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दशहरा (विजयादशमी)

5 अक्टूबर 2022

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मुझे बचपन से ही रामलीला देखने का बड़ा शौक रहा है। आज भी आस-पास जहाँ भी रामलीला का मंचन होता है तो उसे देखने जरूर पहुंचती हूँ। बचपन में तो केवल एक स्वस्थ मनोरंजन के अलावा मन में बहुत कुछ समझ में आता न था, लेकिन आज रामलीला देखते हुए कई पात्रों पर मन विचार मग्न होने लगता है। रामलीला देखकर यह बात सुस्पष्ट है कि इस मृत्युलोक में जिस भी प्राणी ने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है, चाहे वह भगवान ही क्यों न हो। एक निश्चित आयु उपरांत सबको इस लोक से गमन करना ही पड़ता है। रावण भी मृत्युलोक का वासी था, इसलिए उसने भी ब्रह्मा जी की तपस्या करके अभय रहने का वरदान तो मांगा ही साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से अपनी मुक्ति का कारण भी बता दिया। वह ब्रह्मा जी से वरदान मांगते समय कहता है कि-

"हम काहू कर मरहिं न मारे, वानर जात मनुज दोउ वारे

देव, दनुज, किन्नर अरु नागा, सबको हम जीतहिं भय त्यागा"

यहां विचारणीय है कि रावण ने देव, दानव, किन्नर और नाग को निर्भय होकर जीतने का वरदान मांगा। किन्तु वानर और मनुष्य को कमजोर समझकर उसने छोड़ दिया, इसीलिए भगवान विष्णु मनुष्य रूप में अवतरित हुए। रावण में भले ही बहुत बुराईयां थी, लेकिन उसमें गुण भी कम न थे। वह महापराक्रमी योद्धा, शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता और प्रकाण्ड विद्वान पंडित एवं महाज्ञानी होने के साथ ही भविष्यदृष्टा भी था तभी तो जब उसे शूर्पणखा ने बताया कि उसकी नाक कटने का बदला लेने पहुंचे खर-दूषण को राम ने मार डाला है तो वह गंभीर चिंतन में डूब गया-

"होता प्रतीत महाबली वह, खर दूषण को जिसने मारा।

सामर्थ्य कहां ऐसे नर की, नारायण ने अवतार धारा।।

गर प्रेम नहीं तो बैर सही, ओ लग्न मजा दिखलाती है।

नारायण में मन लगने से, मुक्ति निश्चय हो जाती है।।"

वह सोचता है कि खर और दूषण तो उसके समान ही बलशाली थे, जिन्हें भगवान के अतिरिक्त कोई नहीं मार सकता था, वे राम द्वारा मारे गए, तो क्या विष्णु भगवान का अवतार हो गया, चिन्ता नहीं, यदि राम एक साधारण मनुष्य हैं तो वह अवश्य मारा जाएगा और यदि विष्णु भगवान का अवतार हैं तो उनके हाथों से मुक्ति प्राप्त होगी-

"रख बैर भाव जब हिरण्यकश्यप ने, भव से पाया छुटकारा था।

नृसिंह रूप से जब उसको, नारायण ने संहारा था।।

यह निश्चय होता है मन को, मुक्ति अब मुझसे दूर नहीं।

भव सागर में गोता खाना, हित बाधक है मंजूर नहीं।।"

जब रावण को पूर्ण विश्वास हो चला कि विष्णु भगवान का अवतार हो गया है, तो इसके लिए उसने सीता का हरण करके राम से बैर बढ़ाने और अंत में स्वर्ग प्राप्त करने का संकल्प कर लिया। इसके लिए वह मारीच, जो कपट विद्या का धनी था, उसके पास जाकर कहता है-

"सुन मारीच निशाचर भाई, चल मोरे संग जहां रघुराई।

होहू कपट मृग तुम छलकारी, मैं हर लाऊं उनकी नारी।"

चूंकि मारीच का ताड़का वध के बाद जब राम से युद्ध हुआ तो वह राम के पराक्रम के आगे एक पल भी टिक नहीं पाया और उसे युद्धस्थल से भागना पड़ा, वह तभी समझ गया कि राम साधारण मानव नहीं, अवतारी पुरुष हैं, इसलिए वह रावण से कहता है-

"सुनहुं दशानन बात हमारी, जिनको कहे तुम नर और नारी।

वे जगदीश चराचर स्वामी, राम रमण पितु अन्तरयामी।।"

इसके आगे वह राम से युद्ध करते समय उसके पराक्रम के बारे में बताता है कि-

"वह विश्वमित्र के यज्ञ वाला, दिग्दर्शन सारा मन में है

जिसने सौ योजन पर डाला, वह तीर करारा मन में है।"

मारीच कपट मृग न बनने के लिए रावण से कई बहाने बनाता रहा और बहुत प्रकार से व्यर्थ ही समझाने का प्रयास करता रहा, लेकिन रावण ने जब म्यान से तलवार निकालकर अत्यन्त क्रोधित होकर यमपुरी पहुंचाने का फरमान सुनाया तो वह माया मृग बनने को तैयार हो गया-

"यदि तू नहीं साथ देगा मेरा, तो सारा ज्ञान भुला दूंगा।

सीता को हरने से पहले, यमपुरी तुझको पहुंचा दूंगा।"

क्योंकि रावण ने तो अपनी मुक्ति का मार्ग निश्चित कर लिया था, इसलिए उस पर मारीच की बातों का कोई असर नहीं हुआ। मारीच को भी जब लगा कि रावण मानने वालों में नहीं है तो उसे भी उसकी मुक्ति अपनी मुक्ति स्पष्ट दिखाई देने लगी और वह मायामृग बनने को तैयार हो गया।

दशहरा आते ही जगह-जगह सड़क किनारे छोटेे-बड़े रावण, कुम्भकरण और मेघनाथ के रंग-बिरंगे पुतलों की भरमार लग जाती है। काम, क्रोध, हिंसा, लोभ, मोह और द्वेष के प्रतीक स्वरूप बने इन पुतलों का सार्वजनिक स्थानों पर दहन का प्रचलन आदिकाल से चला आ रहा है। दशहरा को हम सांस्कृतिक पर्व के रूप में धूमधाम से मनाते हैं, लेकिन बिडम्बना देखिए हर वर्ष इन पुतलों के बढ़े हुए कद के साथ ही इनमें विद्यमान बुराईयों का स्वरूप भी उतना ही बढ़ा हुआ दिखाई देने के बावजूद भी हम चुपचाप तमाशबीन बने रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। आज भले ही हमें लगता है कि रावण ने स्त्री हरण जैसा निकृष्ट कार्य किया है, लेकिन यहांँ गंभीर विचार योग्य बात है कि सीता लंका में रावण ही नहीं बल्कि दूसरे असुरों के बीच रहकर भी सुरक्षित रही, जो क्या वर्तमान सभ्य कहलाने वाले समाज में रहकर संभव हो पाता? आज भले ही दशहरा पर्व पर काम, क्रोध, हिंसा, लोभ, मोह और द्वेष के प्रतीक स्वरूप बनाये रावण, कुम्भकरण और मेघनाथ के बड़े-बड़े पुतलों का दहन करने में हम सभी लोग बहुत आगे हैं, लेकिन आज समाज में छिपे रावण, कुम्भकरण और मेघनाथ रूपी पुतलों का दहन करने में बहुत पीछे हैं।

विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाओं सहित  ...कविता रावत

Zanky

Zanky

Lajawab

5 अक्टूबर 2022

Dharmendra Kumar manjhi

Dharmendra Kumar manjhi

बहुत सार्थक लेख और आज के हालातों को देखकर सटीक सवाल कि क्यों हम "आज भले ही दशहरा पर्व पर काम, क्रोध, हिंसा, लोभ, मोह और द्वेष के प्रतीक स्वरूप बनाये रावण, कुम्भकरण और मेघनाथ के बड़े-बड़े पुतलों का दहन करने में हम सभी लोग बहुत आगे हैं, लेकिन आज समाज में छिपे रावण, कुम्भकरण और मेघनाथ रूपी पुतलों का दहन करने में बहुत पीछे हैं।"

5 अक्टूबर 2022

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रचनाएँ
लोक जीवन में तीज-त्यौहार
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हमारी भारतीय संस्कृति में विभिन्न धर्म,  जाति,  रीति,  पद्धति,  बोली, पहनावा, रहन-सहन वाले लोगों के अपने-अपने उत्सव, पर्व, त्यौहार हैं,  जिन्हें वर्ष भर धूमधाम से मिलजुलकर मनाये जाने की सुदीर्घ परम्परा है। ये उत्सव, त्यौहार, पर्वादि हमारी भारतीय संस्कृति की अनेकता में एकता की अनूठी पहचान कराते हैं। रथ यात्राएं हो या ताजिए या फिर किसी महापुरुष की जयन्ती, मन्दिर-दर्शन हो या कुंभ-अर्द्धकुम्भ या स्थानीय मेला या फिर कोई तीज-त्यौहार जैसे- रक्षाबंधन, होली, दीवाली, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, शिवरात्रि, क्रिसमस या फिर ईद जनमानस अपनी जिन्दगी की भागदौड़, दुःख-दर्द, भूख-प्यास सबकुछ भूलकर मिलजुल के उल्लास, उमंग-तरंग में डूबकर तरोताजा हो उठता है। इन सभी पर्व, उत्सव, तीज-त्यौहार, या फिर मेले आदि को जब जनसाधारण जाति-धर्म, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर मिलजुलकर बड़े धूमधाम से मनाता है तो उनके लिए हर दिन उत्सव का दिन बन जाता है। इन्हीं पर्वोत्सवों की सुदीर्घ परम्परा को देख हमारी भारतीय संस्कृति पर "आठ वार और नौ त्यौहार" वाली उक्ति चरितार्थ होती है। आइए इन्हीं लोक जीवन के तीज त्यौहारों के रंग में रंगने के लिए आप भी धीरे-धीरे मेरे साथ-साथ चलते हुए थके हारे मन को तरोताजा कीजिए।
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मकर संक्रांति

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हमारे भारतवर्ष में मकर संक्रांति, पोंगल, माघी उत्तरायण आदि नामों से भी जाना जाता है। वस्तुतः यह त्यौहार सूर्यदेव की आराधना का ही एक भाग है। यूनान व रोम जैसी अन्य प्राचीन सभ्यताओं में भी सूर्य और उ

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प्रकृति के आनन्द का अतिरेक है वसंत

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          व्रत ग्रंथों और पुराणों में असंख्य उत्सवों का उल्लेख मिलता है। ‘उत्सव’ का अभिप्राय है आनन्द का अतिरेक। ’उत्सव’ शब्द का प्रयोग साधारणतः त्यौहार के लिए किया जाता है। उत्सव में आनन्द का सामू

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होली कथा में ढूंढा राक्षसी

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होली पर्व से सम्बन्धित अनेक कहानियों में से हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद की कहानी बहुत प्रसिद्ध है। इसके अलावा ढूंढा नामक राक्षसी की कहानी का वर्णन भी मिलता है, जो बड़ी रोचक है।  कहते हैं कि सतयुग में

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क्यों सर्वोपरि माना जाता है गया में श्राद्ध व पिंडदान करना?

16 सितम्बर 2022
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इन दिनों आश्विन कृष्णपक्ष प्रतिपदा से दुर्गा पूजा की पहली पूजा तक समाप्त होने वाले पितृपक्ष यानि पितरों (पूर्वजों) का पखवारा चल रहा है। मरने के बाद हम हमारे पूर्वजों के प्रति श्रद्धा स्वरूप श्राद्

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नवरात्रि महोत्सव

27 सितम्बर 2022
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जब प्रकृति हरी-भरी चुनरी ओढ़े द्वार खड़ी हो, वृक्षों, लताओं, वल्लरियों, पुष्पों एवं मंजरियों की आभा दीप्त हो रही हो, शीतल मंद सुगन्धित बयार बह रही हो, गली-मोहल्ले और चौराहे  माँ की जय-जयकारों के

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दशहरा (विजयादशमी)

5 अक्टूबर 2022
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पंच दिवसीय दीपोत्सव

23 अक्टूबर 2022
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कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को पंच दिवसीय दीपोत्सव का आरम्भ भगवान धन्वन्तरी की पूजा-अर्चना के साथ शुरू होकर भाई दूज तक मनाया जाता है, जो सुख, समृद्धि का खुशियों भरा दीपपर्व ’तमसो मा ज्योतिर

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