डायरी दिनांक ०६/०९/२०२२
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कभी मनुष्य का जीवन भी पशुओं के ही समान था। वह भी दूसरे पशुओं की भांति वनों में रहता था। वन्य फलों और कंदमूल फलों का सेवन करता था। दूसरे पशुओं का शिकार भी करता था। धीरे-धीरे बुद्धि बल से मानव ने बहुत अधिक उन्नति की। पूरी पृथ्वी पर मनुष्य का शासन चलने लगा। सामाजिकता निभाने में भी मनुष्य बहुत आगे बढा। सामाजिकता के रूप में वह केवल मनुष्यों के साथ व्यवहार स्थापित करने से ही नहीं रुका अपितु पशुओं के साथ भी उसने सामाजिकता का रिश्ता बनाया। यह अलग बात है कि मनुष्य का पशुओं के साथ संबंध बहुत हद तक स्वार्थ से प्रभावित रहा था। फिर भी उस स्वार्थ के कारण बने रिश्तों में भी कुछ अपनत्व था। घर की पालतू गाय, कुत्ते, गधे, घोड़ों के अतिरिक्त बिल्ली, तोता, गिलहरी आदि जीवों के प्रति उसके मन में स्नेह उत्पन्न हुआ। इसके ठीक विपरीत उपरोक्त विभिन्न पालतू पशु भी अपने स्वामी से स्नेह करने लगे। हालांकि पशुओं का स्नेह भी पूरी तरह निस्वार्थ रहा, इस बात को स्वीकार करना भी संभव नहीं है।
किसी पर भी भरोसा करना बहुत कठिन कार्य है। इसी के साथ साथ यह भी सत्य है कि मनुष्य को हर पल किसी न किसी पर भरोसा करना होता है। फिर भी किसी पर भी आंख बंद कर भरोसा करना कभी भी उचित नहीं माना गया है।
आजकल विभागीय व्यस्तता बहुत बढती जा रही हैं। प्रयासों के उपरांत भी बहुत अधिक सफलता नहीं मिल रही है। परिस्थितियां कुछ कठिन हो रही हैं। इन कठिन परिस्थितियों में कुछ नवीन चिंतन का जन्म नहीं हो रहा है।
वैशालिनी पर कुछ अच्छी समीक्षाएं मिली हैं। हालांकि एक बड़े उपन्यास के अंतिम भाग तक बहुत कम पाठक पहुंचे हैं। किसी भी रचना की श्रेष्ठता का एक मापदंड आरंभ और अंत की श्रेष्ठता भी माना जाता है। तथा प्राप्त समीक्षाओं के आधार पर उपन्यास के आरंभ और अंत को श्रेष्ठ माना जा सकता है।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।