कविता
मित्रों !सादर प्रणाम |सपनों में आकर करते हैं पिता सदा संवाद ।अपनों में अपनापन ढूँढ़ो छोड़ो वाद विवाद ||इस मिट्टी में पले बढ़े सब हाड़-मांस के पुतले |जाति-धर्म के पैमाने पर क्यों कैसा परिवाद ||राजनीति की चौड़ी गलियों के हैं सँकरे सोच |सड़ी व्यवस्था देख रहा हूँ जिससे रिसे मवाद ||जीवन ऐसे जियो सँभाले रखना तु