यह पुस्तक मनुष्य के अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सम्बन्धी इसी नैसर्गिक अधिकार के संघर्ष से सीधे जाकर जुड़ती है, जो विवेच्य काल में भारत में, आवश्यक रूप से स्वतन्त्रता आन्दोलन से सम्पृक्त रहा था। वस्तुतः औपनिवेशिक भारत में प्रेस और मुद्रित साहित्य द्वारा लड़ी जाने वाली लड़ाई इकहरी न होकर दुहरी थी। एक तरफ वह, स्वयं अपनी स्वतन्त्रता के अधिकार के लिए संघर्षरत तो था ही, साथ ही वह भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के ऊर्जित विचारों को आम जनमानस तक पहुँचा रहा था। उसकी इस दोहरी भूमिका के कारण औपनिवेशिक प्रशासन की ओर से उसे दोहरे प्रतिबन्ध सहने पड़े किन्तु भारत के आम जनमानस को स्वतन्त्रता के विचार से जोड़ने वाली उसकी इस भूमिका ने उसे जीवित भी रखा। यह पुस्तक भारतीय प्रेस