shabd-logo

बॉलीवुड मूवीज और मनोवैज्ञानिक समस्याएं

31 अगस्त 2016

380 बार देखा गया 380
featured image

article-image

बॉलीवुड विश्व की सब बड़ी फिल्म इंडस्ट्री है, और ये एक ऐसा स्तर हैं, जो हमारे समाज और उनके लोगों को काफी हद तक प्रभावित कर सकता है।
हर शनि और रविवार को मल्टीप्लेक्स की टिकट विक्रय इसका प्रमाण है।
हमारी युवा पीढ़ी बॉलीवुड के सितारों से प्रभावित है, यहाँ तक की बुज़ुर्ग और बच्चे भी। बड़ी संख्या में दर्शकों तक पहुँचने का जरिया है ये बॉलीवुड ।
उनपर गंभीर जिम्मेदारी बनती है कि वह फिल्मों में क्या दिखा रहें है, इससे समाज में अच्छे और बुरे दोनों प्रभाव पड़ते हैं ।
खुश किस्मती, से आजकल, फिल्मों में काफी परिवर्तन आ रहा है। घर घर की कहानी से हट कर निर्माता समाज के गंभीर मुद्दों पर फिल्म बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे हम रीयलिस्टिक सिनेमा कहते हैं। और इन्हीं में एक मुद्दा है, मानसिक प्रतिबंध।
समाज में, मानसिक रोगियों को लेकर जो कलंक या हीन भावना है, उसके विरुद्ध लड़ने में बॉलीवुड हमारी मदद करता है।
बर्फी, तारे ज़मीन पर, ब्लैक, गुज़ारिश, और मार्गरिटा विथ अ स्ट्रॉ जैसी फिल्मों में मानसिक रोग को एक ख़ुशी, एक क्षमता की तरह दिखाया गया है।
बर्फी में एक गूंगे और बहरे इंसान को हम खुशहाली से ज़िन्दगी बिताते देखते हैं, हँसते मुस्कुराते देखते हैं, तो हमें लगता ही नहीं की ये कोई दुर्बलता हो सकती है। दूसरी तरफ उसी फिल्म में झिलमिल जो की एक ऑटिस्टिक लड़की हैं, प्यार और रिश्तों की परिभाषा बताती है। और जब ये चरित्र हमारे पसंदीदा कलाकार रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा निभा रहे हैं, तो हमें ये मानसिक बीमारी कलंकित नहीं लगता। उनका मज़ाक बनाने के बजाए, उनसे जुड़ जाते हैं, और हमदर्दी से हम फिल्म को और अभिनेताओं को सराहते हैं।
पर अच्छी बात यह है, की मानसिक रोग के प्रति हमारा नजरिया बदलता है।


article-image

गुज़ारिश में ह्रितिक रोशन एक अद्भुत जादूगर की भूमिका में नज़र आते हैं, जिनको व्हील चेयर ने जकड़ लिया है, और इसलिए वे खुद ज़िन्दगी को अलविदा कहना चाहते हैं, पर ख़ास है, उनका रवैया। ज़िन्दगी के आखिरी दिन तक, वह सम्राट की तरह जीतें हैं, और ज़िन्दगी का मज़ा उठाना किसे कहते है, हमें बताते हैं।
मानसिक या शारीरिक रूप से दुर्बल व्यक्ति हम और आप की तरह आम इंसान हैं, वह भी सांस लेते हैं, जीना चाहते हैं, उनके जज़्बात अलग नहीं है, ये हमें बॉलीवुड की फिल्में खुले स्वभाव से बताती हैं।


article-image

"तारे ज़मीन पर" एक ऐसी फिल्म है, जिसमें Dyslexia जैसी बीमारी पर चर्चा की गई है, और ये शिक्षक और माता-पिता को एक सीख देती है, की बच्चों को समझकर उनकी सहायता करनी चाहिए। अव्वल आने की दौड़ में धकेलना गलत है, और जब आमिर खान जैसे सितारे हमें सीख देते हैं, तो हमें अवश्य सही लगता है। :)
ये कहना गलत नहीं होगा, की फिल्मों की सफलता, हमारी हमदर्दी से जुड़ी होती हैं, पर अगर इस हमदर्दी से हम कुछ नया सीखते हैं, और समाज में सुधार आता है, तो यह बिलकुल गलत नहीं है।
लगान जैसी कुछ फिल्मों में विकलांगता को हथियार बनाया गया है, जहां फिल्म का एक पात्र कचरा, पोलियो की वजह से लूला है, अपंग है, पर उसकी यही क्षमता, उसे अच्छा स्पिन बॉलर बनाती है, और मैच में जीत हासिल होती है।


article-image

यू मी और हम, Alzeimer’s Disease से जुडी समस्याओं को दर्शाता है, लेकिन एक रोगी को आपकी सहायता की ज़रूरत है, धैर्य की ज़रूरत है, ये भी हम वहीँ से समझ पाते हैं।
बॉलीवुड की सफलता आज सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, कुवैत, और अमरीका जैसे देशों में भी फैला हुआ है। इस लिए, हर प्रकार के समाज में एक जागरूकता लाना, एक नई सोच को शुरू करना फिल्मों का नैतिक कर्त्तव्य है।
इस प्रचेष्टा में बॉलीवुड आज तक सफल रही है, और हम आशा करते हैं, आने वाले दिनों में भी, बॉलीवुड ऐसे मुद्दों पर समाज में जागरूकता फ़ैलाने का काम करेगा।

प्रियंका शर्मा

प्रियंका शर्मा

ये बात तो है की अब बॉलीवुड बहुत प्रैक्टिकल ही चूका है , फिल्म queen इसका सबूत है

1 सितम्बर 2016

1

सामाजिक गपशप से व्यवसाय वृद्धि कैसे करेंगे?

30 अप्रैल 2016
0
4
0

Word Of Mouth या सामाजिक गपशप व्यवसाय में कोई नई बात नहीं है, लेकिन ये सामाजिक गपशप का मतलब है सिर्फ अपने परिचित लोगों में अनौपचारिक रूप से किसी विषय पर चर्चा करना। जिसे हम गपशप कहते हैं, ये गपशप बड़े ही काम की चीज़ है, इसके माध्यम से हम अकसर काफी ज़रूरी जानकारी  बांटते हैं।मानसिक तौर पर, हम अगर किसी च

2

भावनाओं को समझने की कला

19 अगस्त 2016
0
1
0

दूसरों को समझने के लिए उनके जज़्बातों को नाम देना ज़रूरी है।"मैं तंग आ चुकी हूँ... अब और नहीं, मैंने सोच लिए है, की मैं उससे जल्द ही ब्रेक अप कर लूंगी", ऐसी बातें हमको रोज़ सुनने को मिलती हैं। हमारे दोस्त हमसे अपने दिल की बात करते हैं। ऐसी स्थिति में, हम कैसा जवाब देते हैं? ज़्यादा तर समय हम कहते हैं "त

3

उदास धुनों को सुनना हमें क्यों अच्छा लगता है?

21 अगस्त 2016
0
1
0

क्या आपने कभी महसूस किया है कि उदास धुनों या संगीत को सुनना आपको अच्छा क्यों लगता है?अरे भई, आप अकेले नहीं हैं! अधिकतर लोग हैं, जिन्हे उदास धुनों को सुनना अच्छा लगता है। लेकिन इन धुनों को सुनकर वे दुखी नही होते इतना तो पक्का है।ऐसा क्यों होता है?जब आप दुखी या उदास होते हैं, तो आपको भूख नही लगती और

4

क्या सेक्स के प्रति लोगों का जोश घट रहा है ?

22 अगस्त 2016
1
0
0

हैरानी की बात है, ऐसे युग में, जहां सेक्स के बारे में हर जगह से हमें पूरी जानकारी मिल रही है, ताकि इस विषय पर कोई भी अज्ञात ना रहे, हमारे रोज़ के जीवन में इस स्वाभाविक प्राकृतिक हरकत का घटाव नज़र आ रहा है।सांख्यिकीय रूप से जांच करने पर पता चलता है, की 16-44 वर्षीय लोगों में, महिलाएं महीने में ४.५ बा

5

हम काल्पनिक कहानियां क्यों पढ़ते हैं?

23 अगस्त 2016
1
0
0

हम अपनी सोच और भावनाओं को पंख देने के लिए काल्पनिक कथा और कहानियां पढ़ते हैं। कल्पना की दुनिया अनोखी होती है; उसका वास्तविक घटना और लोगों से मेल होता भी है, और कभी कभी नहीं भी होता। पर काल्पनिक चरित्र और लोग हमें अकसर प्रभावित करते हैं।हम उनके साथ जुड़ते हैं, उनसे मेलजोल करते हैं, और देखते ही देखते

6

इमोशनल ब्लैकमेलिंग से कैसे निपटें?

26 अगस्त 2016
0
5
0

जानू ! क्या तुम नही चाहते, मैं पार्टी में सबसे अलग दिखूं ! मेरी सारी ड्रेसेस ओल्ड फैशन की हो गयीं हैं, तो प्लीज़! मेरे लिए नई ड्रेस ला दो। शीतल ने राहुल से प्यार भरे अंदाज़ में कहा। ऐसा अक्सर होता था, जब भी शीतल को अपनी कोई बात मनवानी होती, तो वह किसी न किसी तरह से अपनी बात मनवा कर ही रहती, राहुल ज

7

सेल्फ़ी क्या है? और युवा इसके पीछे पागल क्यों हैं?

28 अगस्त 2016
1
3
0

आइये मिलते है नेहा से एक २० वर्षीय युवती है जिसे सेल्फ़ी लेने की आदत सी है वह जहां जाती है वहाँ अपनी 4-5 सेल्फ़ी लेती है, और फिर उन्हें अपने दोस्तों और रिश्तेदारो के बीच दिखाती (शेयर करती) है। दोस्तों नेहा सिर्फ एक उदहारण है कि आज के युवाओं में सेल्फ़ी का कितना क्रेज है,हर सेकंड अकेले फेसबुक पर दस

8

बॉलीवुड मूवीज और मनोवैज्ञानिक समस्याएं

31 अगस्त 2016
0
5
1

बॉलीवुड विश्व की सब बड़ी फिल्म इंडस्ट्री है, और ये एक ऐसा स्तर हैं, जो हमारे समाज और उनके लोगों को काफी हद तक प्रभावित कर सकता है। हर शनि और रविवार को मल्टीप्लेक्स की टिकट विक्रय इसका प्रमाण है। हमारी युवा पीढ़ी बॉलीवुड के सितारों से प्रभावित है, यहाँ तक की बुज़ुर्ग और बच्चे भी। बड़ी संख्या में दर्शकों

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए