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दास्ताँ

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ध्यान से सुनिए ,एक और किस्सा सुनाने वाले हैं हम,इसमें भटक रहा था इक राही,कुछ ढूंढता था हरदम.प्यार की पूजा करता था, प्यार में ही गया था वो रम ,अपनों की ख़ुशी में खुश रहता छुपा कर अपने गम.हाँ एक बात और ढूंढने वाले को किस बात का गम,बेफिक्

दास्ताँ सुनाते सुनाते खुद दास्ताँ बन गए मुमताज़ तो न मिली पर हम शाहज़हां बन गए किसी पत्थर की मूरत को कुछ यूँ सज़दे किये जैसे कि वो मेरे खुदा बन गए लफ्ज़ो की ज़रुरत ही न हुई इज़हार ए इश्क़ को नैन कुछ यूँ मिले कि ज़ुबा बन गए

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