहो अंजाम क्या है.....ज
और , तुम्हे खो दिया-------------------------------------भाग्य के लेखे को, पल में धो दिया।एक भूल की, और तुझे खो दिया।।तुमने,,,,,....कई बार मेरेह्रदय से लग के,माँगा था एक वादा।की थी पहल तुमने,