डायरी दिनांक १०/०९/२०२२
शाम के छह बजकर तीस मिनट हो रहे हैं ।
आज से पित्र पक्ष का आरंभ हो चुका है।पित्र पक्ष में पितरों के निमित्त किया तर्पण, श्राद्ध, दान आदि से पितर संतुष्ट होते हैं, ऐसी हिंदू मान्यता है। वैसे श्राद्ध पक्ष का उल्लेख विभिन्न ग्रंथों में मिलता है, फिर भी उनमे श्री गरुण पुराण मुख्य है। श्री गरुण पुराण में श्राद्ध पक्ष, पितरों की संतुष्टि, पितरों को मिलने बाले दान का स्वरूप आदि के विषय में विस्तार से उल्लेख है।
श्राद्ध का अर्थ श्रद्धा से है। यदि मन में श्रद्धा ही नहीं तो फिर दिखाबे के लिये किया श्राद्ध निष्फल हो जाता है। श्राद्ध करने के विभिन्न तरीकों का भी उल्लेख है। गायों को चारा देना, चीटियों को चुगाना, नदियों और तालाबों में मछलियों और कछुओं को आटे की गोलियां खिलाना, किसी जरूरतमंद ब्राह्मण को भोजन कराकर दान देना, ये सभी श्राद्ध करने के विभिन्न तरीके हैं।
उल्लेख है कि वनवास काल में भगवान श्री राम ने किसी भी प्रकार के अन्न की व्यवस्था न होने पर बालू से बनाकर पिंड का दान किया था। उनके पितर उसी पिंड से संतुष्ट हो गये थे।
महाकवि भास संस्कृत साहित्य के एक प्रमुख नाटककार हैं। प्रत्येक रचनाकार जब किसी पहले से प्रचलित कथा पर अथवा किसी पौराणिक पृष्ठभूमि पर कोई साहित्य लिखता है, तो उस साहित्य को पूरी तरह अपने हिसाब से लिखता है। महाकवि भास ने अपने नाटक प्रतिमानाटकम में सीता हरण का चित्रण करते समय श्राद्ध पक्ष की कल्पना की है। जबकि रावण एक प्रकांड पंडित के रूप में भगवान श्री राम के पास श्राद्ध कराने आता है। तथा उसी समय उपस्थित स्वर्ण मृग को श्राद्ध के लिये प्रयुक्त दुर्लभ भेंट बताता है।
हिंदू संस्कृति हमेशा से उदार संस्कृति रही है। हमने हमेशा पशु और पक्षियों के साथ साथ कीट पतंगों को भी पर्याप्त सम्मान दिया है। हमारी संस्कृति में घर का बचा भोजन कुत्तों तथा दूसरे पशुओं को दिया जाता है। आजकल तो पत्तल की दावत होती नहीं है। पर मुझे ध्यान है कि पत्तल की दावतों में हमेशा भोजन का आखरी कौर पत्तल में ही छोड़ा जाता था। बहुत से बुजुर्ग तो हमेशा ही भोजन का आखरी कौर बचाते थे। पर आजकल लोग इतने अधिक सहनशील नहीं हैं। उससे भी अधिक कुछ न्यायाधीशों के अजीबोगरीब फैसले भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात सा कर रहे हैं। अभी सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश महोदय ने अपने एक फैसले में गली के किसी कुत्ते द्वारा किसी भी व्यक्ति को काट लेने पर उसकी जिम्मेदारी उन व्यक्तियों पर डाली है जो कि उसे अपने घर का बचा हुआ खाना देते हैं।
आजकल हर बात के लिये बुजुर्गों को दोषी ठहराने का चलन बढता जा रहा है। ऐसे ऐसे ब्लाग का मैसेज फेसबुक पर आता है कि उन्हें पढ पाना भी संभव नहीं होता। लेखक के ऊटपटांग लेख पर सैकड़ों की संख्या में उत्साह वर्धक समीक्षा दिखाई देती हैं। सचमुच आज न तो उत्कृष्ट साहित्य लिखा जा रहा है और न ही उत्कृष्ट साहित्य के कद्रदान मौजूद हैं। यह सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य का मन सत्व, रज और तम तीनों का संगम होता है। पर मन के अंतर्द्वंद्व को स्पष्ट करती महान लेखकों की शैली अब नदारद सी होती जा रही है।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।